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________________ 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! फिर तत्वज्ञ महानुभाव कहते हैं कि जो (5) अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों का कभी भी तिरस्कार नहीं करता हो (6) व्यर्थ विवाद की बातें न करता हो (7) उपकार करने वाले मित्र के साथ बने वहाँ तक पीछ उपकार ही करता हो, यदि उपकार करने की शक्ति न हो तो अपकार से तो सदा सर्वदा दूर ही रहता हो (8) ज्ञान पाकर घमण्ड न करता हो (6) अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों की भूल को भी बढ़ा-चढ़ा कर न देखता है (10) अपने मित्र पर कभी भी क्रोध न करता हो (11) परोक्ष में भी अप्रिय मित्र का अवगुणों के बजाय गुणगान ही करता हो (12) वाक् युद्ध और काया युद्ध दोनों से जो कतई दूर रहता हो, (13) कुलीनता के गुणों से सम्पन्न हो (14) लज्जावान् अर्थात् अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों के समक्ष नेत्रों में शरम रखने वाला हो (15) और जिसने इन्द्रियों पर पूर्ण साम्राज्य प्राप्त कर लिया हो, वही विनीत है। ऐसे ही व्यक्ति की इस लोक में प्रशंसा होती है और परलोक में उन्हें शुभ गति मिलती है। मूलः जहा हिअम्गी जलणं नमसे, नाणाहुई मंतपयामिसत्त। एवायरियं उवचिठ्ठइज्जा, अणंतनाणोवगओ वि संतो||१३|| छायाः यथाहिताग्निर्व्वलनं नमस्यति, नानाऽऽहुतिमंत्रपदाभिषिक्तम्। पवमाचार्यमुपतिष्ठेत्, अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (आहिअग्गी) अग्नि होत्री ब्राह्मण (जलणं) अग्नि को (नमंसे) नमस्कार करते हैं तथा (नाणाहुईमंतपयाभिसत्त) नाना प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति और मंत्र पदों से उसे सिंचित करते हैं (एवायरियं) इसी तरह से बड़े-बूढ़े व गुरुजनों और आचार्य आदि की (अणंतनाणोवगओसंतो) अनंत ज्ञान सम्पन्न होने पर भी (उवचिट्ठइज्जा) सेवा करनी चाहिए। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि को नमस्कार करते हैं और उसको अनेक प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति एवं मंत्र पदों से सिंचित करते हैं। इसी तरह पुत्र और शिष्यों का कर्तव्य और धर्म है कि चाहे वे अनंत ज्ञानी भी क्यों न हो उनको अपन बड़े-बूढ़े और गुरुजनों एवं आचार्य की सेवा शुश्रूषा करनी ही चाहिए। जो ऐसा करते हैं, वे ही सचमुच में विनीत हैं। अर्थात् ज्ञानीजनों को सेवा भावपूर्वक सम्मान देना चाहिये। goo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1985 00000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only 000000000 www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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