________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000 000000OC 0 उससे बिंधकर नष्ट हो जाता है। ऐसे ही (जो) जो जीव (रसेसु) रस में (गिद्धिं) गृद्धिपन को (उवेइ) प्राप्त होता है, (से) वह (अकालिअं) असमय में ही (तिव्वं) शीघ्र (विणासं) विनाश को (पावइ) प्राप्त होता है। भावार्थ : हे गौतम! जिस प्रकार मांस भक्षण के स्वाद में लोलुप जो रागातुर मच्छ है वह मरणावस्था को प्राप्त होता है। ऐसे ही जो आत्मा इस रसेन्द्रिय के वशवर्ती होकर अत्यन्त गृद्धिपन को प्राप्त होती है वह असमय ही में द्रव्य और भाव प्राणों से रहित हो जाता है। मूलः फासस्स जोगिद्धिमुवेइ तिवं, अकालिअंपावइसे विणासं| रागाउरेसीयजलावसब्ने, गाहग्गहीए महिसेवरण्णे||१८|| छायाः स्पर्शेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् / रागातुरः शीतजलावसन्नः ग्राहा गृहीतो महिष इवारण्ये।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (व) जैसे (रण्णे) अरण्य में (सीयजलावसन्ने) शीतल जल में बैठे रहने का प्रलोभी ऐसा जो (रागाउरे) रागातुर (महिसे) भैंसा (गाहग्गहीए) मगर के द्वारा पकड़ लेने पर मारा जाता है, ऐसे ही (जो) मनुष्य (फासस्स) त्वचा विषयक विषय के (गिद्धि) गृद्धिपन को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालिअं) असमय ही में (तिव्वं) शीघ्र (विणास) विनाश को (पावइ) पाता है। . भावार्थ : जैसे बड़ी भारी नदी में त्वचेन्द्रिय के वशवर्ती होकर और शीतल जल में बैठकर आनंद मानने वाला वह रागातुर भैंसा मगर से जब घेरा जाता है, तो सदा के लिए अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। ऐसे ही जो मनुष्य अपनी त्वचेन्द्रिय जन्य विषय में लोलुप होता है, वह शीघ्र ही असमय में नाश को प्राप्त हो जाता है। हे गोतम! जब इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के वशवर्ती होकर भी यह प्राणी अपना प्राणान्त कर बैठते हैं, तो भला उनकी क्या गति होगी जो पांचों इन्द्रियों को पाकर उनके विषय में लोलुप हो रहे हैं?अतः पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य मात्र का परम कर्तव्य और श्रेष्ठ धर्म है। 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ooo DOOOOO Pos 5000000000000000000000 30000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/167 100000 boo000000000000OOKaiswary.orgs