SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 उत्सयाशेक दृष्टवादी च, स्तेनश्चापिचमत्सरी। एतद्योगसमायुक्तः, कापोतलेश्यां तु परिणमेत्।।७।। 1 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (वंके) वक्र भाषण करना (वंकसमायरे) वक्र वक्र क्रिया अंगीकार करना, (नियडिल्ले) मन में कपट रखना, (अणुज्जुए) टेढ़ेपन से रहना (पलिउंचग) स्वकीय दोषों को ढकना, (ओवहिए) सब कामों में कपटता (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यात्व में अभिरुचि रखना (अणारिए) अनार्य प्रवृत्ति करना (य) और (तेणे) चोरी करना (अविमच्छरी) फिर मात्सर्य रखना (एअजोगसमाउत्तो) इस प्रकरा के व्यवहारों से जो युक्त हो वह (काउलेस) कापोत लेश्या को (परिणमे) परिणमित होता है। भावार्थ : हे गौतम! जो बोलने में सीधा न बोलता हो, व्यापार भी जिसका टेढ़ा हो दूसरे को न जान पड़े ऐसे मानसिक कपट से व्यवहार करता हो, सरलता जिसके दिल को छूकर भी न निकली हो, अपने दोषों को ढंकने की भरपूर चेष्टा जो करता हो, जिसके दिन भर के सारे कार्य छल-कपट से भरे पड़े हों, जिसके मन में मिथ्यात्व की अभिरुचि बनी रहती हो, जो अमानुषिक कामों को भी कर बैठता हो, जो वचन ऐसे बोलता हो कि जिस से प्राणि मात्र को त्रास होता हो, दूसरों की वस्तु को चुराने में ही अपने मानव जन्म की सफलता समझता हो, मत्सर भाव से युक्त हो, इस प्रकार के व्यवहारों में जिस आत्मा की प्रवृत्ति हो, वह कापोत लेशी कहलाता है। ऐसी भावना रखने वाला चाहे पुरुष हो या स्त्री, वह मर कर अधोगति में जावेगा। हे गौतम! तेजो लेश्या के सम्बन्ध में यों हैं। मूल: नीयवित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवंllll पियधम्मे दढधम्मेऽवज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो, तेऊलेसं तुपरिणमे||९|| छायाः नीचवृत्तिरचपलः अमाय्यकुतूहलः / विनीतविनयो दान्तः, योगवानुपधानवान्।।८।। प्रियधर्मा दृढ़धर्मा, अवधमीरुर्हितैषिकः। एतद्योगसमायुक्तः, तेजो लेश्या तु परिणमेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नीयावित्ती) जिसकी वृत्ति नम्र स्वभाव वाली हो (अचवले) अचपल (अमाई) निष्कपट (अकुऊहले) कुतुहल से gooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/133 00000000000000ood Jal Education International 0000000000000 owww.jainelibrary.org, 0000006GO For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy