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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 100000000000000000000000000000000000000000000000 साथ सोते हों वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं सोना चाहिए और जो पूर्व में स्त्रियों के साथ काम चेष्टा की है उसका स्मरण करना, नित्यप्रति स्निग्ध (गरिष्ठ) भोजन करना, परिमाण से अधिक भोजन करना एवं शरीर को बढ़ाने बनाने की चेष्टा करना ये सब ब्रह्मचारियों के लिए निषिद्ध है। क्योंकि दुर्जयी काम भोग ब्रह्मचारी के लिए तालपुट ज़हर के समान होते हैं। मूल : जहा कुक्कुडपोअस्स, निच्च कुललओ भयं। एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं।।४।। छाया : यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुललतो भयम्। ___एवं खलु ब्रह्मचारिणः, स्त्रीविग्रहतो भयम्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (कुक्कुड पोअस्स) मुर्गी के बच्चे को (निच्च) हमेशा (कुललओ) बिल्ली से (भयं) भय रहता है। (एव) इसी प्रकार (खु) निश्चय करके (बंभयारिस्स) ब्रह्मचारी को (इत्थीविग्गहओ) स्त्री शरीर से (भयं) भय बना रहता है। भावार्थ : हे गौतम! ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों की विषय जनित वार्तालाप तथा स्त्रियों का संसर्ग करना आदि जो निषेध किया है, वह इसलिए है कि जैसे मुगी के बच्चे को सदैव बिल्ली से प्राणवध का भय रहता है, अतः अपनी प्राण रक्षा के लिए वह उससे बचता रहता है। उसी तरह ब्रह्मचारियों को स्त्रियों के संसर्ग से अपने ब्रह्मचर्य के नष्ट होने का भय सदा रहता है। अतः उन्हें स्त्रियों से सदा सर्वदा दूर रहना चाहिए। / मूल : जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था। एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बम्भयारिस्स खमो निवासो।।५।। छाया : यथा विडालावसथस्य मूले, न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता। एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये, न ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः।।५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (बिरालावसहस्स) बिलावों के रहने के स्थानों के (मूले) समीप में (मूसगाणं) चूहों का (वसही) रहना (पसत्था) अच्छा या कल्याणकारी (न) नहीं है। (एमेव) इसी तरह (इत्थीनिलयस्स) स्त्रियों के निवास स्थान के (मज्झे) मध्य में (बम्भयारिस्स) ब्रह्मचारियों का (निवासों) रहना (खमो) योग्य (न) नहीं go0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog 0000000000000000000000000000000000000000000000064 भावार्थ : हे आर्य! जिस प्रकार बिलावों के निवास स्थानों के निर्ग्रन्थ प्रवचन/92 0000000000000 Jain Education International 50000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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