SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0900000000000000000000000 5000000000000000000000000000000r मूल: एगया अचेलए होइ, सचेले आवि एगया। एअंधम्महियं णच्चा, णाणी णो परिदेवए||३|| छायाः एकदाऽचेलको भवति, सचेलको वाप्येकदा। ____एतं धर्मे हितं ज्ञात्वा, ज्ञानी नो परिदेवेत्।।३।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एगया) कभी (अचेलए) वस्त्र रहित (होइ) हो (एगया) कभी (सचेलेआवि) वस्त्र सहित हो, उस समय समभाव रखना (एअं) यह (धम्महिय) धर्म हितकारी (णच्चा) जानकर (णाणी) ज्ञानी (ण) नहीं (परिदेवए) खेदित होता है। _____ भावार्थ : हे गौतम! कभी ओढ़ने को वस्त्र हो या न हो, उस अवस्था में समभाव से रहना, इसी को धर्म हितकारी जान कर योग्य वस्त्रों के होने पर अथवा वस्त्रों के बिलकुल अभाव में या फटे वस्त्रों के प्राप्त होने पर ज्ञानीजन कभी खेद नहीं करते हैं। मूल : अक्कोसेज्जा परे भिक्खू, न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले||४|| छाया: आक्रोशेत् परः भिक्षु, न तस्मै प्रतिसंज्वलेत्। सदृशो भवति बालानां, तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (परे) कोई दूसरा (भिक्खु) भिक्षु का (अक्कोसेज्जा) तिरस्कार करे (तसिं) उस पर वह (न) न (पडिसंजले) क्रोध करे, क्योंकि क्रोध करने से (बालाणं) मूर्ख के (सरिसो) सदृश (होइ) होता है (तम्हा) इसलिए (भिक्खू) भिक्षु (न) न (संजले) क्रोध करे। भावार्थ : हे आर्य! भिक्षु या साधू या ज्ञानी वही है, जो दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होने पर भी उन पर बदले में क्रोध नहीं करता। क्योंकि क्रोध करने में ज्ञानीजन भी मूर्ख के सदृश कहलाता है। इसिलए बुद्धिमान श्रेष्ठ मनुष्य को चाहिए कि वह क्रोध न करें। मूल : समणं संजयं दंतं, हणेज्जा को वि कत्थइ। नत्यि जीवरस नासो ति, एवं पेहिज्ज संजए||५|| छायाः श्रमणं संयतं दान्तं, हन्यात् कोऽपि कुत्रचित्। नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः / / 5 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (को वि) कोई भी मनुष्य (कत्थइ) कहीं 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/169 in Education 00000000000006 For Personal & Private Use Only 00000000000 ang library.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy