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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 0000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (समयाए) शत्रु और मित्र पर समभाव रखने से (समणो) श्रमण-साधु (होइ) होता है। (बंभचेरेण) ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से (बंभणो) ब्राह्मण होता है (य) और इसी तरह (नाणेणं) ज्ञान सम्पादन करने से (मुणी) मुनि (होइ) होता है, एवं (तवेणं) तप करने से (तावसो) तपस्वी (होइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! सर्व प्राणीमात्र, फिर चाहे वे शत्रु जैसा बर्ताव करते हों या मित्र जैसा, सभी को जो समदृष्टि से जो देखता हो, वही साधु है। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला किसी भी कौम का हो, वह ब्राह्मण ही है, इसी तरह सम्यक् ज्ञान सम्पादन करके उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ही मुनि है। ऐहिक सुखों की इच्छा से रहित बिना किसी को कष्ट दिये जो तप करता है, वही तपस्वी है। मूल : कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। कम्मुणा वइसो होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा||२०|| छायाः कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा भवति क्षत्रियः / वेश्यः कर्मणा भवति, शूद्रो भवति कर्मणा।२०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कम्मुणा) क्षमादि अनुष्ठान करने से (बंभणो) ब्राह्मण (होइ) होता है और (कम्मुणा) पर पीड़ाहरन व रक्षादि कार्य करने से (खत्तिओ) क्षत्री (होइ) होता है। इसी तरह (कम्मुणा) नीति पूर्वक व्यवहार कर्म करने से (वइसो) वैश्य (होइ) होता है और (कम्मुणा) दूसरों को कष्ट पहुंचाने रूप कार्य जो करे वह (सुद्दो) शूद्र (हवइ) होता है। भावार्थ : हे गौतम! चाहे जिस जाति व कुल का मनुष्य क्यों न हो, जो क्षमा, सत्य, शील, तप आदि सद्नुष्ठान रूप कर्मों का कर्त्ता होता है, वही ब्राह्मण है। केवल छापा तिलक कर लेने से ब्राह्मण नहीं हो सकता है और जो भय, दुःख, आदि से मनुष्यों को मुक्त करने का कर्म करता है, वही क्षत्रिय अर्थात् राजपुत्र है। अन्याय पूर्वक राज करने से तथा शिकार खेलने से कोई भी व्यक्ति आज तक क्षत्रिय नहीं बना। इसी तरह नीति पूर्वक जो व्यापार करने का कर्म करता है वही वैश्य है और जो दूसरों को संताप पहुंचाने वाले ही कर्मों को करता रहता है वह कोई भी जाति का क्यों न हो वह शूद्र है। 1000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/90 00000000000000ookia Jain Education Interational For Personal & Private Use Only 000000000 000000RN www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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