________________ booooooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000oot do00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 भावार्थ : हे गौतम! अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध करके क्रोध, मद, मोहादि पर विजय प्राप्त कर। दूसरों के साथ युद्ध करने से कर्मबंध के सिवाय आत्मिक लाभ कुछ भी नहीं होता है। अतः जो अपनी आत्मा द्वारा अपने ही आत्मा को जीत लेता है उसी को सुख प्राप्त होता है। मूल : पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणं, सब्वमप्पे जिए जिय।।९।। छायाः पंचेन्द्रियाणि क्रोधं मानं मायां तथैव लोभञ्च। दुर्जयं चैवात्मानं सर्वमात्मनि जिते जितम् / / 6 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दज्जयं) जीतने में कठिन ऐसे (पंचिंदियाणि) पाँचों इन्द्रियों के विषय (कोह) क्रोध (माणं) मान (माय) कपट (तहेव) वैसे ही (लोह) तृष्णा (चेव) और भी मिथ्यात्व अव्रतादि (च) और (अप्पाणं) मन ये (सव्व) सर्व (अप्पे) आत्मा को (जिए) जीतने पर ही (जिय) जीते जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो भी पांचों इन्द्रियों के विषय और क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मन ये सब के सब दुर्जयी हैं। तथापि अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेने से इन पर अनायास ही विजय प्राप्त की जा सकती है। मूल : सरीरमाहु नाव ति; जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो; जंतरंति महेसिणा||9011 छायाः शरीरमाहुनॊरिति जीव उच्यते नाविकः। यो संसारोऽर्णव उत्कः, यस्तरन्ति महर्षयः / / 10 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! यह (संसारो) संसार (अण्णवो) समुद्र के समान (वुत्तो) कहा गया है। इसमें (सरीरं) शरीर (नाव) नौका के सदृश है। (आहुत्ति) ऐसा ज्ञानीजनों ने कहा है और उसमें (जीवो) आत्मा (नाविओ) नाविक के तुल्य बैठ कर तिरने वाला है। (वुच्चइ) ऐसा कहा गया है। अतः (ज) इस संसार समुद्र को (महेसिणो) ज्ञानीजन (तरंति) तिरते हैं। _भावार्थ : हे गौतम! इस संसार रूप समुद्र के परले पार जाने के लिए यह शरीर नौका के समान है जिसमें बैठकर आत्मा नाविक रूप हो कर संसार-समुद्र को पार करता है। goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000008 * निर्ग्रन्थ प्रवचन/25 0000000000000 000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org