________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 गया है कि समुद्र और पानी की एक बूंद में जितना अन्तर है उतना ही अन्तर देवगति और मनुष्य गति के सुखों में है। (18) अठारहवें अध्ययन में शिष्य को गुरु के प्रति, पुत्र को पिता के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए तथा मुक्ति क्या है यही विषय मुख्य रूप से प्रतिपादित किया गया है। विनय धर्म की व्याख्या करते हुए इस अध्याय में कहा गया है कि जैसे सूखे हुए पेड़ और जले हुए बीज से अंकुर प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार कर्मबीज के जल जाने से भव अंकुर उत्पन्न नहीं होते। मुक्त जीव अनंत ज्ञानी, दर्शनधारी, अनुपम सुख-सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार से निर्ग्रन्थ प्रवचन में भगवान जिनेश्वर देव द्वारा प्रतिपादित जिनवाणी का विस्तार से उल्लेख किया गया है। ये ऐसे कल्याणकारी सूत्र हैं जिससे हम एक सुखद जीवन को जीते हुए सहज मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं, अनंत सुख पा सकते हैं। जीवन में बढ़ रहे सांसारिक तनावों से आत्म शान्ति पा सकते हैं, क्योंकि वर्तमान ही नहीं जगत के निर्माण से लेकर आज तक मानव जीवन कायागत विकारों, वैचारिक विकारों, सांसारिक विकारों से ग्रस्त रहा है। मनुष्य को बाहरी युद्ध से उतना खतरा नहीं है जितना स्वयं के अपने भीतर चल रहे द्वंदात्मक विचार संघर्ष से है। ऐसे संघर्षशील विचार वितान को सुखद सांत्वना देते हुए सार्थक दिशा में आगे बढ़ाने का कार्य केवल और केवल धर्म सूत्रों द्वारा ही सम्भव है। 6. धर्मसूत्रों में भी ऐसे धर्म सूत्र जो अन्धविश्वासों से मुक्त हैं। जिनका एक-एक शब्द वैज्ञानिक चिन्तन का सार है। जो विचार समस्त प्राणियों के कल्याण हेतु प्रकाशित किए गए हैं, ऐसे धर्मसूत्र ही निश्चित रूप से कल्याणकारी हैं, वस्तुतः धार्मिक हैं / अतः जब हम निर्ग्रन्थ प्रवचन में दिए गए चिन्तन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें इस वैचारिक उदारता और वैश्विक कल्याण के प्रति समर्पित चिन्तन का गम्भीर महत्व समझ में आता है। lgooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/15 oooooooooooooooootha Jain Education International For Personal & Private Use Only 00000000000000000bf www.jainelibrary.org NA