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________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooog Joo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छाया: ईर्ष्याऽमर्षातपः, अविद्या मायाऽहिकता। गृद्धिः प्रद्वेषश्च शठः, प्रमत्तो रसलोलुपः।।४।। सातागवेषकश्चारंभादविरतः, क्षुद्रः साहसिको नरः। एतद्योगसमायुक्तः, नीललेश्यां तु परिणमेत्।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इस्सा) ईर्ष्या (अमरिस) अत्यन्त क्रोध, (अतवो) अतप (अविज्ज) कुशास्त्र पठन (माया) कपट (अहीरिया) पापाचार के सेवन करने में निर्लज्ज (गेही) गृद्धपन (य) और (पओसे) द्वेषभाव (सढ़े) धर्म में मंद स्वभाव (पमत्ते) मदोन्मत्तता (रसलोलुए) रसलोलुपता (सायगवेसए) पौदगलिक सुख की अन्वेषणा (अ) और (आरंभा) हिंसादि आरंभ से (अविरओ) अनिवृत्ति। (खुद्दो) क्षुद्रभावना (साहस्सिओ) अकार्य में साहसिकता (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकार के आचरणों से युक्त (नरो) जो मनुष्य हैं, वे (नीललेस) नील लेश्या को (परिणामे) परिणमित होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो दूसरों के गुणों को सहन न करके रात दिन उनसे ईर्ष्या करने वाला हो, बात बात में जो क्रोध करता हो। खा पीकर जो मदमत्त बना रहता हो, पर कभी भी तपस्या न करता हो, जिनसे अपने जन्म मरण की वृद्धि हो ऐसे कुशास्त्रों का पठन पाठन करने वाला हो, कपट करने में किसी भी प्रकार की कोर कसर न रखता हो, जो भली बात कहने वाले के साथ द्वेष भाव रखता हो, धर्मकार्य में शिथिलता दिखाता हो, हिंसादि महारंभ से तनिक भी अपने मन को न खींचता हो, दूसरों के अनेकों गुणों की तरफ दृष्टिपात तके न करते हुए उसमें जो एक आध अवगुण हो उसकी ओर निहारने वाला हो और अकार्य करने में बहादुरी दिखाने वाला हो, जिस आत्मा का ऐसा व्यवहार हो, उसे नीललेशी कहते हैं। इस तरह की भावना रखने वाला व उसमें प्रवृत्ति करने वाला चाहे कोई पुरुष हो या स्त्री वह मरकर अधोगति में ही जायेगा। मूल : वंके वंकसमायरे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचगओवहिए, मिच्छदिठ्ठि अणारिएllll उपफालग दुलवाई य, वेणे आवि यमच्छरी। एअजोगसमाउत्तो, काऊलेसंतु परिणमे||७|| छायाः वक्रो वक्रसमाचारः, नि कृतिमाननृजुकः / परिकुंचक औषधिकः, मिथ्यादृष्टिरनार्थः / / 6 / / . 0000000000000000000000000000boo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooo ooooooood 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/132 10000000000000 00000000000000ood Jain Education International For Personal & Private use onlys www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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