________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिषी आदि सभी तरह के देवताओं से लगाकर सम्पूर्ण लोक के छोटे से प्राणी तक को काम भोगों की अभिलाषा से उत्पन्न होने वाली लालसा सताती रहती है। इस कायिक और मानसिक दुःख का अन्त करने वाला केवल वही मनुष्य है, जिसने काम भोगों से सदा के लिए अपना मुंह मोड़ लिया है। मूल: देवदाणवगंधवा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति वे||१८|| छाया: देवदानवगन्धर्वाः यक्षराक्षसकिन्नराः। ब्रह्मचारिणं नमस्यन्ति, दुष्करं यः करोति तम्।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (दुक्कर) कठिनता से आचरण में आ सके ऐसे ब्रह्मचर्य को (जे) जो (करंति) पालन करते हैं (ते) उस (बम्भयारिं) ब्रह्मचारी को (देवदाणवगंधव्वा) देव, दानव और गन्धर्व (जक्खरक्खसकिंनरा) यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी तरह के देव (नमसंति) नमस्कार करते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इस महान ब्रह्मचर्य व्रत का जो पालन करता है, उसको देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं / वह सहज ही लोकपूज्य हो जाता है। 0900000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/980boo Jain L odocooc000000 नग्रन्थ प्रवचना For Personal & Private senly > boo0000000000000ameligrary.org