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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Vdoo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000c योनियों में कष्टों के साथ घूमते रहते हैं क्योंकि उन्होंने स्वयमेव ही ऐसे कार्य किये हैं कि जिन कर्मों के भोगे बिना उनका छुटकारा कभी हो ही नहीं सकता है। मूल : विरया वीरा समुट्ठिया, कोहकायरियाइपीसणा। पाणे ण हणंति सबसो, पावाओ विरयाभिनिबुडा||५|| छाया: वीरता वीराः समुत्थिताः, क्रोधकातरिकादिषीषणः / प्राणन्न घनन्त सर्वशः पापाद्विरता अभिनिर्वृताः / / 5 / / अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (विरया) जो पौद्गलिक सुखों से विरक्त है और (समुठिया) सदाचार के सेवन करने में सावधान है, (कोहकायरियाइ) क्रोध, माया और उपलक्षण से मान एवं लोभ को (पीसणा) नाश करने वाला है, (सव्वसो) मन, वचन, काया से जो (पाणे) प्राणों को (ण) नहीं (हणंति) हनता है (पावाओ) हिंसाकारी अनुष्ठानों से जो (विरयाभिनिव्वुडा) विरक्त है और क्रोधादि से उपशान्त है चित्त जिसका, उसको (वीरा) वीर पुरुष कहते हैं। भावार्थ : हे पूत्रों! मार काट या युद्ध करके कोई वीर कहलाना चाहे तो वास्तव में वह वीर नहीं है। वीर तो वह है जो पौद्गलिक सुखों से अपना मन मोड़ लेता है, सदाचार का पालन करने में सदैव सावधानी रखता है, क्रोध, मान, माया और लोभ इन्हें अपना आन्तरिक शत्रु समझ कर, इनके साथ युद्ध करता रहता है और उस युद्ध में उन्हें नष्ट कर विजय प्राप्त करता है, मन, वचन और काया से किसी तरह दूसरों का हक में बुरा न हो, ऐसा हमेशा ध्यान रखता रहता है और हिंसादि आरम्भ से दूर रहकर जो उपशान्त चित्त से रहता है। मूलः जेपरिभवईपरंजणं,संसारेपरिवत्तईमहं। * अदुइंखिणियाउंपाविया, इतिसंखायमुणीणमज्जई||६|| छायाः यः परिभवति परं जनं, संसारे परिवर्त्तते महत्। अतः इंखिनिका तु पापिका, इति संख्याय मुनिन माद्यतिः / / 6 / / अन्वयार्थ : हे पुत्रों! (जे) जो (पर) दूसरे (जणं) मनुष्य को (पारिभवई) अवज्ञा से देखता है, वह (संसारे) संसार में (मह) अत्यन्त (परिवत्तइं) परिभ्रमण करता है (अदु) इसलिए (पाविया) पापिनी (इंखिणिया) निंदा को (इति) ऐसी (संखाय) जानकर (मुणी) साधु पुरुष (ण) नहीं (मज्जई) अभिमान करे। goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ooood 500000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/151 w a boo0000000000000oodi lion International For Personal & Private Use Only Sooo000000000000006 www.jainelibrary.org AN
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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