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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 goo0000000000000000000000 Moo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 500000000000000000000000000000 मूल : भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। नावा व तीरसम्पन्ना, सबदुक्खा तिउट्ठ ||14|| छायाः भावना योगशुद्धात्मा, जले नौरिवाख्याता। नौरिव तीरसम्पन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भावणा) शुद्ध भावना रूप (जोगसुद्धप्पा) योग से शुद्ध हो रही है आत्मा जिनकी ऐसे पुरुष (जले णावा व) नौका के समान जल के ऊपर ठहरे हुए हैं। ऐसा (आहिया) कहा गया है। (नावा) जैसे नौका अनुकूल वायु से (तीरसम्पन्ना) तीर पर पहुंच जाती है व (वैसे ही) नौका रूप शुद्धात्मा के उपदेश से जीव (सव्वदुक्खा) सर्व दुःखों से (तिउट्ठइ) मुक्त हो जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! शुद्धाभावना रूप ध्यान से जिनकी आत्मा निर्मल हो रही है, ऐसी शुद्धात्माएँ संसार रूप समुद्र में नौका के समान हैं। ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। ये नौका के समान शुद्धात्माएँ आप स्वयं तिर जाती हैं और उनके उपदेश अन्य जीव भी चरित्रवान होकर, सर्व दुःख रूप संसार समुद्र का अन्त करके पार हो जाते हैं। मूल : सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणाहए तवे चेव वोदाणे, अकिरिया सिद्धी||१५|| छायाः श्रवणं, ज्ञान, विज्ञानं, प्रत्याख्यानं च संयमः। अनाश्रवं तपश्चैव, व्यवदानमक्रिया सिद्धिः।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! ज्ञानीजनों के संसर्ग से (सवणे) धर्म श्रवण होता है। धर्म श्रवण से (नाणे) ज्ञान होता है। ज्ञान से (विण्णाणे) विज्ञान होता है। विज्ञान से (पच्चक्खाणे) दुराचार का त्याग होता है। (य) ओर त्याग से (संजमे) संयमी जीवन होता है। संयमी जीवन से (अणाहए) अनाश्रवी होता है (चव) और अनावी होने से (तवे) तपवान होता है। तपवान होने से (वोदाणे) पूर्व संचित कर्मों का नाश होता है और कर्मों का नाश होने से (अकिरिया) क्रिया रहित होता है और सावध क्रिया रहित होने से सिद्धि की प्राप्ति होती है। _भावार्थ : हे गौतम! सम्यक् ज्ञानियों की संगति से धर्म का श्रवण होता है, धर्म के श्रवण से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान से विशेष ज्ञान या विज्ञान होता है। विज्ञान से पापों के करने का प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान से संयमी जीवन की प्राप्ति होती है। संयमी जीवन- से 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000 Jain need on nematonai Roooo00000000000ood निर्ग्रन्थ प्रवचन/174 amelurry.org 50000000 000000
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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