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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooot Boooooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (सो) वह (तवो) तप (दुविहो) दो प्रकार का (वुत्तो) कहा गया है। (बाहिरभिंतरो तहा) बाह्य तथा आभ्यन्तर (बाहिरो) बाह्य तप (छविहो) छ: प्रकार का (वुत्तो) कहा है। (एवं) इसी प्रकार (अभिंतरो) आभ्यन्तर (तवो) तप भी है। __भावार्थ : हे आर्य! जिस तप से पूर्व संचित कर्म नष्ट किये जाते हैं, वह तप दो प्रकार का है। एक बाह्य और दूसरा आभ्यान्तर / बाह्य के छ: प्रकार हैं। इसी तरह आभ्यन्तर के भी छ: प्रकार हैं। मूल : अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया, य बज्झो तवो होइ||२|| छायाः अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः। __कायक्लेशः सलीनता च, बाह्य तपो भवतिः।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! बाह्य तप के छ: भेद यों हैं(अणसणमूणोयरिया) अनशन, ऊनोदरिका (य) और (भिक्खायरिया) भिक्षाचर्या (रसपरिच्चाओ) रसपरित्याग (कायकिलेसो) काय क्लेश (य) और (सलीणया) नो इन्द्रियों को वश में करना। यह छ: प्रकार का (बज्झो) बाह्य (तवो) तप (होइ) है। _ भावार्थ : हे गौतम! एक दिन, दो दिन यों छ: छ: महीने तक भोजन का परित्यगा करना, या सर्वथा प्रकार से भोजन का परित्याग करके संथारा कर ले उसे अनशन तप कहते हैं। अनैमित्तिक भोजी होकर नियमानुकूल माँग करके भोजन खाना वह भिक्षाचर्या नाम का तप है। घी, दूध, दही, तेल और मिष्ठान्न आदि का परित्याग करना, वह रस परित्याग तप है। शीत व ताप आदि को सहन करना कायक्लेश नाम का तप है और पांचों इन्द्रियों को वश में करना एवं क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त करना, मन, वचन, काया के अशुभ योगों को रोकना यह छठा संलीनता तप है। इस तरह बाह्य तप के द्वारा आत्मा अपने पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर सकती है। मूल: पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणंच विउस्सग्गो, एसो अभिंवरो तवो||१३|| छायाः प्रायश्चितं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः / ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः / / 13 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! आभ्यन्तर तप के छ: भेद यों हैं। (पायच्छित्तं) प्रायश्चित (विणयो) विनय (वेयावच्चं) वैयावृत्य (तहेव) वैसे 90000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 OOO निर्ग्रन्थ प्रवचन/164 dooooooooooooooooo Jain Education Internationals booooooooooooooook ___www.jaineliorary.org. 00000 For Personal & Private Use Only
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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