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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ge 0000000000000 OOOOOOK OOK 00000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 भावार्थ : हे गौतम! यह आत्मा वैतरणी नदी के समान है। अर्थात इसी आत्मा को अपने कृत कार्यों से वैतरणी नदी में गोता खाने का मौका मिलता है। वैतरणी नदी का कारण-भूत यह आत्मा ही है। इसी तरह यह आत्मा नरक में रहे हुए कूटशाल्मली वृक्ष के द्वारा होने वाले दुखों का कारण भूत है, और यही आत्मा अपने शुभ कृत्यों के द्वारा कामदुग्धा गाय के समान है, अर्थात् इच्छित सुखों की प्राप्ति कराने में यही आत्मा कारण भूत है। और यही आत्मा नंदनवन के समान है अर्थात् स्वर्ग और मुक्ति के सुख-सम्पन्न कराने में आत्मा स्वयं स्वाधीन है। मूल: अप्पाकत्ताविकत्ताय, दुहाणयसुहाणया अप्पा मित्तममित्तंच, दुष्पट्ठियसुपट्ठिओ||३|| छायाः आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च। आत्मा मित्रममित्रं च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः / / 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति, (अप्पा) यह आत्मा ही (दुहाण) दुःखों का (य) और (सुहाण) सुखों का (कर्ता) उत्पन्न करने वाला (य) और (विकत्ता) नाश करने वाला है। (अप्पा) यह आत्मा ही (मित्तं) मित्र है (च) और (अमित्तं) शत्रु है और यही आत्मा (दुप्पट्ठिय) दुराचारी और (सपट्ठिओ) सदाचारी है। भावार्थ : हे गौतम! यही आत्मा दुःखों एवं सुख साधनों का कर्ता-रूप है और उन्हें नाश करने वाली भी यही आत्मा है। यही शुभ कार्य करने से मित्र के समान है और अशुभ कार्य करने से शत्रु के सदृश हो जाता है। सदाचार का सेवन करने वाला और दुष्टाचार में प्रवृत्त होने वाला भी यही आत्मा है। मूल: नतंअरीकंठछेत्ताकरेई,जंसेकरे अप्पणियादुरप्पया। सेनाहिईमच्चुमुहंतुपत्ते, पच्छाणुतावणदयाविहूणो||४| छायाः न तदरिः कण्ठछेत्ता करोति, यत्तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता। स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः, पश्चादनुतापेन दया विहीनः / / 4 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (से) वह (अप्पणिया) अपना (दुरप्पया) दुराचरणशील आत्मा ही है जो (ज) उस अनर्थ को (करे) करता है। (तं) जिसे (कंठछेत्ता) कंठ का छेदन करने वाला (अरी) शत्रु भी (न) नहीं (करेइ) करता है (तु) परन्तु (से) वह (दयाविहूणो) दयाहीन दुष्टात्मा 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooool निर्ग्रन्थ प्रवचन/22 Aloo0000000000000000 Jain Education International 00000000000000ood www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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