________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g do0000000000000000000000000000 DOO00000000000 रूप अग्नि को प्रदीप्त करना चाहिए। परन्तु शरीर के बिना तप नहीं हो सकता, इसलिये शरीर रूप कण्डे, कर्म रूप ईंधन और संयम व्यापार रूप शान्ति पाठ पढ़ करके, मैं इस प्रकार ऋषियों के द्वारा प्रशंसनीय चारित्र साधन रूप यज्ञ को प्रतिदिन करता रहता हूँ। मूलः धम्मे हरए बंभे संतितित्ये, अंणाविले अत्तपसन्नलेसे। जेहिंसिण्णाओविमलोविसुद्धो, सुंसीतिभूओपजहामिदोस||४|| छायाः धर्मो हृदो ब्रह्म शान्तितीर्थ मनाविल आत्मप्रसन्नलेश्यः यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम्।।२४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अणाविले) मिथ्यात्व रहित स्वच्छ (अत्तपसन्नलेसे) आत्मा के लिए प्रशंसनीय और अच्छी भावनाओं को उत्पन्न करने वाला ऐसा जो (धम्मे) धर्म रूप (हरए) द्रह और (बंभे) ब्रह्मचर्य रूप (संतितित्थे) शान्तितीर्थ है। (जहिं) उसमें (सिण्हाओ) स्थान करने से तथा उस तीर्थ में आत्मा के पर्यटन करते रहने से (विमलो) निर्मल (विसुद्धो) शुद्ध और (सुसीतिभूओ) राग द्वेषादि से रहित वह हो जाता है। उसी तरह मैं भी उस द्रह और तीर्थ का सेवन करके (दोस) अपनी आत्मा को दूषित करे, उस कर्म को (पजहामि) अत्यन्त दूर करता हूँ। भावार्थ : हे गौतम! मिथ्यात्वादि पापों से रहित और आत्मा के लिए प्रशंसनीय एवं उच्च भावनाओं को प्रकट करने में सहाय्य भूत ऐसा जो सवच्छ धर्म रूप द्रह है उसमें इस आत्मा को स्नान कराने से तथा ब्रह्मचर्य रूप शान्ति तीर्थ की यात्रा करने से शुद्ध निर्मल और रागद्वेषादि से रहित यह हो जाता है। अतः मैं भी धर्म रूप द्रह और ब्रह्मचर्य रूप तीर्थ का सेवन करके आत्मा को दूषित करने वाले अशुभ कर्मों को सांगोपांग नष्ट कर रहा हूँ। DOG 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000bf 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/64 00000000000oobil 0000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org