________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oooot 0000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 आत्माएँ लोक के अग्रभाग पर ठहरी रहती हैं। वे आत्माएँ इस मानव शरीर को यहीं छोड़कर लोकाग्र पर सिद्धात्मा होती हैं। मूलः अरुविणोजीवघणा, नाणदंसणसन्निया। अउलंसुहसंपन्ना, उवमाजस्सनत्थिउ||२७|| छायाः अरुपिणो जीवघन्नाः, ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः। अतुलं सुखं सम्पन्नाः, उपमा यस्य नास्ति तु।।२७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अरुविणो) सिद्धात्मा अरूपी है और (जीवघणा) वे जीव घन रूपी हैं। (नाणदंसणसन्निया) जिनकी केवल ज्ञानदर्शन रूप ही संज्ञा है। (अउल) अतुल (सुहसंपन्ना) सुखों से युक्त हैं (जस्स उ) जिसकी तो (उवमा) उपमा भी (नत्थि) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! जो आत्मा सिद्धात्मा के रूप में होती हैं, वे अरूपी हैं, उनके आत्म प्रदेश घन रूप में होते हैं। ज्ञान दर्शन रूप ही जिनकी संज्ञा होती है और वे सिद्धात्माएँ अतुल सुख से युक्त रहती हैं। उनके सुखों की उपमा किसी से भी नहीं जा सकती हैं। प्रथमाचार्यश्रीसुधर्मोवाच|| मूलः एवं से उदाहु अणुचरनाणी, अणुचरदंसी अणुचरनाणदंसणधरे। अरहा णायपुत्चे भयवं, वेसालिए विआहिए ति बेमि||२८| छायाः एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदर्शी, अनुत्तर ज्ञानदर्शनधरः। अर्हन् ज्ञातपुत्रः भगवान्, वैशालिको विख्यातः इति बवीमि।।२८।। अन्वयार्थ : हे जम्बू ! (अणुत्तरनाणी) प्रधान ज्ञान (अणुत्तरदंसी) प्रधान दर्शन अर्थात् (अणुत्तरनाणदंसणधरे) प्रधान ज्ञान और दर्शन उसके धारक और (विआहिए) सत्योपदेशक (से) उन निग्रंथ (णायपुत्ते) ज्ञातपुत्र (वसालिए) त्रिशला के अंगज (अरहा) अरिहंत (भयवं) भगवान ने (एवं) इस प्रकार (उदाहु) कहा है। (त्ति वेमि) इस प्रकार सुधर्म स्वामी ने जम्बू स्वामी को कहा। ___ भावार्थ : हे जम्बू! प्रधान ज्ञान और प्रधान दर्शन के शाश्वत धारक, सत्योपदेश करने वाले, प्रसिद्ध क्षत्रिय कुल के सिद्धार्थ राजा के पुत्र और त्रिशला रानी के अंगज, निर्ग्रन्थ, अरिहंत भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा है। तदनुसार सुधर्म स्वामी ने जम्बू स्वामी को निर्ग्रन्थ प्रवचन समझाया है। Agoooooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/205 100000000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only 000000000000064 www.jainelibrary.org