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________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 __ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अह) अब (अट्ठहिं) आठ (ठाणेहिं) कारणों से (सिक्खासीले) शिक्षा प्राप्त करने वाला होता है (त्ति) ऐसा (वुच्चइ) कहा है। (अहस्सिरे) हंसोड़ न हो (सया) हमेशा (दंते) इन्द्रियों को दमन करने वाला हो, (य) और (मम्म) मर्म भाषा (न) नहीं (उदाहरे) बोलता हो, (असीले) सर्वथा शील रहित (न) नहीं हो (अ) और (विसीले) शील दूषित करने वाला (न) न हो (अइलोलुए) अति लोलुपी (न) ने (सिआ) हो, (अक्कोहणे) क्रोध न करने वाला हो (सच्चरए) सत्य में रत रहता हो, वह (सिक्खासीले) ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है (ति) ऐंसा (वुच्चइ) कहा है। भावार्थ : हे गौतम! अगर किसी को ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हो तो, वह अनावश्यक न हंसे सदैव खेल नाटक वगैरह देखने को त्यागकर विषयों से इन्द्रियों का दमन करता रहे, किसी की मार्मिक बात को प्रकट न करे, शीलवान रहे, अपना आचार विचार शुद्ध रखे, अति लोलुपता से सदा दूर रहे, क्रोध न करे और सत्य का सदैव अनुयायी बना रहे, इस प्रकार रहने से ज्ञान की विशेष प्राप्ति होती है। मूल : जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्त कोऊहलसंपगाढे। कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छइ सरणं तम्मि काले||११|| छायाः यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुञ्जानः, निमित्तकौतूहलसंप्रगाढः / कुहेटकविद्यास्त्रवदारजीवी, न गच्छति शरणं तस्मिन् काले।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो साधु होकर (लक्खणं) स्त्री, पुरुष के हाथादि की रेखाओं के लक्षण और (सुविण) स्वप्न का फलादेश बताने का (पउंजमाणे) प्रयोग करते हों एवं (निमित्तकोउसंपगाढे) भावी फल बताने तथा कौतूहल करने में, या पुत्रोत्पत्ति के साधन बताने में आसक्त हो रहा हो, इसी तरह (कुहेडविज्जासवदारजीवी) मंत्र, तंत्र, विद्या रूप आश्रव के द्वारा जीवन निर्वाह करता हो। वह (तम्मि काले) कर्मोदय काल में (सरणं) दुख से बचने के लिए किसी की शरण (न) नहीं (गच्छई) पाता है। भावार्थ : हे गौतम! जो सब प्रपंच छोड़ करके साधु तो हो गया है मगर फिर भी वह स्त्री पुरुषों के हाथ व पैरों की रेखाएँ एवं तिल, मस आदि के भले बुरे फल बताता है, या स्वप्न के शुभाशुभ फलादेश को जो कहता है, एवं पुत्रोत्पत्ति आदि के साधन बताता है, इसी तरह मंत्र तंत्रादि विद्या रूप आश्रव के द्वारा जीवन का निर्वाह करता है तो 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000 5000000000000000 so00000000 Japacation internetion 10000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1723 100000 Sboo0000000000000obp MONTHellorary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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