________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OO000 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 छाया: इतीत्वर आयुषि, जीवितके बह प्रत्यवायके। विधुनीहि रजः पुराकृतं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 3 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (इइ) इस प्रकार (आउए) निरुपक्रम आयुष्य (इत्तरिअम्मि) अल्पकाल का होता हुआ और (जीविअए) जीवन सोपक्रमी होता हुआ (बहुपच्चवायए) बहुत विघ्नों से घिरा हुआ समझ करके (पुरेकंड) पहले से ही जमी हुई (रय) कर्म रूपी रज को (विहुणाहि) दूर करो, इस कार्य में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जिसे शस्त्र, विष, आदि उपक्रम भी बाधा नहीं पहुंचा सकते, ऐसा नोपक्रमी (अकाल मृत्यु से रहित) आयुष्य भी थोड़ा होता है और शस्त्र, विष आदि से जिसे बाधा पहंच सके ऐसा सोपक्रमी जीवन थोड़ा ही है। उसमें भी ज्वर, खांसी आदि अनेक व्याधियों का विघ्न भरा पड़ा होता है। ऐसा समझकर हे गौतम! पूर्व के किये हुए कर्मों को दूर करने में क्षण भर का भी प्रमाद न करो। मूल : दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सबपाणिणं| गाढा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम! मापमायए||४|| छायाः दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् / गाढ़ाश्च विपाकाः कर्मणां, संयम गौतम! मा प्रमादीः।।४|| अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (सव्वपाणिणं) सब प्राणियों को (चिरकालेण वि) बहुत काल से भी (खलु) निश्चय करके (माणुसे) मनुष्य (भवे) भव (दुल्लहे) मिलना कठिन है। (य) क्योंकि (कम्मुणो) कर्मों के (विवाग) विपाक को (गाढ़ा) नाश करना कठिन है। अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जीवों को एकेन्द्रिय आदि योनियों में इधरउधर जन्मते रहते हुए बहुत काल गया। परंतु दुर्लभ मनुष्य जन्म नहीं मिला। क्योंकि मनुष्य जन्म के प्राप्त होने में जो रोड़ा अटकाते हैं ऐसे कर्मों का विपाक नाश करने में महान कठिनाई है। अतः हे गौतम! मानव देह पाकर पल भर भी प्रमाद मत कर। मूल: पुढविकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायएllll छायाः पृथिवीकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् / कालं संख्यातीतं, संयम गौतम! मा प्रमादीः / / 5 / / 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/108 000000000000oodh Jain Education International 0000000000000 www.jainelibrary.org, For Personal & Private Use Only