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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 मूल : आयरियं कुवियं णच्चा, पत्तिएण पसायए। विज्झवेज पंजलीउडो, वइज्ज णपुणुति य||१४|| छायाः आचार्यं कुपितं ज्ञात्वा, प्रीत्या प्रसादयत्। विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वदेन्न पुनरिति च।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (आयरियं) आचार्य को (कुवियं) कुपित (ण'च्चा) जानकर (पत्तिएण) प्रीति कारक शब्दों से फिर (पसायए) प्रसन्न करे (पंजलीउडो) हाथ जोड़कर (विज्झवेज्ज) शान्त करे (य) और (ण-पुणुत्ति) फिर ऐसा अविनय नहीं करूंगा ऐसा (वइज्ज) बोले। भावार्थ : हे गौतम! बड़े-बूढ़े गुरुजन एवं आचार्य अपने पुत्र शिष्यादि के अविनय से कुपित हो उठे तो प्रीति कारक शब्दों के द्वारा पुनः उन्हें प्रसन्नचित्त करे, हाथ जोड़-जोड़कर उनके क्रोध को शान्त करे और यों कहकर कि "इस प्रकार" का अविनय या अपराध आगे से मैं कभी नहीं करूंगा, अपने अपराध की क्षमा याचना करें। _सन्दर्भ : (1) कई जगह "णच्चा" की जगह (नच्चा) भी मूल पाठ में आता है। ये दोनों शुद्ध हैं। क्योंकि प्राकृत में नियम है, कि "नो णः" नकार का णकार होता है। पर शब्द के आदि में हो तो वहां “वा आदौ" इस सूत्र से नकार का णकार विकल्प से हो जाता है। अर्थात् नकार या णकार दोनों में से कोई भी एक हो। मूल : णच्चा णमइ मेहावी, लोए कित्ती से जाय। हवइ किच्चाण सरणं, भूयाणं जगई जहा||१५|| छायाः ज्ञात्वा नमति मेधावी, लोके कीर्तिस्तस्य जायते। भवति कृत्यानां शरणं, भूतानां जगती यथा।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! इस प्रकार विनय की महत्ता को (णच्चा) जानकर (मेहावी) बुद्धिमान् मनुष्य (णमइ) विनयशील हो, जिससे (से) वह (लोए) इस लोक में (कित्ति) कीर्ति का पात्र (जायइ) होता है (जहा) जैसे (भूयाण) प्राणियों को (जगई) पृथ्वी आश्रव भूत है, ऐसे ही विनीत महानुभाव (किच्चाण) पुण्य क्रियाओं का (सरणं) आश्रय रूप (हवइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार विनय की महत्ता को समझकर बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि इस विनय को अपना परम सहचार सखा बना ले। जिससे वह इस संसार में प्रशंसा का पात्र हो जाए। जिस 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/199 B0000000000000000od Jain Education International For Personal & Private Use Only 00000000000000 c/www.jainelibrary.orga
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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