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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 0000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अनाश्रुव अर्थात् आते हुए नवीन कर्मों की रोक हो जाती है। फिर अनाश्रव से जीव तपवान बनता है। तपवान होने से पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है। कर्मों के क्षय हो जाने से सावद्य क्रिया का आगमन भी बंद हो जाता है। जब हिंसाजन्य क्रिया ही रुक गई तो फिर जीव की मुक्ति ही मुक्ति है यों, सदाचारी पुरुषों की संगति करने से उत्तरोत्तर सद्गुण ही सद्गुण प्राप्त होते हैं। मूल: अवि से हासमासज्ज, हंताणंदीति मन्नति। अलं बालस्स संगणं, वेरं वड्ढति अप्पणो||१६| छायाः अपि स हास्यामासज्य, हन्ता नन्दीति मन्यते। अलं बालस्य संगेन, वैरं वर्धत आत्मनः / / 16 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अवि) और जो कुसंग करता है (से) वह (हासमासज्ज) हास्य आदि में आसक्त होकर (हंता) प्राणियों की हिंसा ही में (णंदीति) आनंद प्राप्त करता है, ऐसा मन्नति मानता है उस (बालस्स) अज्ञानी की आत्मा का (वर) कर्म बंध (वड्ढति) बढ़ता है। भावार्थ : हे गौतम! सत्पुरुषों की संगति करने से इस जीव को गुणों की प्राप्ति होती है और जो हास्यादि में आसक्त होकर प्राणियों की हिंसा करके आनंद मानते हैं। ऐसे अज्ञानियों की संगति कभी मत करो! क्योंकि ऐसे दुराचारियों का संसर्ग से शराब पीना, मांस खाना, हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, व्यभिचार का सेवन करना आदि दुष्कर्म बढ़ जाते हैं और उन दुष्कर्मों से आत्मा को महान कष्ट होता है। अतः मोक्षाभिलाषियों को अज्ञानियों की संगति भूलकर भी नहीं करनी चाहिए। मूल : आवस्सयं अवस्सं करणिज्जं, धुवनिम्गहो विसोही | अज्झयणाछक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो||१६|| छायाः आवश्यकमवश्यं करणीयम, ध्रुवनिग्रहः विशोधितम्। अध्ययनषट्कवर्गः, ज्ञय आराधना मार्गः।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (ध्रुवनिग्गहो) सदैव इन्द्रियों को निग्रह करने वाला (विसोही अ) आत्मा को विशेष प्रकार से शोधित करने वाला (नाओ) न्याय के कांटे के समान (आराहणा) जिससे वीतराग के वचनों का पालन हो ऐसा (मग्गो) मोक्ष मार्ग रूप (अज्झयणछक्कवग्गो) छ: Agooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope Daina beton International 1000000000000000000 % निम्रन्थ प्रवचन/175, STATEHPraorg 00000000000000
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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