________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 1000oos 00000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 छायाः चित्तवन्तमचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहु। दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहमयाचित्वा।।३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अप्पं) अल्प (जइवा) अथवा (बहु) बहुत (चित्तमंत) सचेतन (वा) अथवा (अचित्त) अचेतन (दंतसोहणमेत्तंपि) दांत साफ करने का तिनका भी (अजाइया) आज्ञा बिना ग्रहण नहीं करते हैं। (उग्गहंसि) कोई भी वस्तु गृहस्थ के दिये बिना वे नहीं लेते हैं। भावार्थ : हे गौतम! चेतन वस्तु जैसे शिष्य, अचेतन वस्तु वस्त्र, पात्र वगैरह यहाँ तक कि दांत साफ करने का तिनका भी गृहस्थ के दिये बिना साधु कभी ग्रहण नहीं करते हैं और उन चीज़ों को भी गृहस्थों के दिये बिना साधु कभी नहीं लेते हैं। मूल : मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गं, निम्गंथा वज्जयंति ण||४|| छायाः मूलमेतदधर्मस्य, महादोषसमुच्छ्रयम्। तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निर्ग्रन्थाः परिवर्जयन्तितम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एयं) यह (मेहुणसंसग्गं) मैथुन विषयक संसर्ग (अहम्मस्स) अधर्म का (मूल) मूल है और (महादोससमुस्सयं) महान दूषित विचारों को अच्छी तरह से बढ़ाने वाला है। (तम्हा) इसलिए (निग्गंथा) निर्ग्रन्थ साधु मैथुन संसर्ग को (वज्जयंति) छोड़ देते हैं। (णं) वाक्यालंकार में। भावार्थ : हे गौतम! अब्रह्मचर्य ही अधर्म उत्पन्न कराने में परम कारण है और हिंसा, झूठ, चोरी, कपट आदि महान दोषों को खूब बढ़ाने वाला है। इसलिए मुनि धर्म पालने वाले महापुरुष सब प्रकार से मैथुन-संसर्ग का परित्याग कर देते हैं। मूल: लोभस्से समणुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहीकामे गिही पवइए न से||५|| छायाः लोभस्यैषं अनुस्पर्शः, मन्येऽन्यतरामपि। यः स्यात् सन्निधिं कामयेत्, गृही प्रव्रजितो न सः।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (लोभस्स) लोभ की (एस) यह (अणुप्फासो) महत्ता है कि (अन्नयरामवि) गुड, घी, शक्कर आदि में से कोई एक पदार्थ को भी (जे) जो साधु होकर (सिया) कदाचित् (सन्निहीकामे) अपने पास रात भर रखने की इच्छा कर ले तो (से) वह 00000000000000000000000 00000000000000000 Jain Education International निर्ग्रन्थ प्रवचन/100 04 For Personal & Private Use Only 00000000000000dl Jwww.lainelibrary.org