________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ge goo0000000000000000000000000000 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 मूल: जाजा वच्चइ रयणी, न सा पडिनिअचई। धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ||9||? छाया : या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्त्तते। धर्मं च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः / / 11 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जा जा) जो जो (रयणी) रात्रि (वच्चइ) निकलती है (सा) वह (न) नहीं (पडिनिअत्तइ) लौट कर आती है। अतः (धम्मं च) धर्मं (कुण्माणस्स) करने वाले की (राइओ) रात्रियाँ (सफला) सफल (जंति) जाती है। भावार्थ : हे गौतम! रात और दिन का जो समय जा रहा है। वह पनः लौट कर किसी भी तरह नहीं आ सकता। ऐसा समझ कर जो धार्मिक जीवन बिताते हैं उनका समय (जीवन) सफल है। मूल : सोही उन्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठ। णिव्वाणं परमंजाइ, घयसित्ति व पावए||१२|| छायाः शुद्धि ऋजुभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति। निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इव पावकः / / 12 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उज्जूअभूयस्स) सरल स्वभावी का हृदय (सोही) शुद्ध होता है। उस (सुद्धस्स) शुद्ध हृदय वाले के पास (धम्मो) धर्म (चिट्ठइ) स्थिरता से रहता है। जिससे वह (परम) प्रधान (णिव्वाणं) मोक्ष को (जाइ) जाता है। (व्व) जैसे (पावए) अग्नि में (घयसित्ति) घी सींचने पर अग्नि प्रदीप्त होती है। ऐसे ही आत्मा भी बलवती होती है। भावार्थ : हे गौतम! स्वभाव को सरल रखने से आत्मा कषायादि से रहित होकर (शुद्ध) निर्मल हो जाती है। उस शुद्धात्मा के धर्म की भी स्थिरता रहती है। जिससे उसकी आत्मा जीवन मुक्त हो जाती है। जैसे अग्नि में घी डालने से वह चमक उठती है उसी तरह आत्मा के कषायादिक आवरण दूर हो जाने से वह भी अपने केवल ज्ञान के गुणों से देदीप्यमान हो उठती है। मूल : जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं| धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तम||१३|| छायाः जरामरणवेगेन वाह्यमानानाम् प्राणिनाम्। धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम्।।१३।। 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oog 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/51 00000000000ookla Jain Education International 5000000000000 swww.jainelibrary.org, For Personal & Private Use Only