________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 300000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000008 ऐसा करने से (जम्मणमरणाणि) अनेकों जन्म-मरण हो ऐसा कर्म (बंधति) बांधता है। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्महत्या करने के लिए, तलवार, बरछी, कटारी आदि शस्त्र का प्रयोग करे या अफीम, संखिया, मोरा, वछनाग, हिरकणी आदि का उपयोग करे अथवा अग्नि में पड़कर या अग्नि में प्रवेश कर या कुंआ, बावड़ी, नदी, तालाब में गिरकर मरे तो, उसका यह मरण अज्ञानपूर्वक है। इस प्रकार मरने से अनेक जन्म और मरणों की वृद्धि के सिवाय और कुछ नहीं होता। वहीं जो मर्यादा के विरुद्ध अपने जीवन को कलुषित करने वाली सामग्री ही को प्राप्त करने के लिए रात-दिन जुटा रहता है, ऐसे पुरुष की आयुष्य पूर्ण होने पर भी उसका मरण आत्महत्या के समान ही है। मूल : अहपंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लभई। थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणलस्सएण याll छायाः अथ पञ्चभिः, स्थानेः, यैः शिक्षा न लभ्यते। स्तम्भात् क्रोधात् प्रमादेन, रोगेनाऽलस्येन च।।८।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अह) उसके बाद (जेहिं) जिन (पंचहिं) पाँच (ठाणेहि) कारणों से (सिक्खा) शिक्षा (न) नहीं (लब्भई) पाता है, वे यों हैं (थंभा) मान से (कोहा) क्रोध से (पमाएण) प्रमाद से (रोगेणालस्सएणय) रोग से और आलस से। - भावार्थ : हे गौतम! ज्ञान प्राप्त करने में अभिमान, क्रोध, टालमटोल, रोग और आलस्य ये पांच बाधाएँ हैं। साधक ज्ञान पीपासु को इनसे सायास बचना चाहिये। मूल: अह अहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दंते, न यमम्ममुदाहरे||| नासीले न विसीले अ, न सिआ अइलोलुए। अक्कोहणं सच्चरए, सिक्खासीले चि वुच्चइ||१०|| छायाः अथाष्टभिः स्थानैः, शिक्षाशील इत्युच्यते। अहसनशीलः सदा दान्तः, न च मर्मोदाहरः / / 6 / / नाशीलो न विशीलः न स्यादति लोलुपः / अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते।।१०।। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/171 00000000000ood 50000000000000 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only