________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 D000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 है, (एवं) इसी तरह (भुत्तण) भोगे हुए (भोगाणं) भोगों का (परिणामो) परिणाम (सुन्दरो) अच्छा (न) नहीं होता है। भावार्थ : हे आर्य! किंपाक फल खाने में स्वादिष्ट, सूंघने में सुगंधित और आकार प्रकार से भी मनोहर होते हैं तथापि खाने के बाद ये फल ज़हर का काम करते हैं। इसी तरह विषय भोग भी भोगते समय तो क्षणिक सुख दे देते हैं, परन्तु उसके पश्चात् ये चौरासी की चक्रफेरी में दुःखों का समुद्र रूप हो सामने बाधा बन कर आ जाते हैं। आत्म कल्याण की दृष्टि से ये घातक हैं। मूल : दुपरिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं। अह सति सुव्वया साहू, जे तरति अतरं वणिया वा।।१३।। छाया : दुःपरित्याज्या इमे कामाः, न सुत्यजा अधीरपुरुषैः। अथ सन्ति सुव्रताः साधवः, ये तरन्त्यतरं वणिके नैव।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (इमे) ये (कामा) कामभोग (दुपरिच्चया) मनुष्यों द्वारा बड़ी ही कठिनता से छूटने वाले होते हैं, ऐसे भोग (अधीरपुरिसेहिं) कायर पुरुषों से तो (नो) नहीं (सुजहा) सुगमता से छोड़े जा सकते हैं। (अह) परन्तु (सुव्वया) सुव्रत वाले (साहू) अच्छे पुरुष जो (संति) होते हैं (जे) वे (अंतर) तिरने में कठिन ऐसे भव समुद्र को भी (वाणिया) वणिक की (वा) तरह (तरंति) तिर जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इन काम भोगों को छोड़ने में बुद्धिमान मनुष्य भी बड़ी कठिनाइयां उठाते हैं, फिर कायर पुरुष तो इन्हें सुलभता से छोड़ ही कैसे सकते हैं?अतः जो शूरवीर और धीर पुरुष होते हैं, वे ही इस कामभोग रूपी समुद्र के पार पहुँच सकते हैं। संयम आदि व्रत नियमों की धारणा करने वाले पुरुष ही ब्रह्मचर्य रूपी जहाज के द्वारा संसार समुद्र के पार पहुँच सकते हैं। मूल : उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई।।१४।। छाया : उपलेपो भवति भोगेषु, अभोगी नोपलिप्यते। _भोगी भ्रमति संसारे, अभोगी विप्रमुच्यते।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भोगेसु) भोग भोगने में कर्मों का (उवलेवी) उपलेप (होइ) होता है और (अभोगी) अभोगी (नोवलिप्पई) कर्मों से लिप्त नहीं होता है। (भोगी) विषय सेवन करने वाला (संसारे) संसार में (भमइ) भ्रमण करता है और (अभोगी) विषय सेवन नहीं करने वाला (विप्पमुच्चई) कर्मों से मुक्त होता है। 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/96 0000000000 0000000000obil Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org