________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000A 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 -- अध्याय एक - षट् द्रव्य निरुपण |श्रीभगवानुवाच| मूल: नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा। अमुत्तभावा विअहोइ निच्चो|| अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो। संसारहेउं च वयंति बंध||१|| छायाः नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात्, अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः / अध्यात्महेतुर्नियतस्य बन्धः, संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम्।।१।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! यह आत्मा (अमुत्तभाव) अमूर्त होने से (इंदियग्गेज्झ) इंद्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है। (अ) और (वि) निश्चय ही (अमुत्तभावा) अमूर्त्त हाने से आत्मा (निच्चो) हमेशा (होइ) रहती है (अस्स) इसका (बंधो) बंध जो है, वह (अज्झत्थहेउं) आत्मा के आश्रित रहे हुए मिथ्यात्व कषायादि हेतु (च) और (बंध) बंधन को (निययस्स) निश्चय ही (संसारहेउ) संसार का हेतु (वयंति) कहा है। भावार्थ : हे गौतम! यह आत्मा अमूर्त अर्थात् वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श रहित होने से इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता है और अरूपी होने से कोई इसे पकड़ नहीं सकता है। जो अमूर्त अर्थात् अरूपी है, वह हमेशा अविनाशी है, सदा के लिये कायम रहने वाला है। शरीरादि से इसका जो बंधन होता है, वह प्रवाह से आत्मा में हमेशा से रहे हुए मिथ्यात्व अव्रत आदि कषायों के ही कारण है। जैसे आकाश अमूर्त है, पर घटादि के कारण से आकाश घटाकाश के रूप में दिखाई पड़ता है। ऐसे ही आत्मा को भी अनादि कालीन प्रवाह से मिथ्यात्वादि के कारण बंधन रूप शरीर में समझना चाहिए। यही बंधन संसार में परिभ्रमण करने का साधन है। मूल: अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। . अप्पाकामदुहाधेणू, अप्पामेनंदणंवणं|||| छायाः आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुघा धेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम्।।२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अप्पा) यह आत्मा ही (वेयरणी) वैतरणी नदी के समान है। (मे) मेरी (अप्पा) आत्मा (कूडसामली) कूटशाल्मली वृक्ष रूप है और यही (अप्पा) आत्मा (कामदुहा) कामधेनु गाय है और यही मेरी (अप्पा) आत्मा (नंदणं) नंदन (वणं) वन के समान है। 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/21 0000000000000ood 000000000ooooool Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org