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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 वर्ग 'अध्ययन' हैं, पढ़ने के जिसके ऐसा (आवस्सयं) आवश्यक प्रतिक्रमण (अवस्स) अवश्य (कहणिज्ज) करने योग्य है। भावार्थ : हे गौतम! हमेशा इन्द्रियों के विषय को रोकने वाला और अपवित्र आत्मा को भी निर्मल बनाने वाला, न्यायकारी, अपने जीवन को सार्थक करने वाला और मोक्ष मार्ग का प्रदर्शक रूप छ: अध्ययन हैं। जिसमें ऐसा आवश्यक सूत्र साधु साध्वी तथा गृहस्थों को सदैव प्रातःकाल और सायंकाल दोनों समय अवश्य करना चाहिये। जिसके करने से अपने नियमों के विरुद्ध दिन रात भर में भूल से किये हुए कार्यों का प्रायश्चित हो जाता है। हे गौतम! वह आवश्यक यों हैं। मूल: सावज्जजोगविरई, उक्कित्तण गुणवओ च पडिवत्तिा खलिअस्स निंदणा, वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव||८|| छायाः सावद्ययोग विरतिः, उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः, स्खलितस्य निन्दना, व्रणे चिकित्सा गुणधारणा चैव।।१८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सावज्जजोविरई) सावध योग से निवृत्ति (उक्कित्तण) प्रभु की प्रार्थना (य) और (गुणवओ) गुणवान् गुरुओं को (पडिवत्ति) विधि पूर्वक नमस्कार / (खलिअस्स) अपने दोषों का (निंदणा) निरीक्षण (वणतिगिच्छ) छिद्र के समान लगे हुए दोषों का प्रायश्चित ग्रहण करता हुआ निवृत्ति रूप औषधि का सेवन करना (चेव) और (गुणधारणा) अपनी शक्ति के अनुसार त्याग रूप गुणों को धारण करना। ___ भावार्थ : हे गौतम! जहाँ हरी वनस्पति चींटियाँ कुंथुए बहुत ही छोटे जीव वगैरह न हों ऐसे एकान्त स्थान पर, 'कुछ भी पाप नहीं करना', ऐसा निश्चय करके, कुछ समय के लिए अपने चित्त को स्थिर कर लेना, यह आवश्यक का प्रथम अध्ययन हुआ। फिर प्रभु की प्रार्थना करना, यह द्वितीय अध्ययन है। उसके बाद गुणवान गुरुओं को विधि पूर्वक हृदय से नमस्कार करना यह तीसरा अध्ययन है। किये हुए पापों की आलोचना करना चौथा अध्ययन और उसका प्रायश्चित ग्रहण करना पाँचवां अध्ययन और छठी बार यथाशक्ति त्याग की वृद्धि करे। इस तरह षडावश्यक हमेशा दोनों समय करता रहे। यह साधु और गृहस्थों का नियम है। मूल: जो समो सवभूएसु, तसेसु थावरेसु या तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिय||१९|| ooo0000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooooo Jain EdemaA Crnational निम्रन्थ प्रवचन /176 0000000000000od Aman-jainstiavorg 00000000000000000
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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