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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 88000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 .अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कप्पोवगा) कल्पोत्पन्न देव (बारसहा) बारह प्रकार के हैं (सोहम्मीसाणगा) सुधर्म, ईशान (तहा) तथा (सणंकुमार) सनत्कुमार (माहिन्दा) महेन्द्र (बम्भलोगा) ब्रह्म (य) और (लंतगा) लांतक (महासुक्का) महाशुक्र (सहस्सारा) सहस्रार (आणया) आणत (पाणया) प्राणत (तहा) तथा (आरणा) अरण (चेव) और (अच्चूया) अच्युत, देव लोक (इइ) ये हैं और इन्हीं के नामों पर से (कप्पोवगा) कल्पोत्पन्न (सुरा) देवों के नाम भी हैं। र भावार्थ : हे गौतम! कल्पोत्पन्न देवों के बारह भेद हैं और वे यों हैं :- (1) सुधर्म, (2) ईशान, (3) सनत्कुमार (4) महेन्द्र, (5) ब्रह्म, (6) लांतक, (7) महाशुक्र, (8) सहस्रार, (6) आणत, (10) प्राणत, (11) आरण और (12) अच्युत ये देवलोक हैं। इन स्वर्गों के नामों पर से ही इनमें रहने वाले इन्द्रों के भी नाम हैं। कल्पातीत देवों के नाम यों हैं:मूल : कप्पाईया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया गेविज्जाणुचरा चेव, गेविज्जानवविहा तहिं||२२|| छायाः कल्पातीतास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः / ग्रैवेयका अनुत्तराश्चैव, अवेयका नवविधास्तत्र।।२२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (कप्पाईयाउ) कल्पातीत देव हैं, (ते) वे (दुविहा) दो प्रकार के (वियाहिया) कहे गये हैं। (गेविज्ज) ग्रैवेयक (चेव) और (अणुत्तरा) अनुत्तर (तहिं) उस में (गेविज्ज) ग्रैवेयक (नवविहा) नव प्रकार के हैं। भावार्थ : हे गौतम! कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं। एक तो ग्रैवेयक और दूसरे अणुत्तर वैमानिक / उनमें भी ग्रैवेयक नो प्रकार के और अणुत्तर पांच प्रकार के हैं। मूल : हेट्ठिमा हेट्ठिमा चेव, हेट्ठिमा मज्झिमा वहा| हेट्ठिमा उवरिमा चेव, मज्झिमा हेट्ठिमा तहा||३|| मज्झिमा मज्झिमा चेव, मज्झिमा उवरिमा तहा। उवरिया हेट्ठिमा चेव, उवरिमा मज्झिमा तहा||२४|| उवरिमा उवरिमा चेव, इय गेविजगा सुरा। विजया वेजयंता य, जयंता अपराजिया||२५| gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 P 0 0000000000000000CA * निर्ग्रन्थ प्रवचन/187 For Personal & Prvale Use DoooooooooooooooooorN www.jainenbrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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