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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (मित्तेसु) मित्रों पर (अवि) भी (कुप्पइ) क्रोध करता रहे (सुप्पियस्स) सुप्रिय (मित्तस्स) मित्र के (अवि) भी (रहे) परोक्ष रूप में उसको (पावगं) पाप दोष (भासइ) कहता हो। (पइण्णवाई) संबंध रहित बहुत बोलने वाला हो, (दुहिले) द्रोही हो (थद्धे) घमण्डी हो। (लद्धे) रसादिक स्वाद में लिप्त हो (अणिग्गहे) अनिग्रहीत इन्द्रियों वाला हो (असंविभागी) किसी को कुछ नहीं देता हो (अवियत्ते) पूछने पर भी अस्पष्ट बोलता हो, वह (अविणीए) अविनीत है। (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) ज्ञानीजन कहते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो सदैव क्रोध करता है, जो कलहौत्पादक नयी नयी बातें ही घडकर सदा कहता रहता है, जिसका हृदय मैत्री भावों से विहीन हो, ज्ञान सम्पादन करके जो उसके गर्व में चूर रहता हो, अपने बड़े-बूढ़े व गुरुजनों की न कुछ सी भूलों को भी भयंकर रूप जो देता हो, अपने प्रगाढ़ मित्रों के परोक्ष में दोष प्रकट करता रहता हो, वाक्य या कथा का संबंध न मिलने पर भी जो वाचाल की भांति बहुत अधिक बोलता हो, प्रत्येक के साथ द्रोह किये बिना जिसे चैन ही नहीं पड़ता हो, गर्व करने में भी जो कुछ कोर कसर नहीं रखता हो, रसादिक पदार्थों के स्वाद में सदैव आसक्त रहता हो, इन्द्रियों के द्वारा जो पराजित होता रहता हो, जो स्वयं पेटू हो और दूसरों को एक कौर भी कभी नहीं देता हो और पूछने पर भी जो सदा अनजान की ही भांति बोलता हो, ऐसा जो पुरुष है, वह फिर चाहे जिस जाति, कुल का क्यों न हो, अविनीत है, अर्थात् अविनयशील है उसकी इस लोक में तो प्रशंसा होगी ही क्यों? बल्कि परलोक में भी वह अधोगामी बनेगा। मूल : अह पण्णरसहिं ठाणेहि, सुविणीए ति वुच्चई। नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहलेllell छायाः अथ पञ्च दशभिः स्थानैः, सुविनीत इत्युच्यते। नीचवृतयचपलः, अमाय्यकुतूहलः।।६।। अथ पञ्च दशभिः स्थानैः, सुविनीत इत्युच्यते। नीचवृतयचपलः, अमाय्यकुतूहलः / / 6 / / ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अह) अब (पण्णरसहिं) पंद्रह (ठाणेहिं) स्थानों (सुविणीए) बातों से अच्छा विनीत है (त्ति) ऐसा (वुच्चई) ज्ञानीजन कहते हैं और वे पन्द्रह स्थान यों है। (नीयावित्ती) नम्र हो, बड़े-बूढ़े व गुरुजनों के आसन से नीचे बैठने वाला हो, (अचवले) चपलता रहित हो (अमाई) निष्कपट हो (अकुऊहले) कुतूहल रहित हो।। pooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/196. Jabal 0000000000000000 S00000000000000
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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