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________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 10000000000000000000000 विचारों का मनन किया करें और बारहवां गृहस्थ का धर्म यह है कि अतिहिंसयअस्सविभागे अपने घर आये हुए अतिथि का सत्कार कर उन्हें भोजन आदि ग्रहण करावें। इस प्रकार गृहस्थ को अपने गृहस्थ धर्म का पालन करते रहना चाहिये। ____ यदि इस प्रकार गृहस्थ का धर्म पालन करते हुए कोई उत्तीर्ण हो जाए और वह फिर आगे बढ़ना चाहे तो इस प्रकार प्रतिमा धारण कर गृहस्थ जीवन को सुशोभित करें। मूल : दंसणवयसामाइयपोसहपडिमा य बंभ अचित्ते। आरंभपेसउदिट्ठ वज्जए समणभूए य||ll . छायाः दर्शनव्रत सामायिक-पौषधप्रतिमा च ब्रह्म अचित्तम्। आरंभप्रेषणोद्दिष्टवर्जकः, श्रमणभूतश्च।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इंसणवयसामाइय) दर्शन, व्रत, सामायिक, पडिमा (य) और (पोसह) पौषध (य) और (पडिमा) पांचवीं में पांच बातों का परित्याग वह करे (बंभ) ब्रह्मचर्य पाले (अचित्ते) सचित्त का भोजन न करें (आरंभ) आरंभ त्यागे (पेस) दूसरों से आरम्भ करवाने का त्याग करना, (उद्दिट्ठवज्जए) अपने लिए बनाये हुए भोजन का परित्याग करना (य) और नौवीं पडिमा में (समणभूए) साधु के समान वृत्ति को पालना। भावार्थ : हे गौतम! गृहस्थ धर्म की ऊँची पायदान पर चढ़ने की विधि इस प्रकार है-पहले अपनी श्रद्धा की ओर दृष्टिपात करके वह देख ले, कि मेरी श्रद्धा में कोई भ्रम तो नहीं है। इस तरह लगातार एक महीने तक श्रद्धा के विषय में ध्यान पूर्वक अभ्यास वह करता रहे। फिर उसके बाद दो मास तक पहले लिये हुए व्रतों को निर्मल रूप से पालने का अभ्यास वह करे। तीसरी पडिमा में तीन मास तक यह अभ्यास करे कि किसी भी जीव पर राग द्वेष के भावों को वह न आने दे। अर्थात् इस प्रकार अपना हृदय सामायिक मय बना ले। चौथी पडिमा में चार महीन में छ: छः के हिसाब से पौषध करे। पांचवीं पडिमा में पांच महीने तक इन पांच बातों का अभ्यास करे। (1) पौषध में ध्यान करें, (2) श्रृंगार के निमित्त स्नान न करे, (3) रात्रि भोजन न करे (4) पौषध के सिवाय और दिनों में दिन का ब्रह्मचर्य पाले, (5) रात्रि में ब्रह्मचर्य की मर्यादा करता रहे। छठी पडिमा में छ: महीने तक सब प्रकार से ब्रह्मचर्य के पालन करने का अभ्यास करे। सातवीं 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000oooc 500000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/82 000000000000000 Dooo00000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only swww.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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