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________________ 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 10000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 महान संतों ने इसी कल्याणकारी लक्ष्य को लेकर सदैव धर्मसूत्रों का संकलन किया है। सभी को यह तो ज्ञात ही है कि भगवान महावीर की वाणी को उनके निश्रायी ग्यारह गणधरों ने प्रथम बार गणिपीटक के रूप में संकलित किया है। लेकिन जैसे-जैसे गणधर भगवन्तों की कालावधि पूर्ण हुई और जैन धर्मसूत्र लुप्त होने लगे तब वाचनाओं का अनेक बार आयोजन हुआ और वाचनाओं के मंथन-चिंतन से पुनः आगम वाणी अस्तित्व में आ सकी। जो जिनवाणी आज हमें सौभाग्य से उपलब्ध है उसे यथावत या पूर्ण तो नहीं कहा जा सकता। फिर भी जितने अंशों में हमारे पास यह अमृत संकलित है, इसे कल्याणकारी भावनाओं से भरे पूज्य संतों ने पुनः पुनः प्रस्तुत करके हम पर कितना बड़ा उपकार किया है, इसे हमें नहीं भूलना चाहिए। जिनवाणी और हमारे कर्तव्य भव्यात्माओं विचार कीजिए, ऐसी दुर्लभ जिनवाणी का जो भी अमृत हमें उपलब्ध है क्या उसका पठन-पाठन करते हुए हमें अपने जीवन को सकत दिशा में सार्थक संस्कारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ाना चाहिये? सभी इस प्रश्न का उत्तर हाँ में ही देना चाहेंगे। लेकिन समयाभाव, आदत नहीं होना, गुरु भगवंतों का सान्निध्य नहीं होना जैसे बहाने बनाकर हम लोग इन सूत्रों का नियमित अध्ययन नहीं करते हैं और अनेक बार सही दिशा में सोचने की बजाए जिनशासन और जिनशासन की धरोहर जिनवाणी के प्रति भी कुछ शंकाएं पाल लिया करते हैं। ऐसे शंका समाधान हेतु निर्ग्रन्थ प्रवचन जैसे ग्रन्थ बड़े उपयोगी होते हैं जो हमें आज की भाषा में, आज के कर्तव्यों का पालन करने हेतु प्रेरित करते हैं और जीवन को उच्चतम मानवीय मूल्यों से जोड़ते हुए आगे बढ़ाते हैं। मूल सम्पादक, प्रेरक मुनिराज एवं प्रकाशक मण्डल भी उपरोक्त भावनाओं को ही हृदय में संजोते हुए इस अमूल्य ग्रन्थ को प्रकाशित करने का श्रम कर रहे हैं। हमें इस श्रम का पूर्णतः अनुमोदन करते हुए निर्ग्रन्थ प्रवचन के संदेशों को अपने जीवन में उतारना चाहिये। प्रस्तुति : सम्पादक ऋषि मुनि 19000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/16ma 00000000ood Doo0000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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