Book Title: Kshirarnava
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Balwantrai Sompura
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૨૮ શિલ્પશાસ્ત્ર ગ્રંથ ક્ષીરાણવ દ્રવ્ય સહાયક : પ.પૂ. આચાર્ય ભગવંત સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના સમુદાયના પ.પૂ. ગચ્છાધિપતિ આચાર્ય શ્રી સૂર્યોદયસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની પ.પૂ. સા. શ્રી પ્રશમગુણાશ્રીજી મ.ના સદુપદેશથી આનંદ આરાધના ભવન- મધુપુરી-જૈનનગર, સાબરમતી બહેનોના ઉપાશ્રયના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી - સંયોજક: શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪ર૬પ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬પ ઈ.સ. ૨૦૦૯ Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ********************************** श्री विश्वकर्मा प्रणित वास्तुविद्यायां क्षीरार्णव KHSHIRARNAVA मूल सहित-सुप्रभा नाम्नी हिन्दी-गुजराती भाषाटीका संपादक : . स्थपति प्रभाशंकर ओ. सोमपुरा शिर विशारद JFM A -- - - - -- - Edited by: Sthapati Prabhashanker 0. Sompura, Shilpa Visharad. PALITANA (Saurashtra) *********************************** Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शिल्प स्थापत्य' ग्रंथ प्राप्तिस्थान : Shilpa books will be available at : संपादक : : Edited by : १. स्थपति. प्रभाशंकर. ओ. सोमपुरा, 1. Prabhashanker. 0. Sompura शिल्प विशारद, Architect Shilpa Visharad, गोरावाडी, पालीताणा Gorawadi, Palitana. (Gujarat) (INDIA) : प्रकाशक : : Publishers : २ बलवंतराय. सोमपुरा था भातृएँ 2. B. P. Sompura & Bros. ३, पथिक सोसायटी, अहमदाबाद-१३ 3, Pathik Sociv, ३. सरस्वति पुस्तक भंडार, बुक सेलर्स, Ahmedabad-13. रतनपोल, हाथीखाना, अहमदाबाद 3. N. M. Tripathi & Co. ४. महादेव रामचंन्द्र जागुष्ठे Princ ss Street, Bombay 2. प्रण दरवाजा, अहमदाबाद 4. Moiilal Banarasidas Bungalow Road, Jawahar Nagar, Delhi-7. 5. Motilal Banarasidas Nepali Khapada, P. B. No. 75, Varanasi. (U. P.) प्रत १००० 1000 Copies All Rights Reserved मुल्य 8000 (पोस्टेज पृथक) Price Rs. Tood Postage Extra) श्री मणिलाल छगनलाल शाह . नवप्रभात प्रिन्टिग प्रेस, श्रीकांटा रोड, अहमदाबाद. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ क्षीरार्णव ग्रंथानुक्रमणिका २ ग्रंथ ऋग अध्याय क्रमांक ९९ १ ३ संपादक के हस्तलीखीत ग्रंथ संग्रह ४ प्रस्तावना ५ विस्तृत अनुक्रमणिका ६ भूमिका :- सुप्रसिद्ध विद्वान पुरातत्वश डॉ० मोतीचन्द्रजी । ७ आमुख :- माननीय कनैयालाल मा० मुनशीजी । १० क्षमायाचना ८ पुरोवाचन श्री श्री गोपालजी नेवटीया ९. देवस्तुति ग्रंथसंपादकको अभिनन्दन ११ आभारदर्शन । १०० १०१ १०२ १०३ १०४ प्रासाद पुरुषांग - प्रासाद जाति आयादि गणिताधिकार Atara ग्रंथ की संक्षिप्त अनुक्रमणिका २ ३ कूर्मशिला निवेशन ४ ७ जगती लक्षणाधिकार भिट्टमान पीठमान प्रमाण ६ प्रासादोदयमान १०५ द्वारमानप्रमाण १०६ ८ पीठ थर विभाग १०० ९ मंडोवर थर विभाग १० मेरुमंडोवराधिकार १०८ विश्वकर्मा प्रणित १ वृक्षात्र २ ज्ञामरत्नकोश ३ सूत्र संतान- अपराजित पृच्छा ४ जयपृच्छा ५ विश्वकर्म प्रकाश ६ प्रासादमण्डन ७ रुपमण्डन १ २८ ४१ ४९ ५२ ५६ १ वास्तु स्थापत्य २. शिल्पकी व्याख्या ६१-६१ ६५ ७४ ८८ ३ वास्तुशायका प्रणेता ४ भारतका शिल्पिवर्ग " स्थापत्यधिकारी ६ भारतीय शिल्पीयोंकी प्रसंशा ७ प्रासादकी चौद जातियाँ ८ शिल्पस्थापत्य में विवादास्त प्रश्नो । ९ क्षीरार्णव ग्रंथ संशोधन क्षीरार्णव ग्रंथका अनुवाद संशोधनमें प्राचिन ग्रंथोंका ऋणस्विकार ८ देवतामूर्ति प्रकरणम् सूत्रधार ९ वास्तुमञ्जरी १० प्रासादतिलक अ. क्रमांक १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ १९६ ११७ ११८ ११९ १२० ११ गर्भगृहोदय - द्वारशाखाधिकार १०१ १२ प्रतिमा-पीठ-लिङ्गमान ११५ १३ देवतादृष्टि- पदस्थापन १२३ १४ शिखरभद्र नासकादि सरवेधादि १३७ १५ शिखराधिकार १४३ १६ रेखा विचार १७४ १७ स्तंम्भमान - लक्षणाधिकार १८२ १८ मंडपाधिकार १९८ १९. सांधार भ्रम निरुपणाधिकार २३८ २० सांधार चातुर्मुख प्रासाद १४८ २१ केशरादि वैराग्यकुल प्रासाद २६४ २२ चातुर्मुख महावासाद स्वरुप २७८ ११ वास्तुराज १२ समराङ्गण सूत्रधार १३ मयमतम् मय मुनि १४ काश्यपशिल्प १५ शिल्परत्नम (कुमार) १६ सच्छिल्पतंत्र १७ वास्तुप्रदीप १८ शुक्रनीति १९ ब्रहद्संहिता २० वत्थुसार ठकुर फेरु २१ विवेकविलास जिनदत्तसूरि २२ प्रतिष्ठासार दी- वसुनन्दी व्यास मुनि २३ मत्स्य पुराणम् २४ अभि पुराणम् २५ विष्णु धर्मोत्तर ४० २६ द्रविड आगमग्रंथो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थपति प्रभाशङ्कर - ओघडभाइ - सोमपुरा - शिल्पविशारद के वास्तुशास्त्र के ग्रंथसंग्रह श्री विश्वकर्माणित २५ प्रमाणमञ्जरी सूत्र० मलदेव २६ वास्तुराज सूत्र • राजसिंह २७ वास्तुराज अन्य सर्व विषय २८ वास्तुकौतुक सूत्र० गणेश २९ कलानिधि सूत्र ० गोविंद ३० वास्तुउद्धारधोरणी ३१ वास्त्वध्याय सूत्र कौशिक १२ सुखानंद वास्तु सूत्र • सुखानंद ३३ वास्तुरत्नतिलक ३४ जलाश्रयाधिकार १ क्षीरार्णव २ वृक्षार्णव ३ दीपार्णव ४ जयपृच्छा ५ वास्तुविद्या ६ सूत्र संतान- अपराजित पृच्छा ७ ज्ञान रत्नकोश ८ सूत्रप्रतान ९. विश्वकर्मा प्रकाश १० वास्तुशास्त्रकारिका ११ विश्वकर्मा विद्याप्रकाश १२ विश्वकर्मा वास्तुशास्त्रम् १३ समराङ्गण सूत्रधार १४ राजवल्लभ १९ वास्तुसार १६ वास्तुमण्डन -१० प्रासादमंण्डन १८ रुपमण्डन १९ रुपावतार २० देवतामूर्ति प्रकरणम् २१ ज्ञानसार अपराजित २२ वास्तुमञ्जरी ( ठक्कर फेरु) २३ वास्तुसार मंडन २४ बेडायाप्रासादतिलक सू० वीरपाल ३५ देव्याधिकार ३६ वास्तुप्रदीप पं० वासुदेव ३७ सच्छिल्पतंत्र ३८ वापिलक्षणम् ३९ मयशास्त्र ४० शिल्पशास्त्र (उडीया ) ४१ लक्षण समुच्चय ( विरोचन प्रणित ) ४२ नारदीय शिल्प उपग्रंथ (छुटक प्रकरण) १ आयतत्व २ केशराज ३ जिप्रासाद ४ ऋषभादिप्रासाद ५ मेकविशतिमेरु ५ लिङ्गलक्षण ७ श्री वश्यप्रासाद लक्षण नीतिशास्त्र के ग्रंथ मुद्रित १ शुक्रनिति २ विवेकविलास ३ ब्रुहृदसंहिता ४ वसिष्ठसंहित ५ नारदसंहिता ६ गर्गसंहिता ७ हयशिर्ष पंचरात्र ८ अभिलषितार्थ चिन्तामणी ९. मानसोल्लास द्राविड शिल्पग्रंथ १ मयमतम् २ शिल्परातम् ३ मानसार ४ काश्यपशिल्प ५ वास्तुविद्या ६ मनुष्यालयचंदिका इशान शिवगुरुदेव पद्धति (३) ७ ८ विश्वकर्माय शिल्प पुराण व्यासमुन १ मत्स्य २ अग्नि ३ भविष्य ४ गरुड ५ स्कंध ६ उत्कल विष्णुधर्मोत्तर ७ आगम ग्रंथ १ सुप्रभेद २ कामिक ३ किरणा ४ अंशुभनभेद ५ सकला ६ सिद्धांत शेखर ७ जीर्णोद्धार दर्शक ८ सारसंग्रह ९ पूर्वकीरण Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना किसी भी देशके प्राचीन स्थापत्य और साहित्यसे ही उस देशकी संस्कृतिक मूल्य आँका जाता है । विद्या और कला देशका अनमोल धन है । शिल्पस्थापत्य मानव जीवनका अति उपयोगी और मर्मपूर्ण अंग है। __ भारतीय शिल्प स्थापत्य (वास्तुविद्या ) का प्रारम्भ काल कब से माना जाय अिस बारे में निर्णय करने में प्राचीन साहित्यके आधार लेने की आवश्यकता है । ऋग्वेद, ब्राह्मण ग्रंथों, रामायण, महाभारत, पुराण, जैन आगमों और बौद्ध ग्रंथों आदि साहित्य के संदर्भ सहायक हो सकते हैं। ऋग्वेदके सातवें मंडलके दो अध्यायोंमें घरको सुदृढ रतंभो के साथ वास्तुपति इंद्रकी स्तुति है । यहाँ इंद्रको देवोंके स्थपत्ति त्वष्ठा कहा गया है। विश्वकर्मा को समग्र विश्वके त्वष्टा माना गया है, उनके पुत्रको भी त्वष्टा कहकर उनके शिष्य विभुकी स्तुति की गई है। और ऋग्वेदमें वास्तुविद्याके ज्ञाता अगस्त्य और वसिषके नाम भी दिये गये हैं। त्वष्टा और विभुने इन्द्रको वन बना दिया था। पाषाणके बनाये हुए सौ नगरोंमें सप्रमाण भवनोंकी रचनाका उल्लेख मिलता है। जिससे हम यह अनुमान लगा सकते है कि स्थापत्य कलाका प्रारम्भ ऋग्वेदसे भी बहुत वर्षों से पहले हुआ होगा। अथर्ववेदके सूकतों में स्थापत्यकलाके बहुत शब्द पाये जाते हैं। सामवे के गृह्यसूत्रमें गृहारम्भकी धार्मिक क्रियाके तीन अध्याय है । आश्लायन गृह्यसूत्रमें भी वास्तु विद्याके पर तीन अध्याय हैं । भूमिको अतीव वंदनीय मानकर उसका पूजन और उसकी स्तुति दी गई है। इन सब बातोंको होते हुए भी ऋग्वेद या ब्राह्मण ग्रंथों में वास्तुविद्याके बारेमें स्वतन्त्र अध्याय नहीं मिलते हैं। मूर्तिपूजाका प्रारम्भ भी वैदिक ब्रह्मण युगमें हुआ था ।। संसारके प्रत्येक प्राणीको जन्मसे ही शीत उष्ण और वर्षाकी प्राकृतिक प्रतिकूलताओंके सामने सुरक्षाकी जरूरत महसूस हुई इसीसे ही वास्तुविद्याका प्रारम्भ स्थूल रूपसे आदिकाल में माना जा सकता है। पर्वतोंकी गुफा या पर्णकुटि बनाकर मानवीने वास किया । वास्तुदव्यमें प्रथम घास ओर वांसका उपयोग हुआ, बादमें काष्टका, बाद में ईटोंका उपयोग होने लगा। अंतमें पाषाणका उपयोग बाँधकामों में होने लगा । शुक्राचार्य कहते हैं कि विद्या अनंत है और कलाकी तो गिनती ही नहीं हो सकती । परन्तुं मुख्य विद्या बत्तीस और कलाओं चौसठ उनके द्वारा कही Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई हैं । वे विश और कलाकी सामान्य व्याख्या देते हुए कहते हैं कि 'जो कार्य वाणीसे हो सके वह विद्या है और मूक मनुष्य भी जो कार्य कर सके वह कला है ।' शिल्प, चित्र इत्यादि मूक् भावे हो सके उसको कला कहा है। भिन्न भिन्न आचार्योंने कलाकी संख्याको कम और अधिक बताया है । शुक्राचार्यने चौसठ कलाएं बतायी हैं । समुद्र पालने जैन सूत्र में ७२ कलाएं, काम सूत्रमें यशोधरने ६४ ( अवान्तरसे ६४ x ८ = ५१२ कलाएं कही गई है।) ललित विस्तरामें ६४, काम सूत्रमें २७, श्रीमद् भागवन्में ६४ कलाएं गिनी . विविध कलाएं विविध क्रियासे होती हैं। मनुष्य जिस कलाका आश्रय लेता है उस कला परसे उसकी जातिका नाम होता है। इस तरह कलाके वर्गानुसार ज्ञातियोंके समूह भी बनने लगे। चार वर्णाश्रमोंमेंसे भेद पडने लगे। वास्तुशास्त्र स्थापत्य और शिल्पकी व्याख्या वास्तुविद्या या धास्तुशास्त्र, स्थापत्य और शिल्प शब्दकी व्याख्याके अभावसे उसका मिश्र स्वरूप समझकर भाषाका प्रयोग हो रहा है। परन्तु वास्तुशास्त्र इन सबोंसे व्यापक अर्थमें है । उसका अंतर्गत स्थापत्य और स्थापत्यका अंतर्गत १शेल्प है। १९ १. वास्तुशास्त्र-देशपथ, नगर, दुर्ग, जलाश्रयादि सर्व, उद्यानवाटिका आराम स्थानों, राज प्रासादों, देव प्रासादों, भवनों, सामान्यगृहों, शल्यज्ञान, शिराज्ञान, भूमिपरीक्षा इन सर्व विद्या वास्तुशास्त्र है । २. स्थापत्य-दुर्ग, जलाश्रयों, राजप्रासादों, देवप्रासाद, भवनों, सामान्यगृहों वगैरहके बाँधकाम स्थापत्य है । इनके शास्त्रको विशेषकर स्थापत्य शिल्पशास्त्र कहा गया है। ३. शिल्प-दुर्गके द्वार, राजभवन, देवप्रासाद, जलाश्रयों वगैरह स्थापत्योंके सुशोभन, अलंकृति, गवाक्ष, झरोखे, नकशी, मूर्तियाँ प्रतिमाों ये सब शिल्प है। . वास्तुशास्त्रके प्रणेता-मत्स्यपुराणमें शिल्पके अठारह आचार्यों के नाम ऋषिमुनियों आदि के दिये हुए हैं। बृहत् संहितामें दूसरे सात आचार्यों के नाम दिये हुए हैं। अग्निपुराण अ० ३९ में लोकाख्यायिकामें शिल्पशास्त्र के पर पच्चीस ग्रंथोंकी नोंध दी हुई है । उनमें कई तांत्रिक और क्रियाओंके ग्रंय है। परन्तु उनमें शिल्पशास्त्रके बहुत उल्लेख हैं। स्मृतिकार आचार्यों के संहिता ग्रंथों में और नीतिशास्त्रके ग्रंथोंमें और पुराणों में भी शिल्पशास्त्रके बहुत उल्लेख हैं । विश्वकर्म Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशमें प्रारमगमें स्तुति करते कहा है कि महादेवने पाराशरको वास्तुशास्त्रको ज्ञान दिया । पाराशरे बृहद्रथको और बृहद्रधने विश्वकर्माको वह ज्ञान दिया । 'मानसार' में बत्तीस शिल्पाचायों के नाम दिये हुए हैं। विश्वकर्माके मानसपुत्र चार जय मय सिद्धार्थ और अपराजित नामसे थे । कई ग्रंथों में सिद्धार्थको त्वष्टा भी कहा है। उन्होंने लोह कर्म, यंत्रकर्म में कौशल्य प्राप्त किया। बाकी पुत्रोंने विश्वकर्माको प्रश्नों करके वास्तुविद्याका संपादन किया। उनके संवादके रूपमें ग्रंथ रचे गये हैं। स्थापत्योका विकास क्रम स्थापत्यों में मुख्यतया देवमंदिरोंके विविध विभाग घाट पद्धतिका विकास क्रमशः पृथक् पृथक् काल में और देशके खास विभागमें प्रचलित एक या दूसरी सांप्रदायिक शैलीमें देशके उस विभागमें कालबलसे नौवीं दशवीं शताब्दी तक शिल्पकृतियों में परिवर्तन होते गये । उसके बाद उसकी रचनाके खास सिद्धांत निश्चित हुए । इस तरह देवमंदिरादिकी रचनाके रूढ नियम पिछले कालमें अर्थात् बारहवीं शताब्दीसे निश्चित होकर लिखे गये यह निःशंक माना जा सकता है । पाञ्चाज्य विद्वानों भारतीय शिल्पकलाके सांप्रदायिक भेद मानकर शिल्पकी रचनाकी पहचान कराते है, यह बिलकुल अयोग्य है । यह तो सिर्फ प्रवर्तमान शिल्प पद्धतिमें कालभेद या तो प्रांतिय भेद हैं । भारतका शिल्पी वर्ग भारतका प्रमुख शिल्पी वर्ग-भारतके प्रत्येक प्रांतमें प्राचीन वास्तुशास्त्रका अभ्यासी वर्ग विद्यमान था । वे अपने अपने प्रांतके प्रासादोंकी शैली रचना करते थे । कालबलसे या धर्मके प्रति दुर्लक्ष्यसे या विधर्मिओंकी धर्मांधताके कारण अमुक प्रांत में यह वर्ग नष्ट हो गया है या धर्म परिवर्तनसें नष्ट हुआ है। बंगाल, बिहार, आंध्र, पंजाब, सिंध, सरहद प्रांत या कश्मिरमें तेरह चौदहवीं शताब्दी तक इस वर्गका अस्तित्व था । १. पश्चिम भारतमें सोमपुरा ब्राह्मण शिल्पीओं-वास्तुशास्त्र के निष्णात् माने जाते हैं। अभी भी वे अपनी कलाको सुरक्षित बनानेका प्रयास करते हैं । गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, राजस्थान और मेवाडमें वे वेर विखेर बसते हैं । स्कंदपुराणके कथनानुसार प्रभासके पुत्र विश्वकर्मा के अवतार रूप उनको माना गया है । वे प्रालग जातिके होते हुए भी यजमानवृत्तिका दान नहीं रखीकारते हैं । शिल्पज्ञ गृहस्थके रूपमें जीवन व्ययतित करनेका आग्रह उनका है। वे शिल्प Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंथके संग्रह कर्ता हैं। उनके चौदह गौत्र ऋषि कुलके हैं। वे यज्ञोपवित रखते हैं। सगोत्र लग्न नहीं करते हैं। और मृत्यु के पश्चात् अग्नि संस्कार करते हैं। : २. भारतके पूर्व में उडीयः-ओरिस्सा प्रदेशमें महाराणा नामक शिल्पी वर्ग है । वह शिल्पग्रंथोंका संग्रहकर्ता है। मंदिर बनाता है । हाल में उसका व्यवसाय विशेषतः मूर्तिकलाका है । महाराणा ज्ञातिमें पाषाण कर्म करनेवाले लोगोंको राज्य द्वारा महापात्रका मानद् पदः भी मिला हुआ है । उसी तरह लोह या काटके काम करनेवालोंको 'चौधरी' और 'ओज्ञा'का मानद् पद भी मिला है । खोरधाके राजाने लोहकर्म करनेवाले एक परिवारको 'दास'का पद दिया है । पाषाण कर्म करनेवालोंमें स्थपति मूर्तिकार भी है । इन सभी काष्ठलाहादि कामों करनेवाली एक ही ज्ञाति महाराणा नामकी है। उसमें परस्पर रोटी बेटी व्यवहार है । उन लोगोंमें क्षत्रिय हो या उससे निम्नवर्ग हो यह नहीं कहा जा सकता है । वे यज्ञोपवित नहीं रखते हैं । स्त्रियाँ पुनलग्न कर सकती है । उडीयामें ब्राह्मणादिमें मत्स्याहारकी छूट है । महाराणा ज्ञातिमें मृत्युके बाद अग्निसंस्कार होता है । ३ द्रविड दक्षिण-मदुराई और मद्रासकी और विराट विश्व ब्राह्मण आचार्यके नामसे अपनेको बताता हुआ शिल्पीवर्ग है । बह शिल्पी ग्रंथका संग्रहकर्ता है। मंदिरका और मूर्तिका काम करता है । विधिसे यज्ञोपवित धारण करता है । उस वर्गमें विधवा पुनर्लग्नकी प्रथा है । उसके तीन गोत्र हैं। १ अगस्त्य २ राज्यगुरु ३ सन्मुख सरस्वती सगोत्र लग्न नहीं करता है । मृत्युके बाद भूमिदाह देता है। उस प्रदेश में नायकर, पिल्लेबाल, केन्टर और मुदलीआर असी निम्नजातिके कारीगर शिल्पकाम करते हैं । परंतु वे मूल में शिल्ली जातिके नहीं हैं। महाबलिपुरममें गणपति स्थपति और कांचिपुरममें गौरीशंकर स्थपति वहाँकी शिल्पशालाओंमें अध्यापक हैं। ४ कर्णाटक-मैसुर-आंध्र तैलंगण और महाराष्ट्र प्रदेश में पंचाननके नामसे विश्वकर्मा जातिके शिल्पी वसते हैं। उनके पाँच कर्म व्यवसायके अनुसार उसमें गोत्र हैं। (१) पाषाणकर्मचालेको, गोत्र प्रन्यस (२) लोहकर्म; गोत्र सानस (३) काष्टकम, गोत्र सनातन (४) कंसकार, गोत्र अभनवश्र (५) सुवर्णकार, गोत्र सूपर्यास इन पाँचोंका कर्मके अनुसार गोत्र है । ब्राह्मणके सिवा वे किसीके हाथका भोजन नहीं करते हैं । इन पाँचांमें परस्पर रोटी बेटीका व्यवहार है । चे सगोत्र लग्न नहीं करते हैं । यज्ञोपवित धारण करते हैं । स्त्रियाँ पुनर्लग्न कहीं करती हैं। उनमें कुछ मांसाहारी भी हैं। वे शिल्पग्रंथोंका संग्रह करते Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । वे मंदिर, रथ, मूर्ति और काष्ट वगैरहका काम करते हैं । गायत्री आदि का नित्यपाठ करते हैं। मृत्युके बाद अग्निसंस्कार करते हैं। आंध्रमें श्रीकाकुलम् लक्ष्मीपुरम्में उदुपुडु नामकी शिल्पीओंकी जाति थी। उसके दो चार घर वहाँ थे । उन लोगोंके पास " सारस्वती विश्वकर्मायम” नामका ग्रंथ था। उनका अस्तित्र अभी नहीं मिलता है। यह परिवार शिल्पकार्यके अभावमें अन्य व्यवसायमें पड़ा हुआ मालुम पडता है। ५ तैलंगणमें विश्वकर्मा शिल्पी बसते हैं । वे शिल्पग्रंथका रक्षण करते हैं। मंदिर और मूर्तिका काम करते हैं । काष्ट और लोहका काम भी करते हैं । करीब तीन सौ सालसे मुस्लीम राज्य प्रदेशोंमें रहनेसे सहबास दोषसे मांसाहार करते हैं । तो भी उनका ब्रह्मत्व कम नहीं हुआ है । गायत्री पाठ पूजा आदि करते हैं । यज्ञोपवित धारण करते हैं। किसी भी उच्च जातिके ब्राह्मणके हाथका भोजन भी लेते नहीं हैं । उपरोक्त पंचाननज्ञातिमें वे नहीं गिने जाते हैं । मृत्युके बाद अग्निसंस्कार भी करते हैं । कर्णाटक मैसुरमें कन्नडी भाषा-मद्रास प्रदेशमें तमिल-केरालामें मलयालम और आंध्र जैलंगण प्रदेशमें तेलुगु भाषाका व्यवहार लोगोंमें है । उनके शिल्पग्रंथ संस्कृत नागरी लिपीके बदले उनकी लिपीमें लिखे हुए हैं । ६ जयपुर अलवरके प्रदेशोंमें गौड ब्राह्मणों की जातिके शिल्पीओं विशेषकर प्रतिमाका कुशल काम करते हैं। मंदिरोका निर्माण भी करते हैं। यज्ञोपवित विधिसे धारण करते हैं । शुद्ध शाकाहारी हैं। उनमेंसे की देहातोंमें कृषिकर्म भी करते हैं । मृत्युके बाद अग्नि संस्कारका रिवाज है। मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में कभी भागों में 'जांगड ' नामकी जाति अपनेको शिल्पीवर्गमें गिनती है । उनमें कभी सादा पाषाणकर्म, काष्टकम, चित्रकर्म और लोहकर्म करते हैं । की देहातोंमें कृषिकर्म भी करते हैं । विश्वकर्माको अपने इष्टदेव मानते हैं । जांगडमें कश्री यंत्रविद्यामें कुशल हैं, जिस तरह गुजरातमें पंचाल जाति है। ___ ७ गुजरात सौराष्ट्र और कच्छमें वैश्य, मेवाडा, गुर्जर, पंचोली जाति काष्टकममें प्रवीण है । पाँचवीं पंचाल जातिके शिल्पीओं लोहारका काम करते हैं । वे सब विश्वकर्माको अपने इष्टदेव मानते हैं । आगेकी चारों जातियों के शिल्पी सुथारी काम रथकाम देवमंदिरोंके साधनों वगैरह चांदीका अलंकृत काम करते हैं। पंचालभाइओं लोहकर्ममें और यंत्र विद्यामें भी 'जांगड' जातिकी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह कुशल है । उपरोक्त पाँचों जातिमें पंचोली अपनेको उच्च मानते हैं । यज्ञोपवित भी धारण करते हैं। स्थापत्याधिकारी शिल्पग्रंथोंमें उल्लेख है कि यजमानको चाहिये कि गुणदोष परखकर वह शिलका सत्कार करें । और अपने कार्यका प्रारम्भ करें । शास्त्रकारोंने बाँधकामके अधिकारीके चार वर्ग बनाये हैं । १ स्थपति (प्रमुख) २ सूत्रग्राही जिसको शिल्पीओंकी भाषामें "सुतर छोड!" कहते हैं । वह नकशे बनानेमें और कार्यकी शुरूआत करनेवाला निपुण होता है। ३ तक्षक-सूत्रमानके प्रमाणको जाननेवाला सुंदर-काष्ट या पाषाणादि कार्य या नकशीरूप करनेवाला करानेवाला ४ वर्धकी-दो प्रकार है । एक तो काष्टकर्म करनेवाला वर्धकी (सुथारसूत्रधार) और दूसरा माटीकार्यमें निपुण-मोडलीस्ट । भारतीय शिल्पीयोंकी प्रशंसा जहाँ शिल्पीओंने जड पाषाणको सजीवरूप देकर पुराण के काव्यको हुबहु बताया है, जिसका दर्शनकर गुणज्ञ प्रेक्षकों शिल्पीकी सर्जनशक्तिकी प्रशंसा करते नहीं थकते हैं, यहाँ टंकनके शिल्पसे तथा पिंछीके चित्रसे ये शिल्पी अमर कृतियोंका निर्माण कर गये हैं । अखंड पहाडमेंसे कंडारी हुई इलोराकी काव्यमय विशाल स्थापत्यकी रचना तो शिल्पीकी अद्भूत चातुर्य कलाका वेनमून प्रतीक है। भारतके शिल्पीओंने पुराणोके प्रसंगोंको पाषाणमें सजीव कंडारें हैं । उनके ओजारकी सर्जनशक्ति परमप्रशंसाके पात्र है । पाषाणके शिल्प परसे शौर्य और धर्मबोध प्राप्त होता है । जडपाषाणको वाणी देनेवाले कुशल शिल्पी भी कवि ही हैं। वे बहुत धस्यवादके पात्र हैं। अलबत्त कला किसी धर्म या जातिकी नहीं है । वह तो समग्र मानव समाजकी है। जड पाषाणमें प्रेम, शौर्य, हास्य, करुणा या किसी भी भावको मूर्त करना कठिन है। चित्रकार तो रंगरेखासे वह सरलतासे बता सकता है। परंतु शिल्पी असे रंगोंकी सहायके बिना ही पाषाणमें भावकी सृष्टि खड़ा करता है। उधर ही उसकी अपूर्व शक्तिका परिचय होता है । भारतीय शिल्प स्थापत्य आज भी जिवन्त कला है । युरोपिय शिल्पीओंके साथ तुलना करते कहना पड़ता है कि भारतीय शिल्पका लक्षण अपनी कृतिमें केवल भावना उतारनेका होता है । जब युरोपी शिल्पी तादृश्यताका निरूपण करता है। उन दोनोंके मर्तिविधानका उदाहरण लें । अनेक कवियोंने स्त्रीकी प्रकृति विकृतिके गुणगान किये हैं। उसके सौंदर्यका पान करानेवाले भवभूति और कालिदास जैसे महान कविओंने Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके रूप गुणकी शाश्वतगाथा गाई है। उसकी प्रकृतिसे प्रसन्न भारतीय शिल्पीओंने स्त्री सौंदर्यको मातृत्व भावसे प्रदर्शित किया है जब.युरोपी शिल्पीओंने वासनाके फलरूप स्त्रीको कंडारी है। भारतीय शिल्पीओंने भारतीय जीवन दर्शन और संस्कृतिको अपना सर्वोत्तम लक्ष्य मानकर राष्ट्रके पवित्र स्थानोंको चुन कर वहाँ अपना जीवन बिताकर विश्वकी शिल्पकलाके इतिहासमें अद्वितीय विशाल भवनोंका निर्माण किया है । दीर्घ काय शिलाओंको तोडकर भूख और तृषाकी भी परवाह किये बिना अपने धर्मकी महत्तम भावनाको राष्ट्रके चरणोंमें समर्पित किया है । जनताने भी शंखनादसे अपने शिल्पकारोंकी अक्षय कीर्तिका चतुर्दिश प्रसारण किया है । पेसे शिल्पीओंकी अद्भूत कलाके कारण जगतने भारतको अमरपद दिया है । ऐसे पुण्यश्लोक शिल्पीओंको कोटि कोटि धन्यवाद ! __ भारतके उत्तम कला धामों पर तेरहवीं सदीके बाद दुर्भाग्यके चक्क पल गये, चारों और धर्माधताके बहुतसे प्रहार सात सौ साल तक हुए, तो भी भारतीय कला और संस्कृति जिवित रही है उसकी दृढ बुनियादको चलित नहीं किया जा सका है । उसके अवशेष भी गौरवप्रद है। आज विदेशी कलापारखुओं आश्चर्य मुग्ध होकर उनको देखते हैं । भारतीय शिल्पीओंने कलाके द्वारा स्वर्गको-वैकुंठको पृथ्वीपर उतारा है। राष्ट्र जीवनको समृद्ध कर प्रेरणा दी है । ऐसी स्थापत्य कलाके प्रति आज राज्य कर्ता सरकार बेपरवाह बनी है । श्रीमंत वर्ग दुर्लक्ष्य करता है यह देशका दुर्भाग्य है । क्षणिक मनोरंजन नृत्यगीतकी कलाको वर्तमानमें राज्याश्रय मिल रहा है । जव स्थायी ऐसी सुंदर शिल्प कलाके प्रति दुर्लक्ष्य किया जाता है। यह भी कालका वैचित्र्य माननेके सिवा और क्या ? भारतीय कलामें आयी हुई विकृति ___ भारतीय कलामें आयी हुई पाश्चात्य विकृति-वर्तमान शिल्प स्थापत्य और चित्र इन तीनों कलाओंमें आयी हुई विकृति प्राचीन भारतीय कलाका विनाश करेगी। १. स्थापत्य में पश्चिमका अनुकरण कर पक्षीके घोंसले जैसे बेढंग और कढंगे विकृत और कलाविहीन भवन बन रहे हैं । २. शिल्प में जहाँ सुंदर मूर्तियोंका सर्जन आँख और मनको आनंद प्रद था उनके स्थान पर सुखे काठके ढूंठे कि, जिनको हाथ, पैर, मुँह था माथाका ठिकाना नहीं है उनकी प्रशंसा करते हैं, जो वास्तवमें विकृति है। ३. चित्रकला उसकी तादृश्यता और छाया Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश या रंगोंकी सुंदर रचनासे शोभती थी, वैसी कलाको देखते ही प्रसंशक , आनंद विभोर हो उठता था,, उसके स्थान पर जिसके बारेमें कुछ भी समझमें न आये ऐसी टेढी मेढी रेखाओं या शण जैसे तुच्छ द्रव्योंमें रंगके थथेडेमें कल्पनाको उतारकर उसका गुणगान कर कलाका सत्यानाश करनेवाले मोर्डन आर्टके नामसे जगतकी वंचना कर रहे हैं। ऐसी विकृतिको देखकर घृणा और दुःख की लागणी होती है । . - जिस कलाको दूरसे देखते ही प्रेक्षक उसके गुण और मर्मको जानकर आनंदित होता था, उसके बदले यह कही जाती मोडर्न आर्ट नामकी कृति प्रेक्षकको ‘यह क्या चीन है ? ' यह नहीं समझा सकती है। ऐसी विकृतिको 'आर्ट' के नाम पर प्रदर्शनोंमें दिखाकर जगतको उल्लू बनाया जाता है। ऐसी कलाविहीन विकृतिके प्रवाहके सामने देशकी प्राचीन कलावांच्छओंको झंवेश उठाकर भारतीय कलाकी सुरक्षा करनेका अपना फर्ज नहीं भूलना चाहिये । भारतके प्रासादकी जातियाँ प्रासाद वास्तुग्रंथों में मुख्य विषयमें जातिके बारे में जानना अति आवश्यक है। वास्तुग्रंथों में बतायी हुई धार्मिक विधि और ज्योतिष विषय और ऐसी दूसरी बाबतों की लम्बी चर्चा में स्थापत्यके अभ्याशीऑकी कम रूचि होती है। क्षीरार्णव-अपराजितपृच्छा और झानरत्नकोष जैसे नागरादि शिल्प ग्रंथों में भारतीय प्रदेशोंमें प्रवर्तमान प्रासादकी चौदह जातियाँ कही गई हैं। वास्तुराज, कास्तुमंजरी और प्रासाद मंडन जैसे पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदीके ग्रन्थों में भी उसकी नोंध ली गई है। मण्डनने चौदह में से आठ जातिओंको श्रेष्ठ कहा है। अपराजितपृच्छाकारने चौदह जातियोंके बारेमें पूरे चार अध्यायों (१०३ से १०६) विगतसे दिये हुए हैं। १ नागर, २ द्रविड, ३ लतिन, ४ भूमिज, ५ वराद, ६ विमान, ७ मिश्र, ८ सांधार, ९ विमान नागर, १० विमान पुष्पक ११ वलभी १२. फांसनाकार (नपुंसकादि), १३ सिंहावलोकन, १४ रथारूह ।। .. समरांगण सूत्रधार अ० ५२ में इस विषयकी चर्चा करता एक छोटा-सा अध्याय है। लेकिन उसमें चौदह जातियाँ नहीं कई हैं और उस विषय के पर विस्तृत चर्चा भी जातिके भेद करके नहीं कि गई है। भूमिज, लतिन, नागर, द्रविड, घलभी जातियाँ कही गई हैं। लेकिन उसमें अपराजितपृच्छाकार की तरह व्याख्या नहीं की गई है। . लक्षणसमुच्चयमें छः प्रादेश प्रकार कहे हैं। १ कलिंङ्ग, २ नागर, ३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाट, ४ वराट, ५ द्राविड, ६ गौड ये छः प्रथायें बताई है । लक्षणसमुच्चयकारने विधि स्वरूपानुसार दूसरी छः जातियाँ बताई हैं। जिसके अनुसार १ लतिन, २ कुटिन, ३ शेखरी, ४ चक्रीण, ५ भूमिज, ६ सांधार-इनके उपरांत वलभी और फासनाकारके दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। द्रविड प्रदेशके दशवीं सदीके कामिकागम के अ० ४९ में भी छः प्रकार बताये हैं। १ नागर २ द्रविड ३ वेसर ४ वराट ५ कलिंग ६ सर्वदेशी । . MY .. . :". AAL . . . . . . - --- - PANTARGEBAS 8138वाइस D ...... . 4 . A A Tili PORN4LDR.KATTA - - EdeORIALNIText म: BRRHET घंटाशालग्रामके पहेली शताब्दीका स्तूपमें द्रविड प्रासाद शिखरके तकती अंकन लखनऊ म्युजियम Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रविड शिल्पग्रंथों में काश्यपशिल्प और मयमतम् और शिल्परत्नमें तो सिर्फ तीन ही जातियाँ बताई गई हैं। १ नागर २ द्रविड ३ वेसर। भारतके पूर्व, पश्चिम, उत्तर प्रदेशों में नागर, दक्षिण में नीचे, द्रविड और उन दोनोंके बिचके प्रदेशोंमें वेसर जातिके प्रासादोंकी शैली प्रवर्तमान है ऐसा बताया है। कामिकागम को बाद करते बाकी के द्रविड वास्तुग्रन्थों में जो उपरोक्त जातिका विवरण किषा गया है उसके लक्षणके आधार पर केवल दक्षिणके द्रविड मंदिरों को ही लागु होता है। उत्तर भारत की नागर शैली दक्षिण भारत की नागर शैलीकी विभावना एक दूसरेसे विलकुल भिन्न है। द्रविड मंदिरों कोशलमें राजीवलोचन और सौराष्ट्र के बीलेश्वरका प्रख्यात है। लतिन, भूमिज, फासना और वलभीके प्रकार बहुधा प्रादेशिक शैली के प्रख्यात है। सांधारकी व्याख्याके अनुसार प्रदक्षिणा मार्ग सहितके प्रासाद, उनके लक्षण और प्रकारका वर्णन अस्पष्ट है । प्रदक्षिणा मार्गवाले प्रासादों द्रविड के अलावा बहुत-सी प्रांतीय शैलीके हैं। भारत के पृथक् पृथक् भागों में प्रवर्तमान जातिके बारेमें कई प्राचीन शिल्पग्रंथकारोंने सर्वदेशीयतासे जातिके वर्णनके साथ कहा है। __ अपराजितपृच्छामें सम्पूर्ण विगतसे नागरशैलीका वर्णन उत्तर भारत के दूसरे प्रादेशिक लक्षणभेद को बाद करते गुजरात, राजस्थान के ग्यारहवीं सदीके बाव बनाये हुए मंदिरोंको लागु होता है। उत्तर भारतके पश्चिम भागको अर्थात् भारतकी प्रांतीय पद्धतिके मंदिरों को सच्चे स्वरूपमें नागरादि शैलीका कहा है वह योग्य है । - लक्षणसमुच्चय नागरी वर्तना के लिये मध्यप्रदेश, लाट-गुजरात अथवा पश्चिम भारतीय प्रदेशको योग्य मानता है। उपांगवाले चोरसतल पर उर्ध्व वक्र रेखावाले शिखरोंके ऊपर वर्तुल आमलकवाले ऐसी आकृतिके शिखरोंवाले मंदिरों नागर शैलीके व्यापक अर्थ में उस प्रकार में आ जाते हैं। कर्णाटक प्रदेशमें उत्तर भारत के लतिन स्वरूपवाले मंदिर देखने में आते हैं और उत्तर भारत के प्रासादों जो चोरस आकारपर गोल आमलक है उसे वेसरजातिके कई विद्वानों पहचानते हैं। उनको श्री एम. रामराव द्रविडग्रन्थों के आकारसे बताते हैं. लेकिन द्रविडग्रन्थों इस विषयमें अस्पष्ट है। कामिकागम तो कई द्रविड विद्वानों के मतसे विरुद्ध उनको स्पष्टतया उत्तर भारतके मंदिरोंको नागरादि जातिके कहता है। अपराजितपृच्छाकारके 'मतसे नागरकों जातियोंमें प्रथम कहा जाता है । परन्तु उनकी दि हुई व्याल्याके अनुसार गुजरात राजस्थान और खजुराहो के और एकांडक प्रासादोंका नागर जातिकी मर्यादामें समावेश हो जाता है, परन्तु Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकासक्रम की दृष्टिसे अर्थात् उस एकांडक शिखरवाली जाति ज्यादा प्राचीन होनेसे और उस एकांडकका ही सन्तान होनेसे लतिन को ही नागर कहने का लक्षणसमुच्चय जैसे अपराजितपृच्छासे भी अधिक प्राचीन ग्रन्थों में मत है । इस दृष्टिकोणको ध्यानमें रखें तो प्रासादों की जातिमें एका-डक लतिन जातिको आदि मानना चाहिये। अथवा ब्यापक अर्थमें देखें तो एकांडक और अनेकांडक दोनोंको नागरके ही प्रकार के मानना चाहिये। एकांडक ज्यादा प्राचीन और Latina uikhora HTRA kin 3 mülaghantä 2 urahghantà 3 4 shandika EXAMERA MEANHRARY rathika. kuta --- Samvarana ललितशिखर 2 मूलघंटा 3 उघंटा 4 घंटिका 5 रथ 6 कूट 7 संवर्ण । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागर प्रासाद शिखर āmala sarakat mülamañjari LARIURUIDA Rama simbda raksrigas sukanusa tavanga tilaka - PAHEdrimant 24 prabara 1 कलश.2 आमलसारक. 3 मूल रेखा. (मूलमंजरी). 4 ऊरुशङ्ग.5 कर्म.6सिंह. 7 शुकनास. 8 तवङ्ग. 9 तिलक. 10 कर्म. 11 प्रहार. १ नागर-अनेकाऽक नागरप्रासाद.-सामान्यतया. कामदपीठ या गजाश्वनरादिपीट पूर्णालंकार मंडोवरछाद्ययुक्त- उसपर शिखरमें शृंग, ऊरुशंश, प्रत्यक्ष तवङ्ग. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अनेकांड उत्तरकालीन भी सविशेष प्रचलित है । इस स्पष्टीकरण के आधारपर प्रासाद जाति विबेचन लतिनसे किया जाय तो विशेष तर्कयुक्त गिना जायगा । १ नागर - अनेकांक नागर-सामान्यतया बृहद्का मदपीठ या गजाश्वनरादिपीठ, पूर्णालंकारी मंडोवर, छाययुक्त, उसके शिरपर शृङ्ग, ऊरुशृङ्ग, प्रत्याङ्ग, तवङ्ग तिलक और मूलमंजरी को दल विभक्ति से प्रकट होता हुआ अनेक अंडक के समुहसे रचे जाते शिस्तबद्ध शिखर, जिसके स्कंधके सिरपर आमलसारा कलशयुक्त शिखरको अपराजितपृच्छाकारने नागर जातिको माना है, उसके आगे कली चोकी होती है लेकिन ज्यादातर वितानयुक्त रंगमंडप अथवा गूढमंडप ऊपर फासना या संवरणायुक्त होती है । अपराजितकारने नागरके पाँच भेदो और उनके स्वरूप और उनके भेद कहे हैंः । भेद नाम १. वैराज्य २. पुष्पक ३. कलास ४. मणिपुष्प ९. त्रिविष्टय स्वरूप चोरस चोरस वृत्त (गोल) लम्बगोल अष्टांश ५८८ ३०० ५०० १५० ३५० कुल १८८८ नागरजाति तलदर्शन पत्र ७५ पर है नागरजाति नारघाट प्रासादके संपूर्ण अंगयुक्त आलेखन यहां बडा पेज २ पर दिया है । २ लतिन - शिखर जालांकृत लताओं से बना हुआ (कुडचलेवाला) अने रेखायुक्त वेणुकोपसे आकारबद्ध बनता हुआ और शृङ्गाटङ्ग रहित एक अमलसारा को कलशयुक्त शिखर होता है। पुराने लतिनका मंडोवरपर छाय नहीं होता है । ऐसे प्रासादोंके आगे कवली के बाद बहुत करके प्रावि (केवल चोकियाला) होता है। नीचे काम पीठसे उठे हुए उपांगों शिखरके स्कंध तक जाते हैं । शिखर वरंडिका के ऊपर अंतराल जैसे कण्ठ पर वेणुकोपसे शिखरकी रेखा उस्पन्न होती है । रेखाके अलावा कई में लतापंचक (पाँच उपांग) होते हैं । उनके शिखर के मध्य भद्रको मध्यलता कहते हैं । शिखरके उपांगोंको बालपंजर (बालञ्जर ) _कहते हैं। ऊपर की खडी रेखा खण्ड कला और भूमि आमलयुक्त होती हैं । इन उपांगों उपरी भागको स्कन्ध कहते हैं । लतिन प्रासादों रेखा विस्तारसे सामात्य तया सवागुने (१४) उदयके स्कन्ध तक होते हैं । स्कन्ध पर आमलसारक होता है। उसके अङ्गमें नीचे ग्रीवा चंद्रिका आमलसारिका ( पर चुलिका से कही होती है) उसके उपर कलश होता है। शिखर के नीचेका विस्तारका १० भाग करके ५ से ६ भाग स्कन्ध विस्तार होता है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराजितकार कहते हैं कि नागर रेखाके समान परन्तु शृङ्गोंके हित एकांडी शिखर रूचकादिसे उद्भूत होता है । अपराजितपृच्छाफार लतिन के पाँच स्वरूपके पाँच नाम कहते हैं । १ रूपक-चोरस-लंग पोरस २ भव-विभ लतिन शिखर amalasaraka KM PITRA DURA RARHILD PERTEReसय 7 kalās - ADI rekha 6 and estosINS bhumi. amalaka ransaareewate RECENTRETAL TETROlotara FFIBRARASRANAMAMMIारागीराज्य ANTRASTR REATRADESMORKEDARAN गणपणाशा I Yeal khanda 110 kantha '11 varandika HRSTS36MECHIKSHA MLTRADICALDchar KESAMARTeam RECENT MARATTIAYDERA -/ enukosa Amey हOTARANG 13 15 balapanjara latāpañcaka 17 madhyalatā (pañjara) 1 कलश. 2 चंद्रिका, 3 आमलसारक, 4 ग्रीवा, 5 रकंत्र, 6 रेखा, 7 कला, 8 भुमि-आमलक, 9 खंड, 10 कंठ, 11 वरंडिका, 12 वेणुकोश 13 मध्यलतापंजर 14 लतापंचक 15 बालपंजर-लतिनशिखर ३ वृत-पद्ममालाधर ४ लम्बगोल-मलयमकरध्वज ५ अष्टान वनक-स्वस्तिक इस तरह एक द्वारके पच्चीश भेद कहे हैं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 grivā skandba 5 1122 călă 1 āmalasärikā 2 amalasaraka 4 madhya- 6 lată लतिन शिखरके उर्ध्व अंदा 1 चूला. (चूली ) 2 आनलसारिका 3 ग्रीवा. 4. अमलसारक 5 स्कंध 6 मध्यलता. 7 वेणुकोश. 7 veņukosa Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ द्रविड-दक्षिणपथके वास्तुग्रंथोंके अनुसार द्रविडजाति को षड्वर्ग कहा गया है। तदनुसार १ अधिष्ठान (पीठ) २ पाद (स्तंभयुक्त मंडोवर) ३ प्रस्तर(वरंडिका और छाद्य-छज्जा) ४ ग्रीवा ५ चुलिका (आमलकचंद्रिका-कर्परी पद्मपत्र) ६ स्तूपिका (कलश) जिसे ईतने अंग होते हैं उसी द्रविडजातिका प्रासाद जानना । कई बार प्रस्तरके ऊपर कूट और शाला शिखर की व्यंजनासे भूमियाँ बनायी जाती हैं। आगे मुखमंडल किया जाता है। उसके बाह्य भागमें पाद-स्तंभयुक्त मंडोवर और ऊपर प्रस्तर होता है। मंडप के अंदर मध्यमें चार स्तम्भों पर छाद्य-छत्तियाँ रखते हैं। इससे मंडप को मात्र समदल छादन ( Flat Roof) धब्बा किया जाता है। द्रविडतल दर्शन-तल आयोजन में सामान्यतया चोरस क्षेत्रमें कर्णभद्रादि अंगों एक सूत्र में होते हैं । पादान्तर शलिलान्तर से अंगोंको जुदा किया जाता है : नागर छन्दको अट्ठाईकी तरह मध्यका भद्र और छेडे पर कर्ण कहते हैं । उपरोक्त षड् वर्गके प्रत्येक के भिन्न भिन्न अंगों हैं। उनका विशेष स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता है। १. अधिष्ठान-पीठको तीन थरों सामान्य रीतसे हैं। १ पद्म (जाडम्बा) २ कुमुद (कणी छजी) ३ सिंहमाला (प्रासपट्टी जैसा) उसके पर प्रति और वेदी नामके दो सपाट थर किये जाते हैं। वहाँसे आदितलका प्रारम्भ होता है। उसे पादमें समाविष्ठ माना जाता है। २. पाद-(स्तम्भयुक्त मंडोवर) उसकी तीन बाजु पर भद्रको देवकोष्ठ कहा जाता है। उसमें जिस देवका प्रासाद हो उसके पर्याय स्वरूप रखे जाते हैं। यह बाह्यस्वरूप कहा । अंदर गर्भगृह होता है। ३. प्रस्तर-प्रस्तरके अंगमें १ वरंडिका २ उत्तर ३ वाजन और ४ कपोत (अर्धगोल) उसमें चैत्य जैसी नासिकाएँ होती हैं। कपोत-छजेका निर्गम ज्यादा होता है। जो ऊपर मजला हो उसे द्वितीय तल कहते हैं। उसके अंगों नीचे दिये हुए हैं। अ. प्रस्तरके उपर सिंहमाला-मंचके थरों पर कोण-कोने पर कर्णफूट(दो स्तम्भोंका पर चैत्य-झूल (कमान) उस स्तम्भिकाके भागको वितर्दिका कहते है। मध्य गर्भ में गवाक्ष-कोष्टको दो तरफ दो दो स्तम्भपर सन्मुख चैत्य झूल और उसके बिच अर्थ गोलाकार वरंडिका को भद्रशाल कहते हैं। कर्ण फूट और भद्रशाल के बिचके अंतरमें नेत्रकोष्ठ (हारान्तर)-हारके नीचे क्षुद्रनासिका के उपर तिलनासिक (छोटी ठकार) यहां द्वितीय तालपूर्ण होता है। ब-उसके पर चतुस्र अष्टांश्र या घृत-शिखरका (गुंबज जैसे) प्रारम्भ होता है। उसमें सिंहमाला पर पीढान फलक (छत छतियासे ढंका हुआ) उपर जो Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stūpika 30 simba-rakira 29 24 C mabānās. 28 caturasrasikbara GUD eriva (bhadra-fāla) ursa 19 S -Sriva-kost ba 27 25. 23 tilanāsika 22 koudia-năsika, bāra 20 T 16 simbamala WAX karņakūto or kosthe T 38 viterdika 21 dvültya tála te je on barantara 18 vidardikeMMATT Emm 17 20 metra kosthas - on barantara a 10 CIEN prastara et kapola 14 1; HARRASEDUTERT ET, násikas 13 MAN PARA MAIN LUB LA ARUBA i vājana &N HYSGORN.RUUM OBN 12 ADA COLETANETETT 782971HTRA TUTTI uftara Hip 199 . . devakostba pada 16 ... ddiotalan AUXIT prati 5 adhisthana 1 NL 4 simhamāla 13 kumuda m ? padma - fupi PREDEL :1:1 M i ld karna karna bhadra द्रविड प्रासाद शिखर सह themet 2 93. 3 gen. 4 Fagarat. 5 slà. 6 an. 7 affects. 8:99. g o. 10 perc 11 JT 12 9178. 13 aferat14 ur. 15 #q. 16 FEAT. 17 BÉ. 18 faafé. 19 I-(s). 20 ade (arizat). 21 feqqan. 22 yearfal. 23 ms ne. 24 zgra fret. 25 . 26 gr. 27 5171 DEC. 28 FETATT. 29 fága ca. 30 gler. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल या अष्टान शिखर (गुंबज) हो तो कोने पर वृषभ, सिंह या गरूडके बड़े स्वरूप रखते हैं। अगर कर्णकूट रखते हैं। ४. श्रीवा-वरंडिका कपोत पर सादी जंघाके जैसे भागको ग्रीवा कहते हैं । (उसके कोने में वृषादि और मध्यमें दो स्तंभों को ग्रीवाकोष्ट-गोखमें देवस्वरूप करते हैं। उसके उपर महानासी (चैत्य-झूल), महानासी की मंचपर ढेरके रूपमें सिंहवक्त (ग्रास मुखके समान) किया जाता है। गर्भके दो महानासी के मध्यमें कोने पर पार्श्वनासिक भी कई लोग करते हैं। महानासीका अपर नाम भद्रनासी भी है। कई स्थलों पर ग्रीवाके थरमें स्तंभो करने के अलावा वहाँ दो देव रूप या ऋषिमुनिके बैठे रूप भी करते हैं। परन्तु उनका पट महानासी से अलंकृत करते हैं। कोई उस रूपके स्थानपर शाला (सादा भद्र) भी करते हैं । उपर महानासी तो कोई भी प्रकार में होता ही है । ग्रीवाके उपर निकलता हुआ हंसवाजनका फिरता थर करके उसके पर दूसरा छाटवाला उससे निकलता हुआ थर किया जाता है। उसके पर शिखर होता है। प्र प्रीवाके पर हंसवाजन या दूसरे थरके स्थानपर दंडछाद्य जैसा छज्जा निकालकर उसके पर भी शिखर (गुंबज जैसा) होता है। प्रीवा स्तूपिका के मध्यके गुंबज जैसे शिखरका षड्वर्गमें स्थान नहीं है। ५. चूलिका-शिखर अर्द्ध भागमें (नागर छन्दके चंद्रसरूप) पद्मपत्रिकाअथवा कर्परी पत्र रूप विस्तृत होता है। .: ६. स्तूपिका-चूलिकाके पर द्रविड शिखरका सर्वोपरि स्तूपिका नागर छन्दके कलंशरूप होता है। ... अपराजितकारने द्रविड प्रासादके पाँच भेद कहे हैं। १ स्वस्तिक, २ सर्वतोभद्र ३ वर्धमान, ४ सूत्रपद्मा, ५ महापद्मा इन पाँचोंके क्रमसे एक एकके सौ दोसौ, तीनसौ, चारसौ और पाँचसौ इस तरह कुल पन्द्रहसौ भेद किये हैं। परन्तु उसका स्पष्टीकरण दिया नहीं है। अपराजितकार द्रविड छंदके स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पीठके उपर कर्णरेखा की भूमिका क्रमसे करना । उसकी विभक्ति दल-लताश्रृंगों के क्रमसे उत्पन्न होती है। मेष, मकर कूटादि कंटकोंसे आवृत्त वेदी घंटा नासिकादि से शोभता हुआ द्रविड छंदका प्रासाद समझना । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ibaro Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ४. भूमिज़ भूमिज प्रासादोंमें कई बार तलदर्शन अष्टभद्री या अष्टकर्णी या वृत्तसंस्थान पर आंका जाता है। पीठ और मंडोवर के सामान्य लक्षणों अनेकांडक नागर जैसे ही होते हैं। परन्तु शिखर प्रकृतिके मूलगत फर्क होनेसे उसका पूरा दृश्य विशिष्ट बनता है। उसे छाद्य-छज्जा क्वचित् होता है। उसके शिखरकी रेखा नागरीके जैसी लेकिन रेखाकी अंदर उत्तरोत्तर श्रृंगयुक्त होती है। शिखरके कर्ण प्रतिरथ और रथके उपांगमें एक पर दूसरा-तीसरा-इस तरह सात श्रृंगों उत्तरोत्तर चड़ाये हुए होते हैं। उसके शिखरको बालपंजर (बालंजर) के उपाङ्ग नहीं होते हैं। परन्तु भद्रके पर मालारूपमें लता खिंची हुई होती है। भद्रकी लताको माला कहते हैं ? इससे सिर्फ शिखरके भद्रमें कुडचल कंडारा होता है। और कर्ण और प्रतिरथके उपांगोंमें उत्तरोत्तर श्रृंगों (कूट) चढ़ाये हुए होते हैं। प्रत्येक अंगों पर कुंभी स्तंभीकायुक्त जंघा और उसके पर प्रहारके ऊँचे थरों करके फिर क्रमसे श्रृंग-कूट चढ़ाये हुए होते हैं। एक, दो, तीन, पाँच, सात इस तरह क्रमसे उत्तरोत्तर श्रृंगों शिखरके स्कंधतक चढ़ाये हुए होते हैं । स्कंध पर ग्रीवा, घंटा, पद्म, छत्र, चंद्रिकायुक्त आमलक होता है। उसके पर सर्वोपरि कलश होता है। उसके मंडोवरके थरोंमें छज्जा क्वचित ही होता है । छज्जे पर बरंडिका और केवालके घाटोवाले थर पर प्रहार होता है । वहाँसे शिखरका प्रारम्भ होता है । भद्रको रधिका कहते हैं । वह देवरूपसे अलंकृत होता है। उसके पर (नागरछंदके उद्गमको) शुरसेनक कहा जाता है नीचे बड़ा होता है । शिखरके कर्ण-प्रतिरथ पर चढ़ाये हुए श्रृंगोंके थरको स्तम्भकूट कहते हैं। नागरछंदकी तरह कंधसे नीचे ध्वजाधारके पीछे बाहर प्रतिरथमें निकाला हुआ होता है। भूमिज दृष्टांतोंमें आगे गूढमंडप अगर रंगमंडप किया जाता है । मालवा, महाराष्ट्रमें भूमिज जातिके प्रासाद देखने में आते हैं । क्वचित उतरकर्णाटकमें मी अपराजितकारने भूमिजके स्वरूपका वर्णन करते कहा है कि-बांसकी तरह उत्पन्न हुआ हो अिस तरह कूट बड़ेसे छोटे से क्रमसे चढाते जाना । दल विभक्ति उपांगोंके अंगोंसेयुक्त भूमिज छंदके प्रासाद जानना । अपराजितकारने भूमिजके तीन प्रकार कहे है । १ चोरस निषध-२ वृत्तकुमुद ३ अष्टाश्र-स्वस्तिक-और उसके दश-सात और आठ इस तरह तीन प्रकारसे भूमिज करना । अिन सबके ६२५ भेद कहते हैं । ५-वराट जाति-भूमिकाके क्रमसे जंघाहीन करते जाना । भूमिकायालो श्रृंग श्रृंगोंसे युक्त-बहुत श्रृंगोंवाला रेखा प्रतिरथ भद्र और प्रतिभद्र युक्त मंदार पुष्पिका और घंटावाला असी वराट जातिके लक्षण जानना । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराजितकारने वराटजातिके पांच प्रकार कहे हैं । १ वराट २ पुष्पक ३ श्रीपुंज ४ सर्वतोभद्र ५ सिंह । इन पाँचोंके १२०२ भेद कहे हैं । ६ विमानजाति-चोरस तलको रथ उपरथको भद्रके थोडे उपांगोंवाले विमानजातिके प्रासाद जानना ।। विमान छंदके पाँच प्रकार-१ विमान २ गरूड ३ ध्वज ४ विजय ५ गंधमादन । इन प्रत्येक पुष्पमाला घर आकारके लता श्रृंगवाले जानना । उनके प्रत्येक नामानुक्रमसे भेद कहे हैं । ३०१-४००-५००-६००-७०० इस तरह कुल पच्चीस सौ भेद कहे हैं। ७. मिश्रक जाति-नागर छेदका अनेक तिलकबाला तिलकोंसे शोभता मिश्र छंदका प्रासाद जानना । अनेक आकार रूपवाला जानना । अपराजितकार उसके अठारहसो भेद कहते हैं। ८ सावंधारा जाति-या सांधार जाति-व्युत्पत्तिकी दृष्टिसे स-अंधार-जो प्रासादों गर्भगृह प्रदक्षिणा मार्ग सहितके हों तो उन्हें सांधार कहा जाता है । जैसी रचनामें प्रकाशका बहुत कम अवकाश होता है । अिससे वे स-अंधार कहे जाते हैं । असे प्रदक्षिणा मार्गवाले सांधार प्रासाद नागर जातिमें बहुत स्पष्ट रीतसे बताया गया हैं । जिनको प्रदक्षणा मार्ग नहीं होते हैं । वैसे प्रासादोंको निरंधार प्रासाद कहा गया है । सांधार प्रासाद बाह्य भागके प्रमाणसे शिखर किया जाता है। जैसे सांधार प्रासादों गुजरात सौराष्ट्र, राजस्थान, मेवाड़में हैं। वैसे सांधार प्रासादो मध्यप्रदेश के खजुराहोंमें भी हैं। सोमनाथका महाप्रसाद सांधार जातिका है। सांधार जातिका तलदर्शन पत्र ७५ पर है। यह देखो! अपराजितकार उसका स्वरूप बताते हैं। तलच्छंद जिसके विभक्त उपांगोंवाले है, उसमें गर्भगृह, दिवारें, भ्रमवला-जिसे भ्रमों क्रमयोगसे कहे हो उसके पर शिखर हो उसे सांधार छंदके प्रासाद् जानना । उसके सात प्रकार--१ केसरी २ नंदन ३ मन्दर ४ श्रीतरू ५ ईन्द्रनील ६ रत्नकूट ७ गरूड उन सातोंका अनुक्रमसे भेद कहा है। दो-तीन-एक-छ:तीन-सात और तीन जिस तरह मिलकर कुल पच्चीस भेद कहे हैं। ९. विमान नागर-नागर उपर छेदयुक्त लताशंगवाला हो वैसे प्रासादका विमान नागर छंद जानना । १०. विमान पुष्पक विमान नागर छंद उपर शिखरमें पुष्पक जैसा उरुश्रृंग होवे वैसा, वह सर्व कामनाओंको देनेवाला असा विमान पुष्पक छंदका प्रासाद जानना । ११. वलभी-त्रलभी जाति के प्रासादों लतिन नागर छंदसे भी प्राचीन जातिके मालुम होते हैं। सौराष्ट्रमें उत्तर गुप्त कालके कदवार (प्रभासके पास) है, और पोरबंदर द्वारिकाके बिचके हर्पद माताके स्थानपर बहुत सामान्य रूपमें बलभी प्रासाद हैं। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε āmalasaraka 6 valabhi skandba vedi 5 7. candraśālā 4 kantha skandhavedi 2 kapota 1 garbhagṛha www २४ simha 9 -candraśālā 7 valita pattikä valabbi 6 4 kantha valitapatti 3 pārsvabhadra pṛṣṭabhadra पार्श्वभद्र वलभी प्रासाद पृष्ठभद्र 1 गर्भगृह 2 कक्षेत 3 बलित पट्टिका 4 कंठ 5 स्कंववेदी 6 वलभी 7 चंद्रशाला 8 आमलसारक 9 सिंह Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम्बचोरस गर्भगृहको बाहरके तलछंद घंटाके विना क्रमसे भूमिका चढाकर उसकी भूमिका गजपृष्ठाकृति (वरंडिका जैसे लोढिये) करना । तब वह सर्व कामनाओंको देनेवाला जैसा वलभी छंद जानना । अपराजितकारने उसे विमान नागर छंदके प्रासादके कुलका माना है, और उसके चार प्रकार आकार परसे नामाभिधान दिया है ! १. लम्बचोरस पुष्प प्रकार २. चोरस-संकीर्ण ३. वृतको रत्नज्योति ४. लंबगोलको महार्चिष कहते हैं। द्राविडमें महाबलिपुरम् वगैरह स्थलपर हिमाचल प्रदेश-कलिंगमें वलभी जातिके प्रासादों छुट्टे छ्वाया देखने में आते हैं। भुवनेश्वरमें वैतालदेवलका अलंकृत मंदिर वलभी जातिका है। आयताश्र (लम्ब-चोरस) तलवाले, हस्तांअगुल उपांगोवाले या उपांगोके विना वलभी प्रासादोंकी टोचपर नागर या भूमिज शिखर नहीं हो सकता है। अभीतक मिले हुए ऐसे प्राचीन-प्रासादोंके अभ्याध परसे मालुम होता है कि कम घाटवाली पीठ और मंडोवर सामान्यतया सादे होते हैं। मंडोवरके शिरो भागमें स्कंधवेदी (गोल वलीके जैसी) करके उसके उपर लम्बाकारमें अर्घगोलाकार वलभी किया जाता है। उसकी छोटी बाजुओंके दोनों सिरों पर चंद्रशालाकी टोच पर दोनों तरफ सिंह बिठाये हुए हैं। वलभीकी टोच पर एक या तीन कलयुशक्त आमलसारिकायें रखी जाती हैं। ऐसा प्रकार वलभीका है, और दूसरा प्रकार लम्बचोरस गर्भगृहके बाहर चारों ओर वलिका अर्धगोलाकार कर मध्यमें वलभी संकुचित लम्ब-चोरस वलभी कर उसकी दोनों तरफ छोटी बाजुओं पर चन्द्रशाल ( उद्गम-देढिये) कर उपर कलश चढाया जाता है। तीसरा प्रकार-लम्ब-पोरस या समचौरस गर्भगृह पर उपरोक्त दोनों प्रकारकी तरह वलित पट्टीका कपोत-कंठादिके निकलते घाटके थर करके उपर बलिकाका घाट करके वैसे तीन या पाँच थरोंको उत्तरोत्तर संकोच कर चढाकर उपर आमलक कलश चढ़ाया जाता है। प्रत्येक वलिकाके थरमें पहलेमें पाँच, दूसरे में तीन इसी तरह चैत्य-कूट किये जाते हैं। सामान्यतया वलभी प्रासादोंके अग्र भागमें मंडप जुड़ा हुआ हो, बैसे दृष्टांत देखनेको नहीं मिलते हैं। १२. फासनाकार-इस जातिके प्रासादोंको सामान्य पीठ मंडोवर पर आजलियाँ क्रमशः उत्तरोत्तर संकोचकर चढ़ाकर टोचपर घंटाकलश रखा जाता है। भद्रपर सिंहकर्ण (बड़ा उद्गम) वाली रचनाको अपराजितपृच्छाकारने फासनाको Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kalasa 7 12 6 ghantā - 1358 2 31 simbakarna: PARA White candraśālikā * - karna- PR 5X RADE DEL 24 A Hyp WGS * . 3 S 22 . . XA . 2 2 TARS For TEOREFIDEN THU 2. kl 11 AL 15 y EU MA prabara फासनाकार शिखर 1 wer 2014 3 A 4 Taufe 5 FE TO 6 car 7 * Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ नपुंसका - फासनाकार कहा है । कितनोंके कोने पर कर्णफासना - फासनाकार फूट चढाते हैं । फासनाकार प्रासादोंका तलदर्शन हस्तांगुल उपांगोवाला सिर्फ कर्ण - रेखा और भद्र विशेषकर होता है । उदकान्तर वर्जित -- पानीतारके उपांग होते हैं । फँस किया - फांसना शैली गर्भगृह परसे मंडप फासना करनेकी पद्धति बाद में प्रविष्ट हुई है । फासनाकार मंदिरों, खजुराहो, गुजरात, चेदी प्रदेश, अमरकंटक, आबू, देलवाडा, राजस्थान, कलिंग - ओरिस्सा-भुवनेश्वर में हैं । फासनाकारके पाठों जयपृच्छा-प्रमाणमंजरी-वृक्षार्णव- अपराजित पृच्छा और लक्षणसमुच्चय में उल्लेख है । फासनाको गुजरात - सौराष्ट्र के शिल्पीओंने 'तरसटियु' कहा है । वह ' त्रिषट् ' का अपभ्रंश है। अर्थात् तीनों तरफके दर्शनवाला - परंतु त्रिषटा शब्द शिल्पग्रंथों में नहीं मिलता है | बहुत सादगीसे फासना मंदिर होता है जिससे भारत के हरेक प्रदेशों में सादे स्वरूपमें फासनाकार मंदिर देखने में आते हैं । कलिंग - उडिया प्रदेशोंमें भुवनेश्वर पुरी और कोनार्क के मंदिरोंके मंडपों पर कासना चढ़ाई हुई दिखती है । छाजलीके पाँच, सात या नौ थरोंके बिच एक सादा थर जंघा के जैसा चढ़ाया जाता है उसे "कांति" कहा जाता है । उसके पर फिर पाँचेक थर वाजली के चढ़ाकर घंटा और कलश चढाते हैं ! कलिंग शिल्प ग्रंथों में छाजलीको 'पीडा' कहा गया है। वैसे सात - नव थरोंके उदयको 'पोटल' कहते हैं और उसपर बीचके एक सादे थरको कांन्ति कहते हैं । उपरके दूसरे पाँच-सात थरोंके उदयको भी 'पोटल कहते हैं । उसके पर घंटाके नीचे ग्रीवाको "बेकी" कहते हैं। उसके पर मंडपकी फासता के सर्व थरोंके उदयको "गंडी" कहते हैं । यद्यपि, शिखर के उदय भागको भी "गंडी" कहते हैं । इस तरह शिल्पीओंको प्रांतीय भाषा के शब्दोंसे थका परिचय दिया गया है। अपराजितकारने फासनाकारको नपुंसक छंदका प्रासाद कहा है । १३. सिंहालोकन - छाद्य-छाद्योंसे उत्पन्न हुआ, जिसके उपर कोनेको सिंहसे शोभायमान करना। उसके पर घंटा घंटा आकृति की करना । उसे 'सिंहालोकन' छंदका प्रासाद कहते हैं । १४. स्थारुह— नागर छंदसे उद्भूत - शकट- गाडेके उपर नागरछंदका, जिसको तीन चक्र हो वैसे आकारका कामनाको देनेवाला ऐसा रथारूह छंदका प्रासाद जानना | अपराजितकारने दारू कर्म (काष्टकार्य) से उद्भूत सिंहावलोनन दारूके जैसे छंदका रथारूह जानने के लिये कहा है । ४ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त चौदह जातिमें पाँच-छः जातिका विशेष स्पष्टीकरण नहीं है। इससे उसका परिचय करना मुश्किल है। तो भी उसके अधिक प्रयत्नसे संशोधन प्रादेशिक भ्रमण करके करने की जरूरत है। जावा, सुमात्रा, अनाम (चंपा) कंबोडिया, सियाम आदि बृहद्भारत प्रदेशोंमें भारतीय शैलीके भव्य और विशाल प्रासादोंका निर्माण हुआ है । वे अपनी इन चौदह शैलियोंमें आये हुए होना चाहिये। या-भारतीय शैलीकी कौटुंबिक प्रथा है ! शिल्पस्थापत्य में विवादग्रस्त प्रश्नों शिल्पियों में कई विवादग्रस्त प्रभ हैं। कई बार यजमानको ऐसे प्रश्न उलझनमें डालते हैं। इनमेंसे कई प्रश्नों बुद्धियुक्त हैं और कई निरर्थक दुराग्रही भी हैं। स्थलके पर हुए पुराने कामके उदाहरण देकर वे विवाद उग्र बनाते हैं। कई रूढिग्रस्त प्रणालिका को अग्र करते हैं। इन सबका समाधान शास्त्राधार विशेष सबल गिना जाता है। कईबार शास्त्रके पाठोंका अपनी बुद्धयानुसार अर्थ करके अपने मतका समर्थन करते हैं। निष्पक्ष रीतसे बुद्धि पूर्वक व्यवहार को भी लक्ष्यमें लेकर सोचना चाहिये । जहाँ पाठोंका अभाव हो वहाँ परंपरागत प्रणालिका को भी मान देना पड़ता है। अगर वहाँ पुराने स्थापत्य को उदाहरण रूप स्वीकारने पर बाध्य होना पडता है। सत्रहवीं सदीसे शिल्पियों कई प्रथाओंको अनुसरे हैं। उसमें कुछ शास्त्र विमुख है। ये प्रथायें शास्त्रविहीन है परन्तु प्रणालिकाएं हैं इस तरह मानकर उसका अनुसरण या ऎसे मतमतांतर के लिये दुराग्रह न करना चाहिये । ऐसे उदाहरण देकर अपने मतका समर्थन न करना चाहिये। प्रतिपक्ष का अपमान अवगणना करनेकी वलण भी अनीच्छनीय है। १. गणितके विषयमें-इक्कीस अंग मीलानेको कहा है। जिस तरह ज्योतिषी को परे अंगोंको देखकर मुहूर्त नीकालनेमें असमर्थ होता है उस तरह शिल्पमें विशेषकर लगभग चार-अंगोंको मीलानेका प्रयास करते हैं। १ आय, २ नक्षत्र ३ गण, ४ चन्द्र । शास्त्रकारों कहते हैं कि "द्विभिश्रेष्ठं त्रिभिश्रेष्ठं पंचभिः सर्वमुत्तमम् ।" सामान्यतया लंबाई चौड़ाई के गजके उपरके आँगूलों में विषमअंक होना चाहिये। तो आय श्रेष्ठ आता है। शिल्पशास्त्रमें शिल्पिओं गज' अर्थात-हस्त और उसके ४ आँगुल प्रमाणका मानते हैं, फूटकी प्रथाको नहीं स्वीकारते Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। क्योंकि उसके गणितकी रचना इस प्रकार हुई है। सामान्यतया दो फूटका एक गज होता है। २. यह गणित कहाँसे मिलायें, यह कहा है-मोदर के बाहर के भागमें मिलानेके लिये कहा है। व्यवहार दृष्टिसे कुछ ठीक करने के लिये अंदर भी गणित मिलानेकी कोशिष करता है। जब प्रतिपक्ष कहता है कि बाहरके विभाग कर उसके विभाग पर ओसार-दिवार रखते अंदर जो भाप रहा उसे वहाँ गणित मिलानेकी जरूरत नहीं है, चाहे वह राक्षस गणका नक्षत्र क्यों न हो ? इस पक्षकी बात दुर्लक्ष्य करने योग्य नहीं है। परन्तु जो वहाँ भी गणित मिलाया जाय तो अच्छा ऐसा मेरा मत है। ३ नक्षत्रके विषयमें शिल्पियों देवमंदिरको देवगण, गृहांको मनुष्यगण या यवनको राक्षसगणना नक्षत्र सामान्यतया मिलाते हैं । वह परंपरा है लेकिन ज्योतिषके नियमानुसार देवोंका जन्म नक्षत्र राक्षसगण हो वहाँ देवमंदिरमें राक्षस गण नक्षत्र मिलानेका आग्रह की लोग रखते हैं । शिल्पियोंकी परंपरा जो आगे कही गई है वह है । देवमंदिस्में देवगण ओर मंडपों या चोकी को मनुष्य गण या देवगण नक्षत्र मिलाते हैं । शिल्पियोंकी परंपराका समर्थन करता हुआ ओक पाठ है । परंतु उसे द्वीअर्थी मानते हैं । ४ शिलास्थापन-मध्यकी कुर्मशिलाके नौ खंडोंमें नौ चिह्नों करनेमें विश्वकर्माके सभी ग्रंथों ओक मत हैं । लेकिन मध्यकालके अंक सूत्रधार वीरपालने 'प्रासादतिलक' ग्रंथमें इन चिहनोंको अग्निकोणके क्रमसे करने के लिये स्पष्टरूपसे कहा है । इस विषयमें शिल्पी वर्गमें चर्चा है । लेकिन अब तक कोई दुराग्रह नहीं है इस बात आनंदकी हय । ५ शिलास्थापन कहाँ करना ? उस विषयमें सामान्य मतसे गर्भगृहके बिच खडे मध्यगर्भ में शिलास्थापन करना । परंतु देवता पद स्थापनके हिसाबसे जहाँ देव स्थापन करना हो उसके नीचे शिला स्थापन करना चाहिये । वह सूत्र अिस दीपार्णव और ज्ञानरत्नकोषमें है । और नाभि खडी करनेकी प्रथा है। ग्रंथों में उसका स्पष्टीकरण नहीं है । और मध्यकी कूर्मशिलाका प्रमाण भी कहते हैं । परंतु फिरती अष्टशिलाओंका प्रमाण नहीं दिया हुआ है । वहाँ शिल्पियों प्रथाको अनुसरते हैं । जहाँ शास्त्राधार न हो वहाँ शिल्पियों प्रथानुसार वर्ते यह स्वाभाविक है । कूर्मशिलाके कहे हुअ मानके अनुसार लम्बी और उससे आधी चौडी अष्टशिला रखनेकी परंपरा है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जगति विषयमें-प्रासादकी सीमा मर्यादा-शिल्पियों उसका सामान्य अर्थ दुर्ग भी मानते हैं। लेकिन प्रासादकी चारों और देवकुलिकाओं सहस्त्रलिंगकी या जिनायतनकी या ६४ देव्यायतनकी या पंचायतन जहाँ हो वहाँ विशाल जगती विस्तारसे करनी होती है । जगतीका प्रासादकी भूमिमर्यादा मानकर सामान्य ओटा-जगती ऊँची कर उस पर भीट पीठका प्रारंभ होता है। परन्तु स्थान मान और शहरमें भूमि संकोचके कारण वैसे प्रकारकी जगती न हो तो वह दोष नहीं है । या तो विशाल भूमि पर मध्यमें प्रासादका निर्माण किया जाता है । वहाँ उसकी विशालताको ही जगती माननेका कारण है। ७. मीट-पर पीठके विषयमें प्रासादके प्रमाणसे महापीठ या कामदपीठ शास्त्रमान प्रमाणित बनाना कहा है । परंतु स्थानमान और की बार द्रव्यानुसारके हेतुका आश्रय जानकर पीठ प्रमाणसे कम करने का कहा है । तब कभी शिल्पिओं गहरे अभ्यासके अभावसे विरोध करते हैं । परन्तु कहे हुओ मानसे पीठ कम करनेके प्रमाण दीपार्णव-क्षीरार्णव और ज्ञान रत्न कोषादि ' ग्रंथों में स्पष्ट दिया है । अर्ध भागे त्रिभागेवा पीठं चैव नियोजयेत् । स्थानमानाश्रयं ज्ञात्वा तत्र दोषो न विद्यते ।। कहे हुअ मानसे आधा या तीसरे भाग उदय प्रमाण पीठ करने में दोष नहीं जानना । मुख्य मंदिरका महापीठ या कामदपीठ और फिरती देवकुलिकाओंको २०८ शिवायतन, ६४ शकत्याय २४ विष्णायतन् या २४-५२-७२--८४ या १०८ जिनायत नोंको कर्णपीठ कम करनेमें दोप नहीं है। ८ प्रासाद-उदयमानके विषयमें शिल्पीवर्गमें सोलहवीं सदी के बादके मंदिरों में कुछ छूट लेकर उदयमान अधिक करने लगे । क्योंकि पंद्रहवीं सदीके बाद स्तंभके अंतरके बीच कमानों बनानेकी प्रथा शुरु हुई । अिससे द्वारकी शाखाके समसूत्र में स्तंभको रखते थे। ऐसे रखकर पद (दो स्तंभोके बीचका अंतर) के अर्ध भागके बराबर उदय-उभणी कमानके कारण ठेकीको चढ़ाकर रखते हैं। अिससे उदयमान बढ़ जाता है। परंतु अिस विषयमें शिल्पियोंमें वादविवाद नहीं है। असे समयमें स्तंभको कितना ऊँचा गिना जाये यह प्रश्न उपस्थित होता है । वस्तुतः भरणेके तल पर्यंतका स्तंभ गिना जाय, कभ उदय-उभणीमें कमान करने जाते तब द्वार वाढसे स्तंभको छोटा कर उस पर काठासरां चडाके कमान करते हैं। तब उसे 'पाय चागलका दोष अज्ञानतासे कहते हैं। कमान शिल्पमें कहाँ कही गई है ? तब वह 'पायचा' शब्द शिल्पग्रंथों में कहाँसे निकाला ? असे Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीना समजसे विवाद (कम अभ्यासीओंके द्वारा) उठाये जाते हैं । यह निरी अज्ञानता है। प्रतोल्यामें जौर मेघनाद मंडपमें तोरण करते हैं। तव स्तंभ पर ठेकी आडदी चडानेका कहा है । ९ द्वारमान-इस विषयमें खास वादविवाद नहीं है । सामान्यतया निरंधार प्रासादोंमें ५'-५" या ६'-१" या ६'-९" का द्वारोदय अपने हिसाबसे आयमेल करके रखनेकी प्रथा है । परन्तु विस्तारमान विषयमें बर्तमानकालके यजमानोंका आग्रह द्वारविस्तार अधिक रखनेके लिये होता है । यद्यपि यथा योग्य रीतसे विस्तार हो सके इतना रखना । शास्त्रदृष्टिसे थोडी छूट लेकर करे, परंतु यजमान तो. गर्भगृहमें वाहनको ले जाना हो वैसा दुराग्रह करे तब शिल्पियोंको शास्त्रीय दृष्टिकी मर्यादासे थोडा बड़ा करना, परंतु मर्यादाका विशेष लोप न करना चाहिये । १० द्वार-शाखाके नीचे कुंभीवाढको तिलकडे कहे हैं। उनसे अंगुल डेढ अंगुज उदम्बर-उबर नीचा होता है । मंडोवरके थरवाले कुंभावाढसे उंबर अर्ध भागमें, तीसरे भागमें या चौथे भागमें नीचे उतारनेका प्रमाण देते हैं । तो की शिल्पियों उबर नीचे उतारनेके साथ तिलकड़े और मंडपकी कुंभीओं भी उतारेने मतके हैं। यह वादविवाद उग्र होकर चलता है । मेक पक्ष मानता है कि जो "कुंभके न सभा कुंभी' यह प्रमाण है तो तिलकड़ों या कुंमीओंको नीचे नहीं उतार सकते हैं। तिलकडे कुंभा कुंभीको बराबर रख सिर्फ उंबर ही खोडना-नीचे उतारतेका प्रमाण कहा है। इस तरह उबर नीचे उतारना जिससे पर्शनार्थीओंको आने जाने की सानुकूलता रहे। . "उदम्बरान्ते हृते कुंभि स्तम्भ च पूर्ववत् । सांधारे च निरंधारे कुंभि कृत्या उदरम्बम् ।। इस श्लोकका अर्थ-उंबर ही फक्त खोडनाकुम्भी और स्तंभकको तो पूर्ववत् रखना। लेकिन प्रतिपक्ष "उदंबर हृते कुंभिः" का अर्थ उंबर और कुम्भी खोडना-नीचे उतारना ऐसा अर्थ करते हैं। यह वादविवाद जो मध्यस्थ दृष्टिसे देखा जाय तो सांधार प्रासादमें उंचर और कुम्भी नीचे उमारे हुए पुराने कामोंमें देखते हैं। परन्तु निरंधार प्रासादमें उंबरके साथ कुंभी खोडनेका वराबर नहीं है । तो भी हम यह नहीं कह सकते कि ये दोनों पक्ष झूठे हैं। ११. मंडोवर पर विभागमें शास्त्रकारोंने कुम्मा कलश छज्जे तक के बारह, तेरह थरों कहे हैं। परंतु अल्पव्ययके कारण यजमान कम थर करावे उसमें दोष नहीं है। स्तंभ वाढ-समसूत्र जंघा टोच पर होती है और सामान्य रीतसे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार-वाढ समसूत्र भी स्तंभ बराबर होता है। परन्तु जंधामें भद्रके गवाक्षों द्वार वाढसे नीचे होते हैं। ऐसे समयमें द्वार और गवाक्ष वाढ समसूत्र में होनेका आग्रह न रखना चाहिये । अठारहवीं सदीमें बहुतमें मन्दिर गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, राजस्थान वगैरह स्थलों पर हुए तीन पदोंका गर्भगृह पर तीन शिखरों और बाह्म मंडोवरके घाटके बदले कडाउ दाबडी की सादी दिवारोंकी प्रथा शूरू हुई है। यहां समाजने यह शैलीका इस काल में स्वीकार किया वह सामुहिक रीतसे दोष मान स्त्रिकार किया और हजारो मन्दिरों. यह शैलीका हुआ तब वहाँ दोष मानना न चाहिये ऐसा मेरा मंतव्य है । १२. देवता-दृष्टिपद-विषयमें भिन्न भिन्न ग्रंथकारों में मतमेद है, परन्तु सर्वसाधारण द्वारोदयके आठ भागके सातवें भागमें फिर उसके आठ भाग कर सातवें भागमें देवदृष्टि त्रिपुरुष और जिनकी-मिलाने के लिये कहा है । अर्थात् द्वारोदयके ६४ भागमें पचपन में भागमें दृष्टि मिलाना । इस प्रथाको शिल्पीवर्ग स्वीकारता है। आये हुए सूत्रमानसे दृष्टि ऊँची या नीची जरा भी न रखने के लिये शिल्पग्रंथों में कहा है। कई जैन विद्वानों “सप्तमा सप्तमे भागे" का अर्थ करते हैं कि सातवें के आठवें, भागकर सातवें भागमें अर्थात् छः और सात के बीच दृष्टि आय मेलमें रखना । परन्तु शिल्पीवर्ग सातवें भागमें ही भागपर और नहि कि नीचे-आय मेल-प्रासाद मंडनकार कहते हैं। परन्तु विश्वकर्मा के कोई भी प्राचीन ग्रंथमें आय मेल पर दृष्टि रखने के लिये नहीं कहा है। वृक्षार्णव और क्षीरार्णव आदि ग्रंथों में गजांश विभागमें ही दृष्टिसूत्र रखना। एक बालके अग्रभाग जितना भी फर्क नहीं रखना। यह मतमतान्तर शिल्पियों और जैन विद्वानों के बीचका सामान्य है । गजांशका अर्थ सातमा हि होता है नहि के गजाय । उपरोक्त मतमतान्तर तो इंचके आठवें भागके बराबर है। परन्तु ठक्कुरफेरुके मतसे (५'-५" द्वारोदयके हिसाबसे) १८ अंगुल नीची, दिगम्बराचार्य वसुनन्दीके मतसे सोलह अंगुल, 'क्षीरार्णव' 'दीपार्णव' के दूसरे मतसे २२ अंगुल दृष्टि उत्तरंगसे नीची रखनेके लिये कहते हैं। ऐसे बड़े अंतर ग्रंथकारों के मतमतान्तरमें कौनसा मत स्वीकारना ? यह प्रश्न होता है, यद्यपि वर्तमान में सर्वमान्य ६४ भागके पचपनमें भाग का मत अधिक व्यवहार में है। पृथक् पृथक देवदेवीकी दृष्टि स्थिर भिन्न भिन्न करके प्रतिष्ठाके समय पर वादविवाद होनेसे पहले उसका निर्णय कुशल शिल्पियोंको ले लेना चाहिये । अब जो कोई पुराने मन्दिरोंमें जो दृष्टि नीची हो तो तब शिल्पियो धीरज रखकर पूर्वाचार्यके कोई प्रथका मत देखकर अपना अभिप्राय देना चाहिये ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. देवता पद स्थापन के संबंधमें भिन्न भिन्न ग्रंथकारोने पृथक् पृथक विभाग प्रतिमा स्थापनके कहते हैं। यद्यपि उसमें कमज्यादा तफावत है। प्रासाद तिलक, और विवेकविलास, गर्भगृहाध के पीछलेमें पाँचवे के तीसरे भागमें कृष्ण, जिन और सूर्यकी मूर्ति स्थापन करनेके लिये कहा है। अलबत्त, शास्त्राधार सच्चा है, परन्तु जिन तीर्थकर के बारेमें वह अपबादरूप हो वैसा पुराने उदाहरणोंसे लगता है। अन्य देवोंको तो पधराई हुई मूर्तिके पीछे प्रदक्षिणा करने की प्रथा है। वह जो कहे हुए विभागमें पधराई हुई हो तो प्रदक्षिणा होस के तो जैनोंमें चातुर्मुख के सिवा कहीं भी अिनप्रमु के गर्भगृह के अंदर प्रदक्षिणा होती हो वैसा देखने में नहीं आता है। इससे जिन प्रमुकी पिछली दिवार से परिकर जितनी जगह रखकर पधराई हुई देखनेमें आती है। जो कि पद विभाग के अनुसार प्रतिमा बिठानेका आग्रह रखनेवाले शिल्पीका मंतव्य झूर है ऐसा नहीं कहा जा सकता । परन्तु वह व्यवहार में नहीं है। गर्भगृह के अर्ध में भागमें सिंहासनपीठ रखे जाते हैं। 'प्रासाद मण्डन' के एक दूसरे प्रमाणमें - 'पटाऽधो यक्ष भूताधा-पटाये सर्वदेवता' इस सूत्रको जिन प्रभुके बारेमें शिल्पियोंने स्वीकारा हो ऐसा लगता है। १४. शिस्त्रर का विषय-गहन है। उसे अधिक अंडकों या कर्म उरूशृङ्ग प्रत्यागादि वगैरह चढ़ानेके होते हैं। अनुभवके रहित सूत्रोंसे पकड़कर रखनेवाले और दुसरोंकी क्षति निकालते है यह अयोग्य हैं। 'समदल' उपांगवाले प्रासाद के शिखरमें शिल्पिओंको कम तकलीफ पड़ती है। परन्तु 'हस्तांगुल' उपांगवाले प्रासादके शिखरमें तो शिल्पीकी सचमुच कसौटी होती है। उसकी कदर करने के बदले अल्पज्ञों क्षति निकालते हैं, यह दुःसह लगता है। अठारहवीं सदीमें हुए तीन पदपर तीन शिखरोंके पायचे-मूलकण गर्भगृहके पाटके समसूत्र में मिलाने की शिल्पियों की प्रथा उन समयमें थी। हस्तांगुल शिखरमें शृङ्गोंके निर्गम अरू शृङ्गों पर शृङ्ग मिलानेमें शिल्पिओंको मुश्केली आती है। यह सब कठिनाईयां बुद्धिमान शिल्पि मिलाके सुन्दर शिखर बनाते हैं। १५. शिखरके ध्वजादंड को धारण करता हुआ ध्वजाधारध्वजाधारकलाबा शिखर की खड़ी मूल रेखाके उदयके छहवें भागमें उसके हीन करके उस स्थानमें करने के लिये कहते हैं। ध्वजाधार का अर्थ ध्वजादंडको धारण करता आधाररूप कलाबा होता है, यह मेरा मंतव्य है। ऐसा बहुतसे पुराने शिखरोंमें पीछे होता है। किसी स्थानपर वजापुरुष की आकृति भी देखने में आती है। इससे ये दोनों मतका परस्पर खंडन करनेवालों का वाद अयोग्य है। परंतु Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ शिखरके स्कंधसे नीचे ध्वजाधार कलाबा तो होना ही चाहिये। यह निःशंकता से मान्य करना ही चाहिये, उसमें वादको स्थान नहीं है। जो वहाँ दुराग्रह किया जाय तो वह अयोग्य है। शास्त्राधारको मानना ही चाहिये । शास्त्राधार हो वहाँ पुराने किसी स्थानके उदाहरण को प्रमाण नहीं माना जा सकता। १६. नोगरादि शिल्पमें शिखरके स्कंधके छः भाग विस्तारसे सात भागका आमलसारा विस्तार करनेके लिये कहा हैं। जो ध्वजाधार शिखरकी खड़ी मूल रेखाके उदयके 12 भागपर स्कंधके नीचे रखने के लिये कहा है। इस ओलंभेको देखनेसे आमलसारा के वृत्तसे ध्वजादंड बाहर निकल जाय यह स्पष्ट है । इससे ध्वजादंडको स्थिर रखने के तीन स्थानक ध्वजाधार-दूसरा स्कंध (बांधणाके पास) एक लाग-छीद्र पाडकर रखना । तीसरे आमलसारा की बाहर कलावा का घाट करके उसमें छिद्र करके उसमें ध्वजादंड खडा करनेसे कैसे भी झंझावातों में बह स्थिर खड़ा रह सके, यह रीत शास्त्राधार है । आमलसारा में छिद्र करके ध्वजादंड खड़ा करने की प्रथा देढसो-दोसौ सालसे है, यह बराबर नहीं है। 'क्षीरार्णव' अ. १३२ के श्लोक ११ से २४ तकमें इस सरवेध अर्थात् मस्तकमें वेध कहकर बहुतसे दोष दुष्ट फलदाता कहे है और स्कंध-बांध के ऊपर ध्वज दंड गाड़ने को भी वैसा ही वेधदोष कहा गया है। ध्वजादंडकी लंबाईका जो मान कहा है वह धजाधारमें बराबर से गिना जा सकता है, परंतु जो आमलस रा में ध्वजादंड गाढ़ा जाय तो उसे साल रखना पडे और वह शिखरके प्रमाणसे बहुत ऊँचा दंड होवे ! यह झूठा है। शास्त्रोंमें ध्वजादण्ड को साल रखनेके लिये कहा नहीं है। आमलसारा में उसे गाड़ना होता तो सालका निर्देश उसमें होता । आमलसारा में ध्वजादण्ड स्थापन करने का दुराग्रह रखने वाले शिल्पियों जो पुराना काम हुआ हो उसका उदाहरण देकर अपने मतका समर्थन करते हैं परंतु यहाँ शास्त्राधारके स्थान प्रणाणसे अन्य मार्ग असत्य है । १७. ध्वजादण्डके साथ स्तंभिका खडी करनेके लिये कहते हैं । अपराजित कार और क्षीरार्णवकारने स्तंभिकाको कितनी ऊँची करना ? कैसी करना ? उसके शिरपर क्या करना ? वगैरह विगतसे प्रमाण दिया हुआ है और स्तंभिका को दंडके साथ गज गजपर मजबूत त्रांबेकी पट्टीयां बाँधों, बाँधने के लिये कहा है। आमलसारेमें दंड रखनेके मतावलंबी ओं स्तंभिकाको निरर्थक मानते हैं। दंडको Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ स्थिर करने में वह वह बल नहीं दे सकता है । ऐसी दलीलें करके स्तंभिका की अगत्यको नहीं स्वीकारते हैं । उपरोक शास्त्रीय पाठोंके मतका समर्थन करनेवालों के बुजर्गाने डेढसौ साल पहले जो किया हो उसके प्रमाणरूप देते हैं । परंतु सज्जनोंके लक्ष्य में सत्य हकीकत समजमें आये तब वे आगेकी क्षतियों को सुधारे और सत्य मार्गका अवलंबन करें । १८. प्रासाद पुरुष की सुवर्णमूर्ति आमलसारामें स्थापन करनेके लिये कहा है । उसके बायें हाथमें तीन शिखाओंवाली ध्वजापताका धारण करने के लिये कहा है। उसे कई शिल्पीओं त्रिपताकका अर्थ पताका-ध्वजाके बदले मुद्रा मानते हैं । परंतु सामान्यतया शिल्पीओं पताकाका अर्थ ध्वजा करके वैसी आकृति की सुवर्णमूर्ति जो प्रासाद के प्राणरूप हैं उसे स्थापन करते हैं । १९. पताका - ध्वजा कैसी करना ? उस विषय में शिल्पग्रंथों में बहुत स्पष्टता से कहा है कि पताका-ध्वजादंड के बराबर लम्बी और उसके है भागकी चौडी चोरस करना । लटकते सिरे को तीन या पाँच शिखाम करना ! कई ब्राह्मण विद्वानों पताका त्रिकोण होती है और पताका दंड के उदयमें रखना वैसी मान्यता रखते हैं । परंतु उपरोक रीतसे शिल्पशास्त्रों के आधारको मान्य रखा जाय तो त्रिकोण पताका का स्थान नहीं रहता है । वे अन्य अशास्त्रीत्र रीतसे किये हुए परंपरागत पताकाओं के उदाहरण देते हैं, परंतु वह सत्य नहीं है । विद्वान भूदेवों को उनके मतानुसारका शास्त्रीय पाठ प्रासादकी पताकाका दिखाने का आग्रह करनेसे उन्होंने यज्ञयागादि क्रियाके या उसके मंडप परकी ध्वजाओं का पाठ बताया। अमुक दिशामें अमुक वर्णकी त्रिकोण ध्वजा का प्रमाण है, परन्तु प्रासाद के शिखरको वह सूत्र लागु नहीं होता है, तो भी किसी विद्वान आचार्य इस विषय में प्रकाश देंगे वैसी आशा हम रखते हैं । २०. राजस्थानमें शिखर पर पाषाणके कलशके स्थानपर तांबेके या सुवर्ण के परेका कलश पोला बनाकर उसमें घी भरते हैं, परन्तु सिर्फ पतरेका कलश कर चढानेकी रीत झूठी है। राजस्थानमें बहुत करके इस प्रथाको मानने वाले विशेष हैं । पतरेके कलशका बिधान झूठा है । पाषाणका ही कलश करके उसका विधिसर अभिषेक पूजन करके रखना चाहिये | बादमें उसके पर सुवर्णके पतरेका कलश चढाने में हरकत नहीं है । ध्वजादंड काष्टका ही होना चाहिये - मगर अब पाईप दण्ड बनाते हैं, ये ठीक हे लेकिन पाईपके अंदर सांग एक काष्टका तो दण्ड रखना ही चाहिये - अन्यथा गलत है ! Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. अठारहवीं सदीमें मूर्तिभंजक विधर्मियोंका भय दूर होनेसे गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, राजस्थान वगैरहके जैन संघोंने भयसे मंडारी हुई हजारों मूर्तियों को बाहर निकाला इससे अधिक मूर्तिओं को बिठाया जा सके वैसे तीन पदके गर्भगृह करनेकी आवश्यकता समयानुकूल उत्पन्न हुई। प्रत्येक गाँवके जैन संघने वैसे मन्दिरों पर तीन शिखरों धनवाने का आग्रह रखा ! उस कालके शिल्पियों को समयानुकूल वर्तन करने पर बाध्य होना पड़ा। इससे अठारहवीं सदीसे ऐसे तीन पदपर तीन शिखरोंवाले हजारों मन्दिरों हरेक गाँव में हुए । पालीताणा शत्रुजय पर उस कालमें हुई ढुकोंके कई सौ मन्दिरों भी ऐसे ही प्रकारके हुए है। सामुहिक सर्वमान्य रीतसे इस अपवादको स्वीकारना पडा, परन्तु वह झूठा है यह कहते पहले सोचना चाहिये । वर्तमानकालमें ऐसे तीन पदबाले गर्भगृह करनेके हो तब अभी-चाहे एक शिखर करे या पाँच पदपर तीन करे परन्तु डेढेसे-सौ साल पहलेके ऐसे मन्दिरोंको दोषित नहीं कहना चाहिये। ____ कईबार मूलपाठोंका अर्थ करनेमें मतभेद होता है। कईबार मूलपाठ और क्रियाकी भिन्नतासे ऐसा होता है। परन्तु विद्वान पुरुषों अपने मतका दुराग्रह नहीं रखते हैं। किसी भी कालमें क्रियाका भिन्न अर्थ करके कार्य हुआ हो ऐसा हो सकता है। तब वे सब मन्दिर झूठे हैं, यह कहना अतिशयोक्ति है, सोच समजसे निर्णय करना। क्षीरार्णव . क्षीरार्णब ग्रंथके संशोधन के लिये हमारे हस्तलिखित ग्रंथसंग्रह की करीब छ-सात प्रतियाँ वि. सं. १८१० से १९०३ तकके समयमें लिखाई हुई है और रोयल एशियाटिक सोसायटी की बॉम्बे ब्रांचकी लाईब्रेरीकी पुस्तककी शके १८१८ की प्रत, (३) बरोड़ा प्राच्य विद्यामन्दिर की प्रत परसे लिखी हुई कॉपी और गुजरातके शिल्पी श्री नटवरलाल मो. सोमपुरा की और बि. सं. १७१० के अंदाजकी प्रत-इन सब प्रतोंका मिलान करके हो सके इतना क्रमबद्ध संशोधन करनेका मैंने प्रयत्न किया है । सौराष्ट्रके सोमपुरा शिल्पीयों की कुछ प्रतें मैंने पहले प्राप्त की थीं, वे मेरे ग्रंथसंग्रहसे अधिक नहीं थी, और बहुत कम भिन्न थी और १०१ अध्यायसे १२० वें अध्यायके ९३ वें श्लोक तककी अपूर्ण प्रतें प्राप्त हुई थीं, कुछ तो इससे भी कम अध्यायोंवाली प्रतें भी मिली थी । मूल ग्रंथके आगेके ९८ अद्रानवें अध्यायों लुप्त हैं जौर अध्याय १२० के बादका मंथ-विस्तार कितना है यह नहां प्राप्त हुआ । गुजरात सौराष्ट्रकी प्रतों १०१ अध्यायके कूर्म शिला प्रकरण से शुरू होती है परन्तु रोयल एशियाटिक , Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ सोसायटी की पुस्तकोंमेंसे मुझे आगेका दो अध्याय, गणित विषयका और जगत लक्षणका प्राप्त हुई। कहते हैं कि मेवाड राजस्थान में कोई सोमपुरा शिल्पी के पास ज्यादा विस्तारवाली प्रत हैं । दुर्भाग्यवशात् उसको प्राप्त नहीं कर सका हूँ । संशोधन करते प्राप्त हुई प्रतोंकी (१) अशुद्धता (२) कुछ अध्यायों में अस्तव्यस्तता (३) एक विषय अपूर्ण छोड़कर दूसरे विषयोंके अशुद्ध पाठों आना ( ४ ) अध्याय ११२ में सिर्फ तीन ही अशुद्ध श्लोक में दिया हुआ है, जिसका कुछ अर्थ प्राप्त नहीं होता है । (५) और स्तंभ, कुंभी, द्वार, शंखोद्वार - गर्भगृह के प्रमाण, स्वरूप, मंडोवर के साथ स्तंभके छोड़का समन्वय इन विषयोंकी प्राप्त हुई प्रतोंके अध्याय १०१, १११, ११७ और ११५ में आगे-पीछे या कम-ज्यादा या बारबार पाठो आता है, पुरानी शुद्ध प्रतोंके अभाव से ऐसी स्थिति में ग्रंथको क्रमबद्ध करने की छुट लेनी ही पड़ती है | इसमें मैं तो क्या निष्णात और बड़े विद्वान भी क्या कर सकें ? वैसे समय सुज्ञ विद्वानोंका कर्तव्य छूट देनेका है । अनिम्छासे ऐसी छूट के लिये शिल्पज्ञाता विद्वानोंकी क्षमा चाहता हूँ । अगर इस ग्रंथको अपूर्ण रखूँ ? क्षीरार्णवकी प्राप्त प्रतों इतनी अशुद्ध कि कितने स्थानपर उनको मूल स्वरूपमें रखनेका कार्य अर्थहीन और मुश्किल था ! तो भी उसको क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है। तो भी मेरे अल्प प्रत्नोंसे मैं शिल्पी समाज या उसके रसज्ञ विद्वान समाजके आगे कुछ इतना तो रखने के लिये सौभाग्यशाली हुआ हूँ । इसकी कद्र होगी तो मुझे आत्म संतोष मिलेगा । निरन्धार प्रासादोंकी शैलीके नियमों शिल्पीवर्ग में कई लोगों से परम्परासे रूढ हो गये हैं । पिता कार्यका अनुकरण उसका परिवार करे, इस तरहसे सैंकडों वर्षो से हुआ है। इससे शिल्पीवर्ग में कुछ निरक्षरता आने लगी । हस्तलिखित ग्रन्थोंकी अगत्यता कम मालूम समजनेसे, और ग्रंथकी प्रतोंमें अशुद्धि बढ़ती जाने से और ग्रंथों - पिटारों के आभूषणरूप मिळकत गिने जाने लगे इससे पद्धतीपूर्वक अभ्यास बहुत अल्प सहस्त्रांश में होता था । विद्याके मर्म विस्मृत होते चले । सभाग्यसे सिर्फ सक्रिय ज्ञान रहा है । इसीलिये भारत का शिल्पीवर्ग अभी कुछ सजीव है ऐसा दिखता है । निरंधार प्रासादों परंपरासे - रूढिसे शिल्पयों बाँधते रहे परन्तु भ्रमवाले सांधार महाप्रासादोंके स्थापत्यका अति दुर्घट ज्ञान और क्रिया छः सौ सात सौ, सालसे विधर्मी राज्यभयसे बँधाये नहीं गये । इससे वैसे प्रकारका ज्ञान विस्मृत होता गया । वर्तमानमें श्री सोमनाथका सभ्रम महाप्रासादका निर्माण मेरे नेतृत्व Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हुआ । उसके कार्यारंभमें वैसे शिल्प साहित्यकी बहुत अगत्य मालुम हुई। सद्भाग्यसे हमारे भारद्वाज कुल परंपरामें ऐसे प्रकारके सांधार महाप्रासाद के विषयका ज्ञान-साहित्य श्री विश्वकर्मा की कृपासे रक्षित रहा था। इससे वैसा कठिन शिल्प-साहित्यको समझनेके लिये बहुत सरलता रही। श्रीरार्णव ग्रंथमें निरंधार प्रासादोंके यम-नियमों हैं लेकिन विशेष कर वह सांधार महाप्रासादके विषय अधिक उपयोगी साहित्य है। सामान्य शिल्पीवर्गको उपयोणी अध्यायों में थोड़ी अशुद्धि थी परन्तु जो प्रयोगमें कम है वैसे सांधार महाप्रासादोंके अध्याय बहुत अशुद्धियोंसे भरे हुए थे। इससे ग्रंथशुद्धिका कार्य कठिन बना था। वृक्षार्णव ग्रंथ भी जितना छुटक छटक अध्यायों प्राप्त हुआ हैं उसमें महाप्रासादोंकी रचनाके पाठों, उनके यम नियमों दिये हुए हैं। जैसा कि ऊपर कहा है यह ग्रंथ व्यवहार में वर्तमान काल में न होनेसे उनकी प्रतों बहुत अल्प प्राप्त हुई है। यद्यपि वह ग्रंथ भी संपूर्ण मिलता नहीं है। उसकी स्थिति भी क्षीरार्णव जैसी है। उसका संशोधन मैंने यथामति प्रयत्नसे करीब तीस सालसे अनुवाद के साथ किया था परन्तु दूसरी प्रनोंके अभावमें उसका मिलान न हो सका था। वहाँ तक उसमें क्षतियाँ रहनेका भय बहुत रहता था। सुयोगसे मारवाड़ पालीकी और वि-सं. १७६८ की एक प्रति और पाटणकी छुटीछवाइ पाठोवाकी प्रत उपरांत रोयल एशियाटीक सोसायटीकी प्रतके आधारपर अभी उसका संतोषप्रद संशोधन कर रहा हूँ। यह वृक्षार्णव-ग्रंथके प्रकाशनके लिये सुज्ञ विद्वानों और पुरातत्त्वज्ञों मुझपर स्नेहभावसे दबाब डाल रहे थे तो सद्भाग्यसे गुजरात की एक बड़ी मानवंती मातबर संस्था की तरफसे प्रकाशन के लिये कार्य होनेकी संभावना है। वृक्षार्णव ग्रन्थ अद्भुत है। वृक्षार्णव प्रन्थ के संशोधनमें बहुत मुश्किल है, यह कार्य कठिन है तो मी उसको पूरा करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ, जिसके अंग्रेजी संस्करणमें मेरे स्नेही श्री मधुसुदन अ. ढाकी मुझे सहायक हो रहे हैं। शिल्प स्थापत्यका विषय हमारे कुल परम्परा का है। इससे परिवारिक संस्कार वारसेमें मिले यह स्वाभाविक है। कैलासवासी पूज्य पिताश्री और मेरे दो स्व. वडील बन्धुओं त्र्यंबकलालभाई और श्री भाईशंकरभाईने विद्या के संस्कार सींचे, मार्गदर्शन दिया । उनका ऋण मुझसे अदा नहीं हो सकता है। कनिष्ठ वडीलबंधु श्री रेवाशंकरभाई हमारी समस्त ज्ञाति में ५० साल पहले प्रथम ग्रेज्युएट हुए थे। वे मेरे ग्रन्थ-प्रकाशनमें श्रम और अनुभवका लाभ हमेशां देकर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकृत कर रहे हैं। वडिलोंके ऋण स्वीकारको नोंध लेते मुझे आनन्द होता है। उनकी शुभाशिषों की कृपावर्षा हमेशां मेरेपर होती रहो ऐसी जगन्नियंता श्रीहरिके प्रति मेरी नम्र प्रार्थना है। सुप्रसिद्ध श्री सोमनाथ महाप्रासादका निर्माण मेरे हाथों में होनेसे उसके ट्रस्टके कामकाजके बारेमें राजप्रमुख श्री नामदार स्व. जामसाहब, सर दिग्विजय सिंहजी साहब और महाराज्ञी वर्तमान राजमाता नामदार गुलाबकुंवरबा साहेबाके परिचय में अबारनवार आनेका प्रसंग होता था। वे नामदार शिल्प के प्राचीन अमूल्य विद्या और साहित्य के प्रकाशन के लिये मुझे प्रोत्साहन देते थे और वर्तमान नामदार राजमाता साहेबा शिल्पका अभ्यासक्रम योजकर उसका क्रियात्मक ज्ञान मिले वैसी पाठशाला स्थापकर शिल्पी विद्यार्थी ओंको तैयार करनेके लिये मुझपर बहुत दबाव डाल रहे हैं। विद्यार्थीका सर्वप्रकार के आर्थिक बोझा उठाने की व्यवस्था भी कर रही हैं। यह उनका विद्या-कलाके प्रति प्रेम हैं । इस ग्रन्थप्रकाशनके लिये मैं उन नामदारोंका ऋणी हूँ। गुर्जर साहित्यकी अस्मिताके प्रकटकर्ता उत्तर प्रदेशके भूतपूर्व गवर्नर श्रीमान् कन्हैयालाल मा. मुन्शीजी जो हाल में सोमनाथ ट्रस्ट के प्रमुखश्री हैं। वे मेरे प्रति सदा सद्भाव बता रहे हैं, उन्होंने ग्रंथका पुरोवाचन लीखनेकी कृपा की है, इसलिये मैं उनका उपकृत हूँ । श्रीमान् श्रीगोपालजी, नेवटियाजी, शेठजी, शिल्प-स्थापत्य कला प्रति और हमारे परिवार प्रति हमेशां प्रेम और आदर रखते हैं। उन्हीसे श्री विरला परिवारके संसर्गमें आनेका प्रसंग रहता है। शिल्प-स्थापत्य कला साहित्य के प्रकाशन के लिये हमेशा प्रोत्साहन देते रहते हैं । प्रीन्स ऑफ वेल्स म्युझियमके डायरेक्टर, पुरातत्त्वके प्रखर विद्वान पुरातत्वज्ञ डॉ. मोतीचन्द्र भाईसाहबने समय और श्रम लेकर यह ग्रन्थकी भूमिका लिखी है इसलिये मैं उनका हृदयपूर्वक आभार मानता हूँ। क्षीरार्णव ग्रंथके संशोधन कार्थमें व्याकरण शुद्धिकी क्षतियाँ विद्वानों को मालूम पड़ेगी लेकिन वास्तुशास्त्र के ग्रंथों को भाषा ही वैसी निराली है। मूल संस्कृत में से प्राकृत, मागवी, पाली वगैरह भाषाएँ उत्पन्न हुई। इस तरह वास्तुशास्त्रके ग्रन्थोंकी भाषा ही वैसी है । एक विद्वानने संस्कृत पदमें कहा है, ज्योतिष तन्त्रशास्त्रे य विवादे वैद्यशिल्पके अर्थमात्रं तु गृहणीयान्नात्र शब्दं विचारयेत् । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ज्योतिष, तंत्रशास्त्र, विवाद, आयुर्वेद और शिल्प प्रन्थों में उनकी भाषा के शब्दों का बहुत विचार न करते उनके भावार्थको ग्रहण करना ।" सुज्ञ पुरुषों व्याकरणादि क्षतियोंके प्रति उपेक्षा कर हंसवृत्ति धारण करेंगे ऐसी मेरी प्रार्थना है । इस ग्रन्थका यथायोग्य अनुवाद किया गया है, परन्तु जहाँ जहाँ अस्पष्ट पाठों हों या जहाँ शंकाओं या अपूर्ण पाठों हों वहाँ भावार्थ दिया है। कई स्थलौपर असंबद्ध पाठों या अति अशुद्धि के कारण अनुवाद करनेका अशक्य हुआ है। वैसे पाठभेदों की स्पष्टता मिलते ही वहाँ योग्य सुधारके लिये अवकाश है । मैं नहीं कह सकता हूँ कि मेरा अनुवाद क्षतिरहित है, अपूर्णता और अशुद्धिसे आई हुई क्षतियोंके लिये उदारभावसे विद्वान महाशयों क्षमा करें । क्षीरार्णवके प्रारम्भके ९८ अध्यायों की अपूर्णता के कारण प्राप्त ग्रन्थों के अध्यायों के एक साथ क्रमांक, अध्याय संख्या सुगमता के लिये रखे गए हैं । प्रन्धके भाषानुवाद के साथ प्रत्येक अंगकी टीका और अन्य ग्रंथोंके मतान्तर की नोंदी हुई हैं । ग्रन्थ वांचन से अर्थ नहीं सरता है । क्रियात्मक ज्ञान ( प्रेक्टीकल) का मर्म देनेसे ग्रन्थ संपूर्ण बनता है । उसके साथ कोष्ठकों अनेक आलेखनो, नकशे और चित्रों भी इसी विषयोंको स्पष्ट करनेके लिये जरूरी है । वे और अन्य प्राचीन ग्रंथों के अवतरण भी दिये गए हैं। ग्रंथको अधिक समृद्ध बनाने के लिये यथामति प्रयास किया है। मेरे प्रयास की कद्र विद्वान वाचक करेंगे ऐसी आशा रखता हूँ । S वंशपरम्परा के व्यवसाय में मेरा ज्येष्ठ पुत्र श्री बलवंतराय और पौत्र श्रीचन्द्रकांत यह शिल्प स्थापत्य व्यवसाय में जुड़ायें हैं वो कुलपरम्परा को समृद्ध करेंगें यही प्रभु प्रार्थना है । दूसरा पुत्र विनोदराय एम. ई. अमेरिका सीवील एन्जिनीयर है । श्रीहर्षदराय बी. ए. एल. एल. बी. अहमदाबाद हाईकोर्ट एडवोकेट है । श्रीधनवन्तराय बी. ए. एल. एल. बी. बेंक व्यवसाय में हैं । क्षमायाचना - एक विद्वान कहते हैं, "कविकी जिह्वामें और शिल्पीयोंके के हाथों में सरस्वती बसती हैं " शिल्पीकी बानी भाषा में व्याकरणकी त्रुटियाँ सहज ही हों उनके प्रति उपेक्षा दिखाकर ग्रन्थके मूल अर्थ - भावार्थको विद्वानों ग्रहण करेंगे ऐसी मेरी प्रार्थना है । थका हिन्दी अनुवाद श्री जयेन्द्रकुमार माणेकलाल शाह. एम. ए. << राष्ट्रभाषा रत्न" ने श्रम लेकर सुन्दर किया है और ग्रन्थका सुन्दर और स्वच्छ छपाईकाम अहमदाबाद के नवप्रभात प्रेस में उसके प्रोप्रायटर श्री मणिलालभाई और Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेस स्टाफके हेड श्री शंकरसिंहजीने श्रम लेकर किया है। ग्रंथमें आये हुए कई ब्लोकका सुन्दर काम कर प्रोप्युलर प्रोसेस स्टुडियोने ग्रंथको सुन्दर आकर्षक बनाने का यथाशक्ति प्रयत्न किया है, इन सभी मित्रोंकी सहर्ष नोंध लेकर आभार मानता हूँ। ग्रन्थमें आये हुए कई ग्लोकके आलेखन सौराष्ट्र गुजरातके प्रख्यात युवान शिल्पकार श्री चन्दुलाल भगवानजी और अभी प्रभासपाटण सोमनाथजी के कार्य पर है वे मेरे भानजे शिल्पकार श्री भगवानजी मगनलालने भी अन्य आलेखादि कार्यमें-दोनों मुझे सहायक हुए हैं। इस बातका सहर्ष उल्लेखकर आभार मानता हूँ। सर्वे सुखिनःसन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा काचं दुःखमाप्नुयात् ॥ इति शुभं भवतु, श्री कल्याणमस्तु । वि. सं. २०२३ वैशाख शुदी त्रीज, स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा अक्षयत्रतीया शिल्प-विशारद पालीताणा ता. १२, मी मे सन १९६७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका डॉ. मोतीचन्द्र, (एम्. ए., पीएच. डी. ( लण्डन ) ____ डायरेक्टर, प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम, बम्बई. क्षीरार्णत्रके टीकाकार श्री. प्रभाशंकर ओघडभाई-सोमपुरा भारतीय स्थापत्य शास्त्रके उन इने गिने विद्वानों में है। जिन्होंने अपनी कुलगत परंपरा और संस्कृतमें लिखित वास्तुशास्त्रकी चर्चा और अध्ययनको एक नया रूप दिया है । यह तो प्रायः सभी विद्वान मानते हैं कि स्थापत्य शास्त्रकी पुस्तकों में अनेक असंबद्ध विस्तार होने पर भी उनमें सत्यका अच्छा खासा अंश है। जिसका वास्तविकतासे नजदीकका संबंध है। पर उस वास्तविकता को पकड़में लानेके लिये मध्यकालीन वास्तुशास्त्रकी परिभाषिक शब्दावली तथा उपलब्ध देवमंदिरोंके अवयवोंसे उसकी तुलना केलल श्री सोमपुराजी जैसे विद्वानोंके बसकी ही बात है। सच बात तो यह है, श्री सोमपुराजीने मध्यकालीन वास्तुशास्त्र अध्ययनके लिए हमारे सामने एक दृष्टिबिंदु रखा है जिसे ध्यानमें रखकर चलनेसे यह पता चलता है कि देवालयोंके जो नकशे, अवयव तथा अलंकार हमारे सामने आते हैं उनमें सार्थकता है और उनकी कृति वास्तुशास्त्रके उन सिद्धांतों पर आश्रित है जिनका क्रमिक विकास हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि मध्यकालीन वास्तुशास्त्रके अनेक अभिप्राय समायान्तरमें रुदिगत होकर अपनी नवीनता खो बैठे, पर यह बात केवल वास्तुशास्त्रों तकका सीमित नहीं थी। मध्यकालीन भारतीय संस्कृतिके अनेक उपादानों में भी हमें यही बात दीख पड़ती है। शास्त्ररूपमें वास्तुविद्याका उदय कब हुआ, यह कहना तो संभव नहीं । है। फिर भी प्राचीन साहित्य में वास्तु संबंधी चाहे वह दैविक हो या नागरिक अनेक उदाहरण मिलते हैं। वैदिक साहित्यसे ऐसे उदाहरणों का संग्रह श्री, सुविमलचन्द्र सरकारने अपनी पुस्तक "सम ऑसपेक्टम् ऑफ दी अलियेस्ट सोशियल हिस्ट्री ओफ इंडिया" में कर दिया है । वैदिक शास्त्रोंमें वास्तुशास्त्र संबंधी शब्द सीधे सादे हैं । पर वास्तुका जीवनसे इतना निकटका संबंध था कि वास्तु संबंधी प्रक्रियायोंके लिए वास्तुयाग और वास्तुनरकी कल्पना की गई । आश्वलायन (४/२/६/१३) गोभिल (४/८) तथा आपस्तंब (६/१६) गृह्यसूत्र तो भूमि शोधन संबंधी नियमोंका विवेचन करते हैं, तथा वास्तुशांतिका उल्लेख करते हैं। ऋग्वेदमें वास्तोत्पति शायद वास्तुके अधि देवता थे, जो गृह्यसूत्रोंमें वास्तुपुरुष हो गये । सूत्रोंके आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक मध्य स्तंभका आधार मानकर ही गृहकी रचना होती थी। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ प्राचीन बौद्ध साहित्य ( ए. सी. कुमारस्वामी । अर्ली इन्डियन आर्किटेक्चर, ईस्टर्न आर्ट १९३० - १९३१ ) तथा जैन साहित्य ( डॉ. मोतीचन्द्र, आर्किटेक्चरल डेटा इन जैन केनोनिकल लिटरेचर, जर्नल एशियाटिक सोसायटी, वाल्युम २६ भाग २. १९५१ ) के आधार पर हम ईसापूर्व तथा ईसाकी आरंभिक सदियोंमें भारतीय वास्तु पर प्रकाश डाल सकते हैं । पर वास्तु संबंधी इन साहित्यिक उदाहरणों का सीधा सम्बन्ध या तो स्तूप, चैत्य, तोरण, वेदिकाकी बनावटोंसे अथवा प्रासाद और नगरकी रचना और नक्शोंसे है । इन उदाहरणोंका संबंध ईसा पूर्व दूसरी सदी से लेकर ईसाकी २-३ सदी तक के स्थापत्यसे है । वास्तुशास्त्र संबंधी जो परिभाषाएँ हमें इस युगमें मिलती है, उनका संबंध अधिकतर काष्ठ निर्मित स्थापत्यसे है । उस युगके जो चैय और विहार लेणों बच गई है। उनके नकशे भी काष्टसे बने आरामों तथा प्रासादोंसे लिए गए है । जिन देवमंदिरों की कल्पना मध्यकालमें हुई उनका इस युगमें पता न था । जो परिभाषाएँ अपने युगमें पूरी सार्थक थीं, बादमें चलकर जब वास्तुकलामें पत्थर और ईंटोंका प्रयोग होने लगा वह अपने अर्थ खोने लगीं, और गुप्त युगमें उन नई परिभाषाओं का जन्म हुआ जिनका तत्कालीन स्थापत्य से काफी संबंध था । इन परिभाषाओंका कालान्तर में संग्रह कर लिया गया होगा और इस तरह वास्तुशास्त्रका जन्म हुआ । अब प्रश्न उठता है कि क्या गुप्त युगके पहले भी लिखित रूपमें वास्तुशास्त्र था अथवा नहीं । तत्कालीन साहित्य में वास्तु संबंधी शब्दोंका खुलकर प्रयोग होनेसे तो ऐसा पता चलता है कि कुछ ग्रंथ जिनका अब पता नहीं है, ऐसे रहे होंगे जिनमें तत्कालीन वास्तु और उसके अवयवोंका वर्णन रहा होगा। ऐसा लगता है कि ३-४ सदीमें मंदिरोंकी बनावट में कुछ खोज बीन आरंभ हो गई थी । कमसे कम रायपसेणिय सूत्र से पता चलता है कि यान- विमानकी जो राजमहल अथवा देवमंदिरका ही प्रतीक था बनावट कुछ अधिक अलंकृत होती । इसके स्तंभों की सजावट लीलामयी शालभंजिका तथा ईहामृग, वृषभ, गंधर्व, मकर, विहग, व्यालक किन्नर, शरभ, कुंजर, वनलता तथा पद्मलता इत्यादि अभिप्रायोंका प्रयोग हुआ है । स्तम्भकी वनवेदिका पर विद्याधर युगल उत्कीर्ण होते थे, तथा उनकी सज्जा घंटियोंके जालसे होती थी । य न- विमान के तीर और सीढ़ियाँ होती थी, जिनके अवयवो यथाणेमा, स्तम्भ फलक; - सूची, संधि तथा अवलंबन बाहुका उल्लेख है । यान- विमानके तीन तरफ तोरण होते थे जिनकी ऊपरी शलाका, स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्ते, वर्धमान भद्रासन, कलश, मत्स्य और कलशसे सजा होती थी । तोरण स्तम्भ में निशीदिकाएँ होती Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ थीं, जिनमें नागदंतोसे किंकिणी घंटाजाल तथा चित्रविचित्र सूत्रमालाएँ लटकी होती थी। कुछ निशीदिकाओंमें शालभंजिकाएँ बनी होती थीं। द्वार, तोरण, स्तम्भ तथा प्राकारकी बनावटमें जाल कटक, प्रासादावतंसक, शिखर, जालिका, तिलक, अर्धचन्द्र, पद्महस्तक, तुरग, मकर, किंपुरुप, गंधर्व, वृषभ, मिथुन, संघाद, इत्यादिका भी स्थान होता था। पर गुप्त युगमें वास्तुकलाने एक दूसरा ही रूप ग्रहण किया । उस युगके साहित्यमें वास्तुविद्या संबंधी शब्दोंका खुलकर प्रयोग हुभा जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है, कि गुप्त युगमें वास्तुशास्त्रका प्रणयन हो चुका था । तथा कमसे कम नागरिक वास्तुकला अपनी काफी परिष्कृत रूपमें प्रकट हो चुकी थी। इस युगमें देवमंदिरोंका सीधासाधा आकार हमारे सामने आ चुका था जिसमें स्थापत्य, मूर्ति तथा अभिप्रायका एक अपूर्व संतुलन था । पर जैसे जैसे मंदिरोंकी बनावट पेचीदा होती गई, वैसे ही वैसे स्थपतियों और सूत्रधारोंको स्थापत्यके बहुतसे प्रों पर विचार करना पड़ा, जिसके फलस्वरुप गणित तथा ज्यामितिक आधारों पर भारी भारी प्रस्तर शिलाओंको लगानेके तरकीबों का समाधान हुआ । वास्तुशास्त्रके विकास के साथ ही साथ उसके पारिभाषिक शब्दोंका भी क्रमशः विकास हुआ और मंदिर के अवयवों और अलंकारोंके लिये भी शब्द स्थिर हुए। वराहमिहिरने बृहत्संहिता ५६/१५ में लिखा है।। __ शेष माङ्गल्यविहगैः श्रीवृक्षैः स्वस्तिकैर्घटैः मिथुनः पत्रवल्लीभि प्रमथैश्चोपशोभयेत् ॥१५॥ इसके पहले इलोकमें द्वारके दोनों द्वारशाखामें द्वारपालोंका उल्लेख है। मागल्यविहग, श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, कुंभ, मिथुन (स्त्री-पुरुष युग्म), पत्रवल्ली और प्रमथ तो गुप्त युगके वास्तु-अलंकारकी विशेषता है ही, और इस युगके , मध्यप्रदेशके गुप्त मंदिरोंमें पाए जाते हैं। इन अलंकारोंका प्रयोग कुषाण युगमें भी होने लगा था, पर इनका परिष्कृत प्रयोग गुप्त युगमें ही हुआ। . .अब एक प्रश्न उठता है कि गुप्तकालके मंदिरों पर बनी हुई गंगा यमुनाकी मूर्तियोंका जिसका कालिदासने यथार्ते च गंगे यमुने तदानी स चामरे देवमसेविषाताम् ।' कुमारसंभव, ७-४२ में उल्लेख किया है। बृहत् संहिताने क्यों छोड़ दिया है ? इसका कारण वही हो सकता है कि, तबतक गंगा यमुनाकी मूर्तियोंका तत्कालीन वास्तुमें सम्मत प्रयोग न रहा हो । पर चन्द्रगुप्त द्वितीयके समयमें श्यामिलक हरा विरचित पादताडितकम् (डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल डॉ.मोतीचन्द्र, चतुर्भाणी, पृ. २१२) से तो पता चलता है कि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्त युग में गंगा-यमुना संज्ञक मंदिर बनने लगे थे । इलोराके कैलासके एक भाग में ऐसाही मंदिर है । पादताडितक्रम् में (पृ. १७१ - ७२ ) देश के महलोंके वर्णनमें एक परिभाषिक शब्दोंकी लंबी तालिका यह बतलाती है कि, इस युग में भी नागरिक वास्तुशास्त्र की परिभाषा काफी प्रचलित हो चुकी थी- विद कहता है "मैं वेशमें पहुँच गया । अहा, वेशकी बैसी अपूर्व शोभा है । यहाँ अलग अलग बने हुए वत्र ( मकानकी कुर्सीका ऊँचा चेजा ), नेमि ( दीवारों की नींव ) साल (परकोटा ), हर्म्य ( ऊपरी तलके कमरे ), गोपानसी ( खिड़की की चोटी ), वलभीपुट ( मंडपिका और उसकी उभरी छत ), अट्टालक ( अटारी ), अवलोकन ( गोख ), प्रतोली (पौर ), तथा विटंक ( पक्षियोंके लिए छतरी ) तथा प्रासादों से भरे हुए चौड़े चौक वाले तथा कक्ष्या विभाग में घंटे हुए, सुनिर्मित, जलपूर्ण परिखाओं से युक्त, छिड़काव से सुशोभित, नलकी फूंक से साफ किए हुए ( सुषिर फूत्कृत ), उत्कोटितलिप्त ( टपरियाका पलस्तर किए हुए ), लिखित ( चित्रकारी किए हुए ), स्थूल और सुक्ष्म नकाशियों से सजाए हुए (सूक्ष्म विविक्ता रूपशत निबद्धानि ). बंध - संधि, द्वार, गवाक्ष वितादि ( वेदिकाका चबुतरा ), संजवन ( चतुःशाल घरका बडा चौक ) तथा वीथी और निर्यूहों (निकली हुई वेदिकाओं वाले छज्जो ) से संयुक्त थे...." । इस तालिका में शिखर शब्द उल्लेखनीय है । लगता है गुप्त युग में किसी न किसी रूप में शिखर प्रचलित हो चुका था, पर इसका पूर्ण विकास मध्यकाल ही में हुआ । इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि साहित्य में बिखरे हुए वास्तुशास्त्रकी परिभाषाऐं इकट्ठी की जायें क्यों कि साहित्यकारों द्वारा इन शब्दोंकी परिभाषाएं निखरी हुई होती हैं तथा स्वकालीन वास्तुका जीवित चित्र खींच देती हैं । ऐसे जीवित चित्र हमें वास्तुविद्या संबंधी ग्रंथों में भी नहीं मिलते क्योंकि उनमें शास्त्रीय पक्ष पर ज्यादा ध्यान दिया गया है और व्यावहारिक पक्ष पर कम । इस दिशा में डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल का प्रयत्न स्तुत्य था; पर अब वे नहीं रहे । इस लिये यह आवश्यक है किं संस्कृत - प्राकृत- अपभ्रंश और प्रादेशिक भाषाओंके साहित्यकी पूरी तरह से खोज बीन करके वास्तुविद्या संबंधी शब्द इकट्ठे किये जायें । इससे दो लाभ होंगे। पहला तो यह कि वास्तुशास्त्र में वर्णित पारिभाषिक शब्दों की टीकाके रूपमें ये काम देंगे और दुसरी और वे हमें यह भी बतायेंगे कि उन शब्दों के प्रयोग के अर्थ एकसे रहे हैं अथवा बदले भी हैं । प्राचीन शिल्पशास्त्रोंका अध्ययन करना उतना आसन नहीं है जितना कि समझ लिया जाता है क्योंकि न केवल शिल्प संबंधी ग्रंथोंकी भाषा ही दुरूह है परंपरा नष्ट हो जानेसे उनका ठीक ठीक अर्थ भी नही लगता । उन पर टीकाएं भी उपलब्ध नहीं हैं, जिससे उनके समझने में कुछ सहारा मिल सके । उदाहरणार्थ डॉ० आचार्य " मानसार " को वास्तुविद्याका आदिम स्त्रोत मानते Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और उनका विश्वास है कि जो कुछ भी सामग्री उसमें सुरक्षित है, वह प्राचीन और विश्वसनीय है । पर दूसरा मत है कि मानसारकी सामग्रीका संग्रह बहुत बाद में दक्षिण भारत में हुआ और इसमें भी अधिक सामग्री केवल शास्त्रीय है जिसका वास्तविकता से संबंध नहीं है । वास्तव में वास्तुविद्याकी खोज परख से यह पता चल जाता है, कि उत्तर और दक्षिण भारत में वास्तुकी परिवृद्धि अपने ढंगसे हुई क्यों कि इनके विकास में बहुत कुछ समानताएं भी हैं। अब समय आ गया है कि उत्तरी और दक्षिणी शैलियोंका संश्लेषणात्मक विवेचन करते हुए यह दिखलानेका प्रयत्न किया जाय कि किन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा भौगोलिक परिस्थितियों के कारण उत्तर और दक्षिण भारत के वास्तु में अंतर आया तथा भाषाओंकी भिन्नता होते हुए दोनो की परिभाषाओं में कितनी समानता है। पर जिस तरह के अध्ययनकी ओर मैंने इशारा किया है वह तक संभव नहीं जब तक श्री सोमपुराजी ऐसे विद्वान जिनका परंपरासे सीधा संबंध रहा है इस कामको अपने हाथ में न लें क्योंकि विश्वविद्यालयों से निकले विद्यार्थी जिन्होंने प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र लिया है न तो वे संस्कृत जानते हैं न उन्हें परंपरागत वास्तुकलाका ही ज्ञान होता है। श्री० सोमपुराजी द्वारा "क्षीरार्णव" के अध्ययनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है । इस ग्रंथकी भी भाषा समझकर उसका ठीक ठीक अर्थ करना तथा तत्कालीन मंदिरोंके अवयवोंसे उस परिभाषाकी तुलना करना उन्हींका काम है । ग्रंयके संपादनमें पग पग पर उनकी अध्ययनशीलताका पता लगता है । अनेक स्थलों पर रेखा चित्र तथा नकशोंने तो सोने में सुहागेका काम किया हैं । ऐसे अपरिचित कामको हाथमें लेने में विद्वान लेखकको किन किन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा होगा वे ही जानते हैं। पर वे इस कहावतके कायल है । प्रारभ्य चोत्तमजनाः न परित्यजन्ति । अंतमें श्री० सोमपुराजी का ध्यान एक बातकी ओर दिलाना चाहता हूँ । ग्रंथों में अनेक परिभाषाएँ आई है । उनका बहुधा आपस में सामंजस्य नहीं मिलता । प्राचीन मंदिरोंके अवयवोंके निश्चित परिभाषाओं के लिये यह आवश्यक है कि शब्दों में एकरूपता लाई जाय । मेरा यह भी सुझाव है कि भारतीय वास्तुकोशका संकलनका भी आरंभ कर दिया जाय । ऐसे. कोशके लिए वास्तुशास्त्रके ज्ञाताओं, पुरातत्वज्ञविदों तथा धर्म और समाज शास्त्रोंका सहयोग आवश्यक है । सुना है कि बनारसकी अमेरिकन एकेडेमी इस ओर प्रयत्नशील है। विद्वानों को चाहिए कि इस कार्यमें एकेडेमी का हाथ बटावें । लिम्स ऑफ वेल्स म्यूजियम, । बंबई-१ ता. ३-४-६७ मोतीचंद्र Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख लेखक-माननीय श्री कनैयालाल मा० मुनशीजी उत्तर प्रदेशके भूतपूर्व-गवर्नर, गुजरातके ज्योतिर्धर, गुजराती साहित्यमें अस्मिता प्रकटकर्ता भाइ श्री प्रभाशंकर-ओघडभाइ सोमपुरा अपने भारतके एक सुप्रसिद्ध स्थपति और शिल्पके ज्ञाता है । स्थापत्य और शिल्पके बडे जानकारी सोमपुरा परिवारके वंशानुवंश वारसामें मीली है । पुराण प्रथित भृगु ऋषिके भानजा और प्रभासके पुत्र देवोंका स्थपति श्रीविश्वकर्मा ज्यों भारतके आद्य विख्यात स्थपति थे । यह सोमपुरा परिवार के मूलपुरुष गिना जाता है । और सोमपुरा वंशके उत्पत्ति क्षेत्र प्रभासपाटन गिना जाता है। यह वंशके महापुरुषोने गुजरात, राजस्थान, मेवाडमें मंदिरोका शिल्प स्थापत्यके निर्माणमें महत्वपूर्ण हीस्सा दीया है। भाइ श्री प्रभाशंकरजी सोमपुरा भगवान श्री सोमनाथके नवनिर्मित महाप्रासादके प्रमुख स्थपति है । स्थापत्यके शास्त्रीय और क्रियात्मक उभय ज्ञान श्री सोमपुराजीके खुनमें है । " दीपार्णव" नामक मंदिर स्थापत्यके स्पर्शित महाग्रंथ उन्होने गुजरातके चरण में अति कीया है । यह प्रकार के ग्रंथ गुजराती भाषामें प्रथम होनेसे श्री सोमपुराजीकी यह सिद्धि विरल है। "क्षीरार्णव" के लेखन-संपादन और प्रकाशन द्वारा भाई श्री सोमपुराजी अपने भारतीय स्थापत्य साहित्यका एक अमुल्य ग्रंथ देश समक्ष प्रस्तुत करते है। यह ग्रंथ मूल स्वरुपमें बहुत विशाल होगा । परन्तु उनके सिर्फ बावीश प्रकरणो वर्तमानमें उपलब्ध हुये है। उन पर भाइ श्री सोमपुराजी मूलपाठ-सहित, हीन्दी-गुजराती में "सुप्रभा” नामक विवरणके साथ प्रकाशित कर रहा है । प्रचलित अभिप्रायानुसार यह ग्रंथ के प्रणेता श्री विश्वकर्मा था। कालक्रमें यह ग्रंथका कितते खंडो नष्ट हुआ है । परन्तु ज्यों बावीश प्रकरणो भाई श्री सोमपुराजी सविवरण प्रस्तुत करते है । इस परसे मालुम पडता है । की मूल ग्रंथ भव्य महाप्रासादो के निर्माणमें स्थापत्यके विविध दृष्टिकोणसे शास्त्रीय शैली प्रस्तुत करते है। यह अद्भुत ग्रंथमें मूल श्लोकका हीन्दी-गुजराती विवरण है । और वास्तुशास्त्रके विशाल साहित्यमेंसे उल्लेखनीय अवतरण देवो अनेक सुंदर आकृतियो और आलेखनो सहित भाइ श्री सोमपुराजी प्रतिपादत विषयको एसे विशनतासे पेश कीया है । की सामान्य वाचकगण भी सरलतासे समज सके । ___ "दीपार्णव ” और “ क्षीरार्णव " जेसे ग्रंथ भारतीय स्थापत्यके गौरव सम है । वास्तुशास्त्रके यह परंपरागत ज्ञानके विशाल वर्गके लिये ज्यों रीतसे विद्वान् श्री सोमपुराजीये सुलभ कर दिया है । इस लिये धन्यवादभारतीय विद्याभवन र कनैयालाल मा० मुनशी अंबई-७ ता.२३-५.६७ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या कला और सरस्वती त्रिवेणीका उपासक और लक्ष्मी त्था सरस्वतीका जहाँ सदावास है ऐसे उद्योगपति श्रीमान् श्री श्रीगोपालजी नेवटियाजीका पुरोवाचन 'क्षीरार्णव' के प्रकाशनके संबंधमें श्रद्धेय श्री प्रभाशंकरजीने मुझे भी कुछ लिखकर भेजनेके लिये अनुरोध किया है। मैं इस विषयका कोई ज्ञाता नहीं। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि श्री प्रभाशंकरजी प्राचीन भारतीय स्थापत्यके वेजोड़ विद्वान है । प्राचीन ग्रंथोंके अध्ययनके द्वारा ही नहीं, किन्तु भारतके प्रायः सभी प्राचीन मंदिरों और प्रासादोंको देखकर तथा अनेक निर्माण-कार्य-संपादन कर आपने जो ज्ञान प्राप्त किया है, यह अद्वितीय है। बंबहके निकट कल्याणमें अभी पिछले वर्ष एक नया मंदिर निर्माण हुआ है, और इस कार्यका संपादन श्री प्रभाशंकरजीके द्वारा हुआ | इस विषयमें मेरा श्री प्रभाशंकरजी से निरंतर सम्पर्क रहा और इस बुद्धिमता-विवेकशिलता, सर्वाधिक निस्पृहता और निलोभताके साथ वह कार्य आपने संपादन किया उससे हम सब बहुत ही प्रभावित हुवे है । श्री प्रभाशंकरजीने प्राचीन स्थापत्य संबंधी अनेक ग्रंथोंका प्रकाशन किया है, और उसी श्रेणीका " क्षीरार्णव " भी एक है। इस ज्ञानको छपी हुई पुस्तकके रुपमें प्रस्तुत करनेका प्रशंसनीय कार्य श्री प्रभाशंकरजीने किया है । आजके प्रगतिशील जगतमें यह ज्ञान बहुत पीछे रह जाता है, फिर भी जब कभी इस झानके आधार पर निर्माण कार्य सम्पन्न होता है, तो उसके सजीव रुपमें इस प्राचीन स्थापत्यका महत्व प्रदर्शित होता है। कतिपय वर्ष पहले मैं सोमनाथ मंदिरके दर्शनके लिये गया था और तभी से मेरा श्री सोमपुराजी से सम्पर्क बढता गया। सोमनाथ मंदिर के नव-निर्माण से लेकर आधुनिक जमाने में बहुतसे मंदिरोंके निर्माण इत्यादिका कार्य प्राचीन पद्धतिके अनुसार श्री सोमपुराजीने सम्पन्न किया है। ऐसा मालुम होता है कि इस प्राचीन कालका कोई एक पुरुष जीन्दा रह गया है। और अगले जमानेकी सेवा कर रहा है । उनके द्वारा प्रस्तुत स्थापत्य भले ही प्राचीन कहा जाय लेकिन आज वह कितना अपूर्व है। कितना बहुमूल्य है, वह देखनेवाले ही जान सकते है। मुझे इसका अनुभव हुआ है, इसलिये मुझे ऐसा लिखनेका अधिकार है। में श्री सोमपुराजीके दीर्घायुकी कामना करता हूँ। और भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि उनके हाथोंसे ओर भी निर्माण कार्य सम्पन्न हो, उन्हे कीर्ति मिले और वे अजर अमर हो । रत्नाकर-बंबई ता. ३०-७-६७ -श्री गोपाल नेवटिया Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वकर्मा प्रणित क्षीरार्णव वास्तुशास्त्र ग्रंथकी विषयानुक्रमणिका क्रमांक अध्याय विषय भध्याय ९९ (क्रमांक अ० १) पत्र संख्या क्षीरार्णव वृक्षार्णवकी ग्रंथ रचना प्रासाद पुरुषाङ्ग कल्पना १ प्रासादकी चौद जाती ३ वास्तुद्रव्य और उनका फल नारद विश्वकर्मा संवाद प्रश्न वास्तुगणितका २१ अंश ५ से २७ अधिक गुण और अल्प दोषवाला वास्तु निर्दोष समझना २६-२७ आलेखन अष्टआय (६) नाडीचक्र (२०) २-१००--जगति लक्षण अध्याय (क्रमांक अ० २) जगति विस्तारमान-भ्रमणि-उदयमान सहस्त्रलिङ्ग-६४ योगिनी और जिनायतको अगति विशेष २८ से ३३ जगती उदयमें थर विभाग-आगे पगथि प्रतिहार और बलाणक मंडप-कक्षासन वेदिका देववाहनका मंडप ३७-५० आलेखनो-पंचायतन (३०) ५२-२४ जीनायतन (३१-३२) । जगतीउदय (३५) प्रतोल्या स्वरुप (३६) कक्षासन विभाग (३८) पीठ युक्त प्रतोल्या (३९) ३-१०१- अध्याय (क्रमांक अ० ३) कूर्मशिला निवेशनम् ४१ पाषाणकी कर्मशिलाका मान प्रमाण आकृति (४३) नौशिलाका नाम ४५ हेम सुवर्णका कूर्मप्रमाण-शिला स्थापनकी विधिक्रम देव शिल्पिपूजन ४७ आलेखन उमा महेश युग्म (५६) पंचमुख विश्वकर्मा (१४) वृषभहस्ति-३२ (५८) ४-१०२–अध्याय (क्रमांक अ० ४) भिट्टमान भिट्टमान प्रमाण और उनका त्रय भिट्ट विभाग और खरशिला यु. ५०-५१ . आलेखन-भिट्टत्रय-महापीठ (५०) प्रनाल मकरमुख (५१) ५-१०३–अध्याय (क्रमांक अ० ५) पीठमान प्रमाण १ पीठमान प्रमाण २ मंडोवरदयसे पीठमान-आया हुया पीठ मानसे आधा या तृतीय भाग पीठ नीयोजन स्थान मानसे करना ५३-५५ भालेखन-महापीठ-कामदपीठ और कर्णपीठ (५३) पीठ बाह्य प्रनाल चंदनाथ (५५) ६-१०४–अध्याय क्रमांक अ १ (प्रासादोदयमान प्रमाण) उभणी सांधार ५६ प्रासादके छाद्य नीचे दो जंघा (३) और पचास हस्तके प्रासादको बार जंघा करना (४) सांधार निरंधार प्रासादके भित्तिमान आलेखन सांधार प्रासादका महा मंडोवर (५७) वृषभयुग्म (६०) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ७४-८७ ७-१०५-अध्याय (क्रमांक अ०७ द्वारमान नागरादि द्वारमान प्रमाण-ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठमान--आलेखन-- कल्याण प्रतोल्या-तोरण (६२) सप्तशाखा द्वार और अर्धचंद्र (१६) ६२-६४ ८-१०६-अध्याय (क्रमांक अ०८) पीठ थर विभाग कामदपीठ विभाग ३३ और १८ दो प्रकार महापीठ विभाग ८५ और ९० भागका दो प्रकार;- जाडम्बा कणि ग्रासपट्टी-कामदापीठ गज, अश्व, नर-पीठका आंतरविभाग ६५ से ७३ आलेखन-जांडवा-कणिका-ग्रासपट्टी-गज अश्व-नरपीठका प्रत्येकका आंतर विभाग-महापीठ कामदपीठ और कर्णपीठ (६५-७३) ९-१०७--अध्याय (क्रमांक अ० ९) मंडोवर थर विभाग (१) नागरादि मंडोवर १४४ भागका (२) उसकी पर त्रय भूमि उदयका विभागका महामंडोवर भाग २४९ (३) मंडोवर २०६ विभागका उनका प्रत्येक थरका आंतर विभाग आलेखन साथ ७९-८६ आलेखन-सांधार निरंधारका तलदर्शन (७५) छ प्रकारके मंडोवरस्तंभ समन्वय साथे (७६) द्वय जंघायुक्त अलंकृत महामंडोवर (७८) जंघामें देवस्वरुपादि (८२) सोमनाथका उद्गम-और भरणी स्वरुपादि ८१-८२ -अध्याय (क्रमांक अ० १०) मेरु मंडोवर ८८-१०० १०६ विभागका मंडोवर पर (त्रीश हाथका प्रासादको त्रय भूमिका विभाग १६० + १२१ + ९६=३७७) विभाग पांत्रिश हाथका ८९ से प्रासादके चार जंघा भूमि करना (चालिश हाथके पांच जंघा-९२ भूमि करना प्रत्येक छाद्य नीचे दो दो जंघा और भूमि-९३ करना १ से १२. जंघा ५० हाथके प्रासादको करना बार जंघाका नामकरण कहा है (९३-९६) सांधार-प्रासादका मंडोवर साथ अंदरके स्तंभ छोडका समन्वय ९९ छजा परका प्रहारका १९ आंतर विभाग ( लोक ६-८) ९२ आलेखन दश दीग्पाल (८९-९०) दशावतार विष्णु (९१) प्रहार (१९), चार भूमि जंघाका मंडोवर (९४) सोमनाथका पुराना मंडोवर (९५) सोमनाथ महाप्रासाद और द्वारिकाका तलदर्शन (९७-९८) सांधार-निरंधार प्रासादका मंडोवरके साथ स्तंभका छोडका समन्वय (९९) १०० ११-१०९-अध्याय (क्रमांक अ० ११) गर्भगृहोदय-और द्वार शाखा विभाग १०१ गर्भगृहका घांच स्वरुप (१०१) स्तंभ छोड़ उदय विभाग १०२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनाम विचार (१०३) त्रिपंच-सप्त-नवशाखा तल विभाग १०४ से ८ उदंपर और अर्धचंद्र-शंखोद्वार शाखामें परिवार-देवोंका रुप करना १०९ से ११ आलेखन- गर्भगृहका आंतर और बाह्य उपांझो चार प्रकार-१०, स्तंभ छोड विभाग (१०२) त्रि-पंच -सप्त नवशाखाका तलदर्शन (१०५) त्रिशाखा द्वार-उदंम्बर भर्धचंद्र पंचखाखाका अलंकृत द्वार उदम्बर अर्धचंद्र (१०८) सप्त-नवशाखाका तलदर्शन और अर्धचंद्र १०९-१९ द्वारशाखाका रुपवाला ठेका और उतरंङ्ग विभाग ११३ १२-११०-अध्याय (क्रमांक अ० १२) प्रतिमा-पीठ लिकमान १५१ द्वारोदयका विभागसे पीठ और उर्व प्रतिमाका तीन प्रकारका मान और शयन प्रतिमा विस्तार प्रमाण द्वार मानसे-राजलिङ्ग ११५-१८ द्वार विस्तारसे चतुर्मुख प्रतिमा प्रमाण ११९ आसनस्थ-उर्ध्वस्थ प्रतिमामान टीप्पणमें गृहयोग्य पूजा प्रतिमामान १२९-२० देवपीठ सिंहासनोदय थर विभाग (आकृति १२२) १२१-२२ आलेखन-वराह-और ललाट तिलक शिवका स्वक्षा विरालिका धुक्त १४-१८ १३-१११-अध्याय (क्रमांक अ० १३) देवता दृष्टिपद स्थापन १२३ गर्भगृहना द्वारोदयका ३२ विभाग देवताद्रष्टि स्थापन द्रष्टिवेध १२३-२५ गर्भगृहार्धमें २८ विभागमें देवस्थापन १२६ टीप्पणमें द्रष्टि और देव स्थापन विभागके बारेमें पृथक पृथक ग्रंथका मतमतांतर (१२१ से १३६) देव द्रष्टि भोर पद स्थापन विभाग दर्शक पृथक पृथक ग्रंथोका मत मातरका कोष्टक १३५-२६ आलेखन-दशावतार विष्णुका १० स्वरुप (१२७-१३० अग्निदेव- १२९ १४-११२- अध्याय (क्रमांक अ. १४) शिखर-भद्र नासक सरध्र १३७-५१ त्रि पंच सप्त नव नासक १३७-१० शिखरोदय त्रण प्रमाण १४० शिखरकी मूल रेखाका प्रमाणसे स्कंध प्रमाण और उनका उपाङ्ग विभाग१४०-४१ सरवेधका महादोष १९१-९२ आलेखन-नासक १३९ १५-११३-अध्याय (क्रमांक अ० १५) शिखराधिकार शिखरोंका विविध आकार की तल पर होता है-निरंधार और सांधार प्रासादमें शिखरकी मूल पायचा कहाँ मिलाना १४५ शिखरको विस्तारसे उदयका तीन प्रकार एको परि दुसरा उरुश्रृंगका उदयका विभाग प्रमाण शिखरका पायचासे स्कंधका प्रमाण शिखरकी मूलका विस्तारसे चतुर्गुण सूत्र वृतमें सवाया शिखरकी रेख। आँकना १४७ शिखरका मूलमैं दश भाग और स्कंध पर नव भागका उपांग करना स्कंध पर आमने सामने प्रतिरथके कौनके बराबर आमल सारा विस्तार करना १४८-१४९ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सांधार प्रासादके वालंजर (१५०) स्कंधहीन और स्कंधवेधदोष १५१ छाद्योलसे शिखर स्कंधका २१ विभागमें शुकनासका पंचविध प्रमाण १५२ कोकिला-लक्षण-(प्रासादपुत्र) १५४ आमलसारा विभाग १५५-५६ शिखरका स्कंधके कोण पर तापस-या शिव या जिन मूर्ति रखना १५७-५९ ध्वजादंडका शिखरमें निश्चित स्थान, ध्वजाधर स्तंभवेधका प्रमाण ध्वजादंडके साथ स्तंभीका ध्वजावतीका प्रमाण और प्राकृति कलश (ईडा) प्रमाण प्रासादसे रखना उनका विभाग (९४६) १६१-६२ प्रासाद पुरुषका प्रमाण-आकृति-धृत कलश साथ मामलसारमें स्थापनविधि १६३ ध्वजादंडका मान प्रमाण और दैर्ध्य प्रमाणका पृथक पृथक मान, पर्व अर्थात् गाला और ग्रंथी-कांकणी सम विषम रखनेका विधान शिवशक्तिका दंड पर्व ध्वजदंडकी मर्कटि- पाटलीका प्रमाण, श्रीष्ट दंडकाष्ट, पताका प्रमाण, ध्वजहीन शिखर रखनेका दोष १६१-से १७२ यजमान-स्वामि-प्रासाद पूर्ण हुये स्थपतिसे करनेकी प्रार्थनाशुभाशिष १७२-१७३ ६.१-आलेखन गोर्ध्वग उरुगेवं उरुशृंग रखनेका विभाग ११४ २ आमलसारा विभाग ३ (१०८) १४८ वृत ४ सांधार-निरंधार प्रासादका मूल शिस्तरका उपांग वालंजर-१५१६ रेखा-१ स्कंधान्त-२ घंटान्त-३ शिखान्त (१५२) ७x१४ विभाग आमलसारा १५५ ध्वजाधर-स्तंभिका-ध्वजादंड-पताका पाटली (१५८) ७ कलश विभाग ९४६ और १५४१० सुवर्णका प्रासाद पुरुष (१६४) सारा शिखर विभागे ध्वजाधारका स्थान के साथ ध्वजदंड पाटली पताका (१६५) ११ छाद्योर्ध्व शिखरकी रूपवाली जंघा; भद्रके अलंकृतगवाक्ष १६७ १६-११४-अध्याय (क्रमांक भ० १६) अथ रेखा विचार १७४-८१ पंचखंडसे उन्नतिश खंड तकका रेखाका २५ भेद (१७४) चारसो पेंतीस कलाभेदो शीखरका पायवा और स्कंधका फालना विभाग आमलसारा प्रमाण १७५-७६ अजितादि २५ रेखाका नाम-आकार और खंड पंच-सप्तनव .. नासक विभाग-सरतर-वारिमार्ग आलेखन नासक विभाग १७७-८१ १७-११५ - अध्याय (क्रमांक अ० १७) स्तंभ (मान प्रमाण और) लक्षणाधिकार प्रासाद माने स्तंभमान-दुसरा पंचविध प्रमाण-तीसर। सभा-मंडपका मान ८२-१८३ पांच प्रकारका स्तंभोंका तलदर्शन और नामकरण १८५-८७ स्तंभोंका घाट-घटपल्लवयुक्त देवाङ्गना और इलिका तोरणायुक्त-मदलयुक्त। १८६ प्रानिव या नृत्यमंडपका पीठ बंधका तीन प्रकार और आकृति । १८८-८९ तीन, पाँच या सात नव भूमि उदय मंडप चतुर्मुख प्रासादके चारों ओर मंडपों करना । १८९ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરે चतुर्मुख महाप्रासादों जो देशमें न हो वहाँ सूर्य विना दिन.. और चंद्र बिना रात्री समान जानना | मंडपी जंधा-या वैदीकादिमें - शीवका पंच स्वरूप- लास्य तांडव करना । वैताल: विविध बार्जित्र युक्त नारद स्तुबरु सिद्धि-बुद्धि सहीतका नृत्य गणेश ऋषि-मुनीर्यो - गोपीयों युक्त कृष्ण-स्त्री पुरुषके युग्म स्वरुपों में नृत्य करते इन्द्रादि, दिग्पालों, सूर्यादि ग्रहो, बारा राशि, २७ नक्षत्र, आठ आय, आठ व्यय, नव तारा, सात स्वर छ राग, छत्रीश रागिनीयाँ, बारह मेघ- यक्ष, गंधर्व, विद्याधर, नाग कीन्नर आदि अनेक देव-देवाङ्गनाओं, इलिकrतोरण, गज, सिंह, विरालिका साथ करना । मंडप क्या क्या हेतुके लीये करना ? १९८ प्रासाद के प्रमाणसे १ सम २ सवाया ३ डेढा ४ पोनेदो गुने ५ दोगुने ६ सवादो गुने ७ ढाई गुने एसे सात प्रकार मंडप हस्त मानसे करना | घंटाका समन्वय शिखरका शुकनास से मंडपो सांधार निरंधार प्रासादसे मंडपका उदयका तीन प्रमाण १ उत्तरतोदय २ छज्जोदय ३ भरणी उदय १८९ आलेखन - घटपलवयुक्त स्तंभ- मदल- मकरयुक्त तोरण १८४ - ९६-९८ मकर तोरण तीन प्रकार--१ तीलक, २ हींडोलक, ३ गवालुक १९६-९७ स्तंभोंका पंच तलस्वरूप (१८५) मंडपके पीठके तीन प्रकार १८९ रुपस्तंभों तोरण और द्वार चोकी चतुस्त्रिका १९० १९२ कर्णाटकी देवाङ्गना १८७ शिवस्वरूप चार (१८९) रामपंचायतत पंचमुख हनुमंत-पंचमुख गणेश १९३ | आदित्य - सूर्य १२ स्वरूप ११६ अध्याय (क्रमांक अ० १८) मंडपाधिकार नवग्रह १९५ १९८-२३७ १९८ वितान - घुमट छतका मुख्य तीन भेद १ समतल २ उदितानी ३ क्षिप्तानुक्षिप्त वितानका घाटका ६६ विभागे थरो १९१-१९७ १९८-१९९ २००८ २००-२०२ २०३-२०१ २०९-२१२ २१३ (१) पुष्पकादि २७ मंडपों १२ से ६६ स्तंभ प्रमाण (२) सुभद्रादि प्रावि बारा मंडप । ४ से २८ स्तंभ प्रमाण (३) मेरबादि २५ मंडप ६६ से ११२ स्तंभ प्रमाण, दो से पाँच भूमि उदय २१४-१९ ( ४ ) आठ गुढ मंडपके नाम और स्वरूप (५) शिवनादि मेघनादि महामंडप २२३ २२५ गर्भगृह मंडप और चतुष्किका भूमितल उत्तरोत्तर निम्न रखना पंचविध बलाणक नाम स्वरूप स्थान और प्रमाण उत्तरत अगतिके आगे मंडप या चोकि, विषय पाट छाद्य कहा मिलाना २२६-३० संवरणाधिकार - अङ्ग विभाग घंटा - कूट संख्यामान कोष्टक (२६३) २३१-३७ सांधार निरंधार प्रासादके मंडपका कक्षासन युक्त स्तंभादि उदयके ३ मान २०८ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलेखन-चतुष्किका छत (२०३) क्षिप्तानुक्षिप्त छत (२०६) कोल गजतालयुक्त वितान गुम्बज मंडप तलदर्शन (२०४) २०६.७ १ पुष्पकादि १ से २७ मंडपका तल २०९। २ प्रानिव द्वादश मंडप तल २१३ ३ मेरवादि मंडप नाम स्तंभ संख्या कोष्टक तथा ६ से ३६ स्तंभ मंडप रचना २१७ ४ गूढ मंडप अष्टका तलदर्शनशिवनाद मेघनादक मंडप तल २२०-२५ १ लक्ष्मीनारायण - योगेश्वर विष्णु योगेश्वर शिव तोरण २२५ २ शिव-विष्णु ब्रह्मा-त्रिमूर्ति तोरण नृत्य शिव परिकर तोरण (२२९) सप्त मातृकाएँ २३२ संवरणा २३२-३६ १९ ११७ अध्याय (क्रमांक अ० १९) सांधार भ्रम निरुपणाध्याय २३८-२४७ एक, दो, तीन भ्रम उत्पन्नका प्रासाद प्रमाण १० से २५ हाथका प्रासाद को एक भ्रम करना भ्रम और मितिप्रमाण २७ हाथके प्रासादको दो भ्रम, ज्येष्ठ, मध्यम, कनिष्ठमान भ्रम और मितिप्रमाण तीन भ्रमका मान उनका भ्रम और भितिप्रमाण। २३८-२४३ भ्रमयुक्त प्रासादमें शिवादि देव गणेश लकुलिश-सूर्यादि नवग्रह नारदादि रूपि पांडवो, युधिष्ठिर, भैरव, ब्रह्माके प्रासादमें वशिष्टादि ऋषिका स्वरूप करना । २४३-२४७ आलेखन-सांधार प्रासाद तल एक भ्रम (एक मुख) तल (२३८) द्वय भ्रम प्रयमुख (२३९) द्वय भ्रम चातुर्मुख (२४०) त्रय भ्रम चातुर्मुख २४२ ब्रह्मा महीषासूर मर्दिनी-सूर्य-विष्णु श्रुतदेवी शारदा सरस्वतीका बार स्वरूप २४२-४५ यम, भैरव, क्षेत्रपाल, शिव उमा स्वरूप ललाट उर्ध्व तिलक २४६ शिव तांडव नृत्य स्वरूप । २. ११८ अध्याय (क्रमांक अ० २०) सांधार चातुर्मुख प्रासाद लक्षण २४८-२७७ नारदजीका प्रश्न चतुर्मुख जीन भवनका श्लोक ३ से १० अस्पष्ट अठराइ तल विभाग पर २६९ श्रृगका मानतुङ्ग प्रासाद २५० दशाइ तल पर माता प्रासाद पीठ और मंडोवर विभाग ४८॥ का एक जंघाका कनिष्ठ मान पीठ और मंडोवर विभाग ५३॥ का दो जंघाका मध्यमान पीठ और मंडोवर विभाग ७० का तीन जंघाका ज्येष्ठमान २५३-२५५ जगतिका दीर्घ व्यासका पद-कोठा परसे जिनायतनकी संकलन अगतीका २८x२५ खंड पदसे ८४ जीनायतनका जिणमाला २५५-२५८ द्वारभानसे चातुर्मुख प्रतिभामान और दृष्टिमान-दृष्टिवेध दोष २५९-६२ माखन-१ मानतुङ्गशिखर २ मंडोवर कनिष्ठमान ४८॥ भाग ३ मध्यमान ५३॥ भाग (४) जेष्ठमान मंडोवर द्वयजंघा भाग ७० (५) ८४ जीनायतन जिणमाला तल (६) जीन प्रतिमा विभाग (७) ओम प्रतिमा परिकर विभाग (4) समवसरण (९) अष्टापद । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ ११९ अध्याय (क्रमांक अ० २१) केशरादि वैराज्यकूल प्रासाद २६४ अठाई - दशाई तल विभागोंका २५ प्रासादोंका नाम अठ्ठाई तल विभक्तिका ११ शिखर । २६७ दशाई तल विभागके १४ चौदा शिखर । श्रङ्ग श्रीवत्स मिश्रक रुचक-तिलक आलेखन केसरी श्रृंग श्रीवत्स तिलक मंजरी कट केसरी अंग सर्वतोभद्र नंदन नंदशाली नंदीश मंदिर २६७-६८ वैराज्यकूल अठाई केसरी प्रा० तथा सर्वतोभद्र प्रा. वैराज्यकूल अठाई मंदिर प्रा० तथा श्रीवत्स प्रा० २६९ वैराज्यकूल दशाई नंदन प्रा० २७२ पृवीजय प्रा. २७२-७३ वैराज्यकूल दशाई विमान प्रा० २७४ वज्रक प्रा. २७४-७६ २२ १२०-अध्याय चातुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपम् क्षेत्रके घद विभाग-कोठा करके देवकुलिकाओं की रचना करना २७८-७९ बेतालीशाई तल विभक्ति पर चंद्रशाल प्रासाद भ्रमयुक्त शिखर २८० चतुर्मुख प्रासादने चारों ओर मंडपो-उनका तलविभाग पीठ २८२ चोबिस और बावन जिनायतनके चंद्रवक नाम जगती पद-खंड विभाग करके ८४ चौराशि जिनायतन महाधर साथ करना मंडयो मेघनाद करके नालिमंडप और २८४ आगे सिंहद्वार चतुर्मुख-मानतुङ्ग प्रासाद मध्यका चोमुख प्रासादको चारो ओर एक मंडप गवालुकासे छाद्य हो और नागर मंडोवर-मूल चोमुखको करके चारों ओर अस्सी ८. स्तंभो प्रदक्षणमें करके मध्यकी पंक्ति चोविश चैत्यकी और चारो कोण पर तेरा तेरा चैत्य करके पूरे बावन हों कोनेके अंतरसे चारों और छ: महाधर करना यह रचनाको ताराउली नाम समझना २८६ भद्रका कोठाका तीन मुखभद्रको रम्य ऐसो सुभद्रा नामकी वेदिका करनेसे उनका नाम किरणाउली समझना बावन जिनायतनमें दो मंडप आगे वेदिकाके आगे पगथी पंक्ति है। बहोतेर जीनायत बाह्य हो वेदिका युक्त मध्ये मंडप हो आगे नालिमंडप वेदिकावाला १५ भागका कर्ण २५ भद्र हो एसे स्वरुप लक्षणवाला सौभाग्यिनी नाम समझना २८९ ब्रह्मस्थानका पच्चीश खंडमें चतुर्मुख प्रासाद अंङ्गोपाङ्गोवाला करना उसके सौ खंड - कोष्ठाको मध्यमें चारो ओर मेघनाद द्वीभूमि मंडपो करना २९० बहोतेर जीनायंत नालि मंडपयुक्त करना उनमें मेरुकी रचना १९१ से • करना २८५ खंड-कोष्ठमें चार खंड मुखाने बाह्य वेदिका Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ युक्त करना एसा चातुर्मुख धार भूमि उदयका करमा भागे माली मंडप दो तीन भूमि उद्यका वेदिका साथ करना-सर्व अग्रे पगथीकी पंक्ति करना चातुर्मुख प्रासादको एकसे नव जंघा करना चारो ओर मिश्रमेध ओर सिंहनाद मंडपो करना आठसे पंदरा हाथके प्रासादके भ्रममें दो भूमि योजना करनी एक भूमिसे बारह भूमि तक जंघा करना । - २९४ भी १४ भाग पीठ १७ भागका उचे प्रथम भूमि मंढोवर भरणी तक ४५॥ २४ दुसरी भूमि छज्जा २९ ... ... ... २९ १९ तीसरी भूमि भरणी तक २४ ... ... २४ १८ चोथी भूमि छज्जा तक २६ ... १२४॥ जंघामें लोकपाल दीगपाल देवाङ्गनाओका स्वरुप लास्य तांडवादि २९७ नृत्य ताल सह वादिन साथ करते है देवो आयुध वाहन साथ नृत्य करते है जैसेके उत्सव हो रहा हो, छ और आठ हाथवाला देव स्वरूपो इंद्र रंभाके साथ अग्नीदेव उर्वसी साथ यम तिलोचना साथ क्षेत्रपाल शची, वरुण, रंभा, वायुदेव मंजुघोषा, ईश मेनका साथ करना । प्रासादके इशान कोणसे मेनकादि देवाङ्गनाका स्वरुप करना । १. मेनका २. लीलावती ३. विधिचिता ४. सुंदरी ५. शुभांगीनी ३०१ से ६. हंसाउली ७. सर्वकला ८. कर्पूरमंजरी ९. पद्मिनी १०. गूढ शब्दा (पद्मनेत्री) ११. चित्रिणी १२. चित्रवल्लभा पुत्रवल्लभा १३. गौरी १४. गांधारी १५. देवशाखा १६. मरिचिका १७. चंद्रावली १८ चंद्ररेखा १९. सुगंधा २०, शत्रुमर्दिनी २१. मानवी २२. मानहेसा २३. स्वभावा २४. भावमुद्रिका २५. मृगाक्षी २६. उर्वशी २७. रंम्भा (उत्तान) २८. भुजधोषा २९. जया ३०. विजया (मोहिनी) ३१. चंद्रवका (तिलोत्तमा) ३२. कामरुप (लोक ११३ से १३४) यह बत्तीस देवाशनाओंके नाम स्वरुप लक्षण, उनकी द्रष्टि निम्न रखके नृत्य करती करना । कई देवाङ्गनाका स्वरुप एकसे अधिक कोन कोनका करना। ३०३ देवाङ्गना दीग्पाल यक्ष गंधर्व सूर्यादि नवग्रहो चतुर्मुख प्रासादमें जंघामें वितानमें (गुम्बजमें) वेदिकामें करना देवाङ्गनाओंका स्थान स्वर्ग है। दुसरी द्योतवनमें, तीसरा महीसलके चातुर्मुख प्रासादमें स्थूल देहे बसेली है श्लोक १२३ पत्र ३०४ दो छज्जा और चार जंधाका मंडोवर कवली मान प्रमाण १ चित्रा २ विचित्रा ३ अभया ४ रुपचित्रा ३१६ सांधार निरंधार प्रसादके भितिमान Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्मुख प्रासादका शिखर में चारों ओर सुंदर शुकनास दो तीन भूमि पर करना एक दो असे बार भूमि तक जंघाका क्रमयोगसे करना । ३१८ गर्भगृहका अर्धमें षडांश ज्येष्ट, सातमेंशे मध्य-दशांश कनिष्ठमान? चतुर्मुख प्रासादके त्रयखंडमें एक खंड भ्रमकामंडपो त्रण खंडपदका या क्वचित नीकलता करना द मंडपके वीच एक पदका अंतर रखना मंडपके द्वी भूमिमें तीन और वेदिका करना उससे आगे रंगमंडप डेढ भूमि उदय करना आगे पांच पदका बलाणक मंडप करना-उसके नाली मंडपना अग्र भागमें द्वयभूमिमें वेदिका करना एसे चारों ओर करना । ३१८-३१९ निर्गमवाला नालिभंडपके भद्रमें तीन ओर तीन द्वार करना । चातुर्मुख प्रासादकी प्रदक्षणामें ९६ देवकुलीका चार मूल और आठ महाधर-मीलके एकत्र १०८ जीनायतन हुमे ।। दुसरा प्रकार नालि मंडप छोडकर मेघनाथ मंडप आगे एक पद छोडके दुसरा मंडप और उससे आगे एक पद छोडके तीसरा सभ्रम मंडप बनाना उसमें समवसरणकी रचना करनाउसमें मूलनायकसे छोटी प्रतिमाको पधराना । मंडपका अंतर सुधीमें भूमियुक्त मंडप करना महाधर प्रासादके सन्मुख समवसरणकी रचना करना एसी चारो ओर बुद्धिमान शिल्पीसे करना मंडपोकी चारो ओर १०८ जीनायतन दुसरा महाधरके मध्य समवसरण ऐसो दो महाधरके बीच समवसरण ते मान युक्तिसे दोष रहित करना प्रदक्षणाकी पीछली पंक्तिमें महाधरकी दुसरी पंक्ति करना एसे जीनायतनका भ्रममें १०८की संख्या करना । आळेखन-चातुर्भूख चंदशाल प्रासादके शिखर २८१ चंदशाल प्रा. आगे चारो और ९६४९६ स्तंभका भंडप तलदर्शन २८७ मानतुंग प्रा० आगे २८ विभागके १०४ स्तंभोका मंडपका तलदर्शन २८४ चातुर्मुख १३४४ = बावन जिनायतनका तलदर्शन २८७ किरणाउलि-पंदरा भाग. ९६ स्तंभका मंडप २८८ भीट और ४७ उदयभाग महापीठ देवाङ्गना ३२ मेनकादिसे कामरुप आदि ३२+८=४० देवाङ्गनाओ स्वरुप ३०४--१३ द्वय छाद्य और चार जंधायुक्त मंडोवर १०८ देवकुलिकाका महा चातुर्मुख प्रासाद तलदर्शन इति सविस्तर अनुक्रमणिका Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव स्तुति और ग्रंथ संपादक परिचय गणाधिपं नमस्कृत्य देवी सरस्वती तथा ब्रह्मा विष्णु महेशादि सूर्य दिनकरं सदा ॥१॥ शिल्पशास्त्र प्रकत्तरा विश्वकर्मा महामुनिम् । मनसा वचसा नत्वा ग्रन्थारम्भं करोमहम् ॥२॥ गणोंके अधिपति श्री गणेश, सरस्वती ब्रह्मा, विष्णु महेश और सूर्यको नमस्कार करके शिल्पशास्त्रोको उत्कृष्ठ करनेवाले महामुनि श्री विश्वकर्माको मन वचनसे वंदन करके में प्रभाशङ्कर इस अंथ पर सुप्रभा नाम्नी भाषा टीकाको प्रारम्भ करता हुँ। वंशेस्मिन् रामजी शिल्पि ख्यातोऽय वास्तुकर्मणि । तसूमिन्नैवान्वये जातः प्रभाशङ्कर पञ्चमः ॥३॥ जगत् विख्यात विश्वकर्मा नारद संवाद रुप । क्षीराव ग्रंथ नामाऽयं प्राणकृत शिवः ।। सुप्रभा नाम्नी टीकायां ग्रंथेऽस्मिन हि करोति सः ॥॥ भारद्वाज गोत्रमें श्री रामजोभा जैसे वास्तुकर्ममें विख्यात स्थयति पूर्वकालमें हो गये इसी कुलमें श्री ओघडभाइके कनिष्ठ पुत्र प्रभाशङ्कर स्थपति पांचधी पीढीमें हुए। जगत विख्यात विश्वकर्मा और नारदजीका संवाद रूप क्षीरार्णव नामक शिल्पशास्त्र पर सुप्रभा नाम्नी भाषा टीका ऐसे विख्यात कुलके स्थपति श्री प्रभाशङ्करने लिखी है। ॥ ग्रन्थ संपादकको अभिनन्दन पत्रिका ।। बादि देव महादेव कृपापात्रो महातनुः । ओघडजी महाप्राज्ञ शिल्पशास्त्र विशारदः ॥५॥ कैलासस्य महामेरो जीर्णोद्धार कारकः । प्रभाशङ्कर नामायं मान्य केषां न कारक ? ॥६॥ सत्यं सत्यं पुनः सत्य सत्यधर्म प्रवर्तकः । वृक्षार्णव शिव प्रोक्ते क्षीरार्णव यतनो हरिः ॥७॥ ग्रन्थानां शिल्पशास्त्रस्य पुनरुद्धार कारकः । आदि देव नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं विशारद ॥८॥ आदिदेव श्री महेशको कृपापात्र महाप्राज्ञ ऐसे श्री ओघडभाइके सूत महाप्राज्ञ शिल्पशास्त्र विशारद श्री प्रभाशंकरभाई सोमनाथजी महामेरु कैलासके जीर्णोद्धार कारक हैं। श्री प्रभाशङ्करजी संसारमें कीसके मान्य नहीं है। अपि तु सबके है । यह सत्य है और बारबार सत्य है कि शिवजी द्वारा रचित वृक्षापीव और हरि रचित "क्षीरार्णव" सत्यधर्मके प्रवर्तक है। श्री प्रभाशंकरभाई शिल्पशास्त्रके ग्रन्थोके पुनरोद्धारक है। हे ! आदि देव! आपको नमस्कार हो और हे! शिल्प विशारद ! आपको भी नमस्कार है। शुभेच्छक स्नेहाधिन मनसुखलालजी सोमपुरा । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसरस्वत्यै नमः श्री विश्वकर्मणे नमः श्री विश्वकर्मा विरचित ॥शीरार्णव ॥ कस्तुशास्त्रम्। KSHIRARNAVA -सुप्रभानाम्नी भाषाटीका (अध्याय० ९९) (क्रमांक अ० १) श्री विश्वकर्मोवाच वृक्षार्णवं शिव. प्रोक्तं क्षीरार्णवं स्ततो हरिः हरिहरोक्तं तं श्रेष्ठं ग्रंथाकारे प्रवर्तते. ॥१॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. શિવજીએ વૃક્ષાર્ણવ કહેલું. અને વિષ્ણુએ શ્રીરાર્ણવ કહેલું તે શિવ અને વિષ્ણુના મુખથી વદેલું તે ઉત્તમ ગ્રંથના આકારે જગતમાં vag. १. श्री विश्वकर्मा कहते हैं । शिवजीने वृक्षाणवि कहा था. और विष्णुने होरार्णवं कहा था । शिव और विष्णुके मुखसे निकला हुआ वह शास्त्र मंथ के उपमें जगतमें प्रचलिन हुआ। प्रासादो देवरूपः स्यात् पादौ पाद शिलास्तथा गर्भश्चैवोदरं ज्ञेयं जंघा पादोर्ध्व मुच्यते ॥२॥ स्तंभाश्च जानवो ज्ञेया घंटा जिह्वा प्रकीर्तिता दीपः प्राण रूपो ज्ञेया ह्यपाने जल निर्गतः ॥३॥ ब्रह्म स्थानं यदैतच्च तन्नाभिः परिकीर्तिता हृदयं पीठिका ज्ञेया प्रतिमा पुरुषः स्मृतः ॥४॥ પ્રાસાદની રચનાને દેવ શરીર રૂપ કપ્યું છે. પાયાની શિલા પગ રૂપે, ગર્ભગૃહ = ઉદર = પેટ રૂપે, પાયા પરની જગતી જાંઘ રૂપે, થાંભલા ઢીંચણ, ઘંટા જીભ રૂપે, દીપક-દી પ્રાણ રૂપે, ગુદા રૂપે પ્રનાલ = પરનાળ, દેવનું બ્રહ્મસ્થાન नालि, 81 ३थे इय, मने प्रतिभा से पुरुष ३५ शुलु. २-3-४. . प्रासादकी रचना को देव शरीररूप माना गया है। नींवकी शिलाको पाँव के रूपमें, गर्भगृहको उदर के रूपमें, नींवकी भूमिको जंघाके रूपमें, स्तंभ को Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. ९९ क्रमांक अ- १ जानुके रूपमें, घंटाको जिह्नाके रूपमें, दीपकको प्राणके रूप में, प्रनाल को गुदा के रूपमें, देवके ब्रह्मस्थो नाभि पीठिकाको हृदयके रूपमें और प्रतिमाको पुरुषके रूप में जानना । २–३–४ २ पादचारस्त्वहंकारो ज्योतिस्तच्चक्षुरुच्यते तदूर्ध्व प्रकृतिस्तस्य प्रतिमात्मा स्मृतौ बुधैः ॥ ५॥ तलकुंभादधोद्वारं तस्य प्रजननं स्मृतम् शुकनासा भवेन्नासा गवाक्षः कर्णउच्यते ॥ ६॥ कायापाली स्मृतः स्कंधे ग्रीवा चामलसारिका कलशस्तु शिरोज्ञेयो मज्जादित्पर संयुतं ॥ ७ ॥ પગને સંચાર અહંકાર, દીપને પ્રકાશ ચક્ષુ રૂપે, ઉપરના ભાગ તેની પ્રકૃતિ, પ્રતિમા આત્મા રૂપે બુદ્ધિમાને જાણવાં. દ્વારના કુંભીના તળથી નીચેના ભાગ તે લિંગરૂપે જાણવે. શિખરના શુકનાંસ એ નાસિકારૂપ, ગવાક્ષ ઝરુખા કાનરૂપ, શિખરને સ્કંધ તે ખલા અને આમલસારાનુ ગળુ તે ગળુ કરૂપ, આમલસારાને કળશ તે મસ્તક રૂપે જાણવુ. ચામડી અને તેની નીચેના ભાગ ते नानु 'लास्टर अगुवो.. • पद संचारको अहंकार के रूपमें, दीपकके प्रकाशको चक्षुके रूपमें उर्ध्वभागको उसकी प्रकृतिके रूपमें, प्रतिमाको आत्माके रूपमें बुद्धिमानों को समझना चाहिये । द्वारके कुंभीके तलसे निम्न भागको लिङ्गके रूपमें जानना । शिखरके शुकनासको नासिकारूप, झरोखों को कानरूप, शिखर के स्कंधको खंभा, और आमलसारा के कंठको कंठरूप, आमलसाके कलशको मस्तकरूप जानना । और उसके निम्न भाग को, जो खडीके प्लास्टर का है, चमडी समझनी । ५-६–७ मेदच वसुधा विद्यात् प्रलेपो मांसमुच्यते अस्थिनो च शिलास्तस्य स्नायुकीलादयः स्मृताः ॥ ८ ॥ क्षु शिखरा स्तस्य ध्वजाकेश प्रकीर्तिताः एव पुरुषरूपं तु ध्यायेच्च मनसा सुधीः ॥ ९ ॥ પૃથ્વી મેઢ રૂપે, માંસ ચુનાના લેપ, હાડકાંએ શિલારૂપે, ખીલા અને પાઉ–કુકરા તે સ્નાયુરૂપે ચક્ષુરૂપ શૃગ-શિખરીએ, ધ્વજા કેશરૂપે, એ રીતે પ્રાસાદના સર્વાં અગાનુ પુરુષરૂપે મનથી ધ્યાન કરવું. ૮-૯ पृथ्वीका भेद के रूपमें, खडीके लेपका माँसके रूपमें, शिलाओंका हड्डीयों Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गणित के रूप में, कीले, पांउ और कुकरों का स्नायुके रूपमें, शृंगका चक्षुके रूपमें, शिखरकी धजाओं का केशके रूपमें--अिस तरह प्रासादके सर्व अंगों का पुरुषरूपसे मनसे ध्यान करना । ८-९ नागरा द्राविडाश्चैव लतिनाश्च विमानकाः मिश्रकाश्च वराटाच सांधारा भूमिजा स्तथा ॥१०॥ विमान नागरच्छंदा विमान पुष्पकाथवा वल्लभा फांसनाकारा सिंहावलोका रथरूहा ॥११॥ પ્રાસાદની જાતિ છંદ ૧ નાગરાદિ ૨ દ્રાવિડાદિ ૩ લતિનાદિ ૪ વિમાનાદિ ૫ મિશ્રકાદિ ૬ વરાટાદિ ૭ સાંધારાદિ ૮ ભૂમિજાદિ ૯ વિમાન નાગરાદિ ૧૦ વિમાન પુખકાદિ ૧૧ વલલભાદિ ૧૨ ફાસનાકારાદિ ૧૩ સિંહાવકનાદિ ૧૪ રથારૂહાદિ એમ પ્રાસાદની ચૌદ જાતિએ જાણવી. ૧૦-૧૧ प्रासादकी च्छंद जाति १ नगरादि २ द्राविडादि ३ लतिनादि ४ विमानादि ५ मिश्रकादि ६ वराटादि ७ सांधारादि ८ भूमिजादि ९ विमान नागरादि १० विमान पुष्पाकादि ११ वाल्लभादि १२ फासनाकारादि १३ सिंहावलोकनादि १४ रथारूहादि इसी तरह प्रासाद की चौदह जातियाँ जानने योग्य हैं। १०-११ एते चतुर्दश विख्याताः प्रासादजातयः स्मृताः मृत्साकाष्टेष्टकाशैल धातु रत्न भवाः सुधीः ॥१२॥ कुर्यात् स्वशक्ति प्रासादश्चातुवर्गफलं भवेत् पांसुनादि सुरागारे क्रीड्या विहितश्रितः ॥१३॥ દેવ મંદિરે માટીના. કાષ્ટ લાકડાનાં, ઈટના, પાષાણુનાં, ધાતુ રત્નાદિ વાસ્તુ દ્રવ્યાદિના, પ્રાસાદો પિતાની શક્તિ અનુસાર કરાવવાથી ચાર વર્ગ (ધર્મ અર્થ કામ અને અંતે મેક્ષ) ના ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. માટી આદિના દેવમંદિરમાં લક્ષ્મી કીડા કરે છે.૧ ૧૨-૧૩ (૧) લીરાઈવ ગ્રંથની પ્રતો ગુજરાત સૌરાષ્ટ્રમાં ઘણી અશુદ્ધ અને અસ્ત-વ્યસ્ત સ્થિતિની, વિષયક્રમના અભાવવાળી, એક વિષય ફરી ફરી આવે, એક વિષય અધ્યાહાર રાખી બીજે વિક્ય આવે, તેવી પ્રતિ ઘણું જોવામાં આવી છે. તેમાંથી બને તેટલે ક્રમ ગોઠવીને જની પ્રતોના ક્રમને લક્ષ્યમાં રાખીને આ ગ્રંથ ક્રમબદ્ધ લખવા પ્રયાસ કરેલ છે. સૌરાષ્ટ્ર ગુજરાતની પ્રતમાં પ્રાસાદને દેવ મનુષ્ય સ્વરૂપની કલ્પના અને ગણિત વિષય અને દેખવામાં આવતા નથી. કુર્મશિલાના ૧૦૧ અધ્યાયથી પ્રારંભ થાય છે. ગણિત વિષય અને રોયલ એશિયાટીક સોસાયટીની લાયબ્રેરીના ચોપડામાંથી જે પ્રાપ્ત છે તેમાં કેટલુંક અધ્યાહાર અને સંક્ષિપ્તમાં હોવાથી અમોએ તેની પૂતિ અનુવાદમાં કરી બને તેટલી અપૂર્ણતા ટાળવા પ્રયત્ન કરેલ છે. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-९९ 'मांक अ.-१. मिट्टींके, इंटके, पाषाणके, धातुके, रत्नादिके-इन वास्तु द्रव्यादिके. वेषसंदिर 'अपनी शक्तिके अनुसार बनवानेसे चार वर्ग (धर्म अर्थ काम और अंतमें मोक्ष) के फलकी प्राप्ति होती है। मिट्टी आदिके देवमंदिरोंमें लक्ष्मी क्रीडा करती है । । १२-१३ श्री नारदोवाच 'येनेदं सप्त' लोकां तं व्यैलोक्यं सचराचरम् तस्मै ईशाय नित्याय नमः श्री विश्वकर्मयो॥१॥ अव्यक्त व्यक्तता नित्यं येन विश्वंचराचरम् तस्मै ईशाय नित्याय नमः श्री विश्वकर्मणे ॥२॥ वास्तु कर्म लक्षणेन प्रासाद विधि युक्तितः गणित ज्योतिषाचारं कथय मम प्रभो ॥३॥ શ્રી નારદજી કહે છે. જે સપ્તકના અંતે ચેલેકમાં સચરાચર છે એની રચના કરવા વાળા એવા શ્રી વિશ્વકર્માને નિત્ય મારા નમસ્કાર છે. અવ્યક્ત. જાણી ન શકાય અને વ્યક્ત જાણી શકાય એવા જે વિશ્વને વિષે સચરાચર છે તેની રચના કરવાવાળા નિત્ય ઈશ્વર શ્રી વિશ્વકર્માને મારા નમસ્કાર હે હે પ્રભુ! લક્ષણયુક્ત વાતુકર્મ કે જે પ્રસાદની વિધિ ગણિત અને જ્યોતિષના આચાર हे प्रभु ! भने डा. १-२-3 श्री नारदजी कहते हैं जो सप्तलोकके अंतमें थैलोकमें सचराचर है उसकी रचना करनेवाले श्री विश्वकर्माको नित्य मेरा नमस्कार हो । अव्यक्त और તે વાંચકવૃંદ દરગુજર કરે. આનંદની વાત એ છે કે પૂરા એકવીશ અંગે આ ગ્રંથમાં આપેલા છે. મહર્ષિ નારદમુનિ અને વિશ્વકર્માના સંવાદ રૂપ આ ગ્રંથ છે. . (१) गुजरात, सौराष्ट्रमें क्षीरार्णव ग्रंथकी हस्त प्रतें बहुत अशुद्ध, अस्त व्यस्त, विषय के अनुक्रमके अमाववाली, विषयके पुनरावर्तनवाली, एक विषयको छोडकर दूसरे विषय की चर्चावाली, देखने में आयी है। उनमेंसे जितना होसके उतना क्रम मिलाकर पुरानी प्रतोंके क्रमको लक्ष्यमें लेकर यह ग्रंथ क्रमबद्ध लिखनेका प्रयास किया है। सौराष्ट्र गुजरानकी प्रतोंमें प्रासाद के देव मनुष्य स्वरूपकी कल्पना और गणित विषय बहुत करके देखनेको मिलता नहीं है। कुर्मशिला के १.१ अध्यायसे प्रारंभ होता है। गणित विषय हमें रोयल एशियाटीक सोसायटीकी लाईब्रेरी की पुस्तकोंमें से जो यत्किचित् प्राप्त हुआ, उसमें खुछ अध्याहार और संक्षिप्तमें होनेसे हमने उसकी पूर्ति अनुवादमें करके जितनी हो सके उतनी अपूर्णता दूर करनेका प्रयत्न किया है, सो वाचकवृंद हमें क्षमा करें। यह आनंदकी बात है। कि पूरे इकिस अंग इस ग्रंथमें समाविष्ट हैं। महर्षि नारद मुनि और विश्वकर्माके : संवादके रूपमें यह ग्रंथ प्रस्तुत है। . .... .... . . - - . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गणित व्यक्त असे विश्वमें जो सचराचर है उसकी रचना करनेवाले नित्य ईश्वर श्री विश्वकर्माको मेरा नमस्कार हो । हे प्रभु, लक्षणयुक्त वास्तुकर्म, प्रासादकी विधि, गणित और ज्योतिषके आचारको मुझे बताओ। १-२-३. श्री विश्वकर्माउवाच(१) आय- शृणुवत्स महाप्राज्ञ यत्त्वं परिपृच्छसि इदानीं तं कथयिष्यामि गणित वास्तु कर्मके ॥४॥ आयत्वं च पृथुत्वेन गुणयेदायकर्माणि अष्टभिर्हरेत्भागं यत्शेषं आयादिशेत् ॥ ५॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. હે મહાગુણવાન વત્સ ! તમે જ્યારે પૂછે છે ત્યારે હું તમને હમણાં વાસ્તુકર્મનું ગણિત કહું છું. ક્ષેત્રના લંબાઈ અને પહોળાઈને અંકેને ગુણીને આડે ભાગતાં જે શેષ રહે તે તેટલામો આય જાણુ. ૪-૫ श्री विश्वकर्मा कहते हैं-हे महागुणवान वत्स ! जब आप पूछते हो तो मैं अभी तुम्हें वास्तु कर्मका गणित कहता हूँ। क्षेत्रकी लंबाई और चौडाईके अंकोंको गुनकर आठसे विभाजित कर जो शेष रहे उतनी संख्याका आय समझना । ४-५ आयानां विषमेशुभे ध्वजः सिंहो वृपोगजः अधमानो खरध्वाक्षः धूमः श्वानः सुखावह ॥६॥ તે આઠ આમાં જે વિષમ અંક વધે તે ૧ ધ્વજ ૩ સિંહ ૫ વૃષ ૭ ગજ એમ ચાર આય તે શુભ જાણવા અને બેકીસમ આયામાં ધૂમ ૪ શ્વાન ૬ ખર ૮ ધ્વાંશ એ અધમ છે પણ તેના સ્થાને સુખ દેનાર જાણવા. હું उन आठ आयोंमें जो विषम अंक शेप रहे तो १ ध्वज ३ सिंह ५ वृष ७ गज इन चार आयोंको शुभ समझना और सम आयोंमें २ धूम ४ श्वान ६ खर ८ ध्यांक्ष अधम हैं लेकिन वे अपने स्थान पर सुखकर समझना ।२ ६ (૨) સ્થાનના આયનું સર્વ શિલ્પગ્ર માં કહ્યું છે. પરંતુ દીપાવિ જેવા ગ્રંથમાં મનુષ્યને આય કાઢવાનું કહીને ઘરને આય અને ઘરઘના આયના પરસ્પર ભક્ષક ભાવ તજવાનું કહ્યું છે. (२) स्थानके आयका सर्व शिल्पग्रंथों में उल्लेख है। लेकिन दीपार्णव जैसे मंथमें मनुष्यका आय निकालनेके लिये कहकर घरका आय और घरके मालिकके आयके परस्पर भक्षक भावको तजनके लिये कहा गया है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - क्षीरार्णव अ.-९९ क्रमांक अ.-१. (२) नक्षत्र- आयामे यदि क्षेत्रंतु विस्तरं गुणयेदथ सप्त विंशत्याहरेत्भागं शेषं स्यात् फलं निश्चयः ॥७॥ फलेचाष्ट गुणे तस्मिन् सप्ताविंशति भाजिते यत्च्छेत्रं लभते तत्र नक्षत्रं तद्गृहेषुच ।। ८ ॥ धनाय प्र धासाथ धूमाथ OC दक्षिण સિંnય न घराय स्थानीय वृयाय Aani ચંદુenલ બી.સીya પ્રભાશંકર-એ, સોસ अष्ट आयका स्वरूप ક્ષેત્રની લંબાઈ અને પહેળાને ગુણીને સત્તાવીશે ભાગતા જે શેષ રહે તે નિશ્ચયથી ફળ જાણવું (તે નક્ષત્રની મૂળ રાશ) તે ફળને આઠ ગુણ કરી સત્તાવીશે ભાગવાથી જે શેષ રહે તે વાસ્તુના નક્ષત્રને અંક જાણુ. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गणित क्षेत्रकी लम्बाई चौडाईको गुनकर सत्ताईशसे विभाजित करते जो शेष रहे उसे निश्चयसे फल जानना (उस नक्षत्रकी मूल राश) उस फलको आठ गुने कर सत्ताईशसे विभाजित करनेसे जो शेष रहे उसे वास्तुके नक्षत्रका आंक समझना। ७-८. समचोरस ओर छ आंगुळ सुधीका कमीजास्तीका देवगण नक्षत्रो ओर शुभ आय मीलानेका कोष्टक अंक गज ओर आंगळका है। लंबाई चौडाई देवगणा | नक्षत्रो बाई चौडाई देवगणाबाई चौडाई देवगणा । नक्षत्रो । नक्षत्रो [१-७। १-१४०-२१ स्वाति •१-१३४१-१३ : अनुराधा). २-१५४२-१५ रेवती .१-१४ १-१ । मृगशीर्ष | १-१५४१-२१ । रेवती | २-१५४२-२१ , रेवती १-१४ १-५ श्रवण १-१९४२-१ पुण्य २-१७४२-११ : पुण्य १-१४१-७ । अनुराधा १-१९४१-२३ | श्रवण २-१९४३-१ मृगशीर्ष .१-२१४१-२१ : रेवती २-१९४२-२३ हस्त [१-१] ।१-३ १-२१४२-३ : रेवती २-२१४२-२३ । स्वाति १-३११-५१ रेवती २-१४२-५ । हस्त २-२३४२-२३ अनुराधा । १-९). • २-५४२-५ पुष्य ३-१४३-५ हस्त •१-५४१-५ मृगशीर्ष • २-७४२-७ : पुष्य ३-१४३-९ : रेवती १-५४१-९ । स्वाति २-७४२-११ : हस्त ३-३४३-७, स्वाती १-७४१-११ हस्त | २-१३४२-१७ , श्रवण ३-३४३-९ रेवती १-११४१-१७ : मृगशीर्ष २-१५४२-९ रेवती ३-५४३-९ : रेवती १-१३४१-१५ स्वाति १-१३४१-१७ : हस्त उपर प्रमाणे देवगणा नक्षत्रो और शुभ आय मीलानेके लीये बडा क्षेत्र गणीत ग. आ. ग. आ. ग. आ. मिलाना हो तो २-६ के ४-१२ के ६-१८ के नवगज उपरोक्त अंकमें मिलानेसे उपर लिखा वोहि देवगणा नक्षत्रो आयगा यह सरल रीत है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्र वधेला अंक में मृगशीष * पुनर्वसु २ ८ १० ११ धारेला देव तथा मनुष्य गणका नक्षत्रो लानेके लीये क्षेत्रकी दोनु ओर आंगुळका अंक लानेका कोष्टक पूर्व दक्षिण पश्चिम पूर्व दक्षिण पश्चिम ४११ २ १६ १४ १९ पुण्य हस्त अनुराधा * स्वाति 112 १ १४ १७ २५ १७ --- १ २३ ७ ८ ३ २५ २६ १७ १३ | ११ २४ २० १० 20 2 ― २२ २० १९ २० ५ | १२ | १९ | १६ ― २३ | १७ ६ | २३ | २५ | २२ ४-२२ १३ १४ ५ २५ श्रवण १२-२० ११ २० | २१ | २२ ११ १४ ४ १५ २६ १३ १९ - १२ १० ६ |१४ | | अश्विनी I 1 ११ २५ 1 1 ५, २६ ७ ક उत्तर रेवती २७ २७ २७-९ १८ २७ २७ २७-१८ ९ २७ २७ ३-६-१२. १८-२१-२७ २७. २७.. रोहिणी 67 ---- १४ २१ १७ १९ आर्द्रा २४ | २६ | २१ ७-१६ २३-५ २५ १४. २५ | १५ | १६ ६ ८। ३ ८-१७, २६ १२ | १३ | २४ | १५ २ । ३ १९ २२ । ६ । २० ---- ७-१६ २५ ४ | १५ | २२ ५ ३ | १४ | १२ २३ ४ १-१ २३. २१ | १६ | १५ १६. २४ १७. २१ २.११. २० | ७ २५ 1 भरणा पू. भाद्रपद उ. भाद्रपद ३ उत्तर ७ २० १० १७ | १० ६ । १० २४ १ | २६ १३ २ २१ १ १६ ८ 1 T v १६ ' २५ २ ८ | १९ २३ क्षीरार्णव अ. - ९९ क्रम Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १२---|-1 - १:३० -1-1- २३ ९४८ ।।- १३२५ – २६ -- २३७ -1-1-14 आयादि गणित २७.२ १५ ---- २६ --- २३ १० |२२ - - - 1 ३ २०२३ २७ ૨૭. २७-३-६-९ १५-१८-२१-२४ २७-७ | १७ | ५| ७ ८ | १३ | १५ | १७ | २२ १ | ४ ६११ १२ २० | २१ | २ | २५ । २६ १८ -------- |--------- | १९ १३ २ १ २० २३ | १३ १ १४ ८ २७ । ५। २१ । ७ | १५ |२५| ६ १६ ११ | १९ | | २० | ११ | १०|२३| ७ ६ ५ १६ १३ ३७ । |२५ २४ | ८ | २१ | १७ | ३ | २६ । १ | १४ || २१ -- -- -- २५.७ -- - २७-७ १६ - १८ २२ १० | १४ | १६ २६ ३| ७ | १७ २ २७ ८ १२ २२|२४| १३ | १५ ४ २३ | २५ | २३ / २६ ४ | २० | १९/ २४ २ १ १६ २७ १४ | ३ | २३ | १२ | ५ २२ | ११ --- १३० - - - १३८ । २५ २५, ८/१३ | ११ | २१ ४ २ ५ २७ | २० ३ १ ६ | १९ | २४ | १० | १७/२२ २६ | २३ | १६ | २६ २२ / १५ ८ ४.१० २७ |१३ ६ २१११९ २१ | २०७/१७ ----------- १ थी २० का ||---------|-|| आगळना १ से २७ अंको एक पक्ष और उपरका छुटा छुटा अंको लंबाई चौडाईकी दुसरी पक्षका समजमा. २० ४.१३ -- १.६६ -- - - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-९९ क्रमांक अ.-१. (३) व्यय- नक्षत्रं वसुभिर्भक्तं यत्तच्छेषं व्ययो भवेत् । समोव्ययः पिशाचश्च राक्षसश्च व्ययोऽधिकः ॥ व्ययो न्यूनो नरोऋक्षो-धनधान्यकरः स्मृतः ॥९॥ નક્ષત્રના અંકને આઠે ભાગતાં જે શેષ રહે તે વ્યય જાણ. આયને અંક અને વ્યયને અંક એક સરખે આવે પિશાચ જાણ. જે વ્યય. અંક અધિક આવે તે રાક્ષસ જાણવું અને જે વ્યયને અંક આય કરનાં એક આવે તે શ્રેષ્ઠ અને ધનધાન્યને દેનાર જાણ. ૯ नक्षत्रके अंकको आठसे विभाजित करनेमें जो शेप रहे उसे व्यय समझना । आयका अंक और व्ययका अंक समान हो तो पिशाच जानना । जो व्ययका अंक अधिक आवे तो राक्षस समझना और जो व्ययका अंक आयसे. कम आवे तो श्रेष्ठ और धन धान्यको देखनेवाला समझना। ९. (४) अंशक- मूलराशौ व्ययं क्षिप्यं गृहनामाक्षराणिच त्रिभिरेवं हरेद्भामो यच्छेपं तदंशकः ॥१०॥ इंद्रो यमच राजानां अंशक त्रिभिरेवच .. . प्रमाणं त्रिविधोत्कतव्या ज्येष्ठ मध्यम कन्यसाः ॥११॥ નક્ષત્રની મૂળરાશિને અંક, વ્યયને અંક, અને ઘરના નામાક્ષરને અંક, એ ત્રણેને સરવાળો કરી તેને ત્રણે ભાગતાં શેષ રહે તે ૧ ઇંદ્ર ૨ ચમ ૩ રાજાંશ એમ અનુક્રમે ત્રણ અંશક જાણવા. એ ત્રણ પ્રમાણની જયેષ્ઠ માધ્યમને કનિષ્ફ ત્રણ વિધિ છે. ૩ (ત્રણ અંશકનાં સ્થાન નીચે ફૂટનેટમાં આપેલા છે.) नक्षत्रकी मूल राशीका अंक, व्ययका अंक, और घरके नामाक्षरका अंक, इन तीनोंको मिलाकर उसे तीनसे विभाजित करते जो शेष रहे वह १ इन्द्र २ यम ३ राजांश इसी तरह अनुक्रमसे तीन अंशक जानना । इन तीन प्रमाण की ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ-तीन विधियाँ हैं। (तीन अंशकके स्थान नीचे फूटनोटमें दिये हैं)। (3) (१) छन्द्रांश-प्रासाद, प्रतिमा, मि, पा, भ७५, वही , विअर वन, પતાકા, ગાન શાળા, અલંકાર, અને વસ્ત્રના સ્થાને ઈદ્રાંશ આપવો. (२) यभांश नागदेवन लव, नवना, ससमा हुने वा प्रसाद, वेपारीनी दुसन, મઘ માંસની દુકાને, સર્વ અસ્ત્રોને એ સર્વ સ્થાને યમાંશક આપ તે શુભ છે. (3) ४-२४ सिहासन, ५२, ५३मी, Arp4, 24*40 , न१२ आमनी રચનામાં અને સાધારણ ઘરને વિષે ગજાશક આપ તે શુભ છે. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गणित (५) तारा- गणयेत्स्वामि नक्षत्रं यावदक्षं गृहस्य च नवभिश्च हरेत्भागं शेषे ताराः प्रकीर्तिताः ॥१२॥ ताराः पड़ शुभा श्येकाद्वि चतुः षड्चाटनवके त्रि पंच सप्तभिः चै एभि तारा विवर्जिता ॥ १३॥ . ઘરધણીના નામના નક્ષત્રથી ઘરના નક્ષત્ર સુધી ગણતો જે અંક આવે તેને નવે ભાગતાં જે શેષ રહે તેટલામી તારા જાણવી. છતારા શુભ જાણવી. પહેલી બીજી ચેાથી છઠ્ઠી આઠમી અને નવમી તારા શુભ છે. અને ત્રીજી પાંચમી સાતમી એ ત્રણ તારા નેષ્ઠ છે તે તજવી. ૧૨-૧૩ गृहपतिके नामके नक्षत्रसे घरके नक्षत्र तक गिनते जो अंक आवे उसे नौसे विभाजित करते जो शेप रहे इतनी संख्याकी तारा जानना । छः ताराको शुभ समझना । ये प्रथम, दूसरी, चौथी, षष्ठी, और अष्टमी, नवभी शुभ जानना । तीसरी, पाँचवीं और सातवीं ये तीन तारा नेष्ठ हैं—इन्हें छोड़ना चाहिये । १२-१३४ (६) गण- पुनर्वस्वश्विनी पुष्य मृगश्रवण रेवती स्वाति हस्तानुराधा च एते देवगणाः स्मृताः ॥१४॥ भरणी रोहिणी चार्दा पूर्वाणां तृतीयं तथा उत्तरात्रितयं चैव नवते मानुषागणाः ॥१५॥ विशाखा कृतिकालेषा मघा च शततारका चित्रा ज्येष्ठा धनिष्ठा च मूलमे ते च गक्षसाः ॥१६॥ (३) (१) इन्द्रांशक-प्रासाद, प्रतिमा, लिङ्ग, पीठ, मंडप, वेदी, कुण्ड, विप्रगृह, ध्वजादण्ड पताका, गानशाला, अलंकार और वस्त्रके स्थानपर इन्द्रांशक देना । (२) यमांशक-नागदेवको भैख, नौग्रह, सप्त मातृका, दुर्गा ये सब प्रसादों व्यापारीकी दुकान, मद्य माँसकी दुकातको, सर्व अस्त्रोंको-इन सर्व स्थानोंको यणांशक देना शुभ है। (३) गजांशक-राज सिंहासन, पर्यक, पालखी, राजगृह, अश्वगज शाला, नगर ग्रामकी रचनामें और सामान्य घरोंके लिये गजांशक देना शुभ है । (૪) તારાનાં નામો-૧ શતા ૨ મનેહરા, ૩ કરા ૪ વિજ્યા ૫ કલેÁવા ૬ પદ્મિની ૭ રાક્ષસી ૮ નીરા ૯ આનંદા એ નવ તારાઓમાં ૩ ક્રરા ૫ કલોદ્ધવા ૭ રાક્ષસી એ ત્રણ તારા અશુભ કહી છે, (४) ताराके नाम-१ शांता २ मनोहरा ३ क्रूरा ४ विजया ५ कलोझवा ६ पद्मिनी - राक्षसी .८ वीरा ९ आनंदा इन नौ ताराओंमें ३ क्रूरा ५ कलोद्भवा ७ राक्षसी तीन ताराओंको. अशुभ कहा गया है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-९९ क्रमांक अ.वाना नक्षत्री-धुन सु, अश्विनी; पु.५, भृगशीर्ष, श्रवण, रेवती, સ્વાતિ હસ્ત અને અનુરાધા એટલા નવ નક્ષત્રો દેવગણના જાણવા–ભરણ, રેહણી, આદ્ર. ત્રણે પૂર્યા. ત્રણ ઉત્તરા એ નવ નક્ષત્રો મનુષ્યગણુનાં છે. રાક્ષસગણુનાં नक्षत्री-विशा, ति, मवेषा, भधा, शतलि, चित्रा, २, पानी, અને મૂળ એટલા નવ નક્ષત્રો રાક્ષસ ગણનાં જાણવાં. देवगणके नक्षत्र-पुनर्वसु, अश्विनी, पुण्य, मृगशीर्ष, श्रवण, रेवती, स्वाति हस्त और अनुराधा ये नौ नक्षत्र देवगणके हैं। ___ मनुष्य गणके नक्षत्र-भरणी, रोहीणी, आर्द्रा, तीन पूर्वा और तीन उत्तरा ये नौ नक्षत्र मनुष्यगणके हैं। राक्षसगणके नक्षत्र-विशाखा, कृतिका, अश्लेषा, मघा, शतभिखा, चित्रा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, और मूल-ये नौ नक्षत्र राक्षसगणके हैं। स्वगणे चोत्तमा प्रीति-मध्यमा देव मानुषे ____ कलहो देव दैत्यानां मृत्युर्मानव राक्षसै ॥ १७॥ ઘર અને ઘરધણીના નક્ષત્રને જે એક જ ગણુ હોય તે ઉત્તમ પ્રીતિ દાયક જાણવું. જે એકને દેવગણ અને બીજાને મનુષ્યગણ હોય તે મધ્યમ જાણવું. અને જે એકને દેવગણ અને બીજાને રાક્ષસગણ હોય તે હંમેશાં કલેશ કરાવે. જે એકને મનુષ્ય ગણુ અને બીજાને રાક્ષસગણ હેાય તે મૃત્યુ કરાવે." ૧૭ घर और घरके मालिकके नक्षत्रका जो एक ही गण हो तो उत्तम प्रीतिदायक जानना। जो एकका देवगुण और दूसरेका राक्षसगण हो तो हमेशां क्लेश कारक बना रहे । जो एकका मनुष्यगण और दूसरेका राक्षसगण हो तो मृत्यु करनेवाला बने । १७५... (७) चंद्र- कृतिकादि सप्तसप्त पूर्वादितः प्रदक्षिणे अष्टा विंशति ऋक्षाणि ततः चंद्र मुदीरयेत् ॥ १८ ॥ अग्रतो हरते आयु पृष्ठतो हरते धनं वाम दक्षिण तो चंद्रो धनधान्य करस्मृताः ॥१९॥ (૫) ગણના સંબંધમાં મનુષ્યના કે દેવના જન્મ નક્ષત્ર ના ગણ પરથી કહેલું છે. પરંતુ સામાન્ય રીતે દેવને દેવગણ અને મનુષ્યને મનુષ્યગણ અને યવનપ્લેચ્છનો રાક્ષસગણ આમ માનવાની શિલ્પીઓની પ્રથા છે. (५) गणके बारेमें मनुष्यके या देवके जन्म नक्षत्रके गणके उपरसे कहा गया है। लेकिन सामान्यतः देवका देवगण और मनुष्यका मनुष्यगण और यवन म्लेच्छका राक्षसगण माननेकी शिल्पीओंकी प्रणालिका है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गणित . प्रासादे राजवेश्मषु चंद्रोदद्याच्चसन्मुखः अन्येषां च न दातव्यं श्रीमंतादि गृहेषुच ॥२०॥ કૃતિકાથી સાત નક્ષત્ર પૂર્વમાં મઘાથી સાત નક્ષત્રે દક્ષિણમાં અનુરાધાથી સાત નક્ષત્રો અને સાભિજિત સહિત સાત નક્ષત્રે પશ્ચિમમાં અને ધનિષ્ઠાથી સાત નક્ષત્ર ઉત્તરમાં એમ સાત સાત નક્ષત્રો ચારે દિશાઓમાં પ્રદક્ષિણાએ જાણવા. એટલે જે નક્ષત્ર જે દિશાનું હોય ત્યાં તેને ચંદ્રમા જાણ. ઘરને સન્મુખ ચંદ્રમા હોય તે આયુષ્ય હરે. પાછળ ચંદ્રમા હોય તે લક્ષમીને નાશ થાય. ડાબી જમણી તરફ ચંદ્રમા હોય તે ધન અને ધાન્યની વૃદ્ધિ થાય. પ્રાસાદ અને રાજભવનને વિષે ચંદ્રમા સન્મુખ દેવે (ડાબી જમણી તરફ પણ આપી શકાય) બાકી બીજા વર્ણને કે શ્રીમંતના ઘરને પણ સન્મુખ यद्रमा न हेवो. १८-१४-२० । ___ कृतिकासे सात नक्षत्र पूर्वमें, मघासे सात नक्षत्र दक्षिणमें, अनुराधासे सात नक्षत्रों और साभिजित सहित सात तक्षत्रों पश्चिममें और धनिष्ठासे सात नक्षत्रों उत्तरमें, इसी तरह सात सात नक्षत्रों चारों दिशाओं में प्रदक्षिणासे जानना । अर्थात् जो नक्षत्र जिस दिशाका हो वहाँ उसका चंद्रमा जानना । घरके सन्मुख चंद्रमा हो तो आयुष्य हरता है। पीछे चंद्रमा हो तो लक्ष्मीका नाश होता है। बायीं और दायीं तरफ चंद्रमा हो तो धन धान्यकी वृद्धि होती है। प्रासाद और राजभवन आदि के लिये चंद्रमा सन्मुख देना । (बायीं-दायीं तरफ भी देते हैं।) इसके अलावा दूसरे वर्णको या श्रीमंत के घरको भी सन्मुख चंद्रमा नहीं देना । १८-१९-२०६ ८राशि गृहक्षेत्रेच यद्धक्षं षष्टिभिर्गुणितं तथा । पंचत्रिंशच्छतै भक्त्वाच्छेष भुक्ति रजादयः ॥ २१ ॥ अश्विन्यादित्रयं मेषः सिंहः प्रोक्तो मघात्रयं मूलादि त्रितयं चापः शेषेषु नवराशयः ॥२२॥ .. વાસ્તુ ઘરના ક્ષેત્રનું જે નક્ષત્ર આવ્યું હોય તેને સાઠ ગુણીને એક્સે (6) यमाने मेवा विषयमा सूत्रधार रामसिंह वियित "वास्तुराज' अ. भां "त्यु छ ? पार्था दक्षिण वामेषु भवनाये देव भूपयो । हेवने २४ सपना सन्मुम भने ડાબી જમણી તરફ ચંદ્રમા આપવો. (६) चंद्रमाको मिलानेके विषयमें सूत्रधार राजसिंह विरचित 'वास्तुराज' अ. ७ में कहा गया है कि पार्श्व दक्षिण वामेषु भवनाग्रे देवभूपयो । देव और राजभवनको सन्मुख और बायीं दायीं लरफ चंद्रमा देना। - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्वामी के नाम परसे और गृहका नक्षत्र परसे राशि जाननेका कोष्टक 4 464 श | गृहस्वामीका नामाक्षर 44 बार क की । माना वृश्चिक | मेष, सिंह | धन | वृष । कन्या मकर | मिथुन | तुला राशि कृतिका उ. फाल्गुन उ. पाषा ३ । १२ । २१ अश्लेषा | रेवती जेष्ठा | भरणी पू. फाल्गुन पू. पाढा मृगशिर्ष चित्रा धनिष्ठा | पुनर्वसु विशाख पू. भाद्र २७ । १८ । २ । ११ । २० | ५। १२ । २३ । ७. । १६ । २५ । नक्षत्रो पुष्य उ भाद्र अनुराधा | अश्वीनी मघा | भूल | रोहिणी हस्त श्रवण | आर्द्रा स्वाति शतभिष | २६ । १७ । १ १० - १९ | ४ । १३ । २२ । ६, १५ । २घ । क्षीरार्णव अ.-९९ क्रमांक अ.-१ जाति ब्राह्मण जाति क्षत्रिय जाति वैश्य जाति शुद्र जाति Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गणित પાંત્રીશે ભાગવા જે શેષ રહે તે ચાલુ મેદ ભુક્ત રાશિ જાણવી. ( લબ્ધી આવે તે ગત રાશિ જાણવી.) અશ્વિની ભરણીને કૃતિકા એ ત્રણુ નક્ષત્રની મેષ રાશિ, મઘા, પૂ. ફાલ્ગુની, ઉ. ફાલ્ગુની એ પણુ નક્ષત્રેની સિહુ રાશિ જાણવી. મૂળ, પૂ. ષાઢા એ ત્રણ નક્ષત્રાની ધન રાશિ જાણવી. બાકી અમ્બે નક્ષÀાની એકેક રાશિ એમ નવ રાશિ જાણવી. ૧-૨૨ वास्तु — घरके क्षेत्रका जो नक्षत्र आया हो उसे साठसे वह चालु मेषादि मुक्त अश्विनी, भरणी, और पैंतीस से विभाजन करते जो शेष रहे ( लध्वी आवे, वह गत राशि है ।) नक्षत्रोंकी मेष राशि - मघा, पू-फाल्गुनी, राशि जानना । इसके अतिरिक्त दो दो राशि समझना । २२ ८ इति राशि. गुनकर एक सौ राशि आनना । कृतिका - ये तीन नक्षत्रोंकी सिंह तीन राशि इस तरह नौ उ- फाल्गुनी ये नक्षत्रोंकी एक कर्की वृश्चिकते विप्र मेष सिंह धन ते क्षत्रिय वृषकन्या मकर ते वैश्य मिथुन तुला कुंभ ते शुद्रक गृहस्वामी समोच्च जात्या न जात्या गृहस्योच्च च ॥ २३ ॥ કઈ મીન અને વૃશ્ચિક રાશિની બ્રાહ્મણ જાતિ, મેષ સિંહુ અને ધનની ક્ષત્રિય જાતિ, વૃષ કન્યાને મકરની વૈશ્ય જાતિ, મિથુન તુલાને કુંભની શુદ્ર જાતિ જાણવી. ઘરની રાશિની જાતિ એક હાય અગર ઘરધણીની રાશિની જાતિ એક હાય અગર ઘરધણીની રાશિ ઉચ્ચ જાતિ હેાય તે શ્રેષ્ઠ જાવુ. પરંતુ જે ઘરની રાશિથી ધરધણીની રાશિની ઉચ્ચ જાતિ હોય તો તે કનિષ્ઠા જાણી તેવુ ન કરવું. ૨૩ घरकी राशिकी जातिसे गृहपतिकी जाति समान हो अगर गृहपतिकी राशिकी उच्य जाति हो तो श्रेष्ठ समझना । लेकिन जो घरकी राशिसे गृहपति की जाति उच्च हो तो उसे कनिष्ठा जान कर वैसा नहीं करना । २३° इति राशि अङ्क ॥ ८ ॥ ९ राशि मैत्री सप्तमे चोत्तमा प्रीतिः षडष्टे मरणं ध्रुवं । (७) भाषा छंद --- (षडाष्टक) नवपंचमिते क्लेशः पुष्टि इंदश चतुर्थके ॥ २४ ॥ तृतीयैएकादशमैत्री द्वितीये द्वादशे रिपुः । एवं च षडूविधोक्तव्यं शेषेषु प्रीतिरुत्तमा ॥ २५ ॥ कर्कमीन वृश्चिक ते विप्र, मेष सिंह धन ते क्षत्रिय वृषकन्या भकर ते वैश्य, मिथुन तुला ते कुंभ क्षुद्रक ॥ गृह अने स्वामि समानजात अथवा स्वामि उच्च जात शुभ फलदाता कहिये एह धन धान्यनी वृद्धि करेह ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आर्द्रा ६ भवनका नक्षत्रो अश्विनी भरणी कृतिका १ ३ रोहीणी मृगशिर्ष वृषभ २ दरिद्र पुनर्वसु मिथुन ३ श्रेष्ट अश्लेषा कर्क ४ श्रेष्ठ ९ पुण्य ८ मघा पू. फा. उ. फा. ११ १० १२ हस्त १३ स्वाति १५ अनुराधा १७ श्रवण २२ शतभिषा २४ मूल पू. षाढाउ. पाढा २० २१ उ. भाद्रषद २६ राशि मेष १ विशाखा तुला ७ १६ जेष्ठा वृश्चिक ८ १८ पू. भाद्रा २५ चित्रा ! कन्या ६ भरण १४ प्रीति रेवती २७ अ cha सिंह ५ क्लेश धन ९ इष्ट मीन १२ मेष १ वृषभ २ | मिथुन ३ दरिद्र श्रेष्ट मरण क्षीरार्णव अ. - ९९ क्रमांक अ.-१ भवन और भवनपतिकी राशि परसे क्लेश य व उ इष्ट दरिद्र श्रेष्ट श्रेष्ट क्लेश मरण धनिष्ठा मकर श्रेष्ट क्लेश २३ १० प्रीति मरण कुंभ श्रेष्ट श्रेष्ट १६ क छ ध दरिद्र इष्ट दरिद्र श्रेष्ठ श्रेष्ट क्लेश मरण प्रीति मरण क्लेश दरिद्र श्रेष्ठ श्रेष्ट ड ह कर्क ४ श्रेष्ट श्रेष्ट दरिद्र इष्ट दरिद्र श्रेष्ट श्रेष्ट क्लेश मरण प्रीति मरण क्लेश Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शायद्धि गणित इष्ट अनिष्ट खडाष्टक दर्शक कोष्टक - - - - सिंह ५ कन्या ६ तुला ७ वृश्चिक ८ धन ९ : मकर १० कुंभ ११ | मीन १२ क्लेश, मरण प्रोति । मरण । क्लेश श्रेष्ट श्रेष्ट । दरिद्र श्रेष्ट : क्लेश मरण । प्रीति मरण क्लेश श्रेष्ठ श्रेष्ट श्रेष्ट - श्रेष्ट क्लेश मरण प्रीति मरण | क्लेश श्रेष्ठ दरिद्र । श्रेष्ट श्रेष्ट । क्लेश । मरण, प्रीति । मरण क्लेश इष्ट दरिद्र श्रेष्ट | श्रेष्ट क्लेश; भरण । प्रीति मरण दरिद्र इष्ट दरिद्र श्रेष्ट श्रेष्ट क्लेश मरण प्रीति श्रेष्ट , दरिद्र . इष्ट । दरिद्र । श्रेष्ट श्रेष्ट क्लेश | मरण श्रेष्ट श्रेष्ट दरिद्र इष्ट दरिद्र श्रेष्ट श्रेष्ट क्लेश क्लेश' श्रेष्ट श्रेष्ट । दरिद्र इष्ट । दरिद्र श्रेष्ट | | श्रेष्ट मरण क्लेश श्रेष्ट श्रेष्ट दरिद्र इष्ट दरिद्र | श्रेष्ट प्रीति | मरण क्लेश श्रेष्ट श्रेष्ठ दरिद्र इण्ट दरिद्र मरण प्रीति , मरण ! क्लेश श्रेष्ट । श्रेष्ट ! दरिद्र इण्ठ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. ९९ क्रमांक अ. १ આગળ કહ્યું તેમ અશ્વિનીથી ત્રણ નક્ષત્રની મેષ રાશિ માથી ત્રણ નક્ષત્રની સિ ંહ રાશિ મૂળથી ત્રણ નક્ષત્રની ધનરાશિ જાણવી. બાકી ખબ્જે નક્ષત્રાની એકેક રાશિ જાણવી. La ઘરની રાશિથી ઘરના સ્વામીની રાશિ ગણતાં જો સાતમી આવે તે પ્રીતિ કરાવે. ઠ્ઠી કે આઠમી આવે તે મૃત્યુ કરાવે નવમી કે પાંચમી આવે તે કલેશ કસવે: ીજી કે ખારમી આવે તેા શત્રુતા કરાવે. ચાથી કે દસમી આવે તે પુષ્ટિ કરાવે. ત્રીજા કે અગ્યારમી આવે તે મૈત્રી ભાવ જાણવા એ રીતે ખડાષ્ટક उगाड़ी प्रीति र्ता छे. २४-२५ पूर्वोक्ति के अनुसार अश्विनीसे तीन नक्षत्रकी मेष राशि मघासे तीन नक्षकी सिंह राशि मूलसे तीन नक्षत्रकी धन राशि समझना । इसके अलावा दो दो नक्षत्रोंकी एक एक राशि जानना । रोहिणी - मृगशीर्ष आर्द्रा पुनत्रसु वृष अनुराधा ज्येष्ठा मिथुन ear after वृश्चिक पुष्य अश्लेषा हस्त चित्रा स्वाति विशाखा कन्या कर्क शतभिषा - पू. भाद्रपद कुंभ मकर घरकी राशि घरके स्वामिकी राशि गिनते जो सातवीं आवे तो प्रीति कारक है । छुट्टी या आठवीं आवे तो मृत्युकारक बने । नौवीं या पाँचवीं आवे तो क्लेश कारक बने । दूसरी या बारहवीं आवे तो शत्रुता करानेवाली 1 बने । चौथी या दसवीं आवे तो पुष्टिकारक वने । तीसरी या ग्यारहवीं राशि आवे तो मैत्री भाव जानना । इसी तरह पढाएक कहा गया है । इसके सिवा प्रीतिकर्ता है । २४-२५ १० गृह मैत्री - मेष वृचिकयो भौमः शुक्रो वृष तुलाधिपः । तुला उ. भाद्रपद रेवती भीन कन्या मिथुनयोः सौम्यः कर्कस्य चंद्रमा स्मृतः ॥ २६ ॥ सूर्यक्षेत्रे भवेतसिंह धनमीने सुरोरगुरुः । मकरकुंभे शनि चैवं एते क्षेत्र गृहाधिपाः ॥ २७ ॥ आत्मक्षेत्रे न पीडयंते स्वस्थाने क्षेत्रपालकाः । विषम स्थाने प्रपीडयेत् इति च गृहेमाः स्मृताः ॥ २८ ॥ આરે રાશિના સ્વામિ કહે છે. મેષ અને વૃશ્ચિકને સ્વામિ મંગળ તુલા અને વૃષને શુક્ર, કન્યાના મિથુનના બુધ, કના સ્વામિ સેમ સિહુને સૂર્ય, ધન અને મિનના શુરુ, મકર અને કુંભ રાશિને સ્વામિ શને જાણવા. આ સાત ગ્રહાને ખાર રાશિ ક્ષેત્રના અધિપતિ જાણવા. તે પોત પાતાની રાશિમાં Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायादि गणित સ્વસ્થ રહી પીડા ન કરે પેાતાના આપ્તજન ( મિત્ર )ના ક્ષેત્રસ્થાનમાં હોય તે પશુ પીડા ન કરે પણ શત્રુસ્થાન વિષમસ્થાનમાં પીડા કરે તેથી શત્રુ भित्रलावले. २६-२७-२८ बारह राशिके स्वामिके बारेमें कहा जाता है । मेष और वृश्विकका स्वामि मंगल, तुला और वृषका शुक्र, कन्या और मिथुनका बुध, कर्कका स्वामि सोम, सिंहका सूर्य धन और मिनका गुरु, मकर और कुंभ राशिका स्वामि शनि समझना । इन सातों ग्रहोंको बारह राशि क्षेत्रके अधिपति समझना । वे अपनी राशिमें स्वस्थ रहकर पीडा न करें। अपने आप्तजन (मित्र) के क्षेत्रस्थान में हो तो भीं पीडा न करें लेकिन शत्रुस्थान - विषम स्थानमें पीडा करें इसी लिये शत्रु मित्र भाव देखना । २६–२७-२८ राशिका स्वामी और मित्र शत्रु या समभाव देखनेका कोष्टक स्वारी मित्रभाव सूर्य राशि सिंह कर्क मेष वृश्चिक धने मीन मिथुन कन्या बुध वृषभ तुला मकर चन्द्र कुंभ मंगक गुरु शुक्र शनी चंद्र-गुरु मंगळ सूर्य बुध सूर्य-चंद्र गुरु सूर्य शुक्र सूर्य चंद्र मंगल बुध-शनी बुध शुक्र शत्रुभाव शुक्र शनी बुध चंद्र बुध-शुक्र सूर्य मंगळ सूर्य चंद्र मंलग समभाव बुध गुरु शुक्र मंगळ शनी: शुक्र शनी मंगळ गुरु शनी शनी चंद्र गुरु गुरु Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - " T aitte T २० क्षीरार्णव अ.-९९ क्रमांक अ.-६ रवि रक्तानुगोमैत्री गुरुचंद्रादितः शुभाः । शेषा तृतीयाणा एभियुक्तानां शस्यते ॥ २९॥ रविमंदे सदा वैर कुंजमंदे तथैव च गुरुश्च शुक्रयो वैरं वैरंच बुध चँद्रयोः ॥३०॥ રવિને મંગળ તથા ગુરુ અને ચંદ્રને મૈત્રી બાકી ત્રણ ગ્રહ સાથે પણ મૈત્રી. રવિ અને શનિને વેર. મંગળ અને શનિને વેર, ગુરુ ને બુધ તથા શુકને વેર, બુધને સેમ શત્રુ (સૂર્યને શુક શનિને વેર) ચંદ્ર ને મંગળ બુધને વેર. શુકને સૂર્ય ચંદ્રને વેર. शनिने 'द्र भगाने २वि साथे वे२. २८-30 रवि और मंगल तथा गुरु और चंद्रको मैत्री, अन्य तीन ग्रहों के साथ भी मैत्री, रवि और शनिनो वैर, मंगल और शनिको बैर, गुरु और बुध को तथा शुक्रको वैर, बुध और सोम शत्रु (सूर्यको शुक्र, शनिसे वैर) चंद्र और मंगल, बुधको वैर, शुक्र और सूर्य चंद्रको वैर-शनिको चंद्रसे, मंगलको रविसे वैर । २९-३० इति गृहमैत्री अङ्ग ॥ १० ॥ अयनाड्यात्मकं चक्रं सर्पाकार स्वरूपकम् नव भागांकितं कुर्यादश्विन्यादि त्रिकं लिखेत् ॥३१॥ एक नाडी स्थितं तस्मिनृशं चेद्' वरकन्ययोः तेन मरणं विजानियादशतश्चे स्थितं त्यजेत् ॥ ३२ ॥ स्वामि सेवक मित्राणां गृहाणां गृहस्वामिनां राज्ञा तथा पौराणां च नाडीवेधः 'सुखावहः ।। ३३ । ત્રણ નાડીની રેખાવાળું સર્પાકાર રૂપ નવ ભાગની વાંકી આકૃતિવાળું એક ચક કરવું તે વાંકન એકેક ભાગમાં અનુક્રમે અશ્ચિન્યાદિ ત્રણ ત્રણ નક્ષત્રનું જોડકું સિદ્ધિ પંક્તિમાં વધવું. તે રીતે નવસર્પગ ભાગમાં સત્તાવીશ નક્ષત્રે લખવા આ સર્પાકાર રાકમાં વર અને કન્યાનું નક્ષત્ર એક નાડીમાં આવે તો મૃત્યુ થાય. તેથી નક્ષત્ર અંશ તજવા સ્વામિ સેવક, ઘર અને ઘરધણી, રાજા અને નગર, આ જે એક નાડીમાં २५ थाय तो सुमहायशु .३१-३२-33 નાડી ચક अध्य 20 india MAKE Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायादि गणित तीन नाड़ियोंकी रेखावाला सर्पाकार रूप नौ भागकी वक्र आकृतिबाला एक चक्र बनाना । उस वक्राकृतिके एक एक भागमें अनुक्रमसे अश्विन्यादि तीन तीन नक्षत्रोंके युगलको सीधी पंक्ति में वेधना ( लिखना ) इस तरह नौ सर्पाग भागमें सत्तावीस नक्षत्रों लिखना । इस सर्पाकार चक्र में वर और कन्याका नक्षत्र एक नाडीमें आवे तो मृत्यु होती है इसी लिये नक्षत्र अंशको तजना । स्वामि सेषक, घर और मालिक राजा और नगर - एक नाडी में उसका वेध हो तो सुखदायक समझना । ३१-३२-३३ इति नाडीवेध अङ्ग ॥ ११ ॥ १२. अधिपति — गेहस्योदयकं । क्षेत्रफलेन गुणयेद्बुधः अष्टभिस्तु हरेच्छेषं शुभः सोऽधिपतिः समः ॥ ३४ ॥ विकृतः कर्णकचैवं धूमदो वितथस्वरः विडालो दुन्दुभिश्चैव दान्तः कान्तोऽधिनायकः ॥ ३५ ॥ 電 બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ ઘરની ઉભણીના અંકને ક્ષેત્રફળે ગુણનાં જે અંક આવે તેને આઠે ભાગતાં જે શેષ રહે તે અધિપતિ જાણવા. તેમાં સમ–એકી અધિપતિ શુભ જાણવા. અને એકી અંકને અધિપતિ નેષ્ઠ જાણવા. ૧ વિકૃત ૨ કર્ણાંક ૩ ધૂમ્રક ૪ વિતથસ્વર ૫ ખિડાલ ૬ ક્રુન્નુભિ ૭ દાંત અને ૮ કાંત એ આડ અધિપતિનાં નામ જાણવાં. ૩૪-૩૫ बुद्धिमान शिल्पीको घरके उदयके अंकको क्षेत्रफलसे गुनते जो अंक आवे उसे आठसे भागते जो शेष रहे उसे अधिपति जानना चाहिये । उसमें सम अधिपति शुभ जानना । और विषम अंकके अधिपतिको नेष्ट समझना । १. विकृत २ कर्णक ३ धूम्रन ४ वितथस्वर ५ बिडाल ६ दुन्दुभि ७ दांत और ८ कान्त, ये आठ अधिपतिके नाम हैं । ३४-३५. मतांन्तर— यदायव्यय संयोगे यदैक्यं वसुभिर्भजेत् शेष स्त्वधिपतिः केचिन्विषमः स भयावहः ॥ ३६ ॥ અધિપતિનુ ગણિત કરવાના બીજો મત આય અને વ્યયના અંકનો સરવાળા કરી તેને આડે ભાગતાં શેષ રહે તે અધિપતિ જાણવા. ( અધિપતિમા વિષમ એકી અંક હાય તે ભય ઉત્પન્ન કરે એકી સમ શુભ જાણવા. ) ૩૬ अधिपतिका गणित करने का दूसरा मत - आय और व्ययके अंकका मिलान कर उसे आटसे विभाजित करते जो शेष रहे उसे अधिपति समझना । अधिपतिका विषम अंक भय उत्पन्न करे । सम अंक शुभ समझना । ३६ इत्याधिपति अङ्ग बारहवाँ ।। १२ ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ १४ १५ लग्न तिथी वार- आयर्क्षव्यय तारांशाधिपात् क्षेत्रफले क्षिपेत् अर्के भक्ते भवेल्लग्न मथ लग्नेष्ट संगुणे ॥ ३७ ॥ हते शरकैः शेषन्तु तिथिर्नाम समं फलम् तिथौ नवघ्ने वारः स्यानूर्काद्योमुनिभिर्द्धते ॥ ३८ ॥ ઘરનુ ગણિત કરતાં આવેલ આય, નક્ષત્ર, વ્યય, તારા, અંશક અને અધિપતિના અંકોમાં ક્ષેત્રફળના અંકના સરવાળાને મારે ભાગતાં જે શેષ રહે તે લગ્ન જાણવું. લગ્નના અંકને આ ગુણીને પંદરે ભાગતાં શેષ રહે તે તિથિ વાર જાણવી તેનુ ફળ નામ પ્રમાણે છે. તિથિને નવે ગુણીને સાતે ભાગતાં શેષ રહે તે વાર જાણવા. ૩૦-૩૮ क्षीरार्णव अ. - ९९ क्रमांक अ.-१ घरका गणित करते आये हुए आय, नक्षत्र, व्यय, तारा, अंशक और अधिपति अंकों में क्षेत्रफलका अंक मिलाकर बारहसे विभाजित करते जो शेष रहे उसे लग्न समझना । लग्नके अंकको आठसे गुनकर पंद्रहसे विभाजित करते जो शेष रहे उसे तिथि जानना । उसका फल नामके अनुसार है । तिथिको नौसे गुनकर सातसे विभाजित करते जो शेष रहे उसे 'बार' समझना । ३७-३८ लग्नफल - वृषभ सिंह वृश्चिक कुंभ लग्न उत्तम फलवाले, मिथुन कन्या, धन मिन लग्न मध्यम फलवाले, मेषं कर्क तुला मकर लग्न कनिष्ठ फलवावे हैं । उसमें कनिष्ठ फलवाले लाग्नको तज देना | तिथिफल - पष्ठमी, एकादशी, एका, नंदातिथि - ब्राह्मणके लिये श्रेष्ठ, दूज, सप्तमी, द्वादशी, भद्रातिथि-क्षत्रियके लिये श्रेष्ठ, तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी - वैश्यके लिये श्रेष्ठ, चतुर्थी, नौवीं, और चतुर्दशी - रिक्ता तिथि - शूद्रके लिये श्रेष्ठ, दशवीं और पूर्णिमा देवमंदिरोंके लिये श्रेष्ठ उससे उलटी तिथियाँ नेट जानना । वारफल - ध्वजाय हो तो रविवार श्रेष्ठ, वृषाय हो तो सोमवार श्रेष्ठ, धूम्राय हो तो मंगलवार श्रेष्ठ, खर और श्वानाय हो तो बुध, गजाय हो तो गुरुवार श्रेष्ठ, ध्वांजाय हो तो शुक्रवार श्रेष्ठ, सिंहाय हो तो शनिवार श्रेष्ठ समझना । इससे उलटा तजना | बार प्रकारांतर - क्षेत्ररुद्रगुणं कृत्वा सप्तमिर्भागमाहरेत् शेषंख्यादयोवारा रवि भौमौ विवर्जितौ ॥३९॥ ક્ષેત્રફળને અગ્યારે ગુણીને સાતે ભાગતાં જે શેષ રહે તે અનુક્રમે રિવ આદિ સાત વારા જાણવા. તેમાં રિવ અને મગળવાર તજવા, ૩૯ क्षेत्रफलको ग्यारहसे गुनकर सातसे भागते जो शेष रहे उसे अनुक्रमसे रवि आदि सातवार जानना । उसमें रवि और भोम घारको तजना । ३९. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ वर्ग आयादि गणित १६. अथोत्पत्ति-नवघ्नं गृह नक्षत्रं रुद्रसंख्या समन्वितम् पंचमिस्तु हरेमागं शेषमुत्पत्तिः पंचधा ॥ ४०॥ પ્રાસાદ કે ઘરના નક્ષત્રને નવગાણું કરવાથી જે અંક આવે તેમાં ૧૧ ઉમેરી સરવાળે કરતાં જે સંખ્યા થાય તેને પચે ભાગતાં જે શેષ રહે તે પાંચ अनी उत्पत्ति नवी. ४० । ૧ વધે તો ઘણું દાન ૨ વધે તે સુખપ્રાપ્તિ ૩ વધે તે સ્ત્રી પ્રાપ્તિ ૪ વધે તે ધનપ્રાપ્તિ અને પ વધે તે પુત્ર પ્રાપ્તિ થાય. प्रासाद या घरके नक्षत्रको नौसे गुनकर जो एक आवे उसमें ग्यारह मिलाकर जो संख्या हो उसे पाँचसे विभाजित करते जो शेष रहे उसे पाँच प्रकारकी नक्षत्रकी उत्पत्ति समझना । १ शेष होनो बहुत दान २ शेष हो तो सुख प्राप्ति ३ शेष हो तो स्त्री प्राप्ति ४ शेष हो तो धन प्राप्ति और ५ शेष हो तो पुत्र प्राप्ति होती है । ४० इति उत्पत्ति अङ्ग ।।१६।। (१७) अथोधिपतिवर्गवैर नामाक्षर नामाक्षर - वर्ग अ-इ-उ-ए का (१) गरुडवर्ग त-थ-द-ध-न का (५) सर्पवर्ग क-ख-ग-घ-ङका (२) विडालवर्ग प-फ-ब-भ-म का (६) मूषकवर्ग च-छ-ज झ ञ् का (३) सिंहवर्ग य-र-ल-व का (७) मृगवर्ग द-ठ-ड-ढ-ण का (४) श्वानवर्ग श-प-स-ह का (८) मेषवर्ग गृह और गृहपति के नामाक्षरपरसे वर्ग निकालना । सूपर्ण ओतुः सिंहः श्वा सुसखु मृग मीढकाः वर्णाधिपाः क्रमा दृष्टौ भक्ष्यो यः पंचमो मतः ॥४१॥ ૧ ગરુડ ૨ બિડાલ ૩ સિંહ ૪ શ્વાન ૫ સર્પ ૬ ઉંદર છ મૃગ ૮ મેષ આ આઠે અનુક્રમે તે તે વર્ણના અધિપતિ છે. એ અધિપતિના વર્ગમાં દરેકને તેનાથી પાંચમે ભક્ષક છે, માટે તે તજ. ૧ ગરુડને ૫ સપને વેર ૩ સિંહ અને ૭ મૃગને વેર, ૨ બિડાલને મુષકને વેર, ૪ ધાન અને ૮ મેષને વેર ૪૧. १ गरुड २ बिडल ३ सिंह ४ श्वान ५ सूर्य ६ मूषक ७ मृग ८ मेष ये आठों अनुक्रमसे अपने अपने धर्गके अधिपति हैं । ये अधिपतिके वर्ग में प्रत्येकका उससे पाँचवाँ भक्षक है । अिसीलिये त्याज्य है। गरुडको ५ सर्प से वैर ३ सिंह और मृगको वैर २ बिडाल और मूषकको वैर ४ श्वान और ८ मेषको वैर ४१ इति अधिपति वर्ग अङ्ग ॥१७॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरार्णव अ. - ९९ क्रमांक अ.-१ २४ १८. योनिवैर —– अश्वोऽश्विनी शतभयी भरिणी पौष्टमयोग जिः कृतिका पुष्ययोच्छागो रोहिणी मृगयो रहिः ॥४२॥ वा भ्रूलार्दयोर्योनिः सर्पादित्यो बिडालक : पूर्वाफा मघयोशखु रुफोत्तर ययो स्तुगौः ||४३|| हस्त स्वात्योस्तु महिषी व्याघ्रचित्रा बिशाखयोः ज्येष्ठानुराधयो रेणः पुषाढा श्रवणे कपिः ॥४४॥ अश्विनी और शतभिया की अयोनि । भरणी और रेवतीकी गजयोनि ॥ कृतिका और पुष्यकी अजयोनि । रोहिणी और मृगशीर्षकी सर्पयोनि ॥ मूल और आद्रीकी वनयोनि । आश्लेषा और पुनर्वसुकी बिडालयोनि ।। पूर्वाफाल्गुनी और मघाकी मूपकयोनि । उ. भाद्रपद और उ. फाल्गुनीकी गौयोनि ॥ स्वाति और हस्तकी महिषी योनि । चित्रा और विशाखाकी व्याध योनि ॥ ज्येष्ठा और अनुराधाकी मेंढायोनि । पू. पाढा और श्रवणकी कपियोनि || उ. पाढा और अभिजितकी नकुलयोनि । पू. भाद्रपद और घनिष्ठाकी सिंहयोनि || ४२-४३-४४ उपादाभिजितोर्घः सिंहः सिहे: पूभाधनिष्ठयोः मेषमर्कयो रंगो व्यात्रं गज सिंहयोः ||४५|| श्राणं सर्पनकुलं बिडालोन्दुर के महत् । महिषाश्चमिति त्याज्यं मृत्युः स्त्री प्रभु वेऽस्मसु ॥ ४६ ॥ मेष योनीको मर्कट योनिसे बैर । गौ योनि और व्याघ्र योनिको वैर ॥ गज योनि और सिंह योनिको वैर । श्वान योनि और वानर योनिको वैर ॥ सर्प योनि और नकुल योनिको वैर । बिडाल योनि और मूषक योनिको वैर ॥ महिष योनि और अश्व योनिको वैर. नक्षत्र और योनिका उपरके अनुसार परस्पर बैर है । जिससे स्त्री और पुरुष गृह और गृहपतिके नक्षत्रोंकी योनियोंका परस्पर वैर तज देना । नहि तो मृत्यु होती है । ४५-४६ इति योनि वैर अङ्ग || १८| १९. अथ नक्षत्र वैर - रंचोत्तरफाल्गुन्यश्वि युगले श्वाति मरण्योर्द्धयो । रोहिण्युत्तर पाठ्योः श्रुति पुनर्वस्वो विरोध स्वथा ॥ चित्रा हस्तभयोव पुष्यफणिनो ज्येष्ठा विशाखद्वयोः प्रासादे भवनासने च शयने नक्षत्र वैरं त्यजेत् ॥४७॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गचित उत्तरा फाल्गुनी और अश्विनीको वैर । रोहिणी और उत्तराषाढाकी वैर ।।। चित्रा और हस्तको वैर । स्वाति और भरणीको वैर ।। श्रवण और पुनर्वसुको वैर । पुष्य और अश्लेषाको वैर ॥ नक्षत्रों के बैर इस तरह हैं । अिसीलिये प्रासादमें, गृहमें, आसन. और शैयामें घर और घरके मालिकके परस्पर वैरको. तजना । ४.७ इति नक्षत्रवर अङ्ग ॥१९|| अथायुष्यत्था विनाश-गुणयेदृष्टभिः क्षेत्रफलं पष्टिविभाजितम् लब्धं दसगुणं जीवंच्छेषं भूत समाहृतम् ॥१८॥ पृथि व्यापस्तया तेजोवायुराकाशमेव च पंचतत्त्वानि जानीयादंतकाले प्रभेदने ॥४९॥ ક્ષેત્રફળને આડે ગુણી સાઠે ભાગ દેતાં જે અંક આવે તેને દશે ગુણતાં જે અંક આવે ત્યાં સુધી તે વાસ્તુનું આયુષ્ય જાણવું. (તેટલે સમય તે સ્થિર રહે) સાઠને ભાગ દેતાં જે શેષ રહે તેને પાચે ભાગ દેવા એટલે તત્વ આવશે એ. એ વિનાશના તત્વના નામ જાણવા. ૧ વધે તે પૃથ્વી ૨ વધે તે જળ તત્વ ૩ વધે તે તેજ અગ્નિ તત્ત્વ ૪ વધે તે વાયુ તત્વ પ વધે તે આકાશ તત્વ વિનાશ જાણવું. એ પાંચેય તત્વોથી વાસ્તુના અંત કાળને ભેદ જાણુ. (૮) ૮-૯ क्षेत्रफलको आठसे गुनकर साठकी संख्यासे भागते जो अंक आवे उसको इससे गुनते जो अंक आवे वहाँ तक उस वास्तुका आयुष्य जानना । (उत्तम समय वह स्थित रहे ।) साठकी संख्यासे भागते जो शेष रहे उसे पाँची संख्यासे भागना । अिससे तत्व निकलेगा । इसे विनाश के तत्त्वका नाम जानना । १ शेष रहे तो पृथ्वी तत्त्व २ शेष रहे तो जल तत्त्व ३ शेष रहे तो तेज तत्त्व (अग्नि) ४ शेष रहे तो वायु तत्त्व ५ शेष रहे तो आकाश तत्त्व विनाशका जानना । इन पाँचां तत्त्वोंसे वास्तुके अंतकालका भेद जालना । ४८-४९ सरिछल्पतंत्र नामना अयमा पास्तु द्रव्यता अधिक प्रमाणे तेनु आयुष्य सवास છે. ઉપર કહ્યું તેમ ક્ષેત્રફળને આઠગણું કરી સાઠે ભાગતાં જે આવે તે જ ફળ થયું તે કાંકરી અને માટીના વાસ્તુનું સ્થિર આયુષ્ય જાણવું. તે ફળને દશ ગણું કરવાથી ઈટ અને માટીને ચુનાથી બનેલ વાસ્તુનું આયુષ્ય જાણવું. તે કુળને નેવું ગાણું કરવાથી પત્થર અને સસાથી બનેલ વાસ્તુનું આયુષ્ય જાણવું. તે ફળને એક સો સિત્તેર ગણું કરવાથી ધાતુથી બનેલ વાસ્તુનું આયુષ્ય જાણવું सच्छिल्पतंत्र नामके ग्रंथमें वास्तुद्रव्यके अधिकार अनुसार उसकी आयु बतायी है । क्षेत्रफलको आठ गुनाकर आठसे भागते जो शेष आवे वह ही फल हुआ । इसे कैंकरी और ---- Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-९९ क्रमांक अ.-१ द्वि भिः श्रेष्ठं त्रिभि श्रेष्ठं पँचभिश्वोत्तमोत्तमम् सप्तभिः सर्वकल्याणम् नवभिः सर्व संपदः ॥५०॥ પ્રાસાદ કે ઘરનું આય નક્ષત્રાદિ ગણિત કરવામાં ઓછામાં ઓછા બે અંગ મેળવવાં અગર ત્રણ અંગ મેળવે તે શ્રેષ્ઠ, પાંચ અંગ મેળવાય તે સર્વથી ઉત્તમ જાણવું અને જે સાત અંગ મેળવાય તે સર્વ કલ્યાણ કારક જાણવું અને નવ અંગ મેળવાય તે સર્વ સંપત્તિની પ્રાપ્તિ થાય. ૫૦ प्रासाद या घरके आय, नक्षत्रादिके गणित करते समय कमसे कम दो अङ्ग मिलाना या तो तीन अङ्ग मिलाये जाय तो श्रेष्ठ, पाँच अङ्ग मिलाये जाय तो सर्वसे उत्तम समझना । और जो सात अङ्ग मिलाये जाय तो सर्वकल्याण कारक जानना । और नौ अङ्ग मिलाये जाय तो सर्वसंपत्तिकी प्राप्ति होती आयऋक्ष चंद्रगण व्यय तारांशक राशयः । राशिमैत्रो ग्रहमैत्री नाडीवेध अधिपतिः ॥५१॥ लमतिथिवारोत्पत्ति अधिपति वर्ग वैरंकू . . . योनि वैरं ऋक्ष बैरं स्थिति शेक विंशतिः ॥५२॥ * પ્રાસાદ કે ગૃહાદિ વાસ્તુકાર્યમાં ૧ આય ૨ નક્ષત્ર ૩ ચંદ્ર ૪ ગણુ પ વ્યયે ૬ તારા ૭ અંશક ૮ રાશિ ૯ રાશિમૈત્રી ૧૦ ગ્રહમૈત્રી ૧૧ નાડીવેદ્ય ૧૨ અધિપતિ ૧૩ લગ્ન ૧૪ તિથિ ૧પ વાર ૧૬ ઉત્પત્તિ ૧૭ અધિપતિ વર્ગ વૈર ૧૮ નિ વૈર ૧૯ નક્ષત્ર વૈર ૨૦ સ્થિતિ અને ૨૧ નાશ એ રીતે એક વીશ અંગે કહ્યો. પ૧--પર प्रासाद या गृहादिके वास्तुकार्यमें १ आय २ नक्षत्र ३ चंद्र ४ गण ५ व्यय ६ तारा ७ अंशक ८ राशि ९ राशि मैत्री १० ग्रहमैत्री ११ नाडी वेध १२ अधिपति १३ लग्न १४ तिथि १५ वार १६ उत्पत्ति १७ अधिपति वर्ग वैर १८ योनि वैर १९ नक्षत्र वैर २० स्थिति और २१ नाश इस तरह अिक्कीस अंङ्ग कहे । ५१-५२ गुणाश्च बहुवो यत्र दोष मेको भवेद्यदि गुणाधिक्यं चाल्पदोपं कर्तव्यं नात्र संशयः ।।५३।। मिट्टीके और खडुके वास्तुका स्थिर आयुष्य जानना । उस फलको दस गुना करनेसे इट मिट्टी और खड्रीसे बने हुए वास्तुका आयुष्य जानना । उस फलको निन्यानवे गुना करनेसे पत्थर और सीसे से बने हुए वास्तुका आयुप्य जानना । उस फलको एक सौ सतर गुना करनेसे धातुसे बने हुए वास्तुका आयुष्य जानना । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयादि गणित જે વાસ્તુમાં ઘણા ગુણો હોય અને કેઈ એકાદ દોષ હોય તે પણ તે અગર ઘણું ગુણ હોય અને અપદેષ હોય તે પણ તેવાં કાર્ય નિર્દોષ જાણવાં. તેમાં કદિ પણ શંકા ન રાખવી જેમ અગ્નિમાં જળનાં થોડાં બિંદુ અસર કરતાં નથી તેમ તે જાણવું. ૫૩ ___जिस वास्तुमें बहुत गुण हों और किंचित् एक दोष हो तो भी या बहुत गुण होने पर भी अल्प दोष होता भी तो वैसे कार्यको निर्दोष समझना । अिसमें कभी संशय नहीं करना । जिस तरह अग्निमें जलके थोडे बिन्दु असर नहीं करते हैं अिस तरह समझना । ५३ इति श्री विश्वकर्मा कृते क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां आयव्ययादि गणिताधिकारे नवनति तमोऽध्याय ।। ९९ ।। (क्रमांक अ. १) . इति श्री शिल्प विशारद स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा अनुवादित विश्वकर्मा और नारदजींके संवादरूप क्षीरार्णव वास्तुशास्त्रका आयव्ययादि गणिताधिकार निन्यानबे ॥१९॥ अध्याय पर सुप्रभा नाम्नी भाषा टीका ॥१.९॥ (क्रमांक अ० १) ઈતિ શ્રી શિલ્પ વિશારદ સ્થાપિત પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા અનુવાદિત વિશ્વકર્મા અને નારદજીના સંવાદરૂપ લીરાણું વાસ્તુ શાસ્ત્રના આયવ્યયાદિ ગણિતાધિકાર ૯૯ મા અધ્યાય પર સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકા. ૯૯ NE "n- SARABPS नंदी युग्मका टेकरा . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगती लक्षणम् क्षीरार्णव अ० १००-क्रमांक अ० २ श्री विश्वकर्मा उवाच-- अथातः संप्रवक्ष्यामि जगती लक्षणं रिपि प्रासादो लिङ्गमित्युक्तं जगती पीट भेवच ॥१॥ सा चा मुढ दिशा भागा मनोज्ञा सर्वत: प्लया प्रतिहारी देवकुलं विभागा नामतः परे ॥२॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે કે હું ત્રાષિરાજ, હવે હું તમને પ્રાસાદની જગતીનાં લક્ષણ કહું છું. પ્રસાદ શિવલિંગ રૂપ છે. અને જગતી પીઠ જળાધારી રૂપ ભણુંવી. તે દિમૂઢ ન હોય તેવી દિશાવિભાગમાં અને મને આનંદ આપનારી અને ઉપરથી સર્વ તરફ પાણીના ઢાળવાળી તેવી જગતી શુભ જાણે. તેમાં દેવના પ્રતિહારે અને દેવકુળનાં સ્વરૂપે કરવાં. તેના વિભાગ પરથી (૬) નામો કહ્યાં छ. १-२ श्री विश्वकर्मा कहते हैं-हे ऋषिराज, अब मैं आपको जगतीके लक्षण बताता हूँ। प्रासाद शिवलिङ्ग स्वरूप है । और जगती पीठ-जजधारी रूप है । वह दिङ्मूढ न हो वैसी दिशाके विभागमें और मनोरंजनी और उपरसे सर्व बाजुमें जलके ढालवाली जगतीको शुभ समझना । उसमें देवके प्रतिहारों और देवकुलके स्वरूपकरना । उसके विभाग परसे (६४) नाम कहे हैं । १-२. 'प्रासादस्यानुमानेन जगति विस्तरो भवेत् प्रथमा षद्गुणा प्रोक्ता द्वितीयां च चतुर्गुणा ॥३॥ तृतीया द्विगुणाख्याता पंचगुणा थवा भवेत् पृथमा कनिष्ठा प्रोक्ता द्वितीया चैव मध्यमा ॥४॥ तृतीया ज्येष्ठ भित्युक्ता चतुर्था सर्वगा भवेत् ज्ञातव्या क्रमयोगेन सर्वशिल्पि विशारदः ॥५॥ (१) इससे मिलते जुलते पाठ ज्ञानरत्न कोशके प्राचीन शिल्प ग्रंथमें दिये हुए हैं । जगतीका अर्थ सामान्यतया प्रासादकी चारों ओरका ओटा, दूसरे अर्थमें प्रासादकी सीमा-मर्यादा अर्थात् उतने विस्तारमें उस प्रासादका दुर्ग ऐसा किया जाता है। ऐसा द्राविड शिल्पमें विशेष है । सांधार प्रासादमें सीमा मर्यादा, दुर्ग-किला ऐसा मेरा नम्र अभिप्राय है। निरेधार प्रासादके Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાસી શાળrfધારે પ્રાસાદના વિસ્તાર માનથી જગતીનું વિસ્તાર માન કહે છે. પહેલી છે ગણું જગતી કનિષ્ઠ માનને કહી છે. બીજી ચારગણું મધ્યમાનને કહી છે. અને ત્રીજી બમણું જગતી પહોળી રાખવાનું યેક માનને કહ્યું છે. અને જોયું પ્રાસાદથી પાંચ ગણી જગતી પહેલી રાખવાનું સર્વને કહ્યું છે. એ રીતના કમગથી સર્વ શિલ્પના જ્ઞાતા વિશારદે જાણવું. ૩-૪-૫ प्रासादके विस्तारमानसे जगतीका विस्तारमान कहा जाता है। प्रथमो छः गुमी जगती कनिष्ठमानको कही है। दूसरी चार गुनी मध्यमानकी कही है। और तीसरी दूगुनी जगती चौडी रखनेका ज्येष्ठ मानको कहा है। और चौथी प्रासादसे पाँच गुनी जगती चौडी रखनेके लिये सर्वको कहा है। इस प्रकारके क्रम योगसे सर्व शिल्पके ज्ञाता विशारदोंको समझना । ३-४-५ भ्रमणी कन्यसे चैका मध्यमे भ्रमणी द्वयम् ज्येष्ठया त्रय भ्रमण्या च शाला त्रिशालिका ॥६॥ भ्रमणी त्रिभागोत्सेधे यावत् मूल प्रासादकम् तथैवानुक्रमैवृद्धि भ्रमेण्यो परिज्ञायते ॥ ७॥ કનિષ્ઠ માનને એક ભ્રમણી કરવી. મધ્યમાનને બે ભ્રમણી (નીચે ઉપર બે ટપે બે ભ્રમ પ્રદક્ષિણા કરવી અને જેમાં માનને ત્રણ ભ્રમણી (ત્રણ ટપે પ્રદક્ષિણા) કરવી. આગળ શાલા કે ત્રિશાલ કરવી. બ્રમણના ટપાની ઊંચાઈ-મૂળ પ્રાસાદથી ત્રણ ભાગ કરીને રાખવી તેવા કમ અને ગથિી તેની ઉપર કરતાં નીચેની વૃદ્ધિ રાખવી. ૬-૭ ___ कनिष्ठमानको एक भ्रमण करना । मध्यमानको दो भ्रमणी (नीचे उपर दो टप्पेमें दो भ्रम प्रदक्षिणाएं) करना । और ज्येष्ठमानको तीन भ्रमणी (तीन टप्पों में प्रदक्षिणाएं करना। आगे शाला या त्रिशाला करना । भ्रमणीके टप्पेकी ऊँचाई मंदिरोंको चारों ओरका ओटा यह अर्थ बराबर लगता है। उसके उदयमें घाट हो और निरंधार प्रासादोंमें दुर्गके आगे प्रवेश द्वार उसके पर गोपुरम और प्रतोली ऐसा द्रविड मंदिरोंमें तैमानमें देखा जाता है। (૧) આને મળતા પાઠ જ્ઞાનરત્નકેશના પ્રાચીન શિલ્પગ્રંથમાં આપેલ છે. જગતી એટલે સામાન્ય રીતે પ્રાસાદની કરતો ઓટલો. બીજા અર્થમાં પ્રાસાદની સીમાં મર્યાદા એટલે તેટલા વિસ્તારમાં તે પ્રાસાદનો ગઢ કે કિલ્લે કરવામાં આવે છે, આવું કવિડ શિલ્પમાં વિશેષ છે. સાંધાર પ્રાસાદમાં સીમા મર્યાદા દુર્ગ કિલ્લે એમ મારે નમ્ર અભિપ્રાય છે નિરધાર પ્રાસાદનાં મંદિરને ફરતો એટલે અર્થ વધુ બંધ બેસે છે. તેના ઉદયમાં ઘાટ થાય અને સાંધાર પ્રાસાદોમાં પ્રાસાદની સીમા મર્યાદાના દુગને આગળ દરવાજે તેના પર ગોપુરમ પ્રતોલી આવું દ્રાવિડ મંદિરમાં હાલમાં જોવામાં આવે છે. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१०० क्रमांक अ.-२ मूल प्रासादसे तीन भागकी करके रखना। वैसे क्रम और योगसे उसकी उपरसे अधिक नीचेकी वृद्धि करना । ६-७. - - अतन PRAMTANT PANCHAYATA!V. पंचदेवोका पंचायतन-जगती करद्वादशेधाशं शालान्यंशं द्वाविंशके , द्वात्रिंशतिश्चतुर्थाशं सा भूतांशं शताधिके ॥८॥ एव मन्यश्चकर्तव्यो जगतीनां समुच्छयं ॥९॥ (२) जगतीकी ऊँचाईका दूसरा मान भी अन्य ग्रंथों में कहा गया है। १ हाथके प्रासादको १ हाथ तक जगती करना, दो हाथके प्रासादको डेढ़ हाथ ऊँची जगती करना । तीन हाथके प्रासादको दो हाथकी चार हाथके प्रासादको ढाई हाथकी-पाँचसे बारह हाथके प्रासादको जगतीकी ऊँचाई प्रासादके अर्ध भागकी करना। तेरहसे चौबीस हाथके प्रासादको प्रासादके तीसरे भाग पर जगती ऊँची करना । पचीससे पचास हाथके प्रासादको जगतीकी शार्द प्रासादके चौथे भाग पर ऊँची करना। इस तरह दसरा मान कहा है। जगतीको सन्मुख ज्यादा रखने के लिये कहा है क्यों कि आगे देखना हो तो महोत्सव हो सके। (૨) જગતીની ઊંચાઈનું બીજું માન અન્ય ગ્રંથમાં કહે છે. એક હાથના પ્રાસાદને ૧ હાથ સુધી જગતી કરવી, બે હાથના ને દોઢ હાથ ઊંચી જગતી કરવી ત્રણ હાથના ને Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगती लक्षणाधिकार ३० २१ २६ ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ tattet fetal detRRIGE ENDL * 2 3 चोक चोक ३६ ३७ ३८ ३ ६ १ DHOHOR चोक H t बावन जिनायतन की जगती चोक चोक FEET TET ३१. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 68 | 28 | 28 || 3 क्षीरार्णव आ. - १०० व OF tatatatat BARITRI etatarsture तीन प्रकारे चोबिश जिनावतन क्रम और उसकी जगती Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगती लक्षणाधिकार એક થી બાર હાથ સુધીના પ્રાસાદની જગતી પ્રત્યેક ગજે અર્ધા અધ ગજની ઊંચી કરવી. તેર થી બાવીશ હાથના પ્રાસાદને ગજના ત્રીજા ભાગની (આઠ આઠ આંગળની વૃદ્ધિથી ઊંચી કરવી. તેત્રીશથી પચાસ હાથના પ્રાસાદની જગતી પ્રાસાદના પ્રત્યેક ગજે ગજના પાંચમા ભાગની (ચાર આંગળ અને દા દોરા) ની વૃદ્ધિથી ઊંચી કરતા જવું. એ રીતે જગતીની ઊંચાઈનું માન જાણી ४२. ८-८ एकसे बारह हाथ तकके प्रासादकी जगतीको प्रत्येक गज पर आधे गजकी उँची करना । तेरहसे बाईश हाथके प्रासादकी जगतीको गजके तीसरे भागकी (आठ आठ अँगलकी वृद्धि से) करना । तेईशसे बत्तीस हाथके प्रासादकी जगतीको गजके चौथे भागकी (छः छः अंगुलकी वृद्धि से) ऊँची करना । तेतीस से पचास हाथके प्रासादकी जगतको-प्रासादके प्रत्येक गज पर गजके पाँचवें भागकी (चार अंगुल-६१ धागेकी वृद्धिसे) ऊँची करते जाना । इस प्रकार जगतीकी ऊँचाईका मान जान लेना । ८-९ 'रससप्तगुणा ख्याता युक्तिपर्याय संस्थिता योगिन्योत्रिपुरुषे च सहस्रायतनो शिव ॥८॥ બે હાથની, ચાર હાથના ને અઢી હાથની, પાંચથી બાર હાથનાનો જગતીની ઊંચાઈ પ્રાસાદના અધ ભાગે કરવી. તેરથી વીશ હાથના પ્રાસાદના ત્રીજે ભાગે જગતી ઊંચી કરવી. પચ્ચીશથી પચાસ હાથના પ્રાસાદને જગતીની ઊંચાઈ પ્રાસાદના ચોથે ભાગે કરવી. આમ બીજું ભાન કહેલ છે. જગતી સન્મુખ વધુ નીકળતી રાખવાનું કહ્યું છે. આગળ જગ્યા હોય તો મહત્સવો થાય. (३) जगतीके विस्तारके लिये तो श्लोक में कहा गया है। इसके अनुसार मुख्य मंदिरकी चारों ओर सहस्रलिङ्ग का आयतन, यौवीस अवतारके चारों ओर मंदिर, ब्रह्माके चार रूपके चारों ओरके मंदिर, शिवके ग्यारह रूद्रके मंदिर, चौसठ योनियोंकी ६४ देव कुलिकायें, जिन-तीर्थ करकी फिरती चौबीस वावन, बहोंतर या एकसौ आठ जिनायतन देवकुलिकाओं, गणपतिके ३२ स्वरूपकी देवकुलिकायें, इस तरह अन्य देव-देवियोंके विशेष पर्याय रूपोंकी चारों ओर देव कुलिकाओंसे युक्त प्रासाद और पंचायतन करनेका हो तब वह छः सात गुने से भी विशेष विस्तारमें लेना पड़ता है, उससे कम भी हो सकता है। (૩) જગતીના માટેનો લેક ૮ માં કહ્યા પ્રમાણે મુખ્ય મંદિર કરતું સહસ્ત્રલિંગનું આયતાન, વીશ અવતારમાં ફરતાં મંદિરે બ્રહ્માનાં ચાર રૂપનાં ફરતાં મંદિરે શિવના એકાદશ રૂદ્રનાં મંદિર, ચોસઠ ગિનીઓની દેવ કુલિકાઓ, જિન તીર્થંકરના ફરતી ૨૪ પર-૭૨ કે ૧૦૮ જિનાયતન દેવકુલિકાઓ, ગણપતિના બત્રીશ સ્વરૂપની દેવકુલિકાઓ એ રીતે અન્ય દેવદેવીઓના વિશેષ પર્યાય રૂપની ફરતી દેવકુલીકાઓ યુક્ત પ્રાસાદ કરવાને કે પંચાયત મંદિર હોય ત્યારે તે છ સાત ગણાથી પણ વિશેષ વિસ્તારમાં લેવું પડે છે, તેથી એાછું પણ થાય, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ क्षीरार्णव अ..१०० क्रमांक अ.-२ - પરિવાર સાથેનાં મંદિરોને એટલે ચોસઠ યેગિનીઓ, વિષ્ણુના વીશ અવતારના આયતને કે શિવના સહસ્ત્રાયતનની દેરીઓ (કે જિન તીર્થકરેના ૨૪-પર-૭૨-૮૪ કે ૧૦૮ જિનાયતને) ના પંચાટતન મંદિરે સારુ તેના પ્રમાણુથી યુક્તિથી તેનો વિસ્તાર છ સાત ગણે જગતીને રાખો. ૮ परिवारके साथके मंदिरोंको चौसठ योगिनीयों, विष्णुके चौबीस अवतारके आयतनों या शिवकी सहस्रायतनी देरियाँ (जिन-तीर्थंकरोंके २४-५२-७२-८४ या १०८ जिनायतनों) के लिये उसके प्रमाणकी युक्तिसे उसका विस्तार छः सात गुना रखना । ८ एतत्तो जगत्योदयं (संगृह्य) सप्तसाध विभाजते भागार्धखुरकं ज्ञेयं पादोनं जाड्य कुंभकम् ॥१०॥ भागार्धकर्णकं कुर्यात् पादोनं सरपत्रिका भागार्ध खुरकं कार्य साध भागं तु कुंभकम् ॥११॥ पादोन भाग मुत्सेधं कलशं कुर्याद्विचक्षण: भागाधन्नातरंपत्रं पादोनं कपोतिका ॥१२॥ पुष्पकंठच भागैकं निर्गमं भाग द्वयम् एतत् कथितं सर्व जगतीनां समुठ्ठिया ॥१३॥ જગતીના આવેલા ઉદય માનમાં સાડાસાત ભાગ કરવા. તેમાં અર્ધા ભાગને ખરે, પિોણા ભાગને જાડેબ, અર્ધા ભાગની કણી, પિણ ભાગની છyગ્રાસ પટ્ટી તે ઉપર અરધા ભાગને ખરે, દોઢ ભાગને કું, પિણ ભાગને કળશે, અર્ધા ભાગની અંધારી, પિોણા ભાગની કેવાળ અને એક ભાગને પુ કંઠ ગલતે (પહોળી અંધારી સાથે) કરી તેને નીકાળે અંધારીથી ખરા સુધી) બે ભાગને રાખવે. આ જગતની ઊંચાઈના ભાગ કહ્યા. - जगतीके आये हुए उदयमानमें साढेसात भाग करना । उसमें आधे भागका खरा, पौने भागका जाडबा, आधे भागकी कणी, पौने भागकी छजीग्रासपट्टी उसके उपर आधे भागका खुरा, डेढ़ भागका कुंभा, पौने भागका कलश, आधे भागकी अंधारी, पौने भागकी केवाल, और एक भागका पुष्पकंठ गलता (चौडी अंधारीके साथ) कर उसका नीकाला (अंधारीसे खरे तकका) दो भागका रखना । इस तरह जगतीकी ऊँचाईके भाग कहें। १०-११-१२-१३ . देव्यासुदिक्यालाश्च यथा स्थानंप्रकल्पयेत् । प्रासाद पश्चिमे भद्रे जगत्यां त्रय कुमारिका ॥१४॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAHYDRAMERIKISEDICICTURESORINEMIERREE जगती लक्षणाधिकार CONS •महापाठ. कादपीठ. SENSE THE मापन ETRINA T A NDAMANANELOYMATALE - की पी. REE - Emera: प्रनाली पुष .....-.- कपोत MAMANHARE माधान जातीय Me SHARANI जमती उदय भाग२८.---. जातीद्वार म - - TRA प्रभावकारी . .. जगती. JAGATI, सुमाकर ओमार ओमपुरा.. स्थपतिdang) जगती पीठ स्तर विभाग-प्रवेश चोकी कक्षासन--महापीठ | દેવ પ્રાસાદની જગતીમાં-ઉદયમાં યથાસ્થાને દિશા પ્રમાણે દિપાલેના સ્વરૂપો વગેરેનાં સ્વરૂપ કરવાં. પ્રાસાદની પાછળ જગતીને ભદ્રમાં ત્રણ કુમારિકાઓ નાં પ્રાતઃ મધ્યાહ્ન ને સંધ્યાનાં સ્વરૂપે કરવાં ૧૪ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. १00 क्रमांक अ. ३ देव प्रासादकी जगतीके उदयमें यथास्थान पर दिशाके अनुसार दिग्पालोंके स्वरूप वगैरह देवोंके स्वरूप करना । प्रासादके पीछे जगतीके भद्रमें तीन कुमारिकाओंका (प्रातः मध्याह्न और संध्याके) स्वरूप करना । १४ प्रासाद विस्तरं तुल्यं प्रासादार्द्ध प्रमाणतः पादेनं वाथ कर्तव्यं सोपाना याम किर्तितः ॥१५॥ शुंडिकासन विनेया तत्पदे गंड विस्तरम् द्वितीय तत्सम ज्ञेयं ध्रुडिकोऽभयः स्थिता ॥१६॥ प्रतोल्या वरय विधिम प्रतोल्या । चनुस्थम ------चित्रस्यदर्शन विवार अनोख्या मकर अतोल्या चतुफिकास्य विशवस्यमा बेडकासन PO.S. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयंती लक्षणाधिकार भद्रनिर्गम तुल्यं तु जगती गंड निर्गमा द्वितीय तत्सम कार्य प्रतिहारास्तदग्रत ॥१७॥ मूल नायक यन्मानं तन्मानात्पादवर्जितं तत्सम प्रतिहारा द्वारेच वामदक्षिणे ॥१८॥ પ્રાસાદ જેટલો કે તેથી અર્ધ કે પિણ્ ભાગના પહેળા આગળ પગથિયાં કરવાં. બે બાજુ હાથીની સુંઢની આકૃતિના ચેથા ભાગે ગંડસ્થળ હાથણુઓ પહેળે રાખવે. બીજે તેના જેટલે બે બાજુ હાથણીઓ કરવી. ભદ્રના નીકાળા બરાબર જગતીના ગંડસ્થળને નીકાળે રાખો. બીજો પણ તેટલે જ કરે. અને તેનાથી આગળ નિકળતા પ્રતિહારનાં સ્વરૂપે કરવાં મૂળ નાયકમૂળ મંદિરમાં પધરાવેલ દેવના માનથી તેનાથી પિણ કે તેટલા પ્રતિહારનાં સ્વરૂપે ડાબી જમણી १२५ ३२ai. १५-१६-१७-१८ प्रासादके बराबर या उससे आधे या पौने भागके चौडे पगथिये आगेके भागमें करना । दोनों तरफ हाथीकी सुंढकी आकृति, चौथे भागपर गंडस्थल विशाल रखना । दूसरा भी उसके बराबर, दोनों तरफ हाथिने करना । भद्रके नीकालेके बराबर जगतीके गंडस्थलका नीकाला रखना । दूसरा भी उतना ही करना । और उसमेंसे आगे निकलते प्रतिहारोंके स्वरूप करना । मूल नायकमूल मंदिर में पधराये हुए देवके मानसे उससे पौने या उसके बराबर प्रतिहारके स्वरूप बायीं दायीं ओर करना । १५-१६-१७-१८ बलाणक जगत्योर्द्धग्ने ग्रस्त वामन नामतः जगत्योपरिमत्तवारण सन्मुखो वामदक्षिणे ॥१९॥ જગતીની ઉપર આગળ નીકળતું અગર જગતીના ઉદયમાં સમાય તેટલી ઊંચાઈને મંડપને તે પર વામન નામનું બલાણુક કહ્યું છે. જગતીની ઉપર (બલાણુક કરતાં બાકી રહે ત્યાં) સન્મુખ અને ડાબી જમણી તરફ મત્તાવારણ કક્ષાસન કરવાં. जगतीके उपर आगे निकलता अगर जगतीके उदयमें समा सके १६ईतनी ऊँचाई के मंडपको उसके पर 'वामन' नामक बलाणक कहा है। जगतीके उपर (बलाकण करते बाकी रहे वहाँ) सन्मुख और बायीं-दायीं तरफ मत्तवारण कक्षासनों करना । ९९ राजसेनश्चतुर्भागे भारपुत्तलिकायुतः वेदिका रुपसंघाटैः सप्तभाग समुच्छितै ॥२०॥ द्विपदचासनपदं कूटागारैः समन्वितम् लिलासनं सुखार्थे च कक्षासन करोन्नतम् ॥२१॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. १०० क्रमांक अ.२ कसासन RO.5 FAN अभय PET જગતી ઉપર મત્તવારણ કરવાના ભાગ કહે છે. રાજસેનક ચાર ભાગનું કરવું. તેમાં ભાર પુલીકાના લામસા સાથે તે કરવું. સાત ભાગ ઊચી વેદિકા દેવગંધર્વાદિ સ્વરૂપ અને વેણું રાશિયાના ઘાટવાળી કરવી. તે પર બે ભાગ જાડો ચપટ થરને આસન પટ્ટ કરે. તેમાં આગળના ભાગમાં કૂટ-ગ્રાસમુખ અને દેઢીયા વગેરે ઘાટવાળા સુંદર બનાવવા તેના પર સુખથી તકીયાની જેમ બેસવાને કક્ષાસન એક હાથ ઊંચું કરવું. २०-२१ जगतीके उपर मत्तवारण करनेके भाग कहते हैं। राजसेनक चार भागका करना। उसमें भारपुत्तलिकाका लामसाके साथ वह करना। सात भाग ऊँची वेदिका देव गंधर्वादि स्वरूप (और बेनी राशियाके) घाटवाली करना । उसके पर दो भाग मोटा सपाट थरका आसनपट करना । उसमें आगे के भागमें कूट ग्रास- राजसेवक, वेदिका, आसनपट्ट, कक्षासन मुख और दोढिया बगैरह घाटबाला सुंदर बनाना । उसके पर सुखसेम सनदकी तरह बैठनेके लिये कक्षासन एक हाथका ऊँचा करना । २०-२१ ।। मंडपाग्रे श्रृंडिकाग्रे च प्रतोल्याने तथैव च । तोरणं त्रिविधं ज्ञेयं ज्येष्ट मध्य कनिष्ठकम् ॥२२॥ स्तंभगर्भे भितिगर्भे तन्मध्ये च विचक्षणः तोरण स्योभय स्तंभे ब्रह्मगर्भेतु संस्थितौ ॥२३॥ મંડપની આગળ પગથિયાં, હાથણીને આગળ પ્રતલ્યા કરવી. તે તોરણ ત્રણ પ્રકારના જયેષ્ઠ મધ્યમ અને કનિષ્ઠ એ ત્રણ માનના તેરણ કરવા. ચેકીને સ્થંભના ગર્ભ ૨ પ્રાસાદની ભિંતના ગર્ભ ૩ તે બે વચ્ચે એટલે એક થાંભલા ......या -- VIRARMSAILI SARALLY Ine - राअसनक 2 - ..- Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगती लक्षणाधिकार EMIN ૧૮ } } . " T ! :) : NIhMUE પ : पीठयुक्त रूपस्तम्भ-इलिका तोरण-प्रवेश प्रतोल्या ભિંતની વચ્ચે એમ ત્રણ પ્રકારે મધ્યને ઊભે બ્રહ્મગર્ભ સાચવીને તેની બે બાજુ તેરણના સ્થલે ઊભા કરવા, ૨૨-૨૩ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० क्षीरार्णव अ. १०० क्रमांक भ..२ मंडपके आगे पगभिये, हाथिनके आगे प्रतोल्या करना । उसमें तोरण तीन प्रकारके ज्येष्ठ, मध्यम और कनिष्ठ मानके करना । १ चौकीके स्तंभ के गर्भ २ प्रासादकी दिवारके गर्भ ३ उन दोनोंके बिच अर्थात् चौकी, स्तंभ और दिवारके बिच गर्भ ये तीन प्रकारसे मध्यके खडे ब्रह्म गर्भको सम्हालकर उसकी दोनों तरफ तोरणके स्तंभ करना । २२-२३ व्योमो वृषभः सिंहश्च गरुडो हंस एव च एकादि सप्तांतर चतुष्किका कत्तुं फलप्रदा ॥२४॥ વિમાન નંદી સિંહ ગરૂડ કે હંસ આદિ દેવ વાહનોનું સ્થાન એક થી સાત પદના અંતરે ચતુષ્ટિકા કરીને કરવું કે મંડપ કરવાથી કર્તાને ફળ મળે છે. ૨૪ विमान, नंदी, सिंह, गरुड, या हंस आदि देव वाहनोंका स्थान एक से सात पदके अंतरसे चतुष्किका करके करना जिससे मंडप करनेसे कर्ताको फल मिलता है। २४ प्रतोली चाग्रत कार्या कपाटपुट संयुता द्रढार्गला च कर्तव्या कथ्यतेउश्चोच्छ्यः ॥२५॥ પ્રતલ્યાની આગળ ગઢ-દુર્ગને મજબુત આગળિયાવાળા કમાડની જેડ કરવાનું કહ્યું છે. ૨૫ प्रतोल्याके आगे दूर्गके मजबूत आधारवाले किवाड़की जोड करनेके लिये इति श्री विश्वकर्मा कृते क्षीराणे नारद पृच्छायां जगती लक्षणाधिकारे शत तमोऽध्याय ।। १०० ॥ (क्रमांक अ० २) ઈતિ શ્રી શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ પ્રભાકર ઓઘડભાઈ સેમપુરા અનુવાદિત શ્રી વિશ્વકર્મા અને નારદજીના સંવાદરૂપ ક્ષીરાર્ણવ વાસ્તુશાસ્ત્રના જગતી લક્ષણ ધિકારના ૧૦૦મા અધ્યાય પર સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકા. (૧૦૦) इति श्री शिल्पविशारद स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा अनुवादित श्री विश्वकर्मा और नारदके संवादरूप क्षीरार्णव वास्तुशास्त्र के प्रासाद जगती लक्षणाधिकारके १०० वें अध्याय पर सुप्रभा नामकी भाषा टीका। १००. (क्रमांक अ०२) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ कूर्मशिलानिवेशनम् ॥ क्षीरार्णव अ० १०१ - क्रमांक अ० ३ श्री विश्वकर्मा उवाच --- एक हस्ते तु प्रासादे शिला वेदोंङ्गुला भवेत । द्वयंरंगुला भवेद्वृद्धि यावदशहस्तकं ॥ १ ॥ दशोध विशपर्यंत हस्ते हस्तैक मंगुलं । अर्धीगुलं भवेद्वृद्धि यवितहस्त शतार्द्धकं ॥ २ ॥ 3 શ્રી વિશ્વકર્મા નારદજીને કહે છે. પ્રાસાદની ધૂમશિલાનું માન કહું છું. એક હાથના પ્રાસાદને ચાર આંગળની ભૂશિલા કરવી. એથી દસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે બબ્બે આંગળની વૃદ્ધિ કરવી દસ થી વીસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે એકેક આંગળી વૃદ્ધિ કરવી. એક વીસથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે અર્ધા અર્ધા આંગળની વૃદ્ધિ પાષાણુની ક્રૂશિલાની ५२वी.११-२ श्री विश्वकर्मा नारदजीको कहते हैं । कूर्मशिलाका मान कहते हैं। एक हाथ प्रसादको चार अँगुलकी कूर्मशिला करना । दोसे दस हाथ के प्रासादको प्रत्येक हाथ पर दो दो अंगुलकी वृद्धि करना । दस से बीस हाथके प्रासादको प्रत्येक हाथपर एक एक अंगुलकी वृद्धि करना । इक्कीससे पचास हाथ के प्रासादको प्रत्येक हायपर आधे आधे अंगुलकी वृद्धि पाषाणकी कूर्मशिलाकी करना । १ १-२. तृतीयांशे कृते पिंड स्तदोर्ध्वक्षोभमामकं । पुष्परम्य यदाकारं शिलामध्येमलंकृतम् ॥ ३॥ लहेरं च मच्छ मंडूकं मकरे ग्रासमेव च । शंख सर्प घटयुक्त कूर्ममध्येमलकृतम् ॥ ४ ॥ આવેલ પ્રૂશિલાના માનથી (સમ ચારસ કરવી.) કહેલા માનથી ત્રીજે ભાગે જાડી કરવી. તેના ઉપરના ભાગમાં પુષ્પના આકાર રમ્ય એવી આકૃતિ નધ ખાનાં પાડીને અલ’કૃત કરવી. કેતરવી. તે નવ ખાનામાં ૧ જળની ભૃહેર ૨ ૧. પ્રાસાદના પ્રત્યેક પ્રમાણામાં જયાં જયાં હાથ કહેલાં છે ત્યાં એને ગજ २४ मांगण समन्वो हाथ = ० = २४ सांगण. અથવા (१) प्रासाद के प्रत्येक प्रमाण में जहाँ जहाँ हाथ कहे हैं, वहाँ हाथका अर्थ गज या २४ अँगुल समजना | हाथ = गज = २४ अंगुल | Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ क्षीरार्णव अ. १०१ क्रमांक अ. ३ માછલી ૩. દેડકો , મગર છે. ગ્રાસ ૬. શંખ ૭. સર્પ ૮. કુભ અને મધ્યમાં दूम त२वा (armयहि यो भने शुभ चिह्नो तरवां)२ ३-४ आये हुए कूर्मशिलाके मानसे (समचोरस करना ) कहे हुए मानसे तीसरे भागकी मोटी करना । उसमें उपरके भागमें पुष्पके आकारमें रम्य. जैसी आकृति नौ खाने बनाकर अलंकृत कर कोतरना । उन नौ खानोंमें १ जलकी लहर २ मछली ३ मेडक ४ मगर ५ ग्रास ६ शंख ७ सर्प ८ कुंभ और मध्यमें कूर्म कोतरना (जलचरादि जीवों और शुभ चिह्नोंको कोतरना।)२ ३-४. ૨. ૩૪ શ્રી વિશ્વકર્માએ પાષાણની ફૂમ શિલામાં લહેર, મરછ મંડૂક આદિ આઠ આકૃતિ કે તરવાનું કહ્યું છે. પરંતુ તે સ્વાભાવિક રીતે પૂર્વાદિ દિશાના કામે કોતરાવી જોઈએ. તેમ શિલ્પિઓનો કેટલોક વર્ગ માને છે. પરંતુ સુત્રધાર વીરપાલ વિરચિત બેડાયા “પ્રાસાદ તિલક' નામના ગ્રંથમાં આ આકૃતિઓ અગ્નિકોણના ક્રમથી દિશા વિદિશામાં નામ કહીને સ્પષ્ટ આપેલ છે. આ મતે પણ કેટલાક શિલ્પીઓ તેમ કરે છે. અદ્ધોની એક પરંપરા એમ માને છે કે ગમે તે દિશા હોય પણ જ્યાં દ્વાર હેય તેજ પૂર્વ માનીને દ્વારની તરફ લહેર આવવી જોઈએ. તેથી યજમાનનું કલ્યાણ થાય અને લીલા લ્હેર થાય. વૃદ્ધોની આ માન્યતાને અનુવાદક આપે છે. () કુમ શિલાનું જે માને કહ્યું હોય તે પ્રમાણુની સમચોરસ અને ૧૩ ભાગની જાડાઈની શિલા મધ્યની કરવી. પરંતુ નંદા ભદ્રાદિ અષ્ટ શિલાઓનું માન કે ભાપ આપેલું નથી પરંતું પરંપરાથી તેનું ભાન કુમશિલા જેટલી લાંબી અને લંબાઈમાં અર્ધ પહોળી અને પહોળાઈમાં અર્ધ જાડી અગર મધ્યની કૂર્મ શિલા જેટલી જાડી અષ્ટ શિલાઓ દિશા અને વિદિશામાં સ્થાપન કરવી અષ્ટ શિલાના માન માપની એ પ્રથા છે. જ્યાં માન માપ કહ્યાં ન હોય ત્યાં તે સંબંધમાં બેટા વાદ વિવાદમાં ઉતરવું નહિ. વૃદ્ધોની પરંપરાને અનુસરવું. (२) "अ' श्री विश्वकर्माने पाषाणकी कूर्मशिलामें लहर-मच्छ-मंडूक आदि आठ आकृतियाँ कोतरनेके लिये कहा है, लेकिन वह स्वाभाविकतासे पूर्वादि दिशाके क्रमसे कोतरनी चाहिये, ऐसा शिल्पीओंमें से कोई वर्ग मानता है। परंतु सूत्रधार वीरपाल विरचित बेडाया 'प्रासाद तिलक' नामके ग्रंथमें ये आकृतियाँ अग्निकोण के क्रमसे दिशा विदिशामें नाम कह कर स्पष्ट बतायी गयी हैं। इस मतके अनुसार भी कई शिल्पीयों करते हैं। वृद्धोंकी परंपरा का मत है कि कोई भी दिशा हो लेकिन जहाँ द्वार हो वही पूर्व मानी गयी है। द्वारकी तरफ लहर आनी चाहिये। इससे यजमानका कल्याण होता है और आनंद' मंगल होता है। वृद्धोंकी इस मान्यताको अनुवादक मान देता है। (ब) कूर्मशिलाका जो मान कहा हो उसके प्रमाणकी समचोरस और १/३ तीसरे भागके मोटेपनकी शिला मध्यकी करना। परंतु नंदा भद्रादि अष्ट शिलाओंका मान या माए नहीं दिया है, तो भी परंपरासे उसका मान फर्मशिलके बराबर लम्बी और लम्बाइमें आधी चौडी और चौडाईमें आधी मोटी अगर मध्यकी पूर्मशिलाके बरावर मोटी अष्ट शिलाओंको दिशा और विदिशामें स्थापन करनेके लिये कहते हैं । अष्ट शिलाके मान मापकी यह प्रथा है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूर्मशिलानिवेशन । कूर्म शिला तथा अष्ट शिला Gir ESH TEAWALLAHAN दिया आसपाधीळ अयसवाचवणे व નિત્ય /वायच्या वाम 3 उर IFP शुक्ला विनवणे अथा NEL मध्ये रियाशिला सकता भद्वारका YON नंदा पीनवर्षा सौमागिनी शुसऱ्या ARCAN Thannefitsumi अमाशंकर ओ.शियIND कूर्मशिला तथा अष्टशिला चिन्ह और वस्त्रवर्ण () મધ્યની કૂર્મશિલા અને અષ્ટ શિલાના માપથી તેનાથી પહોળી તેની ટુંક શિલાઓ કરવી. મૂળ શિલાઓ પર થોડી જગ્યા રાખીને સંપૂટની જેમ રાખીને દ્રઢ શિલા મૂકવી. મધ્યની કૂર્મશિલા પર ચાંદીને કૂમ મૂકાય છે. તેનું મા૫ અન્ય ગ્રંથમાં આપેલ છે. એક ગજે અર્ધા આંગળનું ભાન કર્યું છે. મધ્યની ફૂમશિલા મૂકી ચાંદીને ફૂમ સ્થાપન કરી તે પર નાભિનું ભૂંગળું-પાઈપ ઊભું કરવામાં આવે છે. આ નાભિ ઉપર મુખ્ય પ્રભુ બિરાજમાન થાય તેના નીચે સુધી લંબાવાય છે. जहाँ मान माप न बताये हो वहाँ उसके संबंधमें व्यर्थ वाद-विवादोंमें उतरना नहीं। परंतु वृद्धोंकी परंपराको मानना । - (क) मध्यकी कूर्मशिला और अष्टशिलाके मापसे उससे चौडी उसकी ढंक शिलायें बनाना। मूल शिलाओंके उपर थोडी जगह रखकर संपुटकी तरह रखकर ढंक शिलाको रखना। मध्यकी कूर्मशिलाके उपर चाँदीका कूर्म रखा जाता है। उसका माप अन्य ग्रंथमें दिया है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ..१०१ क्रमांक -३ A કુર્મશિલામાન મજ આ ANET - ho) AIMEENA म WA ४.---१० ५--१२ -१४ ७-१९ ८-१८ ८-२० १०-२२ २०--३२ 30---३७ ४१-४२ ५०-४७ AAR १ जापान SHANTYELIMBUM स पंचमुख-दशभूज महाविश्वकर्मा उर्व तोरण पक्षे विरालिका युक्त परिकर नीम्न-जय-मय-त्वष्टा और अपराजित (૬) કુર્મશિલા ગર્ભગૃહના મધ્યમાં પધરાવવાનું સાધારણ રીતે કહ્યું છે. પરંતુ आणवि अथमा श्री विश्वनाम मशिक्षा मारे ज्यु छ अर्ध पादे त्रिभागे वा शिलाचैव प्रतिष्यो । गलन अ भा है गहना याथा माग त्र मागे पाए शिक्षा મતિષ્ઠિત કરવી. આમ કહેવાને હેતુ છે. શિવલિંગ હોય તે મધ્યમાં પધરાવે ત્યાં કૂર્મશિલા મધ્યમાં પારાવી વિષ્ણુ આદિ દેવોના સ્થાપના વિભાગ કહ્યા છે ત્યાં તેની નીચે કૂર્મશિલા પદ્માવવી તે એમ છે. કૂર્મ શિલા પરની નાભિ બ્રહ્મરંધ્ર દેવ પ્રતિમા નીચે બરાબર આવી શકે. एक मज पर आधे बैंगुलका मान कहा है। मध्यकी कूर्मशिला रखकर चाँरीके कर्मको स्थापित कर उसके पर नाभिका भुंगला-पाईप खडा किया जाता है। और मासिके उपर मुख्य प्रभु बिराजमान हो वहाँ नीचे तक लंबाया जाता है। (ड) सामान्यतया कूर्मशिलाको गर्भगृह के मध्यमें पधरानेके लिये कहा गया है। पांच वीपार्णव ग्रंथमें श्री विश्वकर्माने कूर्मशिलाके लिये कहा है कि अर्धपादे त्रिभागेवा शिलाबैल प्रतियेत् ।' गर्भगृहके आधे भागमें या चौथे भागमें या तीसरे भागमें भी कूर्मथिलाम प्रतिष्ठित करना। इस कथनका तात्पर्य यह है कि शिवलिश हो तो मध्यमें पधरावें वहाँ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूर्मशिलानिवेशन नंदा भद्रा जयारिक्ता अजिता वा पराजिता । शुक्ला सौभागिनी चैव धरणी नवमी शिला ॥५॥ (૬) અશિલાઓ દિશા વિદિશામાં સ્થાપન કરવાની પ્રથા છે. પરંતુ અન્ય ગ્રંમાં પાંચ શિલાઓનું પણ કહ્યું છે. મધ્યની એક અને ચાર કેણમાં ફરતી એમ પાંચ આવાં પ્રમાણે છે. કેટલાક ગ્રંથમાં નવ શિલા સ્થાપન કરવાની પ્રથા વર્તમાન કાળમાં શિલ્પીમાં છે. | (w) કોઈ જોખમી કામમાં પાયો ઘસી પડે તેવા ભયસ્થાનમાં અષ્ટ શિલા પધરાવવાનું અશક્ય બને છે. ત્યારે ત્યાં દોષ ન માન જોઈએ જરૂરી મુહુર્ત કરવું. () પંચશિલા કે અષ્ટશિલામાં કોતરવાના ચિન્હો વિશે એક એ મત છે કે પ્રત્યેક शा विशिान पासोनु मे आयुध चिन्ह छतराय छे. विश्वकर्म प्रकाश अंथमा ફૂમશિલા સ્થાપન વિધાનમાં કહે છે. स्वस्वासु वाहनाक धातुजैस्ताषपात्रमै मुक्तं दाष विधि नाद्ये न्यसे गर्भ सुरालये ।। (૨) જે દેવનું મંદિર હોય તેને વાહન આયુધ શિલાઓમાં અંક્તિ કરવા શિલાઓની નીચે ઘાતુપાત્ર સર્વોષધિ સપ્ત ધાન્યાદિ પાત્રમાં ભરી મૂકવા. શિલાઓને દિપાલના વર્ણ વસ્ત્રો લપેટી નીચે કળશ, શેવાળ, કેડી, સપ્ત ધાન્ય, ચઠી, ગંગાજળ, પંચરત્નની પિોટલી, વગેરે કળશમાં મૂકી પધરાવે છે. તે નીચે ચાંદી કે ત્રાંબાના નાગ અને કાચબો પણ પધરાવવાની પ્રથા શિલ્પીઓમાં છે. कूर्मशिलाको मध्यमें पधराना । विष्णु आदि देवोंके स्थापना विभाग कहे हैं। वहाँ उसके नीचे कूर्मशिलाको पधराना योग्य है। कूर्मशिलाके उपरकी नामि ब्रह्मरंध्र देव प्रतिमाके नीचे बराबर आ सके। (इ) अष्ट शिलाओंको दिशा विदिशाओंमें स्थापन करनेकी प्रथा है। परंतु अन्य ग्रंथोंमें पाँच शिलाओंका भी कहा है। मध्यकी एक और चार कोने में फिरती इस तरह पाँच ऐसे प्रमाण हैं। अन्य ग्रंथोंमें नौ शिलाओंका प्रतिस्थापन करने की प्रथा वर्तमानकालमें शिल्पियों में है। (फ) किसी जोखमी काममें नींव टूट पड़े वैसे भयस्थानमें अष्ट शिलाओंको पधराना, अशक्य बनता है तब वहाँ दोष नहीं मानना चाहिये । आवश्यक मुहूर्त कर लेना। (ज) पंच शिला या अष्ट शिलामें कोतरनेके चिह्नोंके बारेमें एक ऐसा मत है कि प्रत्येक दिशा विदिशाके दिग्पालोंके एक आयुधका चिह्न किया जाता है। विश्वकर्मा प्रकाश' प्रथमें कूर्मशिला स्थापन विधान में कहा स्वासु वाहनाडुकं धातुजैस्ताष पात्रगै मुक्तं दाष विधिनायै न्यसे गर्भ सुरालय ।। (च) जिस देवका मंदिर हो उसके वाहभ, आयुध शिलाओंमें अंकित करना । शिलाओंके नीचे धातुपात्र सर्वांषधि सप्तधान्यादि पात्रों में भरकर रखना । शिलाओंको दिराळके वर्णके वस्त्रों लपेटकर नीचे कलश, सेवाल, कोडी, सप्त, धान्य, गंगाजल, पंचरत्नकी गदही वगैरह कलशमें रखकर पधराते हैं। उसके नीचे चाँदी या ताम्रके नाग और कूर्मको भी पधरानेकी प्रथा शिल्पियोंमें है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ ન ક - O 1std Sાતી વાહન TTS क्षीरार्णव अ. १०१ क्रमांक अ. ३ મધ્યની કૂર્મશિલાઓની ફરતી આઠ શિલાઓનાં નામ કહે છે. ૧ નંદા ૨ ભદ્રા ૩ જ્યા ૪ રીક્તા અજિતા ૬ અપરાજિતા ૭ શુકલા અને ૮ સૌભાગિની એ આઠ શિલાઓ પૂર્વાદિ પ્રદક્ષિણાએ સ્થાપના કરવી અને (૮૪ મધ્યની નવમી “ધરણી” શીલા સ્થાપન કરવી. પ मध्यकी कूर्मशिलाओंके फिरती आठ शिलाओंके नाम कहते हैं। १ नंदा २ भद्रा ३ जया ४ रिक्ता ५ अजिता ६ अपराजिता ७ शुक्ला और ८ सौभागिनी-ये आठ शिलाओंको पूर्वादि प्रदक्षिणासे स्थापन करना। और मध्यकी नौवीं 'धरणी' शिलाको भी उमा महेश युग्म तोरण विरालिकायुक्त परिकर स्थापन करना । ५. मध्ये कूर्मप्रदातव्यं रत्नालंकारसंयुतं । हेमरुप्यमयः कार्यो द्रढरुपमयो भवेत् ॥६॥ तं शिलायां पंचमांशेन कर्तव्यकूर्ममुत्तमम् । सकलालंकार संयुक्ता दिव्य पुष्पेन पूजिताम् ॥७॥ वस्त्र वैडूर्य संयुक्तं इंद्रनीकमणी स्तथा । पुष्परांग च गोमेद प्रवाल परिवेष्टितं ॥८॥ પૂર્વાદિ દિશા વિદિશાઓમાં અષ્ટ શિલા પધરાવી તેમાં મધ્યમાં નવમી ધરણી નામે શિલા કૂર્મશિલા સ્થાપન કરવી. કુર્મશિલા રત્ન અલંકારે સહિત સેના અને રૂપા સહિત દૃઢ રૂપે સ્થાપન કરે. તે કૂર્મને રત્ન અલંકારે સહિત સર્વ પ્રકારના દિવ્ય પુષ્પાદિ સામગ્રીથી પૂજન કરવું. ઉત્તમ વસ્ત્રો, વૈર્ય ઈન્દ્રનીલ મણે પદ્મરાગ ર્ગોમેદ અને પ્રવાલાદિ રત્નથી પરિષ્ટિત કરી સ્થાપના કરવી. દ––૮ ૩. કૂર્મશિલા પર ચાંદીને કૂર્મ કરવાનું પ્રમાણ અહીં શિલાના પાંચમા ભાગે કહ્યું છે. પરંતુ સૂત્ર સંતાન અપરાજિત સૂત્ર ૧૫૩ માં ધાતુના કર્મનું અને પાંપણનામ શિલાનાં પ્રમાણે સ્પષ્ટ કહ્યાં છે. ઉપર કહ્યો તે ગજે અધ આંગળને ચાંદીને કૂર્મશિલા પર વિધિથી પધરાવે. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कर्मशिलानिवेशन पूर्वादि दिशा विदिशाओंमें अष्ट शिलाओंको पधराना । उसमें मध्यमें नौवीं धरणी नामकी शिला-कूर्मशिलाको स्थापन करना । कूर्मशिला रत्नालंकारोंके सहित सोना और रुपाके सहित दृढरूपसे स्थापन करना । कूर्म शिलाका पाँचवे भागका चाँदीका उत्तम कूर्म बनाके स्थापन करना । उस कूर्मको रत्न अलंकारोंके सहित सर्व प्रकारके दिव्य पुष्पादि सामग्रीसे पूजन करना । उत्तम वस्त्रों, वैडूर्य, इन्द्रनील मणी, पद्मराग, गोमेद और प्रवालादि रत्नोंसे परिवेष्ठित कर स्थापना करना । ६-७-८. ४ नंदापूर्वे प्रदातव्यम् शिलाशेषप्रदक्षिणे । धरणी मध्ये च संस्थाप्यं यथाकर्म प्रयत्नतः ॥९॥ પ્રથમ પૂર્વમા નંદ શિલાને પધરાવવી. બાકીની સાત શિલાઓ પ્રદક્ષિણાએ પધરાવવી. મધ્યની કૂર્મશિલા ઘરણી શિલાને યથાયોગ્ય કર્મના પ્રયત્ન કરીને મધ્યમાં સ્થાપના કરવી. ૯ प्रथम पूर्वमें नंदा शिला को पधराना । बाकी सात शिलाओंको प्रदक्षिणासे पधराना । मध्यकी कूर्म धरणी शिलाको यथायोग्य कर्मके प्रयत्नसे मध्यमें स्थापन करना । ९. दिग्पालं बलिंदद्यात् दिव्यवस्रं च शिल्पिने । नारिकेल फलं दद्यात् ब्रह्मभोजं च दक्षिणा ॥१०॥ કૂર્મશિલા સ્થાપન કરતાં દિગ્ધાલાદિને બલી આપવા શિલ્પીઓને દિવ્ય વસ્ત્રાભૂષણે દેવા. બ્રહ્મભેજ જમાડી દક્ષિણ અને નાળિયેર–શ્રફળાદિ આપી સંતુષ્ઠ કરવા. ૧૦ कूर्मशिलाका स्थापन करते दिग्पालादिको बलि देना । शिल्पियोंको दिव्य वस्त्राभूषण देना । ब्रह्मभोज कराकर दक्षिणा और श्रीफलादि देकर संतुष्ट करना । १०. इतिश्री विश्वकर्माकृते क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां कूर्मशिला निवेशने शताग्रे प्रथमोऽध्याय ॥१०॥ (क्रमांक अ० ३) (३) कूर्मशिलाके पर चाँदीका कूर्म बनानेका प्रमाण यहाँ शिलाके पाँचवे भागमें कहा है, लेकिन सूत्रसंतान अपराजित सूत्र १५३ में धातुके कूर्म और पाषणके कूर्म के प्रमाण पृथक् पृथक् स्पष्ट कहे हैं । उपर बताये हुए गर्जे आधा आँगुलका चाँदीके कूर्मको मध्यकी कूर्मशिला पर विधिसे पधराना । , ૪. કૂર્મશિલા અને અષ્ટશિલામાં અંકિત કરવાનાં ચિહ્નો બાબત ગ્રંથોમાં સ્વસ્તિક આદિ ચિહ્નો કરવાનું કહે છે. - ઉત્તર ભારતના ગ્રંથમાં નવ શિલા અને પંચ શિલાઓ પણ પધરાવવાનું કહ્યું છે, ઘર કાર્યમાં પંચશિલા યોગ્ય છે. પ્રાસાદમાં નવ શિલાનું પ્રમાણ ઠીક લાગે છે. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. १०१ क्रमांक . . ઈતિશ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત કીરણ શ્રીનારદમુનિએ પૂછેલા કૂર્મશિલા નિવેશનને શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી ગુજ૨ ભાનુવાદની સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકા સાથે એકસો એકમે અધ્યાય. ૧૦૧ _इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव नारद मुनिके संवादरूप कूर्मशिला निवेशन शिल्प विशारद स्थपत्ति श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा रचित सुप्रभा नामकी भाषा टीकाका १०१ अध्याय ॥१०१॥ ( क्रमांक अ. ३) कुतूहल दो सांढ युद्ध वृषभ और हस्तियुद्ध एकमें दूसरे का मुख प्रदर्शित होता है। ભયની કૂર્મશિલા પર નાભિનું ભૂંગળું ઊભું કરવાનું નાગરાદિ શિલ્પમાં સ્પષ્ટ નથી. પરંતુ શિલ્પીઓ નાભિ ઊભી કરવાની પ્રથાને અનુસરે છે. દ્રવિડ ગ્રંથમાં આ વિષયમાં સ્પષ્ટ हेछ नामि लाली ४२वी. श्री विश्वकर्मा प्रकाश भने अग्नि पुराण भां नामि विशेने! સ્પષ્ટ ઉલ્લેખ છે. . (४) कूर्मशिला और अष्टशिलामें अंकित किये जानेवाले चिह्नोंके बारेमें अन्य ग्रंथों में स्वस्तिक आदि चिह्नों बनाने के लिये कहा है। उत्तर भारतके ग्रंथों में नौ शिला और पाँच शिलाओंको भी प्रमाण ठीक है। मध्यकी कूर्मशिलाके पर नाभिकी नाली खडी करने की प्रथाको अनुसरते हैं। द्राविड गंथोंमें इस विषयमें स्पष्ट कहते हैं कि नाभी खड़ी करना। श्री विश्वकर्मा प्रकाश और अमिपुराणमें भी नाभिके बारेमें स्पष्ट उल्लेख है। नागरादि शिल्प ग्रंथों में माली खड़ी करनेका स्पष्ट कहा नह है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ भिट्टमान क्षीराव अ० १०२-क्रमांक अ०४ श्री विश्वकर्मा उवाच एक हस्ते तु प्रासादे मिट्ट वेदाङ्गुलं भवेत् । हस्तादि पँच पर्यंत वृद्धिरेकैक मंगुलम् ॥१॥ पादोनमंगुलावृद्धि यावत्दशहस्तकम् । शताई हस्तमानेन करवृध्या गुलम् ॥२॥ - શ્રી વિશ્વકમી કહે છે. એક હાથના પ્રાસાદને ચાર આંગળ ઊંચું (જાડુ) ભિટ્ટ કરવું. બેથી પાંચ હાથનાને પ્રત્યેક હાથે એકેક આગળ અને છથી દસ આંગળાને પિણ પિણું આગળની વૃદ્ધિ કરવી. અગ્યારથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે અર્ધા અર્ધા આંગળની વૃદ્ધિ કરવી. ૧-૨. श्री विश्वकर्मा कहते हैं-एक हाथके प्रासादको चार अंगुल ऊचा (मोटा) भिट्ट करना । दोसे पाँच हाथके प्रासाद को प्रत्येक हाथ पर एक एक अंगुल और छः से दस हायके प्रासादको पौने पौने अँगुलकी वृद्धि करना । ग्यारहसे पचास हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक हाथपर आधे आधे अँगुलकी वृद्धि करना । १-२. एवं त्रिपुष्पकं चैव हस्त्रा चतुर्थाशकृत् । तृतीया च तदुर्धन कर्तव्यं तद्विचक्षणे ॥३॥ प्रथमं निर्गमें कार्य चतुर्थी शेन महामुनि । द्वितीया तृतीयांशेन तृतीयं च तत् ॥४॥ એ ભિટ્ટ પુષ્પ સમાન ઉપરાપર ત્રણ કરવા. પિતાપિતાનાથી ચેથા અંશ જડાઈમાં ઓછા રાખતા જવું એવું વિચક્ષણ બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ કરવું. હે મહામુનિ નારદજી ! પહેલા ભિટ્ટને નીકાળે તેની ઊંચાઈના ચેથા ભાગ રાખ એ રીતે બીજા અને ત્રીજા ભિટ્ટને નીકાળો રાખવે. તે ત્રીજા ભિટ્ટ ઉપર પીઠ કરવું ૩-૪. यह भिट्ट पुष्पसमान उपरपर तीन करना। अपने अपने से चौथे अंश के मोटेपनमें कम रखते जाना। ऐसा विचक्षण बुद्धिमान शिल्पीको करना चाहिये। हे महामुनि नारदजी ! पहले भिट्टका नीकाला उसकी ऊँचाई के चौथे भागमें रखना। इस तरह दूसरे और तीसरे भिट्टका नीकाला रखना। तीसरे मिट्टो पर पीठ बनाना । ३-४. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० क्षीरार्णव अ. १०२ क्रमांक अ.-४ यीशुम्यक यो मापनश्माला AGa HTTAE HDKi HD S गजपा -C.....८... आबो-कणीका-सिपी-गजयर---अयस्था ---१३--- ---- -- -- -- जाएको कखीकर ग्रासद - . . भावी .शियमी. ... भिट्ट और महापीठ प्रथमं . , भिट्टस्यार्धेन पिंडवर्णशिलोत्तमा। तत्सपिंड चार्धेन परशिलापिंडमेव च ॥५॥ * ( विशेष प्रतिक्षाणाप्रे दन्यतेन महामुनि ।) सुदृढ सजलं चूर्ण मुद्रेश्वापि हन्यते ॥६॥ पुनर्जल मुगरः च यदा द्रव्याधिकं ततः। . . . . .. तस्य मुर्चे च प्रासादं कतव्यं च महामुने ॥७॥ ..... ભિટ્ટની નીચેની વર્ણશિલા અને ખર શિલાનું પ્રમાણ અને તેની સુંદરતા કહે છે. પહેલા ભિટ્ટની દેઢી વર્ણ શિલા ની જાડાઈ રાખવી વર્ણ શિલાની જાડાઈને અર્થની ખરશિલાની જાડાઈ રાખવી. હે મહામુનિ ! વિશેષ કરીને પ્રત્યેક ઘરે મુદ્વર-મેઘરીના પ્રહારથી દઢ કરવી. ફરી પાણીથી ને મુદ્રરથી બીજા થરને પણ १६ श्यो. हे महामुनि ! ते ७५२ प्रासाहनी स्यना ४२वी.......... * पाठांतर च वग्रसामदायर महामुनि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अथ भिमान भिट्टकी नीचेकी वर्णशिलाका प्रमाण और उसकी सुहता कहते हैं। पहले भिट्टसे डेढ गुना वर्णशिलाका मोटापन रखना। उस वर्णशिलाके मोटेपन के. अर्ध भागका खरशिलाका मोटापन रखना। हे महामुनि, विशेषकर प्रत्येक स्तरों को मुद्गरके प्रहारसे दृढ करना। संपूर्ण खडीवाले पानीसे रसबस कर मुद्गरसे पीट कर उन शिलाओं को दृढ करना। हे महामुनि ! उसके ऊपर प्रासाद की रचना करना । . . . . . . इति श्री विश्वकर्मा कृते क्षीराणवे नारद पृच्छायां मिट्ट मानाधिकारे नाम .शताने द्वितियोऽध्याय ॥१०२॥ (क्रमांक अ.. ४) ઈતિ શ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત ક્ષીરાવ નારદમુનિએ પૂછેલ ભિટ્ટ મનને શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ભા ટીકા નામને એકસો એ મો અધ્યાય, इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव नारदमुनिके संवादरुप भिट्ट मानका शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर. ओघडभाई सोमपुरा के हिन्दी भाषानुवादकी सुप्रभा नामकी. भाषा टीका नामका एकसौ दूसरा अध्याय ॥१०३॥ (क्रमांक अ. ४) .. द य UNMMAR KANTV JAN CCC पानीका-प्रनालका मकरमुख Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पीठमान प्रमाण ॥ क्षीरार्णव अ० १०३-क्रमांक अ० ५ श्रो विश्वकर्मा उवाच एक हस्ते तु प्रासादे पीठंच द्वादशांगुलम् । हस्तादि पंचपर्यंत हस्ते हस्ते पंचागुलंम् ॥१॥ पँचोर्ध्व दशयावत् वृद्धि वेदाङ्गुलं भवेत् । दशोर्वे विंशपयतं हस्ते चैवाङ्गुलं त्रयं ॥२॥ विशोषटत्रिशंति कर वृध्याद्वयांगुलम् । अत उर्ध्व शतार्धन हस्ते हस्तैकमंगुलम् ॥३॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. એક હાથના પ્રાસાદને બાર આંગળનું ઊંચું પીઠ કરવું. બે થી પાંચ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે પાંચ પાંચ આંગળની વૃદ્ધિ કરતા જવું. છ થી દશ હાથ સુધીનાને પ્રત્યેક હાથે ચચાર આંગળની વૃદ્ધિ કરતા જવું. અગ્યારથી વિશ હાથ સુધીનાને પ્રત્યેક હાથે ત્રણ ત્રણ આંગળની વૃદ્ધિ કરવી. એકવીશથી છત્રીશ હાથ સુધીનાને પ્રત્યેક હાથે બબ્બે આંગળની વૃદ્ધિ કરવી. સાડત્રીસથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે એકેક सांनी वृद्धि ४२वी. १-२-3. श्री विश्वकर्मा कहते हैं। एक हाथके प्रासादको बारह हाथकी अंगुल की ऊँची पीठ करना। दो से पाँच हाथ तकके प्रासादको प्रत्वेक हाथपर पाँच पाँच अँगुल की वृद्धि करते जाना । छः से दस हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक हाथ पर तीन तीन अंगुलकी वृद्धि करना । इक्कीससे छत्तीस हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक हाथ पर एक एक अँगुल की वृद्धि करना। १-२-३. पंचमांशे ततोहीनं कन्यसंशुभ लक्षणम् । पंचमांशाधिकं चैव ज्येष्ठे तद्वविचक्षते ॥४॥ આવેલા પીઠના માનને જે પાંચમા ભાગ ઓછો કરીએ તે શુભ એવા લંક્ષાણુવાળું કનિષ્ઠ માન અને પાંચમે ભાગ અધિક કરીએ તે જ્યેષ્ઠા માન બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ જાણવું. ૪. आये हुए पीठके मानका जो पाँचवाँ भाग कम करें तो शुभ ऐसे लक्षण वाला कनिष्ठ मान और पाँचवाँ भाग अधिक करें तो ज्येष्ठा मान बुद्धिमान शिल्पियों को जानना । ४. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पीठमान प्रमाणं પીઠમાન ગજ ગજ આં १००१२ २००१७ ३-००२२ ४--१०३ ५- १०८ १ - १०१२ ७–१०१५ ८-१०२० ८-- २०० १०-२०४ २०-३०१० ३०-४०९ ४०-४०२२ ५०-५०८ दिव्यव्यापी महाभुक्तं प्रमाणं भिट्ट त्रयेण संयुक्तं महापीठं मिश्रकपीठ कर्तव्यं द्वि भट्टं चोर्ध्वयो भवेत् । भिक त्रि महायुक्ता प्रमाणं द्वयमेव च ॥ ६ ॥ - Pin ------ *----- 15 द्वयमेव च । -यासपडी। अब पीठ + नरपीठ जाडबी-कर्णा ~*~~~30 ~~~~ ~30--------- या वृक्षाण २०१६७ विमानकं ॥ ५ ॥ महापीठ - कामद पीठ और कर्णपीठ ५३ -भीह--आडेबो-फर्ता - छाथ-प्रसकामद-पीठ "प्रमाशंकर ओ. शिष्यश - ए--- ·ZIALP Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीराणव अ. १०३ क्रमांक अ. ५ एव मादि मुने कार्या पीठभेद मुनीश्वरम् । उदयं कथितं पूर्व (मतो विभागं निगद्यते।)॥७॥ હે દિવ્ય બ્રહ્મમાં વ્યાપી રહેલા મહામુનિ ! પીઠના બે પ્રમાણ છે. ત્રણ ભિટ્ટવાળું ઊંચું મહાપીઠ વિમાનાદિ જાતિને કરવું. બે ભિટ્ટ ઉપર પીઠ મિશ્રકાદિ જાતિને કરવું. વળી (નાગરાદિમાં એક કે ત્રણ ભિટ્ટ યુક્ત એમ બે પ્રમાણે કહ્યાં છે. એ રીતે હે મહામુનિ ! મેં પીઠના ભેદ કહ્યા. પીઠનું ઉદય પ્રમાણ માને તે કહ્યું. હવે પીઠના વિભાગે આગળ કહીશ. ૫-૬–૭. हे दिव्य ब्रह्ममें व्याप्त महामुनि ! पीठके दो प्रमाण हैं। तीन भिट्टवाला ऊँचा महापीठ विमानादि जातिको करना। दो भिट्टके ऊपर पीठ मिश्रकादि जातिको करना । और (नागरादि)में एक या तीन भिट्टसे युक्त-इस तरह दो प्रमाण कहते हैं। हे महामुनि, मैंने वे पीठके भेद कहे । पीठका उदय, मान कहा अब पीठके विभाग आगे बताऊँगा । ५-६-७. द्राविडं प्रासादो मानं वैराटं च अतः शृणु ।। :- मंडोवरं विंशभागं पडूभागं पीठमेव च ॥८॥ . દ્રાવિડાદિ અને વૈરાટાદિ પ્રાસાદને પીઠ ઉદય હવે કહું છું. મંડોવરની ઊંચાઈને વીશ ભાગ કરી છ ભાગના પીઠ ઉદય જાણુ. ૮. द्राविडादि और वैराटादि प्रासादका पीठ उदय अब मैं कहता हूँ। मँडोवर की ऊँचाईके बीश भागकर छः भागके पीठका उदय जानना । ८. अर्धभागे त्रिभागे वा पीठचैवं नियोजयेत् । स्थानमानाश्रयं ज्ञात्वा तत्र दोषो न विद्यते ॥९॥ - પીઠની ઊંચાઈના કહેલા માનથી અર્ધા કે ત્રીજા ભાગે પીઠની યેજના સ્થાન માનને આશ્રય જાણને કરવી. તે રીતે ઓછું કરવામાં દોષ ન જાણ. ૯. पीठके ऊँचाईके कहे हुए मानसे आधे या तीसरे भागमें पीठ की योजना स्थान मानक। आश्रय जानकर करना । इस तरह कम करनेमें दोप न जानना । (पीठके थर विभाग १०६ अध्यायमें कहा है । )९ । ૧. આવેલા પીઠમાનથી ઓછું કરવામાં દોષ નથી. આ પ્રમાણુના દાખલા ઘણું મહાપ્રસાદોમાં જોવામાં આવે છે. તારંગા દ્વારકા, શત્રુંજય મુખ્ય મંદિર વગેરે. વળી વિશાળ આયતની દેવ કુલીકાઓમાં પણ તે રીતે માનથી ઓછું પીઠ કરી શકાય છે. પીઠના થર વિભાગ અ૦ ૧૦૬ માં કહ્યા છે. (१) आये हुए पीठ मानसे कम करने में दोष नहीं है। इस प्रमाणके दृष्टाण बहुतसे महाप्रासाथोमैं देखनेमें आते हैं। तारंगा, द्वारका-शत्रुजय मुख्य मन्दिर वगैरह विशाल और आयतनोंकी देवकुलीकाओंमें भी इस तरह मानसे कम पीठ कर सकते हैं। इसमें दोष नहीं है। पीठका थरविभाग अध्याय १०६ में सविस्तर कहा है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पीठमान प्रमाण इति श्री विश्वकर्मा कृते क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां पीठ मानाधिकारे शताने तृतीयोऽध्याय ॥१०॥ (क्रमांक अ० ५) ઈતિ શ્રી વિશ્વકમ વિરચિત ક્ષીરાવ શ્રીનારદમુનિને પૂછેલ પીઠમાનનો શિલ્પ વિશારદ્ સ્થપિત શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ સુપ્રભા નામની રચેલી ટીકાને मेसी त्रीले अध्याय. (१०३) इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव वास्तुशास्त्र नारदजीके संवादरूप पीठ मानाधिकार शिल्प विशारद स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा की रची हुई सुप्रभा नामकी भाषाटीका का एकसौ तीसरा अध्याय ॥१०३।। (क्रमांक अ० ५) an । ੧੯ ਧੀ PARMARINA चहनायर अगती Reli.ओ.स्थान महापीठ साथप्रमाल और शिवनिर्माल्यका चंडनाथ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ प्रासादोदयमान॥ क्षीरार्णव अ० १०४-क्रमांक अ०६ श्री विश्वकर्मा उवाच-~ एक हस्ते तु प्रासादे त्रयस्त्रिंशद्भिरंगुलैः । द्विहस्ते उदयं कार्य द्विहस्ते सप्तांगुल ॥१॥ त्रि हस्तस्य यदामानं मधिकं पंचमांगुला । चतुर्हस्तौदयं कार्य मेकेयाधिकमंगुलम् ॥२॥ विस्तारेण समं कार्य पंचहस्तोदय भवेत् । पट हस्तोदयं कार्य न्यूनां च द्वयमंगुलम् ॥३॥ उदयं सप्त हस्तेन न्यून च सप्तमंगुलम् । अष्टहस्तोदयं कार्या पोडशांगुल हीनकम् ॥ ४॥ हीन एकोन त्रिंशस्यात् प्रासादे नवहस्तके। दश हस्तोदयं कार्य अष्टहस्त प्रमाणकम् ॥५॥ શ્રી વિશ્વકર્મા પ્રાસાદના ઉદય ઉભણીનું માન કહે છે. એક હાથના પ્રાસાદને તેત્રીશ આંગળને ઉદય કરે, બે હાથના પ્રાસાદને બે હાથ સાત આંગળને, ત્રણ હાથનાને ત્રણ હાથને પાંચ આંગળને, ચાર હાથનાને ચાર હાથને એક પ્રાસાદોદયમાન આગળ અને પાંચ હાથના પ્રાસાદને ઉદય પાંચ હાથને ગજ ગજ આં. એટલે વિસ્તાર પ્રમાણે સરખો ઉદય રાખ, છ હાથનાને છ 1-- 1. હાથમાં બે આંગળ એ છે, સાત હાથનાને સાત હાથમાં સાત २- २.७ આંગળ એ છે, આઠ હાથના પ્રાસાદને આઠ હાથમાં સોળ 3- 3.५ આગળ ઓછા (એટલે ૭ ગજને ૮ આંગળ) નવહાથમાં ५- ५.. ઓગણત્રીસ આંગળ ઓછી ઉભી રાખવી. દશ હાથના પ્રાસાદની १- ५.२२ આઠ હાથની ઉભણું રાખવી. ७-१.१७ . श्री विश्वकर्मा प्रासादके उदयका मान कहते है। एक ८-- ७.८ . &-- ७.16 हाथके प्रासाद को तेत्तीस अँगुलका उदय करना। दो हाथके १०--- ८.० प्रासादको दो हाथ सात अँगुल का तीन हाथके प्रासाद को तीन २०-१२:१२ हाथ और पाँच अँगुलका, चार हाथके प्रासाद को चार हाथ 30--१७.० ४०-२१- और एक अंगुलका और पाँच हाथके प्रासाद का उदय पाँच ५०-२५० हाथका अर्थात् विस्तार के अनुसार समान उदय रखना । छः हाथके प्रासादको छः हाथमें दो अँगुल कम, सात हाथके प्रासाद को सात हाथमें सात अँगुल कम, आठ गजके प्रासाद को सात गज आठ अँगुल, नौ हाथ के प्रासाद को नौ हाथमें उनतीस अंगुल कम उदय रखना । दस हाथके प्रासाद को आठ हाथका उदय रखना । १-२-३-४-५. .7 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાસાદયે માન ગજ આંગુલ ૧- ૧૯ —૨૭ ૩- ૩.૫ ૪— ૪૧ પુ—૧૦ ૨૨ - -- 19 2-- 9•2 - ૭૧૯ ૧૦- ૨૦ ૧૫-૧૦૬ ૨૦-૧૨-૧૨ ૨૫-૧૪૧૮ ૩૦~૧૭* ૩૫—૨૧૬ ૪૦-૨૧-૧૨ ૪૫–૨૩:૧૮ ૫૦૨૫૪ मान ---- કબ BETAIL OF FOR MANDOVAR SOMNATH TEMPLE PRABHAS PATAN सांधार मंडोवर द्वयभूमि द्वयगंधा और एक छाय SALAAMJ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१०४ क्रमांक अ.-६ सपाद दशहस्तं च प्रासादे दशपंचके । विंश हस्तोदय मान सार्द्धा द्वादशहस्तकम् ॥६॥ पंच विंशोदये प्राज्ञ पादोन दशपंचके । त्रिंश हस्ते महा प्राज्ञ उदयं च सप्तदशस्तथा ॥७॥ सपादंमेक विंशत्यां पंचत्रिंश मुनिवरम् । व्योमवेद यदां हस्त सार्द्धस्यादेकविंशतिः ॥८॥ चतुर्विंशति पादोन पंचचत्वार हस्तके । शतार्होदयं मानं तु हस्ताः स्युः पंचविंशति ॥९॥ પંદર હાથના પ્રાસાદની સવા દશ હાથની ઊભણી રાખવી વીશ હાથના ને સાડા બાર હાથની પચ્ચીસ હાથનાને પિણા પંદર હાથની, ત્રીશ હાથના પ્રાસાદની સત્તર હાથની ઊભણી રાખવી. પાંત્રીશ હાથના પ્રાસાદને હે મુનિ શ્વર ! સવા એકવીશ હાથની ઉભણી રાખવી. ચાલીશ હાથનાને સાડી એકવીશ હાથની, પિસ્તાળીશ હાથનાને પિણી ચોવીશ અને પચાસ હાથગજના પ્રાસાદની ५२-यास डायनी उभी रावी. १-७-८-८. पन्द्रह हाथके प्रासाद को सवा दस हाथका उदय रखना। बीस हाथ के प्रासादको साढे बारह हाथका, पचीस हाथ के प्रासादको पौने पंद्रह हाथका, तीस हाथके प्रासादको सत्रह हाथका उदय रखना । पैतीस हाथके प्रासादको हे मुनिश्वर सवा एकवीस हाथका उदय रखना। चालीस हाथ के प्रासाद को साढे इक्कीस हाथका उदय, पैंतालीश हाथ के प्रासादको पौने चोवीस हाथका उदय और पचास हाथ-गजके प्रासादका पच्चीस हाथका उदय रखना । ६-७-८-९. अस्योदये च कर्तव्या प्रथमे कूटछायके । यावत्समोदयं प्राज्ञ तावत्मंडोवरं स्मृतम् ॥१०॥ એ રીતે પ્રાસાદની ઉભણી પીઠ ઉપરથી છાના મથાળા સુધી ઉભણી ચતુર શિલ્પીએ રાખે છે. તે ઉભણી–ઉદયમાં મંડેવરના થર કરવા અર્થાત્ તે ઉભર્ણને મડેવર કહે છે. ૧૦. इस तरह प्रासाद का उदय पीठ परसे छजे की टोच तकका उदय चतुर शिल्पियों रखते हैं। उस उदयमें मंडोवरके स्तर करना अर्थात् उस उदय को मंडोवर कहते हैं । १०. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासादोदयमांना १ तथाद्य छाद्य संस्थाने द्वयोजघा प्रकीर्तिताः । भवेयुः द्वादशजंघा यावत्शतार्होदयं भवेत् ॥११॥ સાંધાર છંદના સંસ્થાનમાં શરૂમાં એક છજાને બે જ ઘાને મંડેવર કરે. પચાસ હાથના પ્રાસાદના ઉદયમાં બાર જંઘા સુધીને મંડોવર કર. ૧૧ - सांधार छंद के संस्थानमें शरूमें एक छजा और दो जंघाका मंडोवर करना। पचास हाथके प्रासादके उदयमें बारह जंघा तकका मंडोवर करना । ११. पविध खुटछाद्यं च द्वयोभूम्यंतरे मुनीः। भरणीकोर्ध्व भवेन्मंची छायोर्धेन मंचिका ॥१२॥ पुनः जघा प्रदातव्या यावत् द्वादश संख्यया। किंचितकिंचिद्भवेन्यूनं कर्तव्यं भूमिको छ्य । शताद्धोदेयमानेन महामेरु तथाधिकं ॥१३॥ છજા છ પ્રકારે થાય. બે ભૂમિના અંતરે અંતરે એક મંડેવર હે મુનિ, થાય. તેના થરવાળા મેરૂ મંડોવરમાં ભરણી ઉપર ફરી મચી આદિ થરે કરી છજાના ઉપર ફરી માચીને થર કરી ફરી જંઘા ચડાવવી. એ રીતે બારની સંખ્યા સુધી તેમ કરતાં જવું પ્રત્યેક ભૂમિ મજલા નીચેના મજલાથી છેડી ડી ઉભણું (બારમે અંશ) ન્યૂન કરતા જવું. પચાસ હાથ–ગજના મહામાન પ્રાસાદને મહામેરૂ કર. ૧૨-૧૩ छजा छः प्रकारसे होता है। दो भूमिके अंतर से एक मंडोवर हे मुनि होता है। उसके स्तरवाले मेरू मंडोवरमें भरणीके ऊपर फिर माची आदि स्तरों बना कर छजाके ऊपर फिर माचीका स्तर कर फिर जंघा चढाना। इस तरह बारहकी संख्या तक करते जाना । प्रत्येक भूमि-मजला नीचेके मजले से थोडा थोडा उदय (बारहवाँ अंश) न्यून करते जाना । पचास हाथ-गजके महामान के प्रासाद को महामेरू करना । १२-१३. मृदिष्टकाकर्मयुक्ता भित्तिपादा प्रकल्पयेत् । पंचमांशऽथवा सातु षष्टांशे शैलजे भवेत् ॥ १४ ॥ दारुज सप्तमांशेन सांधारे चाष्टमांशके । धातुजे रत्नजेभित्तिः प्रासादे दशमांशके ॥ १५॥ . । पाठांतर-(१) तथाद्यदग्ध-तथा छंदाधसंस्थाने (२) दशजंघाभवेत्शेषं । .... (३) द्विविध शतार्द्धच-महामान Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षोरार्णव अ. - १०४ क्रमांक अ.-६ નિરેધાર પ્રાસાદમાં માટી કે ઇંટના પ્રાસાદની ભિ ત–વિાલની જાડાઈ પ્રાસાદના ચેાથા ભાગે રાખવી પાષણના પ્રાસાદને પાંચએ કે છઠ્ઠાભાગે ભાગે ભિતા જાડી રાખવી. કાષ્ટ્રના કાર્યોમાં સાતમા ભાગે સાંધાર મહાપ્રાસાદોમાં આઠમા ભાગે અને ધાતુ અને રત્નના પ્રાસાદને પ્રાસાદના દશમા ભાગે ભિ તની જાડાઈ દિવાલ રાખવી..૧૪-૧૫ निरेधार प्रासादमें मिट्टी या ईंटके प्रासाद की दीवारका मोटापन प्रासाद के चौथे भागका रखना.। पाषाणके प्रासादको पाँचवे या छट्टे भाग में दिवारें मोटी करना । काष्टके फार्यमें सातवें भागमें-सांधार महाप्रासादों में आठवें भागमें और धातु और रत्नके प्रासादको प्रासादके दसवें भाग में दिवारका मोटापन रखना । १४-१५. इति श्री विश्वकर्मा कृते क्षीरार्णवे नारदपृच्छायां प्रासादोदय मानाधिको शताग्रे चतुर्थोऽध्याय ॥२०७॥ (क्रमांक अ० ६) ઈતિશ્રી વિશ્વકર્માં વિરચિત ક્ષીરાવ નારદ મુનીશ્વરે પૂછેલા પ્રાસાદના ઉય માનને શિલ્પ વિશારદ શ્રી પ્રભાશર આધડભાઈ સામપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ટીકાના એકસે यारमा अध्याय (१०४) इतिश्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव नारद मुनीश्वरके संवाद रूप प्रासादके उदय मानका शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाईकी रची हुई सुप्रभा नामकी भाषा टीकाका एकसौ चौथा अध्याय । १०४. क्रमांक अ० ६ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ हारमान ॥ क्षीरार्णव अ० १०५-क्रमांक अ० ७ श्री विश्वकर्मा उवाच एक हस्ते तु प्रासादे द्वारं च षोडशांगुलम् । इयं वृद्धिः प्रकर्तव्या चतुर्हस्तं यदा भवेत् ॥१॥ वेदांगुला भवेद्वृद्धि यविल्दशहस्तकम् । हस्ताविंशति मानेन हस्ते हस्ते त्रयंगुला ॥२॥ द्वयङ्गुला भवेद्यावत् प्रासादे त्रिंशहस्तके । अङ्गुलैक स्ततो वृद्धि यावत्यंचाश हस्तकम् ॥३॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. એક હાથના પ્રાસાદને સોળ આગળ ઊંચું દ્વાર કરવું તેવી રીતે ભેળસેળ આંગુલની વૃદ્ધિચાર હાથ સુધી કરવી. પાંચથી દશ હાથના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે ચાર આંગળની વૃદ્ધિ કરવી. અગ્યારથી વિશ હાથ સુધીનાને પ્રત્યેક હાથે ત્રણ ત્રણ આગળની વૃદ્ધિ કરતા જવી. એકવીશથી" ત્રીશ હાથનાને બબ્બે આગળની વૃદ્ધિ કરવી. એકત્રીસથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે એકેક આગળની વૃદ્ધિ દ્વારના ઉદય માનમાં કરવી. ૧-૨-૩, श्री विश्वकर्मा कहते हैं । एक हाथके प्रासादको सोलह अँगुल उँचा द्वार करना । इस तरह सोलह सोलह अंगुलकी वृद्धि चार हाथ तक करना । पाँचसे . दस हाथके प्रासादको प्रत्येक हाथपर चार चार अंगुलकी वृद्धि करना । ग्यारहसे बीस हाथके प्रासादको प्रत्येक हाथपर तीन तीन अंगुलकी वृद्धि करते जाना। इक्कीससे तीस हाथके प्रासादको दो दो अंगुलकी वृद्धि करना । इकतीससे पचास हाथ तककै प्रासादको प्रत्येक हाथपर एक एक अंगुलकी वृद्धि करके उदयमानमें करना । १-२-३. नागरं च मिदं द्वारं उक्तं क्षीराणवे मुने । दशभांशे यदि हीनं द्वारं स्वर्गे मनोरमे ॥४॥ अधिक दशमे प्राज्ञ प्रासादे पर्वताश्रके । ताव क्षेत्रान्तरे प्राज्ञत्वामहंवादि मुनीश्वरः ॥५॥ ઉપરોક્ત કહેલું કારમાન નાગરાદિ જાતિ છંદના પ્રાસાદનું જાણવું છે મુનિ, આ ક્ષીણુંવમાં કહ્યું છે. કહેલા માનથી જે દશમે ભાગ હીન કરવાથી Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१०५ क्रमांक अ.-७. તે સ્વર્ગમાં મનોરમ એવું દ્વાર થાય અને જે પર્વતની તલાટીએ ચતરશિલ્પીઓ કરેલા પ્રાસાદના દ્વારને દશમે ભાગ અધિક કરે તે તે શુભ જાણવું. મહર્ષિ એમાં આદિ એવા હે મુનીશ્વર, એ રીતે ક્ષેત્રાન્તર ( સ્થળાંતરાનુસાર) દ્વારમાન જાણવા. ૪-૫. ઈ ” હS - * K NOWor #ા દ્વારમાન ALL DY ગજ ગજ. કરી મારા ૧-૦૧૬ ૨-૧૮ It OCTOLORE થત ITETETTTIII નy - Em. //cloe IDS = કેર ૪૨૧૬ ૫-૨૨૦ ૭–૩૪ ise! ૯-૩૧૨ ૧૦–૩:૧૬ ૨૦–૨૨ ૩૦-પ-૧૮ ૪૦-૬૪ ૫-૬-૧૪ स्तंभ-भरणा-सरा-आंदोलक हीडोलक तोरण देवाङ्गनाओ ऊवें लक्ष्मीनारायणका गेवल प्रतोल्या प्रवेश, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वारमान उपरोक्त द्वारमान नागरादि जाति छंदके प्रासादका समझना। हे मुनि, इस क्षीरार्णव में कहे हुए मानसे जो दसवाँ भाग हीन किया जाय तो वह स्वर्गमें मनोरम असा द्वार होता है। और जो पर्वतकी तलहटीपर चतुर शिल्पीके बनाये हुए प्रासादके द्वारको दसवाँ भाग अधिक करे तो उसे शुभ जानना । महर्षीयोंमें आदि असे हे मुनीश्वर, इस तरह क्षेत्रान्तर (स्थलान्तरका सार) द्वारमान जानना । ४-५. शिवद्वारं भवेअष्ठं कन्यसं च जिनालये । मध्यमं सर्वदेवानां सर्वकल्याण कारकः ॥६॥ उत्तम उदयार्द्धन पादाधिमध्यमानक । कन्यसं चाधिकं तत्र विस्तारे द्वारमेव च ॥७॥ શિવાલયનું દ્વાર જેષ્ઠ માનનું સર્વજનમાં આલયનું કે જીનમંદિરનું દ્વાર કનિષ્ઠ માનનું અને સર્વ દેને મધ્યમાનનું કારમાન કરવાથી તે સર્વ કલ્યાણકર્તા જાણવું. જેન્ડમાનનું દ્વારના ઉદયથી અર્ધ પહેળું કરવું. મધ્યમાનના દ્વારને ચે ભાગ વધારે. અને કનિષ્ઠ માનનું દ્વાર તેથી પણ અધિક पड़ाणु म. १-७. शिवालयके द्वारको ज्येष्ठ मानका सर्वजनोंके आलयका द्वार और जीनमंदिरका द्वार कनिष्ट मानका और सर्व देवोंको मध्य मानका द्वारमान करनेसे सर्व कल्याणकर्ता समझना । ज्येष्ठ मानका द्वारके उदयसे आधा चौड़ा करना । मध्य मानके द्वारको चौथा भाग बढ़ाना । और कनिष्ठ मानका द्वार उससे भी अधिक चौडा रखना । ६-७. ____ अज्ञात्वा च यदा ज्ञात्वा यदाद्वारं च तिष्ठतः।। नागरं सर्व देवानां सर्व देवेषु * पूजितः ॥८॥ જાણે કે અજાણે કદાચ દ્વારમાનની પહોળાઈ થઈ હોય તે પણ તે સર્વ દેવેને પૂજન યેવ્ય એવું નાગરાદિ દ્વાર માન જાણવું जाने या अनजाने में कदाचित् द्वारमानकी चौडाई हुई हो तो भी उसे सर्व देवोंके लिये पूजन योग्य असा नागरादि द्वारमान समझना । ८ इतिश्री विश्वकर्माकृते क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां नागरादि प्रासाद द्वारमाना धिकारे शताये पंचमोऽध्याय ॥ २०५॥ (क्रमांक अ० ७) ઈતિશ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત ક્ષીરાણુવ નારદે પૂછેલા નાગાદિ દ્વારમાનને શિપ વિશારદ્દ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ઓધડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાનો એક સે पाय। अध्याय. १०५. मां 240 . * पाठांतर दुर्लभ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45.2#STATIS DETAIL OF DONKEY FOR GARENACEURA SOMNATH MANNE श्रीरार्णव अ. - १०५. सप्त शाखाका द्वार और अर्धचंद्र इतिश्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव नारदके संवादरूप नागरादि द्वारमानका शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुराको रची हुई सुप्रभा नामकी भाषा टीकाका एकसो पाँचवाँ अध्याय ॥ १०५ ॥ । ( क्रमांह : अ० ७ ) ७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वकर्मा उवाच ॥ अथ पीठ थर विभाग ॥ क्षीरार्णव अ० १०६ - ( क्रमांक अ० ८ ) શ્રી વિશ્વકર્મા નારદજીને કહે છે. પીઠની ઊંચાઈનું પ્રમાણ આગળ (અ. ૧૦૩માં) કહ્યું હવે પીઠના થર વિભાગ સાંભળેા પહેલા ખાર ભાગના જાડ તેના અધ નિકાળે જાડબા નીચેની પટ્ટી અઢી ભાગની તે પર અરધા ભાગને કંદ (મુખ પટ્ટી) તે ઉપરથી એક ભાગને બીજો કદ અને બાકી ઉપરના કંદ પણ એક ભાગના તેના નિકાળા પણ તેટલા જ રાખવા. સ્કંધ-ગલતા સાત ભાગના રાખવેા. એ રીતે ખાર ભાગના જાડાં પર કર્ણિકાના શાભત २२. १-२-3. श्री विश्वकर्माने नारदजीको पीठकी उँचाईका प्रमाण अ० १०३ में कहा । अब पीठके स्तर विभागके बारेमें सुनो । प्रथम बारह भागका जाडंबा - उसका अर्ध नीकाला --- जाबे के नीचेकी पट्टी ढाई भागकी, उसके पर आधे भागका कंद ( मुख पट्टी ) उसके उपरके एक भागका दूसरा कंद और बाकी उपरका कंद्र भी एक भागका, उसके नीकाले भी उतने ही रखना । स्कंध - गलता सात भागका रखना । इस तरह बारह भाग जाडवे पर कर्णिकाका ८ पीटोदये भवेत्पूर्व विभागं च अतः श्रुणु द्वादश भाग जाड्यकुंभंच अर्धवार्धकारिक ॥ १ ॥ द्वयंचसार्द्ध भवेत्कर्ण भागा मुखपट्टीका | भागमेक भवेत्कुंभं शेषंच भागोनं च भवेत्पीठं निर्गमं तय्प्रकीर्तिताः । तत्रस्कंध समकुर्यात्कर्णमाली कंदमेवच ।। २ ।। प्रशोभिता ॥ ३ ॥ !!! KAND' SKAND. KUMBH AUKHA ITT PATTIKA क LLALL जाडंबा उदय १२ भाग शोभायमान स्तर करना । १-२-३. नव भागं कुतं पिंड प्रवेशतत्रमेवच । पिंडस्य नवधाकृत्य अंतरपत्र द्विभागतः ॥ ४॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ CHIPPIkA MAM9अंधा क्षीरार्णव अ.-१०६ क्रमांक - ८ चिप्पिका साद्धभागंच निर्गमंच त्रिभागतः । अधः कंध भवभागार्द्ध कणि चत्वारि साद्धतः ॥५॥ षड्भागं निर्गमंतत्र कणि कूर्याद्विचक्षणं ।। तस्य पदं समकार्य ग्रासपट्टि च छाधके ॥६॥ (જાડંબા પર) કણીના ઘરના નવ ભાગ કરવા ANDHARTI તેને નીકાલે પણ તેટલો કરો કણીની જાડાઈના ૭ નવ ભાગમાં ઉપરની અંતર પત્ર અઢી ભાગની ચિપિકા દોઢ ભાગની ઊંચી અને તેને નીકાળે -KANT-. -: ત્રણ ભાગને રાખ કણી સાડા ચાર ભાગની તેની KANDI 33 નીચેને કંદ અર્ધા ભાગને રાખવે. કણિકાને कर्णिका अंतराल भाग ९ २ छ मानीत सुद्धिमान शिल्पीय राम.. એ રીતે કર્ણિકાના થર જેટલાજ નવ ભાગની ગ્રામપટ્ટી નીચે છાજલી (ત્રણભાગની) मुवी. ४-५-६. .. जाडंबेके पर कणीसे थरके नौ भाग करना, उसके घाटकी नीर्गम भी उतनी ही करना। कणीके मोटेपनके नौ भागमें उपरकी अंतरपत्र ढाई भागकी चिप्पिका डेढ़ भागकी उँची और उसका नीकाला तीन भागका रखना। कणी साढे चार भागकी और उसकी नीचेका कंद आधे भागका रखना । कर्णीकाका थर छः भाग निकालता बुद्धिमान शिल्पीको रखना चाहिये । इस तरह कर्णीका के थरके बराबर नौ भागकी ग्रासपट्टी की नीचे छाजली (तीन भागकी) बनाना। ४-५-६. पिंडं कुर्यात् त्रिभागेन निर्गमं त्रिणीमेवच । भागार्द्ध मुखपट्टि च पादार्ध भागमेव च ॥७॥ स्कंध स्कंध भवेन्मेकं छाधकी तत्र सिद्धयति । उपरि ग्रासपट्टिका पद द्वादशमेवच ॥ ८॥ घसिका चार्द्धभागेन भागमेकं तथार्द्धकं । पंचभागं भवेन्यासं भागैकं उदरं भवेत् ॥९॥ सार्द्ध चिप्पिका कुंभं (१) निर्गम द्वयमेव च । नव भागं ग्रासपट्टी सर्वकेवलधीमताम् ।।१०॥ इति कामदपीठ १. છાજલી કેવાળની જાડાઈ ત્રણ રાગ અને નીકાળે પણ ત્રણ ભાગને રાખવે, તેની મુખપટ્ટી અર્ધા ભાગની નીચે ઉપરનો કંદ પા પા ભાગને અને Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GRASAPAI - CHADYAX, अथ पीठथर विभाग નીચે ઉપરના રધ-ગલતી એકેક ભાગની એ રીતે ત્રણ ભાગની છાજલી કેવાળ સિદ્ધ થઈ કણ ઉપરની આખી ગ્રાસ પટ્ટી બાર ભાગમાં નવભાગની ગ્રાસ પટ્ટીમાં નીચે અર્ધાભાગની ધસી અંધારી ગ્રાસમુખ પાંચમાં ભાગમાં ગ્રાસમુખને નીકાળે એક ભાગને તેની નીચે ઉંપની પટ્ટીક એકેક ભાગની દેહભાગની ચિપિકા ઊંચી અને બે ભાગ નીકાળે ખરાથી રાખે એ રીતે ત્રણ ભાગની છાજલી અને નવભાગની પ્રાસપટ્ટી સર્વમાં કુશળ છની પટ્ટી મા ૧૨ એવા બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ ગ્રાસપટ્ટી યુક્ત (કામ) પીઠની રચના કરવી. ઇતિ કામદીઠ ૧. છાની યાત્રા મોટાપન તન મ ર નજારા મી તીન માઝા रखना । उसकी मुखपट्टी आधे भागकी, नीचे उपरका कंद पा पा भागका और नीचे उपरका स्कंध-गलती एक एक भागका, इस तरह तीन भागकी छाजलीकेवाल सिद्ध हुई। कणीके परकी सारी ग्रासपट्टी बारह भागमें नौ भागकी ग्रासपट्टीमें नीचे आधे भागकी धसी-अंधारी, ग्रास मुख पाँच भागमें ग्रास मुखका नीकाला एक भागका उसके नीचे उपरकी पट्टिका एक एक भागकी, डेढ मागकी चिप्पिका ऊँची और क्षे भाग नीकाला खरासे रखना । इस तरह तीन भागकी छाजली और नौ भागकी ग्रास पट्टी सर्वमें कुशल असे वुद्धिमान शिल्पीको पासपट्टीयुक्त (कामद) पीठकी रचना છેરના ] ૭-૮––૧૦. રૂત્તિ શામક છે. सप्तभिजाडयकुंभं च षडभिस्तु कणालिका । पंचभिग्रासपीठं च निर्गम क्रियते बुधैः । इमांसर्वाणिपीठं च सर्वे देवेषु निर्मिताम् ॥११॥ - હવે કામદ પીઠને બીજો પ્રકાર કામદપીઠ વિ. - કહે છે. સાત ભાગને જાડેબ છે ૭ જાડંબો ૬ કણ ભાગની કણી અને પાંચ ભાગની ગ્રાળ પટ્ટી અને તેનો નીકાળે શિલ્પી એ ૧૮ બુદ્ધિ પૂર્વક (ાત માન પ્રમાણે) રાખવે. એ રીતના વિભાગના સર્વ પીઠનું સર્વ વામા -માન ૧૮ ઝાર (૨) દેવાના પ્રાસાદને નિર્માણ કરવું. ૧૧ ઇતિ કામદપીડ ૨. APATIKANALIKANADYAKUMAH KAMADAPITH Pરી ૫ ચાસજી મા Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 KA MITSUBISIBOBBLI - In पा - महापीठ-कामदपीठ और कर्णपीठ ---जाबो-कर्णी+ मासयही+मपी-+मरथीमाबो------- ---- --१२-4 -10-- -----... ---- भाग आणे अ०१३ -* - - - - - - - - - -३२-- -- -- - - प्रासादका निर्माण करना । ११. इति कामदपीठ २. पूर्वक स्थान मानके अनुसार रखना । इस तरहके विभाग सर्वपीठके सर्व देवोंके भागकी कणी और पाँच भागकी ग्रासपट्टी और उसका नीकाला शिल्पीको बुद्धि अब कामद पीठका दूसरा प्रकार कहते हैं सात भागका जाडंबा छः क्षीरार्णव अ.-१०६ क्रमांक अ.-८ - भार.ओ. Naut -आलोक FitT-HABAR - . - - - - -- - ..... Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NARAPITRI * NARADITH.12.1711117137 1 PATTI अर्थ पीठथर विभाग नरपीठ द्वादश भागं सर्वतिमतोपरिद्वय (१) सार्द्धमधयसंस्थाने द्विसार्द्धश्चम्वनः ॥१२॥ सप्तभागे नरंकार्य मध्य स्थाने मुनीश्वरः । अधाकंदभागं च भागमेकं च पट्टिका ॥ १३ ॥ निर्गमं पद सार्द्ध च वायपट्टि च भागतः । तत्परि मानवाकार्या सप्तभाग समन्विता ॥ १४ ।। इमं आद्यपीठं च सर्वतोन्तर संयुत । कर्तव्यं सर्व वर्णानि नित्य कल्याण कारकम् ।। १५॥ (કામદ પીઠ કહ્યા પછી હવે મહાપીઠના થશે કહે છે CHRINE નરપીઠ, બાર ભાગનું પીઠના સર્વથી ઉપરના ભાગમાં કરવું હે મુનીશ્વર, નીચે દઢ ભાગને કંદ ઉપર અઢી ભાગની ચિપિકા ઉપર કરવી છે મુનીશ્વર, મધ્યમાં સાત ભાગમાં નર-મનુષ્ય દેવ રૂપે કરવાં. નીચે એક ભાગની કંદ વાય વાય પટ્ટીકા ઘેઢ ભાગ નીકાળે કરવી. (કુલ બાર ભાગ) એ રીતે TKANDIE સર્વેની ઉપર નર આકૃતિ સાથેનું નરપીઠ જાણવું તે સર્વ દેવ नरपीठ भाग ३२ पनि वाथी भेश यारी शु१३-१४-१५. कामदपीठके बाद अब महापाटके थरके बारेमें कहते हैं। नरपीठ बारह भागका पीठके सबसे उपरके भागमें करना । हे मुनीश्वर ! नीचे डेढ भागका कंद उपर ढाई भागकी चिप्पिका करना । हे मुनीश्वर, मध्यमें सात भागमें नरमनुष्य देव के रूप करना | नीचे एक भागकी कंद वायपट्टीका अंधारी करना । (कुल बारह भाग) देढ भागका नीकाला करना । इस तरह सर्वके उपर नर आकृति के साथका नरपीठ जानना । वह सर्व देववर्णों को करनेसे हमेशा कल्याणकारी जानना । १२-१३-१४-१५. उत्सार्य नरपीठं च काजिपीठं निवेशितम् । अष्टादश भवेत्मागं कर्तव्यं शास्त्र पारगैः ।। १६ ॥ अधः स्कंध सपादोन सपादं पट्टिका बुधैः । बाजि पट्टि अधोर्ध्व भागे निर्गमं च द्विभागत् ॥१७॥ अधः सार्द्धतरपत्र उर्ध्व चिप्पिकात्रय । नवभागे वाजिरूप एते मश्वपीकम् ॥ १८ ॥ નરપીઠ નીચે અધપીઠ અઢારભાગનું કરવાનું શિ૯પ શાસ્ત્રના પારંગતાએ કહ્યું છે. નીચે સવા ભાગને સ્કંધ, સવા ભાગની પટ્ટી, અશ્વરૂપ નીચે Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१०६ क्रमांक अ.-४ CHIPPIKA PATTI 3 ' 3 || _PART HoRy | -ASHYAPITH 19 20 ---- PATTIKAN SKAND ઉપર એકેક ભાગની પટ્ટી તે બે ભાગ નીકળતી કરવી. નીચે દોઢ ભાગની અંધારી અને ઉપર ત્રણ ભાગની ચિપિકા કરવી. નવ ભાગમાં અશ્વના સ્વરૂપે જેર મડદાર કરવા. એ રીતે અઢાર ભાગનું અધપીઠ જાણવું. ૧૬-૧૭–૧૮ ...नरपीठके नीचे अश्वपीठ अठारह भागका करनेका शिल्पशास्त्रके पारंगतोंने कहा है । नीचे सवा भागका स्कंद, सवा भागकी पट्टी, अश्वरूप नीचे उपर एकएक भागकी पट्टीको दो भाग नीकलती करना, नीचे 1 ANTARJTRAખ્ય = હે માનવદી વધારે ગૌ ૩૫૪ તીન માપી વિIિ अश्वपीठ करना । नौ भागमें अश्वके स्वरूप जोर मरोडदार વારતા . ફૂલ તર માર મારા અશ્વપદ નાનના ૨૬-૬૭-૬૮. મિહાપીઠ થર વિભાગ જાડું कुंजरं द्वाविंश भाग अधोभागं च निर्गमे । ૧૨ કણી અંતઃ ૯ गज चत्वारि निष्काशं पट्टिका त्रिणिमेव च ॥ १९ ॥ ત્રિાસદજી ૧૨ ગજપીઠ ૨૨ पिंडं त्रिभागमुत्सेधं पदमेकं वाय पट्टिका । અશ્વપીઠ ૧૮ (उर्ध्व चिप्पित्रय भागाकॊदये गजरूपकम् ) ॥ २० ॥ નરપીઠ ૧૨ गजपीठोपरंदद्यात नरपीठं च पूर्वत । કુલ ભાગ ૮૫ અધપીઠથી નીચેના ભાગે નીકળતું ગજપીઠ બાવીશ ભાગનું કરવું. ચાર ભાગના નીકળતા હાથીનાં સ્વરૂપ કરવાં. તેની નીચે ઉપર ૧ + ના ભાગની એમ ત્રણ ભાગની પટ્ટિકાઓ કરવી. નીચે ત્રણ ભાગ ઊંચી ચિપિકા તે તેની એક ભાગની વાયપટ્ટિકા (અંતર પત્ર) કરવી. ઉપર ત્રણ ભાગની ચિયિકા કરવી. હસ્તિના સ્વરૂપો બાર ભાગ ઉદયમાં કરવા. એ રીતે બાવીશ ભાગ ઉદયનું ગજપીઠ જાણવું–ગજપીઠ ઉપર સીધું આગળ કહ્યું તેવું પણ મૂકી શકાય. ૧૮-૨૦ SCHIPPI अश्वपीठसे नीचेके भागमें नीकलता हुआ गजपीठ । વાર મા ના જાર મા ની ઋતે હુવે છે ANTARP[ATRI , स्वरूप करना । इसके नीचे उपर १३ + १३ भागकी गजपीठ विभाग २२ Rip Me kitter PATTI 1.3. 15+ ELEPHANT 12 PART 1 E-GAJA DI TA. PAR1 2 3 જ મોટી- PATTI KA Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंध पीठथर विभाग इस तरह तीन भागकी पट्टिकाों करना। नीचे तीन भाग ऊँची चिप्पिको, उसके नीचे एक भागकी वायपट्टिका (अंतरपत्र) करना । उपर तीन भागकी चिप्पिको करना | हस्तिके स्वरूप बारह भाग उदयमें करना । इस तरह बाइस भाग उदयका गजपीठ जानना । गजपीठके उपर सीधे पूर्वोक्त नरपीठको भी रखा जाता है। १९-२०. गजस्य नरमध्यायमश्वपीठं त्रयोदशं (१) ।। २१ ॥ पक्षान्तरे गजसंस्थाने अधो वा उर्ध्वमेवच । तत्रांतर हयो कार्य वाजिरूपं च सप्तमिः । निर्गमं द्वय भागं द्वयं वयमिहोवच ॥ २२ ।। ગજપીઠ અને નીરપીઠની મધ્યમાં અપીઠ તેર ભાગનું કરવું. પક્ષાન્તરે ગજપીઠ કઈમાં ન પણ થાય તેના બદલે અશ્વને નર પીઠ થાય. તે અશ્વપીઠમાં અશ્વના સ્વરૂપે સાત ભાગનાં અને બે ભાગને નીકળતા કરવા ૨૧-૨૨ ઇતિ મહાપીઠ. गजपीठ और नरपीठके मध्यमें अश्वपीठ तेरह भागका करना । पक्षान्तरसे गजपीठ क्रिसीमें नहीं भी होता है। उसके बदले अश्व और नरपीठ होता है । उस अश्वपीठमें अश्वके स्वरूप सात भागके और दो भागके नीकलते करना २१-२२ इति महापीठ । विश्वांश ग्रासपीठ मेकादशस्तुकणिका । चतुर्दश जाडयकुंभ नवम भागपीठकम् ।। २३॥ મહાપીઠ થર વિભાગ ગ્રાસપીઠ તેર ભાગનું કણી અગીયાર ભાગની અને ! १४ કણી અંતઃ ૧૧ જાડું ચૌદ ભાગને મળી કુલ ૯૦ ભાગની મહાપીઠ જાણવું. ગ્રાસદજી ૧૩ (૧૨ નરપીડ ૧૮ અધપીઠ ૨૨ ગજપીઠ ૧૩ ગાયપટી ૧૧ माया: २२ અશ્વપાઠ ૧૮ કણકા ૧૪ જાડેબ-કુલ ૯૦ ભાગ) ૨૩. न२५ १२ ग्रासपीठ तेरह भागका-कणी ग्यारह भागकी और जाडंबा १२८० चौदह भागका मिलकर कुल ९० भागकी महापीठ जानना । (नरपीठ १२ अश्वपीठ १८ गजपीठ २२ ग्रासपीठ १२ कर्णिका ९१ जोडघा १४ कुल ९० भाग)-२३. हयव्यानं घरापीठ धराधरं हयैर्युत । पृथ्वीपति कर्तव्यं वाजिपीठं च नान्यथा ॥ २४ ॥ પ્રાસાદમાંના સ્થાપિત દેવનું વાહન શિવને વૃષભ સૂર્યને અશ્વ બ્રહ્માને હંસ દેવીને વ્યાઘ કે સિંહ તેમ પીડમાં કરવા એ રીતે અશ્વ કે વ્યાઘનાં રૂપે Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. १०६ क्रमांक अ.८ પીમાં કરવાં રાજાને અશ્વયુક્ત પીઠ કરવું. પૃથ્વી પતિ (ચક્રવતી) ને અશ્વપીઠ કરવું બીજા નાના રાજાને બીજું કાંઈ ન કરવું. * of KARTE HTTAMANG AE . . Disapanis TA M AN ELEVATION .. . भीट्ट-गज, अश्व, नरपीठ साथका अलंकृत महापीठ ... प्रासादमें स्थापित देवका वाहन, शिवको वृषभ, सूर्यको अश्व, ब्रह्माको हंस, देवीको व्याघ्र या सिंह पीठमें करना। इस तरह अश्व या व्याघ्र के रूप पीठमें करना। राजाको अश्वयुक्त पीठ करना । पृथ्वीपति (चक्रवर्ती)को अश्वपीठ करना । दूसरे छोटे छोटे राजाको दूसरा कुछ भी नहीं करना ।२४ * इति श्री विश्वकर्माकृते क्षीरार्णवे नारद पृच्छाया पीठथर विभाग नाम शताप्रेड षष्ठमोऽध्याय ॥ १०६॥ (क्रमांक अ० ८) તે જ દીપાવમાં પીના જુદા જુદા પ્રકારે બહુ સવિસ્તર કહેલા છે. અપરાજિત સૂત્ર Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RUEII बेलुर के कलापूर्ण मंदिर के हस्त-अश्गज सिंहयुक्त और देवस्वरुपयुक्त मंडोवर की जंघा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेंच्युरी रेयोन बीरलाजी कल्याण मंदिरकी चतुष्किका में मंदिर निर्माता श्री प्रभाशंकरजी श्रीमती और श्रीमान श्रीगोपाल नेवटीयाजी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अथ पीठथर विभाग ઈતિ શ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત હીરાણુ શ્રીનારદ મુનિશ્વરે પૂછેલ પીઠ થર વિભાગ લહાણને શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી ગુર્જર ભાષાની સુપ્રભા નામની ટીકાને એકસો છે કે અધ્યાયે. ૧૦૬ ક્રમાંક ૪૦ ૮. इतिश्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णवमें नारदमुनिश्वरके संवादरूप पीठ थर विभाग लक्षण का शिल्यविशारद स्थपति श्री प्रभादांकर ओघडभाई सोमपुरा रचिता सुप्रभा नामकी भाषाटीका का १०६ वा अध्याय ।। (क्रमांक अ० ८) , माघी चढनाथ 10.. अगली महापीठ साथप्रमाल और शिवनिर्माल्यका चंडनाथ સંતાનતાં ફક્ત એક જ મહાપીઠ થર વિભાગનું પાઠ આપેલા છે. વૃક્ષામાં પીઠ જુદાં જુદાં કહ્યાં છે. પ્રાસાદના પ્રમાણથી પીઠ કરવું જોઈએ તે ખરું પરંતુ કેટલીક વખત સ્થાન માન કે દ્રવ્ય ભાવ જોઈ ને નાનું પ્રમાણ લેવામાં દોષ કહ્યો નથી. પીઠ માનથી અધું કે ત્રીજો ભાગે કરી શકાય. આવન જીનાલય સહસ્ત્રલિંગ કે ચોસઠ જોગણીની દેવફુલીકાની પંક્તિમાં તેમ ઓછું પીઠ કરવામાં દોષ નથી. વૃક્ષાણુ ઉર ૧૪૭ માં સજ્જ પોન વી कूर्याद्विचक्षण में प्रमाण भणे. ते १२भतने समय - सापे. (१) दीपार्णधमें पीठके भिन्न भिन्न प्रकार बहुत विस्तार से कहे गए हैं। अपराजित सूत्रसंतानमें सिर्फ एक ही महापीठके थर-विभागका आये हुए हैं। वृक्षार्णवमें पीठ अलग अलग कहे गए हैं । प्रासाद के प्रमाणसे पट करना चाहिए, यह ठीक है लेकिन कई बार स्थान . भान या द्रव्य भाव देखकर छोटा प्रमाण लेनमें दोष नहीं कहा है । अर्ब भागे त्रिभागे वा पीठंचैव नियोजयेत् स्थान मानाश्रयं ज्ञात्वा तत्रदोषो न दीयते । आधे या तीसरे भागमें पीठ हो सकती है। बावन जिनालय, सकसलिंगा या चौसठ योगिनीकी देवकुलिका की पंक्ति में का पीट करने में दोष नहीं है। वृक्षार्णव अ० १३७ में प्रासादस्य षडोशेन पाई कुर्याद्विचक्षण 'का प्रमाण है । यह इस मतको कुछ समर्थन देता है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ मंडोवर थर विभाग ॥ क्षीगणच अ० १०७ क्रमांक अ० ९ विश्वकर्मा उवाच - पूर्वोदयोक्ता अतः प्रवक्ष्यामि मंडोवरम् । खुरकः पंच भागस्या द्विशतिकुं भकस्तथा ॥१॥ कलशाष्टौ द्विसाई तु कर्तव्यमंतरालकम् । कपोतिकाष्टौ मंची स्यात् कर्तव्य नवभागिकाः॥२॥ पंच त्रिंशत्पदा जंघा तिथ्यंशैरुङ्गमो भवेत् । वसुभि भरणी कार्या शिरावटी दशांशीका ॥३॥ अष्टांशो; कपोतालि द्विसाई मन्तरालकम् । छाद्यं त्रयोदशांशोच्च दश भार्गेविनिर्गमः ॥ ४॥ . इति नागरादि मंडोवर भाग ॥१४४॥ પ્રાસાદના ઉદયનું પ્રમાણ આગળ (અ) ૧૦૪ માં કહ્યું હવે તે ૧૪૪ ભાગને નાગરાદિ, મડેવર કહું છું. ખરે પાંચ ભાગ, કુંભે વીસ ભાગને, કળશે આઠ ભાગને અંધારી અઢી ભાગની, કેવાળ આઠ ભાગને, માચી નવ ભાગની, જધા પાંત્રીસ ભાગની દેઢીયાં પંદર ભાગની, ભરણુ આઠ ભાગની, શિરાવટી દશ ભાગની ઉપરને મહા કેવાળ આઠ ભાગન, અઢી ભાગની આંતરાળ, અને છજું તેર ભાગ ઊંચું અને દશ ભાગ નીકળતું કરવું તે રીતે નાગરાદિ મંડેવર ૧૪૪ વિભાગને જાણ. (હવે સાંધાર પ્રાસાદને ચગ્ય બે ત્રણ ભૂમિકાને મેરૂમડેવર કહે છે.) ૧ થી ૪ । प्रासादके उदयका प्रमाण आगे (अ. १०४ में ) कहा। अब (यह १४४ भागका नागरादि) मंडोवर कहता हूँ। खरा पाँच भागका, कुंभा वीश भागका, कलशा आठ भागका, अंधारी टाई भागकी, केवल आट भागका, माची नौ भागकी, जंधा पैंतीश भागकी, दोढिया पन्द्रह भागका, भरणी आठ भागकी, शिरावटी दस भागकी, अपरका महा केवाल आठ भागका, ढाई भागकी अंतराल और छज्जा तेरह भागका ऊँचा और दस भाग गीकलता करना। इस तरह नागरादि मंडोवर १४४ विभागका जानना । (अब सांधार प्रासादके योग्य दोतीन भूमिका का मेरुमंडोवर कहते हैं ।) १-२-३-४ इति नागरादि मंडोवर याग ॥१४४॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांधार महाप्रासाद तलतर्शन निरंधारप्रासाद तलदर्शन अथ मंडोवर विभाग Mer Save शुभमकुम सांधा महाप्रसाद जाद bhayata Sh ७५ साद सांधार महाप्रासाद और निरंधार प्रासादका स्वरूप तलदर्शन मेरुमंडोवरे मंत्री भरण्यर्थेऽष्ट भागिका । पंच विंशतिका जंघा उद्धव त्रयोदशः ॥ ५ ॥ अष्टांशा भरणी शेषं पूर्ववत्कल्पयेत्सुधीः । सप्त भागा भवेन्मंची खुटछाद्यस्य मस्तके ॥ ६ ॥ पोडशांशा पुनर्जघा भरणी सप्त भागिका । शिरावटी चतुर्भागा पट्टः स्यात्पंचभागिकाः ॥ ५ ॥ सूर्याशे खूटछाद्यं च सर्वकामफलप्रदम् । આગળ નાગર મંડોવર ૧૪૪ ભાગના કહ્યો. પર ંતુો એ ત્રણ ભૂમિના મેરૂમ ડાવરની રચના કરવી હાય તો આગળ કહેલા. ભરણી સુધીના નવ થરનાવિભાગ ૧૧૦ના ઉપર બીજી ભૂમિના ઘરવાળા કહે છે. ભરણી ઉપર આઠ ભાગની માચી પચ્ચીસ ભાગની જંઘા, તેર ભાગને દેઢિયા, આઠ ભાગની ભરણી અને તે ઉપર આગળ બ્લેક ત્રીજાથી કહેલા થરે ફરી ચડાવવા એટલે દશભાર શિરા વટી, આઠ હમમતા વાળ બી વર્ગની સ્ત્ર તરા અને તેર ભાગનું છત્તું અમ મળી તે ૮ાા ભાગ થયા. એટલે ૧૧૦ના + ૮ા = ૧૯૮ ભાગ બીજી ભૂમિ સુધીની ઉભણી જાણવી, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१०७ क्रमांक अ.-२ भीट्ट पृथक् पृथक् मंडोवर-अन्दरका-स्तम्भ का समन्वय साथ सांधार प्रसादका मंडोवर १०८ भागका मंडोवर १६९ भागका मंडोवर मेरु मंडोवर ७ भागका मंडोवर LTHLEE M -मंडाका INDE TFT L BAMR RECE - IPATitanjali - भाग CBRAN मी नोमी N dkann RAS EILL -- - Phal - ELRON -- The ilar व मेवर घ भीष्ट-१ १४५ भागका मंडोवर २ मेरु मंडोवर १०८ भागका मंडोवर १६९ भागका मंडोवर હવે ત્રીજી ભૂમિના ભાગ મહામંડેવરના કહે છે. છજા પર ફરી સાત ભાગની માચી, સોળ ભાગની જંધા, સાત ભાગની ભરણી, ચાર ભાગની શિરાવટ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ अथ मंडोवर थर विभाग તથા પાંચ ભાગને પટ્ટ તે ઉપર બાર ભાગનું છજું કરવું. (એ ત્રણ ભૂમિઉદયને બે છાઘવાળ) મહામડેવર સર્વ કામનાને ફળદાતા જાણે, પ-૬-૭ ___ आगे नागरादि मंडोवर १४४ भागका कहा, लेकिन जो दो-तीन भूमिके मेंरू मंडोवर की रचना करनी हो तो आगे कहे हुये भरणी तक के नौ थरके विभाग ११०॥ ऊपर दूसरी भूमिके थरवाले कहते है। ખરે ૫ भरणीके पर आठ भागकी माची, पच्चीस भाग ला २० की जंघा तेरह भागका दोडिया, आठ भागकी भरणी, अशी ८ और उसके पर आगे श्लोक तीसरसे कहे हुए थर फिर અંતરાળ ૨ા चड़ाना । अर्थात् दस भाग शिरायटी, आठ भागके महावाल केवाल, ढाई भागका अंतराल और तेरह भागका छज्जाજંધા ૩૫ ये मिलकर ८७॥ भाग हुए। इससे ११०१।+८७-१९८ ઉગમ ૧૫ भाग हुए। दूसरी भूमि तकका उदय जानना । ભરણી ૮ अब तीसरी भूमिके भाग महामंडोवर के कहते શીરાવટી ૧૦ ૧૧ हैं। छज्जे पर फिर सात भागकी माची, सोलह भागकी મહાકેવાલ ૮ ૮ મંચિકા जंघा, सात भागकी भरणी, चार भागकी शिराघट तथा અંતરાળ રા ૨૫ જંધા ७०० 13 13 हम पाच भागक पट्ट, उसके पर बारह भागका छज्जा करना । भरली असे (तीन भूमि उदय के दो छायवाले) महा मंडोवरको 1४४ १० शी।वटी सर्वकामना और फलके दाता जानना । ५-६-७. ૮ મહાકવાળ २॥ अत॥ कुंभकस्य युगांशेन स्थावसणां प्रवेशकं ॥८॥ 139 इति मेरु मंडोवर ૧૯૮ ૭ માચી, મંડેવરના કુંભા આદિ થર (છજા સિવાયના ૧૬ અંધા ઓળંભે કરવા. તે થરના ઘાટની ઊંડાઈ ચાર ભાગ ૭ ભરણી સુધી રાખવી. ૮ ૪ શીરાવટ कुंभा आदि थर (छज्जेके सिवा) ओलंभे पर करना। १२ 29 उन थरोंक घाटकी गहराई चार भाग तककी रखना ८. મહામેરૂ મં૦ ૨૪૯ इति मेरु मंडोवर भाग २४९ । पुनः दधाभवेत्बंधामंन्चिका स्वमानकधाः । खुरकं 'स्थरखुटछाध निर्गमं पीठ मध्यतः ॥९॥ ઉપર ભૂમિ કરવાને ફરી જંઘા ચડાવવાને માચીને થર પિતાના માનથી ભાગે ચડાવવા. ખરા આદિ રે ઓળભે સ્થિર અને ઉપરનું છજુ પીથી કાંઈક નમતું કરવું. ૯. ऊपर भूमि करनेके लिये, फिर जंघा चढाने के लिये, माचीका थर अपने मानके भागमें चढाना । खरा आदि थरोंको ओलंभेपर स्थिर रखना और ऊपरका छज्जा ठसे 'कुछ निकलता करना । ९. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 सांधार - महाप्रासाद का दो जंधायुक्ता अलंकृत --मेरुमंडोवर Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KUMJHAR AMANIBANOR म PARTPH .........15... २६ . - भथ मंडोवर थर विभाग अब २०६ भागका मंडोवर कहते है खुरकं पंचभागस्यात् कुंभकं षट्विंशतिः । मणिबंध प्रकर्तव्या भागस्यादश पंचके ॥१०॥ त्रयोदश्यात्परे भागे विभागंच समो मुनि। . खुरकंऽमराकारं कुंभांते पल्लवाकृति ॥११॥ હવે અન્ય મંડોવરના થરના ઘાટ સાથે કે ૨૦૬ ભાગને કહે છે. ખરે પાંચ ભાગનો કુંભે છવ્વીસ ભાગને તેને મણુબંધ પંદરમે ભાગે કરવા તે હે મુનિ તેર ભાગ ઉપર કરવા () ખરામાં ડમરૂની છે કે મરક્ત-મતીની જાલરની આકૃતિ કરવી અને કુંભામાં ખૂણે ખૂણે પાંદડાની સુંદર આકૃતિ કરવી. १०-११. - अब अन्य मंडोवर के घर के घाट के साथ २०६ भागका कहते हैं। खरा पाँच भागका, कुंभा छब्बीस भागका, उसको मणिबंध पन्द्रहवें भागमें करना । हे मुनि, तेरह भाग ऊपर करना । खरेमें डमरु की या मरकत की झालर की आकृति करना । और कुंभामें खुरक पाँच भाग ऊपर कोने कोने में पत्र की सुन्दर आकृति करना । कुंभक भाग २६ कलशं च द्वादश भागं अंतरपत्रंतुवेदभिः । भागैकं प्रतिकंदश्च अध: कंदच भागत् ॥१२॥ येक भागं तु षट्कार्य निर्गमपट्मेवच । द्वादशश्व कपोताली गर्भकर्ण द्विसाईकं ॥१३।। कंदस्य भागमेकेन अधः चैतत्सम भवेत् । मुखपट्टि भवेद्विभिः शेष: स्कंधद्वयं भवेत् ॥१४॥ કાશે બાર ભાગને, અંતરાળ ચાર ભાગની, i xAND शान से भागने। प्रति ५२ ४२वो अन कलशा भाग १२ अंतरपत्र भाग नीये मे भागने ४६ ४२वी. मे. मागनी AM ઉપર કરવી. કળશે નવ ભાગને (કળશને મણીબંધ મોતીની કરવી) અને કળશને નીકાળ છ ભાગ (અંતરાળથી), રાખ, ... - DAMARAHI KHURAKTI مسلسلنا ANTA CHRDPIKA.R PART411 | PATR || RT-KACASH PARTIZAM Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न Rel12 PREYAL.12 केपाल १२.४ KANDA SKAND DISEX LE क्षीरार्णव भ.-१०७. क्रमांक श.-१. वाण मार मागनी तमा क्यनी भुमपट्टी .......-6 वर અઢી ભાગની, નીચે-ઉપરનો કંદ એકેક ભાગને, મધ્યની મુખપટ્ટી પાસેના બેઉ કંદ એકેક એમ બે ભાગના અને બાકી પિણા ત્રણ પિણ ત્રણ te on MUKHAPATTI ભાગના બે નીચે ઉપરના સ્કંધ-ગલતા કરવા એ રીતે કેવાળને બાર ભાગને ઘાટ જાણવે. १२-१३-१४, केवाल भाग १२ ... कलशा बारह भागका, अंतराल चार भागकी, कलशा को एक भागका प्रतिकंद ऊपर करना और नीचे एक भागका कंद करना। एक भागकी चिप्पिका ऊपर करना । कलशा नौ भागका करना । (कलशेमें मणिबंध मोतीकी करना) जौर कलशेका निकाला छः भागका (अंतरालसे) रखना । केवाल बारह भागका, उसमें मध्यकी मुखपट्टी ढाई भागकी, नीचे अपरका कंद एक एक भागका । मध्यकी मुखपट्टी को पासके दोनों कंद एक एक भाग असे दो भागके और बाकी पौने तीन भागके दो नीचे ऊपरके स्कंधगलते करना । इस तरह केवालका घाट १२ भागका समझना । १२-१३-१४. अंतरंच द्विभार्गच (?) द्वादशमंचिकोत्तमा । प्रवेशंच साश्चतुर्थ स्कंध परिमस्तके ॥१५॥ कर्ण च द्वय भागानि घसिका पदपट्टिका । तत्सम प्रतिकंधश्च पदभागं च पट्टिका ॥१६॥ कर्ण पट्टी द्वयं भाग मुखपट्टि पदं भवेत् । अधः कंदं भवेद्भागं शेषेच स्कंध द्वयम् ॥१७॥ બાર ભાગની માચીના થરમાં ઉપર કણીયેથી સાડાચાર ભાગ પ્રવેશ (ઘાટની ઊંડાઈથી નીકળે IPRATIKAND રાખવો. કણી બે ભાગની ઘસીકા-કંદ પટ્ટી એક બાગની તેટલે પ્રતિકંદ ઉપરને એક ભાગને, કર્ણપટ્ટી–મુખપટ્ટી બે ભાગની કરવી. મુખપટ્ટીની બાજુમાં કંદ અરધા અરધા ભાગના કરવા. નીચેને WO SIKAND VI કંદ એક ભાગને બાકીના સાડાપાંચ ભાગમાં બે मंचिका १२ भाग સ્કંધ (ગલતા) નીચે ઉપરના કરવા (નીચેને મોટા -KARN GHASIKA - - - - - MUKHAPATTI 1-211111-2-1-2-1-3--11 F-MANCHI KA12 पचिका १२ MASHAND Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमनाथ के प्रवित्र महाप्रासाद उत्तरभद्र महापीठ कक्षासन और स्तंभ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमनाथ के प्राचिन भव्यमहाप्रासाद के नर अश्व गज थरयुक्त महापीठ और द्वयजंघायुत मंडोवर Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- अथ मंडोवर थर विभाग ઉપરને નાને) એ રીતે બાર ભાગના માચીના થરના ઘાટના વિભાગ જાણવા. १५-१६-१७. बारह भागकी माचीके थर में ऊपर कीसे साढे चार भाग प्रवेश (घाट की गहराई से) निक ला रखना । कणी दो भाग को, घसीका कंदपट्टी एक भागकी, उतना प्रतिकंद उपर का एक भागका, कर्णपट्टी-मुखपट्टी दो भागी करना । मुखपट्टी को बाजुमें कंद आधे आधे भागके करना । नीचेका कंद एक भाग का, बाकी साढे पाँच भागमें दो स्कंध (गलते) नीचे ऊपरके करना । (नीचेका मोटा, ऊपरका छोटा) इस तरह बारह भागके माचीके थरके घाट के विभाग जानना । १५-१३-१७. पदषष्टि भवेत्जंघा लोकपालस्य निर्गतः । दिग्पाल भ्रमंतस्य ततः __ त्रिपुरान्तक शिव जंघा रूप स्थाप्या प्रदक्षणे ॥१८॥ માંચના ઉપર સાઠ ભાગની જંઘા કપાલાદિ રૂપથી નીકળતી કરવી. તેમાં ફરતા પ્રદક્ષિણએ દિપાલનાં સ્વરૂપે કરવાં. ૧૮. माचीके ऊपर साठ भागकी जंघा लोकपालादि रूपसे निकलती हुई करना । उसमें फिरते प्रदक्षिण में दिग्पाल देव स्वरूप करना । १८. स्थउपरथश्चैव देवाङ्गना मुने! । वारिमार्गे मुनींद्रश्च जटाधारी शिवालये ॥१९॥ सप्त भागयता कुमि अष्टमध्येच पल्लव: । डमरकं नव भागं पत्रिशे चतुकर्णिकाः ॥२०॥ AM 11 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M अंधकेश्वर शिव-( जंघामें) नाट्येश शिव-( जंघामें) AN IFA RANCH RAP जंघाकी कुंजमें मुना स्वरुप युग्म रूप जंघाकी कुंजमें मुनि तापस और युग्म रुप भिथुन रूप Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CH: LUMSAMARAK .." .... -- ... --- SANCHA PART60 ----36 --- अंधा उदय भाग६० अथ मंडोवर थर विभाग तथा सर्व प्रमाणंच नवधा बंधन क्रीयते मुनि ! अष्टौ अष्टौ द्वयो वाधे शेषच पद्मयत्रके ॥२१॥ પ્રાસાદના રથ અને ઉપરથની જંઘામાં દેવાંગનાનાં સ્વરૂપે હે મુનિ, કરવાં. બે ખાંચાની કુંજમાં-પાણતારમાં તાપસ મુનિઓના ઉભા તપ કરતાં સ્વરૂપે કરવા અને શિવાલયમાં જટાધારીનાં રૂપે કરવાં. જંઘામાં પિતાના પ્રમાણુથી નીચે સાત ભાગની કુંબીકાને ઘાટ કરે. ઉપર આઠ ભાગમાં પાલ–પલલવપત્રો કરવાં. તેની નીચે નવ ભાગમાં ડમરૂ-ડાકલીને ઘાટ કરે. ઊભી જંઘાના છત્રીશ ભાગમાં ચાર કણબંધ કરવા તધા કામના સર્વ પ્રમાણુથી હે મુનિ ! Tટ નવ બંધ એટલે જાંધીમાં કણપટ્ટીઓ વગેરે કરવા. રૂપની બે બાજુની થાંભલીઓ આઠ આઠ ભાગની ઊંચી વીરાલિકા બાકી પત્ર પાંદડાથી અલંકૃત (ગજસિંહથી કરવી. એમ 4 सा मागनी नवी. १८-२०-२१. हे मुनि, प्रासादके रथ और उपरथकी जंघामें देवाङ्गनाके स्वरूप करना । दो उपांङ्गकी कुंजमें-पानीतारमें तापस मुनियोंके खडे तप करते हुए स्वरूप बनाना । और शिवालयमें जटाधारीके रूप करना । जंघामें अपने प्रमाणसे सात भागकी कुंभिका घाट करना । उपर आठ भागमें पाल-पल्लवपत्र करना । उसके नीचे नौ भागमें डमरूका घाट करना। खडी जंघाके छत्तीस भागमें चार कणी बंध करना । तथा कामके सर्व प्रमाणसे हे मुनि ! नौ बंध अर्थात् जांगीमें कणी पट्टियाँ वगैरह जंघा भान ६० करना । रूपकी दो तरफकी स्तंभावली, आठ आठ भागकी ऊँची वीरालिका बाकी पत्रपानसे अलंकृत (गजसिंहसे ) करना। जंघा ६० भागकी जानना । १९-२०-२१. सप्तदशोद्गमं कार्येच छाद्यकीं त्रिणिमेव च । निर्गमे त्रिणि कर्तव्या उद्गमं च पीठोपरि ॥२२॥ मुखमुद्रं पुनः कार्य * नवांत फासनष्टतम् । उपरि पंच भागस्यात्वृते च ग्रासपट्टिका ॥२३॥ * पाठान्तर-तावतः फासतिष्ठति . -JANGHA . .... main- - - - - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ..१०७ क्रमांक अ.. प्रवेशं सप्त भागानी कर्तव्यं च सदाबुधैः । भरणीका च द्वादशभागे चिप्पिका भागमेवच ॥२४॥ कर्णिका सार्द्धभागेन घसिका अर्धमेवच । उपयुपरिकरैः स्यात् सप्तभागं विचक्षणं ॥२५॥ कर्णपट्टी द्वयो भाग तद्धपल्लवोर्युत । अशोक पल्लवाकारा कर्तव्या सर्वकामदाः ॥२६॥ જંઘા જાંઘ ઉપર દેઢીયે સત્તર ભાગને કરે. તેમાંથી નીચે છાજલી ત્રણ ભાગની અને ત્રણે ભાગની કળતી. તે પર નવ ભાગને ઊંચે દોઢીયે કરે તેમાં વચ્ચે બહાર નીકળતું મુખભદ્ર દોઢીયાનું ફાસનાકારે કરવું તે ઉપર પાંચ ભાગ ઊંચાઈની ગોળાઈમાં પટ્ટીમાં ત્રણ ભાગમાં ગ્રાસ કરવા આ બધા ઘાટની ઊંડાઈ મૂળથી સાત ભાગની બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ રાખવી (ઉદ્વમના ખુણે ખુણે કપિ બેસાડવા) કુલ ૧૭ ભાગ દેઢીયાના उगम भाग १७ જાણવા. जंघा-जंघीके पर दोढिया सत्रह भागका करना । उसमसे नीचे छाजली तीन भागकी और तीन भाग निकलती-उसके पर नौ भागका ऊँचा दोढिया करना। उसमें मध्यमें बाहर निकलता मुख भद्र, दोटियेका फासना कारमें करना । उसके उपर पाँच भाग ऊँचाईके गोलाकारमें पट्टीमें तीन भागमें प्रास करना । ये सब घाटकी गहराई मूलसे सात भागकी बुद्धिमान शिल्पीको करना । (उद्गमके कोने कोनेपर कपिको बिठाना।) कुल १७ भाग दोढियेके जानना । २२-२३. દેઢીયાપર ભરણી બાર ભાગની કરવી. તેમાં નીચેથી એક ભાગના કંદ સહિત ચિપિકા કરવી તે પર દેઢ ભાગની કણી કરવી. અર્ધા ભાગની ઘશી કરવી તે ઉપર પરિકરના જેમ પલ્લવે સાત ભાગમાં વિચક્ષણ શિલ્પીએ નીચે કંદ અને ઉપરની પટ્ટી નીચે ચીપલી કણી સાથે) રાખવા. CHIPPIKA * – ઉપરની મુખપટ્ટી બે ભાગની પટ્ટી તે નીચે સરળ માળ ૧૨ લટકતા અશેક પલ્લવ પાના આકારના કરવા. તેવા સ્વરૂપની બાર ભાગની ભરણુથી સર્વ કામનાનું ફળ મળે છે. ૨૪-૨૫-૨૬. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडोवर थर विभाग ८५. दोदियेके पर भरणी बारह भागकी करना । उसमें नीचेसे एक भागके कंद सहित चिपिका करना | उसके पर डेद भागकी कणी करना | आधे भागकी घी करना । उसके उपर परिकर की तरह पल्लवोंको सात भाग में विचक्षण शिल्पी करें (नीचे कंद और उपरकी पट्टी के नीचे चिपली कणीके साथ ) रखना । उपरकी मुखपट्टी दो भागकी पट्टी उसके नीचे लटकते अशोक पल्लवपत्रोंके आकारका करना । वैसे स्वरूपकी बारह भागकी भरणी से सर्वकामानका फल मिलता है । २४-२५-२६. पहिका भाग -PATTIKA&XBHAR PUTTA KSHIRAWATI 14 शीरा वटी १६ LIKA 6 आरपुतली का शिरावटी भाग १४ शिरावटि चतुर्दशा भागमुच्छ्रय उच्यते । भारपुतलि षडांशेन तदर्थे पट्टिका स्तथा ||२७|| ભરણી ઉપર ચૌદ ભાગની શિરાવટી ઊંચી કહી છે. તેમાં છ ભાગની ભારપુત્તલીકા .ઉપર પટ્ટી वगेरे ४२वी. २७. भरणीके उपर चौदह भागकी शिरावटी ऊँची कही है | उसमें छः भागकी भारमुत्तलिका और उपर पट्टियाँ वगैरह करना । २७. सोमनाथजीका मंडोवरका उद्रम और मरणी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ-१०७ क्रमांक अ.-६ तदूर्ध्वं तु कपोताली पूर्वमान प्रकल्पिता। चतुभागान्तरपत्रं च कर्तव्यं सर्व सिद्धिदा ॥२८॥ ભરણી ઉપર મહા કેવાળ આગળ કહેલા કેવાળ બાર ભાગનો તેવા ઘાટનો કરે અને તે ઉપર ચાર ભાગનું અંતરપત્ર કરવાથી તે સર્વ સિદ્ધિને આપે છે. ર૯, भरणी के उपर महाकेवाल, पहले कहा असा केवाल के बारह भागके वैसे घाटका करना । और उसके उपर चार भागका अंतरपत्र करने से वह सर्व सिद्ध देता है। २८. कूटछाद्योत्सेधमान स्यात्षोडश भागतः । भागोर्ध स्कंधपट्टिश्च स्कंधश्च त्रयभागिन ॥२९।। भागैक मुखपट्टिश्च सप्तभागच छाद्यकम् । मुखपट्टि द्वयो सार्द्ध मणिबंध सा(शकम् ॥३०॥ अधः पट्टि त्रयसार्द्ध सहित मणिबंधक । कंदैक भाग त्रयस्कंध शेष छाद्य स्कंधत्तः ॥३१॥ कूटछाद्य निर्गमोय त्रयोदशभागकम् । एवं मंडोवरं कथ्य सर्वार्थसिद्धि कामदं ॥३२॥ ઉપરનું છજું સેળ ભાગ જાડું કરવું. તેમાના ઉપરને કંદ એક ભાગ ત્રણ ભાગ ગલતી, ગલતીની પટ્ટી એક ભાગની, છજાના ગલતાના સાત ભાગ છજાની મુખ પટ્ટી અઢી ભાગ, અને ચીપલી મણીબંધ દોઢ ભાઇને એમ મળીને કે સેળ ભાગના ઉદયના વિભાગ કહ્યા. કરા. डर नाम नायनी पट्टी CMANTBANDAL13 *3, विपक्षीने भीम साथे साडी खुट छाद्य भाग १६ ત્રણ ભાગની રાખવી. અંધારી પરથી ગલતીને કંદ એક ભાગ ત્રણ ભાગની ગલતી અને બાકીમાં છજાની ખેભણ સાડા પાંચ ભાગ મળી કુલ તેર ભાગના છજાના નીકાળાના જાણવા. તે રીતે હે મુનિ, (બસે છ ભાગને) મડેવર myो . २६-30-31-३२. KA SKAND MUKHADAT < 7 SKAND K-KUTACHHADY-15-मुटछाध-१६ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडोवर थर विभाग उपरका छज्जा सोलह भागका मोटा करना । उसमें ऊपरका कंद एक भाग-तीन भाग गलती, गलतीकी पट्टी एक भागकी - छज्जा के गलतेके सात भाग छज्जाकी मुखपट्टी ढाई भाग, और चीपली मणीबंध डेढ भागका इस तरह मिलकर सोलह भागके ऊदयके विभाग बताये अब निकालेमें नीचेकी पट्टी चीपलीका मणीबंधके साथ साढ़ेतीन भागकी रखना । अंधारी परसे गलतीका कंद एक भाग तीन भागकी गलती और बाकी में छज्जेकी क्षोभन साढे पाँच भाग मिलकर कुल तेरह भागके छज्जेके निकालेके जानना । इस तरह हे मुनि, (दोसौ छः भागका मंडोवर जानना । २९-३०-३१. इतिश्रो विश्वकर्माकृते श्री श्रीराणत्रे नारद पृच्छायां नागर मेरुमंडोवराधिका रे सता सप्तमोऽध्याय ( क्रमांक अ० ९ ) ॥ १०७ ॥ ८७ ધૃતિ શ્રી વિશ્વકર્માં વિરચિત ક્ષીરાવ શ્રી નારજીએ પૂછેલા નાગર મેરૂ માંડવરાધિકાર ના શિલ્પ વિશાદ સ્થતિ પ્રભાશંકર એધડભાઈ સેામપુરાએ ચેલી સુપ્રભા નામની ભાષા राजने भो सातमो अध्याय ||१०६ ॥ कुभांड २५० ८. इतिश्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव- श्री नारदजी के संवादरूप नागरमेरू मंडोवराधिकारका शिल्प विशारद स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई सोभपुराकी रचिता सुप्रभा नामकी भाषा टीकाका एकसो सातवाँ अध्याय | ॥ १०७॥ ( क्रमांक अ० ९ ) सांढ युद्ध कुतूहल वृषभ और हस्तियुद्ध एकमें दूसरे का मुख प्रदर्शित होता है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ - 16 , +-6- p\uAwAAMAR -5-* - - 20 -- JANGHA. --JANGHA PART 40 બંધારૂસ્યામલ--- - --- છે : " KUN BHA અથ મેર સંકોરો લાઈવ || ૨૦૮ | (માં ૨૦) श्री विश्वकर्मा उवाच*તર વઝિવ (?) ના મેમત " मेरो मंडोवरे मंची भरण्योदश भागत: ॥१॥ चत्वारिंश स्थिता जंघा कुंभिका नवभागतः । उपरे पल्लवा कार्या भाग षट् विशेष च ॥२॥ डमरक पंचभागानि मध्ये त्रीणि स्वकर्णिका । (શરીર તો વા (?) વંશ ણિાં ) . રૂ दिग्पालादि संस्थाप्य शेषे देवे च मनोत्तमं । जलान्तर समस्थाने मुनोंद्रा यदि संस्थिता ॥४॥ जंघा भाग 1 શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. (આગળના ૧૦૭ માં અધ્યાયમાં - ૫ ખરો ૨૦૬ ભાગને જે નાગર મંડેવર કો તે પર મેરૂ મંડેવરના ૧૨ કળશે થર વિભાગ કહું છું.) મેરૂ મંડોવરમાં બાર ભાગની કહેલી ૪ અંતરાળ ૧૨ ક્વાળ ભરણી ઉપર માચીને થર દસ લાગને કરવો. તે પર જંઘા ૧૨ મચિકા ચાલીશ ભાગની કરવી. ૬૦ અંધા ૧૭ ઉગમ તે જંઘામાં નીચે કુંભિકા નવ ભાગની ઉપર પલ્લવ = ૧૨ ભરણી પાલ છ ભાગમાં તે નીચે ડમરૂ પાંચ ભાગમાં તેમાં વચ્ચે ત્રણ કણીઓ અને બાંધણ પટ્ટીને ઘાટ (વળી વિશ ભાગમાં) કરે. ૧૦ માંચી ૪૦. જધા જંઘાની ચાલીશ ભાગની ઉંચાઈના અર્ધ ભાગમાં એટલે વીશ ૧૫ દેઢીયા ભાગમાં કણી બંધ અને પટ્ટી આદિ બંધે ફરતા કરવા, જંઘામાં ૧૦ ભરણ ૭પ ફરતા દિગ્યાલ આદિ રૂપે સ્થાપન કરવા બાકીના ઉત્તમ દેવેની ૧૪ શીરાવટી મૂતિઓ કરવી. પાણતારમાં મુનિ તાપસની ઊભી મૂર્તિઓ ૧૨ કેવાળ જે અંતરાળ કરવી. ૧-૨-૩-૪. ૧૬ છાદ્ય; श्री विश्वकर्मा कहते हैं (आगेके एकसौ सातवें अध्यायमें) २०६ भागका जो नागर मंडोवर कहा है उसके उपर मेरू ૨૮૧ मंडोवरके थर विभाग कहता हूँ | मेरू मंडोवरमें बारह भागकी (१) पाठांतर-धरजवाश्रितपूर्व-(२) अध्याय १०७ का श्लोक १० से २०६ विभागका मंडोवर कहा है उसमें भरणी तकका विभाग १६० कहा है-अब यहांसे मेरू. मंडोवरका विभाग कहते हैं ૧૬૦ ૧૧ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिज शैलिका उदयेश्वरप्रासाद के मंडोवर और निखर के आद्य भाग (उदयपुर मालवा) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARVA HAM RE भूमिजप्रासाद के शिखर के शुरसेन (शुकनास) ( उदयपुर मालवा) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ महामेरु मंडोवराधिकार कही हुश्री भरणीके उपर माची का थर दस भागका करना । उसके उपर अंधा को चालील भागकी करना । उस जंघामें नीचे कुंभीका नौ भामकी उपर पल्लव पाल छः भागमें उसके नीचे डमरू पाँच भागमें, उसमें बीच में तीन कणियाँ और बंधन पट्टीका घाट करना । जंघाकी चालीस भागकी ऊँचाईके अर्ष भाममें अर्थात बीस भाग में कणी बंधको और पट्टी आदि बंधोंको फिरते करना । जंपामें फिरते दिग्पाल आदि देव रूपांको स्थापित करना । बाकीके उत्तम देवोंकी मूर्तियाँ अनाना । पानीतारमें मुने तापसकी खड़ी मूर्ति करना । १-१-३-४. तस्योपरि संस्थाप्यं च पंचदशोद्भमोभवेत् । दशांशा भरणी शेष पूर्ववत् कलायेत्सुधी ॥ ५॥ Ans Pun 0SAE T मान्य दीग्पालं-- पूर्व इंद्र दक्षिणे यम-धर्मराज उत्तरे कुबेर-सोम જંઘા ઉપર દેઢીયે પંદર ભાગને, તે પર દશ ભાગની ભરણુ કરવી. બાઇના ભાગે આગળ ( અધ્યાય ૧૦૭માં) કહ્યા તે પ્રમાણ એટલ ૧૪ ૬ શિરાવટી મહાકેવાળ બાર ભાગ, અંધારી ચાર ભાગ અને હજુ સોળ ભાગનું કરવું તે પ્રમાણે થરવાળા કરવા. ૫, जंघाके उपर दोढिया पन्द्रह भागका, उसके पर दस भागकी भरणी करना । बाकीके भाग आगे (अध्याय १०७ में ) कहा है इस तरह अर्थात् चौदह भाग शिरावटी, महाकेवाल, बारह भाग, अंधारी चार भाग और छज्जा सोलह भागका करना । उसके अनुसार थरवाले करना । ५. १२ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०. क्षीरार्णव अ.-१०८ क्रमांक-१० ALAN HA SHARMA HWA - - - - - - पश्चिमे वरुणदेव दीपाल लालका दीपाल आकाशका ब्रह्म दीपाल - बिना patrni LAN MA RCMYA र 1117 mt. ka इशानकोणके ईश अग्निकोणे-अग्नि नैरूल्ये निरुती वायव्ये वायुदेवता Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ महामेह मंडोवराधिकार खुट छायोमितं स्तेषां ग्रहारंच ततः । भागमेकोनविंशत्यांतद्विचारमतः शृणु ॥६॥ अधश्चेदंतरंकार्य भागार्धेन समन्वितं । पट्टिका सार्द्ध भागं च कर्णिकापदमेव च ॥७॥ क सामmunic EPSE THANE Tw -6 ADVODE ENHHATHS x S RAS वती२ मा वि ! दशावतार साथ विष्णु उपर गंधर्व-वाजुमे विरालिका उपरि भाग चत्वारि छाद्यकि सर्वकामदः । कर्ण भाग द्वयं कार्य शेषकंद च कंदयो ॥८॥ (कर्णउता यदा कार्या भागप्रतिश्च कर्णयो?)। घटेश नवमे प्रोक्त पल्लवेन समाकूले ॥९॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ છાવી કણી કા दलस्यष्टमांशेन ततं यदा व्यक्त वा ર ૧ દ ૯ ધટ–કભા ૧૯ ના અધારી ૧ના પટ્ટીકા ૧ કણી મેરૂ મ`ડાવરના છજા ઉપર (જો શિખર કરવાનુ... હાય તેા ) પ્રહાર (પહારૂ પ્રહાર વિભાગ થર ) ના થર એગણીશ ભાગ ઉયના ચડાવવા. તેના વિભાગ હવે સાંભળે, નીચે અરધા ભાગની અંધારી પટ્ટીકા દોઢ ભાગની કણી કા એક ભાગની તે પર સ કામનાને દેનારી ચાર ભાગની છાજલી કરવી. કણી એ ભાગની એક ભાગના કંદ, કણીને નાની પ્રતિક કરવી તે પર નવ ભાગના કુંભક પલ્લવ સાથે કરવા. (૨) ઉપાંગના દલ વિભાગના આઠમા ભાગે મધ્ય ગણે ભદ્ર કરવુ. જો આ પ્રહારૂ પર શિખર ન કરવુ' હેાય અને ઉપર ભૂમિ મજલે કરવે હાય તે આ પ્રહારૂના થર તજી દેવે! અને છજા થર સર્વ કામનાને દેમારી એવી ( દશ ભાગની) મ`ચિકાને થર કરવા. ૬-૯ मेरू मंडोवर के छज्जे के उपर ( जो शिखर करना हो तो ) प्रहार ( पहारूथर ) क्षीरार्णव अ. १०८ क्रमांक अ. १० K GHAT - KUMBH9+1+2 CHHADY 2 PRAHAR PART 19 प्रहार भाग १ गर्भेकर्यात भद्रकं । मंचिका सर्वकामदं ॥ १० ॥ प्रहारु भाग १९ का थर उन्नीस भाग अब सुनो। नीचे आधे भागकी, कर्णीका एक कामनाको देनेवाली चार भागकी छाजली करना । कर्ण दो भागका एक भागका कंद - कर्ण और छोटा प्रतिकर्ण करना | उसके पर नौ भागका कुंभक पल्लवके साथ करना । उपांगके दल विभागके आठवें भाग में मध्य गर्भ में भद्र करना । जो इस प्रहारु के पर शिखर न करना हो और उपर भूमि मजला करना हो तो इस प्रहारुका र छोड़ देना और छज्जे के उपर सर्वकामनाको देनेवाली ऐसी ( दस भागकी) मंचि - काका थर करना । २ ६-७-८- ९-१० . पूर्वोक्त विभागं च कर्तव्यं सर्वकामदाः । इठ त्रिंशोक्त ता जंघा पूर्वोक्तंशद्वयोङ्गम् ॥ ११ ॥ भरणी र्यावत्पूर्वेण कपोताली भने ततः । पूर्वोक्तं च यथा छाद्यं भागं एवं च कार्यता ॥१२॥ उदयका चढ़ाना | उसके विभाग भागकी अंधारी पट्टीका डेढ़ भागकी उसके उपर सर्व ૨. વૃક્ષાવમાં પ્રહારના પૃથક પૃથક્ ઘાટના છ પ્રકાર સુંદર કહ્યા છે. २. वृक्षाणीव प्रहारके पृथक पृथक घाटके छः प्रकार सुंदर कहे हैं । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ अथ महामेरु मंडोवराधिकार ૧૦ માચી એ રીતે સર્વ કામનાને દેનારા આગળ કહેલા થર વિભાગ ૩૨ અંધા કરવા. બત્રીશ ભાગની (ત્રીજી) જંઘા બાર ભાગને દોઢીયે, ૧૨ ઉમ ૧૦ ભરણ આગળ કહી તેટલા દશ ભાગની ભરણી, કેવાળ બાર ભાગને ૧૨ કેવા અંતરાળ ચાર ભાગને અને છજું સેળ ભાગનું કરવું. એ ૪ અંતરાળ ૧૬ છન્ન પ્રમાણે ત્રણ ભૂમિને ત્રણ જંઘાયુકત મડેવર ત્રીશ હાથના સાંધાર પ્રાસાદને કર. (પહેલી ભૂમિ ૧૬૦ ભાગ + બીજી ભૂમિ ૧૨૧ + ત્રીજી ભૂમિ ૯૬ = કુલ ૩૭૭ ભાગ). ૧૧-૧૨. इस तरह सर्व काममाओंके देनेवाले आगे कहे हुए धर विभाग करना । बत्तीस भागकी (तीसरी) जंघा बारह भागका डेढ़िया, आगे कही है उतने दस भागकी भरणी, केवाल बारह भागका अंतशल चार भागका और छज्जा सोलह भागका करना । इस तरह तीन भूमिका तीन जंघासे युक्त मंडोवरे तीस हाथके सांधार प्रासादको करना । (पहली भूमि १६० भाग+दूसरी भूमि १२१+ तीसरी भूमि ९६ = कुल ३७७ भाग)-११-१२ सद्यते तृतीया भूमि त्रिंश हस्तं च यदा भवेत् । पंच त्रिंशत्भवेद्हस्तं प्रासादं यदि कारयेत् ॥१३॥ भूमि चत्वारि दातव्या शृणुत्वेकाग्रतो मुनेः । कपोताली तथा छाद्यं पुनस्त्यक्ता प्रयत्नतः ॥१४॥ मंचिका तत्र दातव्यं भरणीर्यावत्मस्तके । भागहीना भवेद्धा भागहीना च उद्गमम् ॥१५॥ स्तरशेपं भवेत्पूर्व प्रहारांत यदा भवेत् । अष्टत्रिंशत्करे यावत्प्रासादं कारयेधुधा ॥१६॥ सर्वलक्षण संयुक्तं पंचभूमीः प्रदीयते । छाद्या भवेत्मंची जंघा व्योम युगे भवेत् ॥११॥ હે મુની, હવે પાંત્રીશ હાથને સાંધાર પ્રાસાદ જે હોય તે તેની ચાર ભૂમિ મજલા કરવા. તે તમે એકાગ્રતાથી સાંભળો. (પ્રત્યેક મજલાના અંતે) ઉપરની ભૂમિ ચડાવવાની હોય તો ત્યારે તે કેવાળ છાઘના થરે ફરી ફરી થશે પ્રયત્નથી તજી દઈને ભરણીની ઉપર માચી વગેરે (જંઘા ઉદૂર્મમ ભરણું) ચડાવવા. ઉત્તરોત્તર જંઘા અને દેઢીયાના થર વિભાગ જેમ ઉપ૨ જાય તેમ ઓછા ઓછા ભાગના કરતા જવું. ઉપરના મજલાના શેષ થર છપટ ઉપર Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ પાટ . Orire.. - - - . FN पराधि o . 1904 मा? - Pla - HAL नया . AAP क्षीरार्णव अ.-१०८ क्रमांक अ.-१० પ્રહાર (પહારૂને થર) ચડાવો. ત્યાંથી શિખરને પ્રારંભ કરે. બુદ્ધિમાન શિલ્પીઓ આડત્રીશ હાથના પ્રાસાદને સર્વલક્ષણ સંયુક્ત એવી પાંચ ભૂમિકા કરવી. છજા ઉપર ભૂમિ એમ ૪૦ હાથના પ્રાસાદને ચડાવતા જવું એ રીતે ચડાવતાં પહેલાં માચીને થર ચડાવી તે પર જંઘા એમ બાર જંઘા સુધી ચડાવતાં જવું. ૧૩ થી ૧૭, हे मुनी, अव पैतीस हाथका सांधार " प्रासाद हो तो उसे चार भूमि मजले करना, - यह बात एकाग्रतासे सुनो। (प्रत्येक मजलेके 3. अंतमें ) केवाल और छाद्य चढ़ाये हो और. 4 जो उपरकी भूमि चढ़ानी हो तब उस केवाल और छाद्य के थरोंको बार बार छोड़कर भर" णीके उपर माची वगैरह (जंघा उद्गम भरणी) ॐ चढाना | उत्तरोत्तर जंघा और डेढियेके थर 4 विभाग ज्यों ज्यों उपर जाय त्यों त्यों कम भागके करते जाना । उपरके मजलेके शेष थर छज्जा पर प्रहार (पहारुका थर) का थर जढाना । (यहाँसे शिखरका प्रारंभ करना ।) 'बुद्धिमान शिल्पीको अडतीस हाथ के प्रासादको 1 सर्व लक्षण संयुक्त एसी पाँच भूमिकाएं बनाना । छज्जेके उपर भूमिको चढानेसे पहले माचीका थर चढ़ाकर उसके पर जंधा इस तरह बारह जंघा तक चढाते जाना । चालीस हाथ उदयका प्रासादका....., मेरु महामंडोवर T९ ---- चतुश्यादा भाग १४० - महर२ त्रयभूमि-त्रयजंघा द्वय छजा. समस्त भाग को Ser-taswif HANNEL - 131 T ३. ... -.-.-. -. --- INR सोसमय AVM १२. - -- ...रंध्रते भूमिका क्रमात् ॥१८॥ कुंभिकादि प्रहारांत विभागं तत्र निश्चलं ।' यदि जंघा भवेत्श्चैकं द्विदशयावत् तथा ॥१९॥ +-महामंडोवर त्रय जंघा त्रयभूमिद्वय छज्जा समस्तभाग ३७७ ३ सतमष्टोतरं तथा १९॥ पाठान्तर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अथ महामेरु मंडोवराधिकार द्वयोर्जघा विजानीयात्छाद्या...विराजिते । तत्रादेय विभागं च : चतुर्विशति तत्र च ॥२०॥ Veeryamat Ja Hindi सोमनाथजीका पुराणा मंडोवर यासीश हथिन। अध्यन प्रासाहने ६.... ............७५२नी भूमिलाये। અનુક્રમે ( હીન હીન) કરતાં જવું. કુંભાથી છજા પરના પ્રહાર સુધીના વિભાગો ચોક્કસપણે કરવા. એક જંઘાથી બાર જંઘા સુધી સાંધાર પ્રાસાદને ચડાવવી. એક છા નીચે બે જંઘા ચડાવવી તે રીતે પ્રાસાદ વિભાગ ચોવીસ હાથ ભૂમિ સુધી જાણ. સર્વ ભૂમિ મજલા ખૂબ ઘાટ નકશીરૂપથી અલંકૃત ४२पाथी ते सर्व आमनाने ३७१ मा५ना२ otYg. १८-१८-२०. उपरकी भूमिकाएं अनुक्रमसे ( ११२ हीन हीन ) करते जाना। कुंभासे छज्जेके उपरके प्रहारतकके विभागोंको निश्चित रूपसे करना । एक जंघासे बारह जंघा तक सांधार प्रासादको चढाना । एक छज्जाके नीचे दो जंघा चढाना । इस तरह प्रासाद उदय विभाग चौबीस हाथ (भूमि तक जानना) सर्व भूमि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीराव अ.-१०८ क्रमांक अ.-१० मजले बहुत घार मकाशी और पसे अलंकृत करनेसे उसको सर्व कामनाओंका फलदाता समझना । १९-२०-२१. सर्वलंकार संयुतं सर्वकामफलपदः । अयोधा भवेय्यत्र द्वयो छाधं विराजिते ॥२२॥ सत्रोदय विभागं च चतुर्विशति तत्र यः । (उदय) चतुःजंघा द्वयो छाधं तत्र मेद अतः शृणु ॥२३॥ प्रथमा घुप्रतीय जंघा द्वितीय अवनी भवेत् । उनती आसनी चैव पूर्वहीनांच भागत् ॥२४॥ (आदि मध्या वसानेन शनीज्ञान महेतवे ।) ... ... ... ... ... ... ... ... ... अनुक्रमेण समायुक्ता द्वादश जंघाउत्तमा ॥२५॥ तेन ( भद्रस्य (?) भूम्यं वा द्वादशंच मुनीश्वर ! जंघायाँ द्वादशप्रोक्त छाद्यं चाष्टमेव च। तत्रैवमभिधासूत्र वहकर्म समाकूलं ॥२६॥ ત્રણ જાંગી અને બે છજાં તેમ તેના ભૂમિ ઉદય વિભાગ ચોવીશ હાથ સુધી જાણવા. ચાર જંઘા અને બે છજા તેને ભેદ હવે સાંભળે. પહેલી જંઘાને પુવતીય. બીજને અવની, અને ત્રીજી જંઘાને ઉનતી, ચોથી આસની, પાંચમી પૂર્વહીન, છઠ્ઠી આદિ, સાતમી મધ્યા, આઠમી વસાન, નવમી શનિ અને ४शभी पाने ज्ञानम् मणियार भी...... भाभी...... म मनु उत्तम मार જંઘાના નામ તે રીતે હે મુનીવર બાર ભૂમિ પર જંઘાના નામ કહ્યાં-બાર બાર જંધાને આઠ છજાં થાય તે રીતે જંઘાના નામાભિધાન તે સર્વ કર્મના मनु सूत्रथी नवा. २२-२३-२४-२५-२६. तीम जंघां और दो छज्जे इस तरह उनके भूमि उदय विभाग चौबीस (हाथ !) तक जानना । चार जंघायें और दो छज्जेका भेद अब सुनो ! पहली जंघाको पुत्रतीय, दूसरीको अवनी, और तीसरी जंघाको इनती, चौथीको आसनी, पाँचीको पूर्वहीना । छट्ठीको आदि सातवींको मध्याहन, आठवींको बसान, नौवींको शनि और दसवीं जंघाको ज्ञानम् इसी तरह अनुक्रमसे उत्तम बारह भूमिके जंघाके नाम हे मुनि, कहे । बारह जंघाको आठ छज्जे होवे इसी तरह जंघाका नामाभिधान सर्वकर्मके अनुकुल सूत्रसे जानना । २२-२३-२४-२५-२६. प्रासादोदय भवे यत्र इदंमानं तु कथ्यते । सभ्रमे महारिषि उदयं च अतः शृणु ॥२७॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hathi कंडयमहादेव (खजुराहो )के पीठ जौर यजघायुक्त मंडोवर और भद्रके गवाक्ष Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCUSEK44 RS HNAHANERS शा कलिङ्ग : ओरिसा के भुवनेश्वरमें राजराण प्रासाद के पृष्टभद्र के द्रश्य मंडोवर Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ महामेरु मंडोवराधिकार १३ 100 -0-0-00 - कैलास महामेरु प्रासाद - सोमनाथ ॥ मेरुमण्डोवर उदय - २८-० -mau mântâ -3šť भूमि उदय-144 १९ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे श्रीहारिकाधिश नमनमंदिर. महा प्रसाद. (हारिका पुनि) प्रभासल (चतुविक्रा ॐ. -डाय ॐ श्री द्वारिकाधिश जगत्मंदिर - द्वारका गर्भगृह -न विस्तार कौली ---- सीक मण्डभ २२. प्रवेश तुका Jiö. क्षीरार्णव अ. १०८ क्रमांक अ. १० 4.-. प्रभाकर. ओ. स्थपति SE वितान ---11-12-3 BHO उ POTRET ht 2 ५७ या भूमि उपय... ----- Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अथ महामेरु मंडोवराधिकार कुंमि उदंबरांते च स्तंभ शिरं च जंघयोः। पढेंच उद्गमांतेन शेष भूमि विराजिते ॥२८॥ प्रथमं खुटछाद्यं च उद्गमं छाद्यकी समम् । द्वितिया तृतीया भूमिपट्टवै छाद्यकी समौ ॥२९॥ . पई THE F 1.0 वेदिका Aasel: - Y ifR Naso ayuuture चार साल पर सामानोसमन्वय साना सामे सांधार पसारा मंडरा राका साथ समन. सांधार-निरंधार प्रासादका मंडोवर के साथ स्तम्भका छोडका समन्वय नीचे-कामदपीठ और महापीठ-खुला मंडपका पीठ प्रकार तर-4) ५८वेपट छाय. पाठांतर-(घ) पटवेपट छाद्यके (५) उन (६) मञ्चोक्त, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णेव अ. १०८ क्रमांक छाद्यांत तेमादि पट्टउद्गमोदर समा । निर्दोषं तद्भवे वास्तु पाद पहुंच छाद्यकेः ||३०|| સાંધાર પ્રાસાદના ઉજ્યના મેરૂ મંડોવરના થર માન અને ભૂમિ વિશે કહ્યુ . સભ્રમપ્રાસાદના મડેાવરના થર સાથે અંદરના સ્તંભના છેડના ઉડ્ડય મેળ ( સમન્વય ) હું મહાઋષિ! હવે સાંભળે, સાંધાર પ્રાસાદની કુંભી અને ખરા સમસૂત્રે અને સ્તંભ અને સરાને જંઘામાં સમાસ કરવા. પાટડા ઉગમ દોઢીયામાં સમાવવે. બાકી ઉપરની ભૂમિ જાણવી. પહેલા છૂટછાઘને પાટ દોઢોયાની છાજલીના સમસૂત્ર શખવા. બીજી અને ત્રીજી ભૂમિમાં પણ પાટ દાઢીયાની–છાજલીના સમસૂત્રે રાખવા. મથાળાના ઉપરના છા અાખર પાટ એક સૂત્રમાં રાખવે. પરંતુ વચલી ભૂમિમાં પાટડે દોઢીયાના ઉદરમાં સમાવવા. ખાકી પાટ अनेछ सूत्रमां वां तेषु वास्तु निर्दोष लागवु. २७-२८-२५-३०. सांधारप्रासादके उदयके मेरूमंडोवर के थर मान और भूमिके बारेमें कहा । सम प्रासादके मंडोवरके थरके साथ हे महाऋपि, अंदरके स्तंभ के छोड़के उदय समन्वय के बारेमें अब सुनो । सांधार प्रासादकी कुंभी और उंबरा समसूत्र में और स्तंभ और सरेका जंघा में समास करना । पाद उद्गम - डेढ़िये में मिलाना । बाकी उपरकी भूमि जानना । पहले खुट्छाद्यको पाद डेढ़ियेकी छाजलीके समसूत्रमें रखना । दूसरी और तीसरी भूमि में भी पाट छाजली के समसूत्रमें रखना । सिरके उपरके छज्जे बराबर पाट एक सूत्रमें रखना, परंतु विचकी भूमि में पाट डेढ़ियेके उदरमें मिलाना । बाकी पाट और छज्जा एक सूत्रमें करना ऐसा वास्तु निर्दोष जानना । २७-२८- २९-३०. १०० * पुन: छाद्यं तथा छँदै पुनः पङ्कं च तत्समं । यथोक्तं च विद्या छाद्यै पुनः कुर्यात्पटमुत्तमं ||३१|| ભાષા સાંધાર પ્રાસાદને પહેલી ભૂમિ છા વગર છંદ પ્રમાણે અંદર છાધ ઢાંકવું. ફરી જ્યારે ઉપર છઠ્ઠું પાટ આવે ત્યારે તે પ્રમાણે ઢાંકવું. એ રીતે છા વગર અંદર છાઘ ઢાંકવું. ફરી વળી પેટ પર છાઘ--ઢાંકણ છાતીયા નાંખી ઢાંકવું. ते उत्तम नवु - ३१. सांधार प्रासादको पहलीभूमि बिना छज्जा छंदके अनुसार छाद्य ढाँकना । फिर जब छज्जापाट आवे तब उसके अनुसार ढंकना । उस तरह छज्जे बिना छाद्य ढंकना । फिर पाटके उपर छाद्य ढँकना - यह उत्तम जानना । ३१. इतिश्री विश्वकर्माकृते क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां मेरुमण्डोवराधिकारे शताग्रे अष्टमोऽध्याय ॥ १०८॥ ( क्रमांक अ० १० ) સ્મૃતિ શ્રી વિશ્વકર્માં વિચિત ક્ષીરાવ નારદ મુનીશ્વરના સવાદરૂપ મેરૂ મડવરાધિકારના શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી. પ્રભાશંકર એઘડભાઈ એ રચેલ ગુજર ભાષાની સુપ્રભા નામની ટીકાના એકસા આમે અધ્યાય-૧૦૮. इतिश्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव- नारदमुनीश्वरके शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाईकी रची हुई एकसो आठवाँ अध्याय । ॥ १०८॥ ( क्रमांक अ० १० ) संवादरूप मेरूमंडोवराधिकारका सुप्रभा नामकी भाषा टीकाका Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भगृह . E ताल ១៩. LOR) HE ॥ अथ गर्भगृहोदय-द्वारशाखा विभाग ।। क्षीरार्णव अ० १०९-(क्रमांक अ० ११) श्री विश्वकर्मा उवाच तस्याग्रे प्रवक्ष्यामि प्रमाणं गर्भगृहोचम। चतुरस्रमथायतं वृतंवृषा ___ याष्टकम् ॥१॥ गर्भव्यास षडांशस्य सपादो सार्द्धमेव च । पादार्धे तु यदा चैत्र जेष्ट ___ मध्यकन्यस ॥२॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છેહવે આગળ હું ઉત્તમ એવા ગર્ભગૃહના પ્રમાણે કહું છુંગર્ભગૃહ ૧ ચોરસ ૨ લંબ ચેરસ ૩ ગેળ ૪ લંબગોળ અને પ અષ્ટાશ્ર એમ પાંચ પ્રકારે થાય તે ઉપરાંત તેની પહોળાઈમાં (૧) છઠ્ઠો ભાગ उभेशन (२) सपायो या (3) દોઢ વધારી લાંબે કરવાથી જેષ્ઠ મધ્યમ અને કનિષ્ઠ માન बारानु शु. १-२. श्री विश्वकर्मा कहते हैं'अब आगे मैं उत्तम ऐसे गर्भगृहके' प्रमाण कहता हूँ। गर्भगृह चोरस, लम्बचोरस, गोल, लम्बगोल, और अष्टाः इस तरह पाँच प्रकारसे होता है, इसके अतिरिक्त उसकी चौडाईमें (१) छटा भाग मिलाकर या (२) सवाया (३) डेढा ऐसे गर्भगृह समचोरस बृत अष्टाधादि पांच प्रकार कहा है तथा सवाया-डेढा भी कहा है ऐसे अन्य ग्रंथोमें उनका अंदरका चार और वाह्य चार स्वरूप भी कहा है = अंदरका १ चौरस २ भद्रयुक्त ३ सुभद्र घ प्रतिभद्रयुक्त-ऐसा चार प्रकार-बाह्य अंश निर्गमका चार प्रकार कहा है १ आर्चा २ हस्तांथलं ३ भागधा घ समदल उसका विवरण दीपार्णवग्रंथका प्रष्ट ५५-५६ पर दिया गया है। मगृह १ सयुस) ? RE Turnea समल, 30 गर्भगृह (भि यु) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ ૧ પાટ WDemurtantos T क्षीरार्णव अ.-१०९ क्रमांक अ.-११. पद भागको बढाके लम्बा करके ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ मान गर्भगृहका जानना । १-२. स्ततो उदय अष्ट विभक्तं च भागमेकेन कुंभिका। स्तंभ च पंच सार्धेन भागार्य भरणं भवेत् ॥३॥ शिरंच भागमेकेन अयं भाग प्रासादयं । भागयर्द्धप्रयत्नेन कर्तव्यं च तथोपरि ।।४।। पट्टसाझेदयं स्वस्थं एवं च कथितो मया। गाना यमा (पाट પા સ્તંભ સિવાય) આઠ ભાગ કરવા. તેમાં ૧ સરૂ એક ભાગની કુંભી–સાડા પાંચ ભાગને સ્તંભ, અર્ધા ભાગનું ભરણું અને એક ભાગનું સરૂ એમ પ્રાસાદના ઉદયમાં (પાટ સિવાયના) આઠ ભાગ જાણવા. તે ઉપર દેઢ ભાગને પાટ મેં કહ્યો છે. (એટલે કુલ સાડા નવ ભાગની Getell २६.) -४. गर्भगृहके उदघमें (पाटके सिवा) आठ भाग करना । उसमें एक भागकी कुंभी-साढ़े पाँच भागका स्तंभ और आधे भागका भरना और एक भागका सरा ऐसे प्रासादके (पाटके सिवा) ८ भाग समझना । उसके उपर डेढ भागका पाट मैंने कहा है । ( इससे कुल साढ़े नौ भागका उदय हुआ ।) ३-४. बाह्यमानं स्ततोरिपि ! पदमानमन्यथा ॥५॥ कुम्भे कुमि च ज्ञात्वा या स्तम्भेचैवोद्गमम् । भरणी भरणयुक्त्वा कपोताली तथा शिरः॥६॥ 'छाद्यं पढें समं दैध्य उर्व नैन कारयेत् । (सरसाले भवेद् वेधं अधः उर्ध्व न संशय)। गर्भगृहोदय-स्तंभोदय भाग प्रासादोदयमे यत्र-इदं मानंतु कथ्यते ॥७॥ ८ + १॥ पार = ९भाग । पाठान्तर (१) कार्य (२) पट्ट तु खुट छाद्यकं । WITHHALite समसउदयभा • -:..... - - A Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ गर्भगृह-द्वारशास्त्राधिकार १०३ હે ઋષિ, નિરધાર પ્રાસાદના બહાર મંડેવરના થરવાળા અને પદના સ્તંભના છેડને સમન્વય કહે છે. કંભા, બાબર ભી, સ્તંભ અને દેઢીયાને થર સમસૂત્રે ભરણું બરાબર ભરણું, કેવાળ અંતરાળ બરાબર, શરૂ અને પાટ બરાબર છજુ એમ સમસૂત્રમાં કરવું તેનાથી ઊંચું નીચું ન કરવું. ઊંચું નીચું થાય તે વિધ જાણ. તેમાં સંશય નહિ. (સાંધાર પ્રાસાદનું પ્રમાણ ૦ ૧૦૮ માં . २८-३०मा मापस छे.) ५-६-७ हे ऋषि, निरंधार प्रासादके बाहर मंडोवरके थरवाले और अंदर पद के स्तंभके छोडका समन्वय कहता हूँ । कुंभा-बराबर कुंभी-स्तंभ और दोढियाका थर समसूत्र में । भरणा बराबर भरणी और केवाल, अंतराल बराबर सरा और पाटके बराबर छजा इस तरह समसूत्र में करना । उससे ऊँचा नीचा नहीं करना । ऊँचा नीचा हो तो वेध जानना, उसमें संशय नहीं । (शांधार प्रासादका प्रमाण अ० १० में श्लोक २८-३० में दिया है । ५-६-७. प्रनाल विचार पूर्वापरस्य प्रासादे प्रणालशुभमुत्तरे । दक्षोत्तर शुभं पूर्व चतुर्जगतीं मंडपे ॥ ८॥ 19Gorn SONP EJES Ey NOTES . प्रनालका मकरमुख । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ क्षीरार्णव अ.-१०९ क्रमांक अ.-११ પૂર્વ અને પશ્ચિમ મુખના પ્રાસાદને પ્રનાળ ઉત્તરે મૂકવી તે શુભ છે. અને ઉત્તર દક્ષિણ મુખના પ્રાસાદોને પૂર્વમાં પરનાળ-બાળ ગર્ભગૃહમાં મૂકવી. જગતી અને મંડપને ચારે દિશામાં પ્રનાળ મૂકી શકાય-૮. पूर्व और पश्चिम मुखके प्रासादोंको प्रनाल उत्तरमें रखना शुभ है । और उत्तर दक्षिणके मुखके प्रासादांको पूर्वमें परनाल--गर्भगृह में रखना । जगती और मंडपको चारों दिशाओंमें प्रनाल रख सकते है । ८. नवशाखा महेशस्य देवानां सप्तशाखिकम् । पंच शाखं सार्व भौमे त्रिशाखं मंडलेश्वरे ॥९॥ શીવ–માહેશ્વરના દેવાલયને નવ શાખા, બીજા સર્વ દેવે સપ્ત શાખા, સાર્વભૌમ–ચક્રવતી રાજાના રાજમહેલમાં પંચ શાખા અને માંડલીક રાજાને त्रिशामा २वी-६. शीव-माहेश्वरके देवालयको नौ शाखा, दूसरे सर्व देवोंको सप्तशाखा, सार्वभौम-चक्रवर्ती राजाके महलमें पांच शाखा और मांडलिक राजॉको त्रिशाखा करना । ९. अथ त्रिशाखा चतुर्भागार्कित कृत्वा त्रिशाखो वर्तयेत्तमः। मध्ये द्विभागिक रूप स्तंभ भागैकनिर्गम ॥१०॥ पत्र खल्वद्विभागं कोणीका स्तंभ मध्यतः । चतुर्थांश सपादेन द्वारपाल कृतोदय ॥११॥ વિશાખાના જાડમાં ચાર ભાગ કરવા. તેમાં વચ્ચે બે ભાગને રૂપ સ્તંભ પહેળે અને એક ભાગ નીકળતે કરે. બાજુમાં એકેક ભાગની પત્ર શાખા અને ખલવ શાખા (સિહ શાખા) કરવી. (મધ્ય રૂપ સ્તંભને શાખા વચ્ચે એકેક ખુણી શેભાને સારુ કરવી.) દ્વારની ઊંચાઈના ચેથા ભાગે કે તેની સવાઈને द्वारपास अय! ४२वो. १०-११. त्रिशाखाके जाड़में चार भाग करना । उसमें बिचमें दो भागका रूपस्तंभ चौडा और एक भाग निकाला करना । बाजुमें एक एक भागकी पत्र शाखा और खल्वशाखा करना । (मध्यरूप स्तंभको शाखाके बिचमें एक एक कोना Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ गर्भगृह-द्वारशाखाधिकार शोमा लिये करना । ) द्वारकी ऊँचाईके चौथे भागमें या सवाई ऊँचाईका द्वारपाल ऊँचा करना । १०-११. अथ पंचशाखा-पंचशाखा च गंधर्वा रूपरतंभस्तृतियकं । पुनः गंधर्व खल्व शाखी पचंशाखा विधीयते ॥१२॥ सुभगा श्रीशासा. भाग-३.. नविनी पंचशाखा. ६-भाग Htthi कपलमा भाग स्थान नन्दिनी. पंचशास्वा * [सुभगा.7 विशाखा यस्तRMA बस्ती सप्तशारवा. स्वारभाग ८. विस्तारभाग यवशाया मतवाल | हिास्या. चायल Tueutent रूपसमा રુuસંમ '&dejilent सिंहआया. खलिया. रुपशावा. यस्तंभ अभिनी. नवशारवा. विस्तारभाग११ _यवशाय. Maruri रस्तम. याय॥रया. मस्या सिंहशारया. यत्यशानया. भयारया. रुपम त्रि पंच सप्त नव शाखा तल विभाग और शाखाका नाम । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१०९ क्रमांक अ.-११ પંચ શાખાની જાડાઈમાં છ ભાગ કરવા. ૧ પત્ર શાખા ૨ ગંધર્વ શાખા ૩ મધ્યમાં રૂપ સ્તંભ ૪ ફરી ગંધર્વ શાખા પ ખલ્લ શાખા (સિંહ શાખા) એમ પંચ શાખાને વિધિ જાણુ. મધ્યને રૂપસ્તંભ બે ભાગ અને બીજી શાખા सो ४ लागनी शुवी. १२. पंच शाखाके मोटेपनमें छः भाग करना । १. पत्रशाखा २ गंधर्वशाखा ३ मध्यमें रूपस्तंभ ४. फिर गंधर्व शाखा ५. खव शाखा (सिड An) इस तरह पँच शाखाका विधि समझना । मध्यका रूपस्तंभ दो भाग और दूसरी शाखाओं एक एक भागकी जानना । १२. अथ सप्तशाखा-पत्रशाखा च गंधर्वा रूपशाखास्तृतियकम् । स्तंभ शाखो भवेन्मध्य रूप शाखा तु पंचमी ॥१३॥ पष्टास्या खल्व शाखा च सिंहशाखा च सप्तके । प्रासादकर्ण संयुक्ता सिंहशाखाग्र सूत्रतः ॥१४॥ સપ્ત શાખાની જાડાઈમાં આઠ ભાગ કરવા. ૧ પત્ર શાખા ૨ ગંધર્વ શાખા ૩ રૂપ શાખા ૪ મધ્યમાં રૂપસ્તંભ (બે ભાગને) ૫ રૂપ શાખા ૬ ખલવ શાખા છ સિંહ શાખા સાતમી જાણવી. પ્રત્યેક શાખા એકેક ભાગની અને મધ્યને રૂપસ્તંભ બે ભાગને જાણ. પ્રાસાદની રેખા બરાબર સિંહ શાખા અને પત્ર શાખાનું સૂત્ર એક રાખવું. ૧૩–૧૪. सप्तशाखाके मोटेपनमें आठ भाग करना । १ पत्रशाखा २ गंधर्व शाखा ३ रूप शाखा ४ मस्यमें रूप स्तंभ (दो भागका) ५ रूपशाखा ६ खल्वशाखा सिंह शाखा जानना । प्रत्येक शाखा एक एक भागकी और मध्यका रूपस्तंभ दो भागका जानना । प्रासादकी रेखाके बराबर सिंह शाखा और पत्रशाखाका सूत्र एक रखना । १३-१४. अथ नवशाखा-पत्रगंधर्व संज्ञा च रूपस्तम्भस्तृतीयकम । चतुर्थी खल्व शाखा च गंधर्वा चैव पंचमी ॥१५॥ रूपस्तम्भ स्तथा षष्टौ रूप शाखा ततः परा । पत्रशाखा च सिंहस्य मूल कर्णेन संम्मिता ॥१६॥ નવ શાખાની જાડાઈમાં અગ્યાર ભાગ કરવા તેમાં બે રૂપ સ્તંભે બબ્બે ભાગના અને બાકીની શાખાઓ એકેક ભાગની રાખવી. ૧ પત્ર શાખા ૨ ગંધર્વ શાખા ૩ રૂપસ્તંભ મધ્ય ૪ ખલ્લ શાખા પ–ગંધર્વ શાખા ૬ બીજે રૂપસ્તંભ મધ્ય ૭ રૂપ શાખા ૮ ખુલ્લ શાખા અને નવમી સિહ શાખા જાણવી. સિંહ શાખા અને પત્ર શાખા મૂળરેખાની ફરકે સમસૂત્રે રાખવી. ૧૫–૧૬, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ থ সমাহাম্রাঘিাষ नौ शाखाओंके मोटेपनमें ग्यारह विभाग करना । उसमें दो रूपस्तंभो दो दो भागके-और बाकी शाखाओंको एक एक भागकी रखना । १ पत्र शाखा २ गंधर्व शाखा ३ रूपस्तंभ ४ खस्वशास्त्रा ५ गंधर्व शाखा ६ दूसरा रूपस्तंभ मध्यका ७ रूप शाखा ८ खल्व शाखा ९ सिंह शाखा जानना । सिंह शाखा और पत्र शाखा मूलरेखाके समसूत्र में रखना । १५-१६. - Renumari p ramananel पंचशाचा ६२. RAMDHAN ... / त्रिशाखाका द्वार उदम्बर और शंखोद्वार-अर्धचंद्र । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीराणेव अ.-१०९ क्रमांक अ.-११ ill il: S.DA JH A -- - SHERE urunmuntarnamamretatatuantANAPANI KEELP १ " min .PN - - 4.MT -- - - DRA... Tatparn DES014 20 Sensues SALDIN - - KH पंच शाखा युक्त अलंकृत द्वार-तथा अर्धचंद्र-उदंम्बर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ गर्भगृह - द्वारशाखाधिकार सप्त शाखा विना खल्वं शाखा त्रिशाखा खल्व संयुतं । कर्णीकारंच शाखान्ते नव शाखा सिंहं भवेत् ॥१०॥ સપ્ત શાખાને અંતે ખવ શાખા ન કરવી. ત્રિશાખા અંતે ખુલ્લ શાખા યુક્ત કરવી. પોંચ શાખા અને નવ શાખા એ સર્વની શાખાને અ ંતે સિંહ શાખા આવે તે અંતની શાખામાં કર્યાંકા-ગલતના ઘાટ કરવા 1-१७. सप्त शाखा के अंत में खल्व शाखा नहीं करना | त्रिशाखा के अंत में खल्व शाखासे युक्त करना | पॅच शाखा और नौ शाखा अिन सर्व शाखाओंके अंत में सिंह शाखा आती है । उस अंतकी शाखा में कर्णीका गलत का घाट करना । १७. मूलकर्णस्य सूत्रेण कुम्भेनोदुम्बरं समम् । तदधः पंच रत्नानि स्थापयेत् शिल्पीपूजनात् ||१८|| પ્રાસાદની મૂળ રેખાના સમસૂત્ર બરાબર ઉંબરા નીકળતા અને ભીની ખરાખર ઉંચાઈ એક સૂત્રમાં મુકવા શિલ્પી અને ઉદ્દંમ્મરનુ` વિધિથી પૂજન કરી नीथे पंचरत्न स्थापन २ १८ मने शिहिप- स्थपतिनुं पूग्न २ १८. प्रासादकी मूल रेखाकी समसूत्र बराबर उदुंबर नीर्गम रखना और कुंभीकी बराबर ऊँचाई एक सूत्र में रखना । शिल्पी और उदम्बरका विधिसे पूजन कर नीचे पंचरत्न स्थापन करना । उस समय शिल्पिका पूजन करना । १८. धमिनी द्वार विस्तार त्रिभागेन वृतमंदारकोस्तथा । वृतमंदारकं कुर्यात् मृणालपत्रसंयुतम् ॥ १९॥ जाड्य कुंभ कणाली च कीर्तिर्वयद्वयं तथा । उदुम्बरस्य पार्श्वे च शाखायां स्तलरूपकम् ॥ २०॥ आश nti प Po 33 द्वार स्तंभयुक्त नव शाखा का तल दर्शन और उदम्बर शंखोद्वार -अर्धचंद्र Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० क्षीरार्णव अ.-१०९ क्रमांक अ.-११ ઉદંબરને દ્વારની પહોળાઈના ત્રીજા ભાગે વચ્ચે ગોળ મંદારક-માણે કરવું. તે ગોળ માણું કમળપત્રથી ભતું કરવું. માણુની નીચે જાડો અને કણીને ઘાટ ઉંબરાની ઉંચાઈના ત્રીજા ભાગે અથવા એથે ભાગે જાડ (ઉંબરા તથા તલકડાને) કરે. (માણુની બંને તરફ એકેક ખુણ કરી તેની બે બાજુ ગ્રાસ = કીર્તિવકનાં મુખ કરવાં ઉંબરાની બંને બાજુ શાખાઓનાં તલરૂપ = તલકડાં કરવાં. उदम्बरको द्वारकी चौडाईके तीसरे भाग में विचमें गोल मंदारक-माणा करना । वह गोल मंदारक कमल पनसे सुशोभित करना । माणेके नीचे जाडंबा और कर्णीका घाट उम्बरकी. ऊँचाईको तीसरे या चोथे भागमें मोटा ( उम्बरा तथा तलरूपको करना । थाणेकी दोनों बाजु ग्रासका मुख करना शाखाओंके तलरूप तिलकडा करना । १९-२०. उदंबरं ततो वक्ष्ये कुंभतस्योदयं भवेत् । तस्यार्धेन त्रिभागेन पादोनहतोत्तमं ॥२१॥ चतुर्विध तथा स्वस्थं कुर्याचैव मुदुम्बरम् । उत्तमोत्तम चत्वारो न्यूनाधिकाश्च दोषदा ॥२२॥ હવે ઉંબરાની ઊંચાઈનું કહું છું. ૧ ઉંબરાની ઊંચાઈ કુંભા કુંભી બરાબર રાખવી. ૨ કુંભીથી અર્ધ ભાગે, ૩ ત્રીજા ભાગે કે ૪ ચોથા ભાગે ઉંબરે નીચે ઉતાર=ગાળવે. એ રીતે ઉંબરે ગાળવાના ચાર પ્રમાણે ઉત્તમોત્તમ કહ્યા છે, ઓછાથી વધુ ગાળવા તે દોષ કારક છે. ૨૧-૨૨. अब मैं उदम्बरकी ऊँचाई कहता हूँ। १ उदम्बरकी ऊंचाई कुंभा कुंभिके बराबर रखना । २ कुभिसे आधे भागमें, ३ तीसरे भागमें या ४ चौथे भागमें उम्बरा नीचे उतारना । जिस तरह उम्बरा उतारनेके चार प्रमाण उत्तमोत्तम कहो हैं ! उससे कम या ज्यादा उतारना दोषकारक है । २१-२२. उदंबरांते हते कुंभीस्तंमंच पूर्ववत् । - सांधारेस्य निरंधारे कुंमि कृत्वामुदंम्बरम् ॥२३॥ કુંભીથી ઉંબરે ગાળ (હૂત કરે, પરંતુ કુંભી અને તંભ તે પૂર્વની જેમ જ રાખવા. સાંધાર અને નિરધાર પ્રાસાદોમાં કુંભીથી ઉંબરે ગાળ. ૨૩. कुंभिसे उम्बरा नीचाद्दत करना | परंतु कुंभि और स्तंभ तो पूर्वक अनुसार ही रखना। सांधार और निरंधार प्रासादोंमें कुंभिसे उदंम्बर हीन करना । २३. ' (૧) શિલ્પીઓમાં કંઈ એવી પણ માન્યતા પ્રવર્તે છે કે જે ઉંબરો ગાળવામાં આવે તો કુંભીઓ પણ ગાળવી જોઈએ જે કે બને મતના દષ્ટાતો પ્રાચિન મંદિરમાં મળે છે. शिल्पीओमें कइ एसी मान्यता है के जब उदबर हुत गालनेका हो तब कुंभी भी उतारना दोन प्रकारका द्रष्टात मीलता है Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मय गर्भगृह-द्वारशाखाधिकार न म - - - - 4 . . .. .. .. ........ - - - -- - - LATION -- - - SHES - । -- - - - सप्त शाखा युक्त अलंकृत द्वार तथा स्तंभ उदंम्बर-अर्धचंद्र Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२. हस्तिनी भरतश्तरचा विस्तार भाग • स्वयस रुपनी सीमा २भाग ha श्रीरार्णव अ:- १०९ क्रमांक अ. - ११. खुरकेन समं कुर्यादर्धचंद्रस्य चोच्छतिः । द्वारarre समं दैर्घ्यं निर्गमंच तदर्धतः ||२४|| द्विभागमर्धचंद्रश्व भागेन द्वौ गगारका । शंखपत्र समायुक्तं पद्माकारैरलंकृतम् ||२५|| गं धर्मशास्व राधिका 00000 अमरओ शिल्पी इन्जिनी अक्षशाखा विभार भाग रूपरेखा मीरा शि सप्त शाखाका १ उदंवर २ तिलकहा ३ शंखोद्वार अर्धचंद्र મંડોવરના ખરાના થરાના મથાળાના સૂત્રે અ` ચંદ્ર (શ ખાદ્નાર-શંખાવટ) ને મથાળેા રાખવા દ્વારની પહેાળાઈ જેટલા લાંબે અને તેનાથી અ શ ખાદ્વાર નીકળતા રાખવે. અધ ચંદ્ર ભાગ એ અને તેની અને તરફ અરધા અરધા ભાગના એ ગગારા કરવા. અર્ધ ચંદ્ર અને ગગારાના ગાળામાં શંખ અને કમળની આકૃતિ પત્રાથી અલંકૃત શંખોદ્વાર કરવા. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sલ) (ઉ ) શ્રી કુંભારીયાજીના દરાના જીનાલયની વચલી દેરીનું દ દ્વાર, रुपशाखायुक्त पंचशाखा द्वार उदंम्बर उत्तरङ्ग-आरासणा (अंबाजी) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OCHOOo रुपस्तंभ ईलिका तोरण-रुपशाखायुक्त द्वार, (आबु देलवाडा) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ गर्भगृह द्वारशाखाधिकार खरेके शीर्षके सूत्रमें अर्धचन्द्र (शंखोद्वार-शंखावट) का शीर्पक रखना । द्वारकी चौडाीके जितना लम्बा और उससे अर्ध-शंखोद्वार निकलता रखना । अर्धचन्द्र भाग दो और उसकी दोनों तरफ आधे आधे भागके दो गगारक करना । अर्धचन्द्र और गगारकके गालेमें शंख और कमलके आकृति पत्रोंसे अलंकृत शंखोद्वार करना । २४-२५. यस्य देवस्य या मूर्तिः सैवकार्यात्तरङ्गाके । परिवारश्च शाखायां गणेशश्वोत्तरङ्गाके ॥२६॥ .... हेवासयमा व पधरावेसा ..ન હોય તેની મૂર્તિ કે સેવક Halnirautres immy (३९) नी भूत उत्तम કરવી અને શાખાઓમાં તે KONSTROMALA MOC ना परिवारमा पsिana સ્વરૂપ કરવાં. ઉત્તરંગમાં વિશેષ કરી ગણેશની મૂર્તિ પણ मध्यमा ४२ छ. २६. देवालयमें जो देव पधराये हुए हो उसको मूर्ति या सेवककी (गरूड) मूर्ति उतरंगमें करना । और शखाओंमें उस देवके परिवारके पंक्तिबद्ध स्वरूपों बनाना । उत्तरंग में विशेषकर गणेशकी मूर्ति द्वारशाखाका ठेकामें देवप्रतिहार स्वरुप भी मध्यमें करते हैं । २६. ER TAL या कारक माना गयो मनाया का सामना गर्भगृह का मुख्य द्वारका उत्तरङ्ग Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीराव अ.-१०१ क्रमांक भ.-११ इति श्री विश्वकर्मा कृते क्षीरार्णवे नारदपृच्छायां गर्भगृह द्वारशास्त्राधिकारे शताग्रे नवमोऽध्याय ॥१०९॥ (क्रमांक अ० ११) ઈતિશ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત ક્ષીરાવ નારદમુની સંવાદરૂપ ગર્ભગૃહ અને કાર શાખાધિકારને શિલ્પ વિશારદ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા એ રચેલી સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાને એકસો નવમો અધ્યાય ૧૦૯ इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव नारदमुनिके संवादरुप गर्भगृह और द्वारशाखाधिकारका शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुराकी रचिता सुप्रभा नाम्नी भाषाटीकाका एकसौ नौवाँ अध्याय ॥१०९॥ (क्रमांक अ० ११) AS ਦੇ ਬs चहनाय Hin-ओ.यनिमहापीठ साथप्रमाल और शिवनिर्माल्यका चंडनाथ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ प्रतिमा पीठ लिङ्ग मान ॥ क्षीरार्णव अ० ११० - क्रमांक अ० १२ श्री विश्वकर्मा उवाच 'देवता मुनिभिर्भाग पीठमान पीटभागमेकेन सार्द्ध भाग द्विभागमुत्तमं चैव देवपीठं यदि सम समात्किर्णः प्रतिमा लक्षणान्वितं ॥ २ ॥ महेश्वरस्य विष्णोश्च ब्रह्माचोमं संभवेत् । इति रेषांतो देवानां कर्तव्यं धिमता ॥ ३ ॥ मथोच्यते । मध्यमम् ॥ १ ॥ समुच्छ्रयं । શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. પ્રાસાદના દેવ અને મુનિની મૂર્તિ અને પીઠ માન કહું છું. એક ભાગનું પીઠ કનિષ્ઠામાન, દોઢ ભાગનું પીઠ મધ્યમાન, અને એ ભાગનુ દેવપીડ ઊંચું એ ઉત્તમ માન જાવુ. કદીક પ્રતિમા અને પીઠ સમ ઊંચાઈના લક્ષણુના પણ થાય. તે મહેશ્વર વિષ્ણુ અને બ્રહ્મા ઊંચાઈના રેખાસ્ત્ર मान प्रमाणे पी मुद्धिमाने जगुवु १ १-२-३. श्री विश्वकर्मा कहते हैं । प्रासादके देव और मुनिकी मूर्ति और पीठमान कहता हूँ । एक भागका पीठ कनिष्ठमान, डेढ भागका पीठ मध्यमान और दो भागका देवपीठका ऊँचा उत्तममान समझना । कभी प्रतिमा और पीठ समझना ऊँचाई के लक्षण भी होते है । वह महेश्वर विष्णु ब्रह्मा ऊँचाईके रेखासूत्र मानके अनुसार पीठ बुद्धिमानको समझना । १ १-२-३. द्वारमष्ट विभक्तं च त्रिधा भक्तं सप्तभि: पीठं च भाग मेकं तु शेषं च प्रतिमा मुने ! ॥ ४ ॥ પ્રાસાદના દ્વારની ઊંચાઈના આઠે ભાગ કરી ઉપરના એક ભાગ તજીને આાકીનાના સાત ભાગ કરી તેમાં ત્રણ ભાગ કરી એક ભાગનું પીઠ અને બાકી ના બે ભાગની પ્રતિમા હે મુનિ, કરવી. ૪ प्रासादके द्वारकी ऊँचाईके आठ भागकर उपरका एक भाग तजकर बाकी (૧) શ્લોક ૧ થી ૩ ની શુદ્ધિ માટે પ્રયાસ કરતાં જે અર્થ નિકળે છે તે આપવા પ્રયાસ કરેલ છે. છતાં પાઠાંતર અન્ય મળે તેા ઉત્તમ. (१) श्लोक एक से तीनकी शुद्धिके लिये प्रयास करते जो अर्थ निकलता है यह देनेके लिये प्रयास किया है फिर भी पाठांतर अन्य मिले तो उत्तम है । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ क्षीराव अ. ११० क्रमांक अ.- १२ भाग सात भागका तीन भागकर एक भागका पीठ और बाकी के दो भागकी प्रतिमा करना । ४. सप्तभागं भवेत्द्वारं षड्भाग त्रिधाकृतम् । द्विभागं प्रतिमामानं शेषं पीठस्यमुच्छ्रय ॥ ५ ॥ ગર્ભગૃહના દ્વારની ઊંચાઈના સાત ભાગ કરી ઉપરના એક ભાગ તજીને માીનાના છ ભાગના ત્રણ ભાગ કરવા. તેના બે ભાગની પ્રતિમા અને બાકી એક ભાગનું પીઠ ઊંચુ કહ્યુ છે, ૫, गर्भगृहके द्वारकी ऊँचाईके सात भागकर उपरका एक भाग छोड़कर बाकी के छः भागके तीन भाग करना | उसके दो भागकी प्रतिमा और बाकी एक भागका पीठ ऊँचा कहा है । ५. द्वारं षड् भागिकं ज्ञेयं त्रिधा पंच प्रकल्पयेत् पीठे तु भाग मेकेन द्विभागे प्रतिमा भवेत् ॥ ६॥ ગર્ભગૃહના દ્વારની ઊંચાઈના છ ભાગ કરી ઉપરના એક ભાગ તજી આકીનાના ત્રણ ભાગ કરી એક ભાગનું પીઠ ઊંચુ કરવુ અને એ ભાગ ઊંચી પ્રતિમા लागुची २६. गर्भगृह द्वारकी ऊँचाईके छः भागकर उपरके एक भागको छोड़कर बाकी के भाग तीन भागकर एक भागका पीठ ऊँचा करना। और दो भाग ऊँची प्रतिमा जानना | ६. एवमध्ये प्रतिमाच अद्धे शयनासनं भवेत् । पीठमानं च नान्यत्र शेष स्थाने च निष्फलम् ॥ ७ ॥ जल शय्या प्रमाणेन द्वार विस्तार साधितम् अन्यथा च यदा अर्चा विस्तरं नैव लङ्घयेत् || २ || આ રીતે ઊભી પ્રતિમાનું માન જાણવુ', શયનાસન પ્રતિમાનું માન દ્વારાદયના અધ ભાગે રાખવું. જલશય્યાના શેષશાઈના માન પ્રમાણે દ્વારના વિસ્તાર સાધવે રાખવેશ દ્વાર વિસ્તારથી શય્યા સ્મૃતિના વિસ્તારનું લઘન કરવું નહિ અર્થાત્ (૨) શ્લોક ૢ ના બીજા પત્રમાં પદ્મ ના સ્થાને અન્ય પત્રામાં પંચ નો પાઠ વધુ મળે છે. પરંતુ ક્લાક ૪-૫ અને ૬ ના ક્રમથી લેતાં ષ પાડે યોગ્ય છે. (२) श्लोक ६ के दूसरे पदमें षड्के स्थानपर अन्य प्रत्रोंमें पंचका पाठ ज्यादा मिलता है, लेकिन श्लोक ४, ५ और ६ के क्रमसे देखते षट् पाठ योग्य है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रतिमा पीठलिङ्गमानाधिकार and Socika દ્વાર વિસ્તાર જેટલી શયન પ્રતિમા લાંબી રાખવી. (અપરાજિત સૂત્ર માં આપેલા પ્રમાણથી આ प्रभाए! नानु छे.) ७-८. इस प्रकार खडी प्रतिमाका मान जानना । शयनासन प्रतिमाका मान द्वारोदयके आधे भागमें रखना । जलशय्याके मान के अनुसार द्वारका विस्तार रखना द्वार विस्तारसे शय्या मूर्तिके विस्तारका लंघन नहीं करना अर्थात् द्वार विस्तारके बराबर शयन प्रतिमा लम्बी रखना। ७-८ (अपराजित सूत्रके प्रमाणसे यह प्रमाण छोटा गवाक्ष, वारह : पक्षमै बिरालिका द्वारस्य विस्तराद्धेनि पादोनेवा विचक्षणं दलौकृत्य तदस्थाने प्रमाण तु त्रिधा पुनः ॥९॥ ગર્ભના દ્વારની પહેલાઈન (૧) અર્ધ ભાગે (૨) પિણ્ ભાગે (૩) કે દ્વારા વિસ્તાર જેટલી એમ ત્રણ પ્રકારે પ્રતિમાના વિસ્તારનું પ્રમાણ જાણવું. ૯. गर्भगृह के द्वारकी चौचाईक (१) आधे भागमें (क) पौने भागमें (३) या द्वार विस्तारके बराबर इस तरह तीन प्रकारसे प्रतिमाके विस्तारका प्रमाण जानना। ९ ३ तृतीयांशेन गर्भस्थ प्रासादे प्रतिमोक्षमा। मध्यमा स्वदशांशेन पंचमांशोना कनीयली ॥६१॥ दीपार्णव Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ क्षीरार्णव अ. ११० क्रमांक अ. १२ अथ लिङ्गमान-प्रासाद पंचमांशेन लिङ्गाकूर्यात्प्रयत्नतः वेदविज्ञादित्पीठं भावाज्ञपीठ मानकम् ॥१०॥ પ્રાસાદના પાંચમા ભાગે PORN सनी मा प्रयत्न કરીને રાખવી અને પ્રાસાના ચોથા ભાગે જળાધારીને पर विस्तार रामवो. १०. प्रासादके पाँचवें भागमें राजलिङ्गकी लम्बाई प्रयत्न करके रखना और प्रासादके चौथे भागमें जलधारीका विस्तार रखना । १०. NAARTI '.. SENSANA MATAMDASHI ગર્ભગૃહના ત્રીજા ભાગની પ્રતિમાનું પ્રમાણ ઉત્તમ માન જાણવું. તેને દશમે ભાગ હીન કરે તો મધ્ય ભાન અને પાંચમો ભાગ હીન કરે તો કનિષ્ઠ માન प्रतिभानु बरा. गर्भगृहके तीसरे भागकी प्रतिमाका प्रमाण उत्तम मान जानना । उसका दशवाँ भाग हीन करे तो मध्यम मान और पाँचवा भाग हीन करे तो कनिष्ठ गवाक्षमे उर्ध्व तिलक शिव-पक्षमें विरालिका मान प्रतिमाका जानना । सप्तांशे गर्भगेहे तु द्वौ भागो परिवर्जयेत् । पंचमांशो भवेद्वेव शयनस्य सुखावह ॥ अपराजित सूत्र ગર્ભગૃહના સાત ભાગ કરી તેના બે ભાગ તજને પાંચ ભાગના જળશાયી સૂતેલી મૂર્તિનું પ્રમાણ રાખવું એ સુખને આપનાર જાણવું. તે અપરાજીતનું પ્રમાણ છે. गर्भगृहके सात भाग कर उसके दो भाग छोड़कर पाँच भागके जलशायी सुप्त मूर्तिका प्रमाण रखना, यह मुखदाता है। यह अपराजित ग्रंथका प्रमाण है । उर्ध्व प्रतिमा मान-पक हस्तेतु प्रासादे मूतिरेकादशाङ्गुला । दशांगुल ततो वृद्धिः यावद् हस्त चतुष्टयत् ॥६६॥ समा - एशका 1 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रति पीडलिङ्ग मानाधिकार द्वार विस्तार गृह्य अष्टमांशोनिमध्यत । ज्येष्ठ मध्याकनिष्ठं चा अवमानं चतुर्मुखं ॥ ११ ॥ ११९ ચાતુર્મુખ પ્રતિમાનું પ્રમાણ કહે છે. દ્વાર વિસ્તારની ખરાખર પ્રતિમા રાખવી તે મધ્યમાન, આઠમા ભાગ હીન રાખવી તે કનિષ્ઠ માન અને દ્વાર વિસ્તારથી આઠમે ભાગ વધુ રાખવી તે જ્યેષ્ઠ માન એ રીતે ચાતુર્મુખ પ્રાસાદની પ્રતિમાનું પ્રમાણ જાણવુ−૧૧. द्वयागुला दश हस्तान्ता शतार्द्धा ताङ्गुलस्य च । अतो विशदशोना मध्यमrsaf कनीयसी ||६|| दीपार्णव એક હાથના પ્રાસાદને અગિયાર અગુલની માન જાણવુ એ રીતે ચાર હાથ સુધીના પ્રાસાને ગજે દશ 'ગુલની વૃદ્ધિ પ્રત્યેક ગજે કરવી. પાંચથી દશ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક ગજે બબ્બે અંગુત્રની વૃદ્ધિ કરતા જવું. દશથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક ગજે એકેક અગુલની વૃદ્ધિ કરવી. તે ઉત્તમ માન નવું, તેને વીશમે ભાગ હીન કરવાથી મધ્યસાન અને મે ભાગ હીન કરવાથી કનીષ્ઠ માન જાવું. एक हाथके प्रासादको ग्यारह अंगुलकी खड़ी प्रतिमाका मान जानना । इस तरह चार हाथ तकके प्रासादके गज पर दस दस अंगुलकी वृद्धि प्रत्येक गज पर करना | पाँचसे दस हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक णज पर दो दो अंगुलकी वृद्धि करते जाना | दससे पचास हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक गज पर एक एक अंगुलकी वृद्धि करना । यह उत्तम मान जानना । उसके बीसवें भागको हीन करनेसे मध्यमान और दसवें भागको हीन करनेसे कनीघ्रमान जानना । • आसनस्थ प्रतिमामान - हस्तादेर्वेद हस्त ते षड्वृद्धिः स्यात् षडांकुला । तदूर्ध्वं दश हस्तान्ता त्र्यंङ्गुला वृद्धिरिष्यने ॥ ६६ ॥ पकाला भवेद् वृद्धि यवत् पंचाशद्धस्तकम् । विंशत्येकाधिका ज्येष्ठा विंशत्योन कनीयसी ॥६७॥ उपस्थिता प्रथमा प्रोका आसनस्था द्वितीथका । ભેદી પ્રતિમાનું માન કહે છે. એક હાથથી ચાર હાથ ગજસુધીના પ્રાસાદનું પ્રત્યેક હાથે છ છ આંગળની એડી પ્રતિમાનું માન જવું. ત્યાર પછી છ થી દશ હાથ સુધીના પ્રાસાદનું પ્રત્યેક હાથે ત્રણ ત્રણ આંગળ વધારતા જવું. અગ્યારથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક ગજે એકેક આંગળની વૃદ્ધિ કરતા જવું તે મધ્યમાન આવેલ માનના વીશમે! ભાગ વધારવાથી જ્યેષ્ઠભાન અને વીસને ભાગ હીન કરવાથી નિમાન નવું. એ રીતે આગળ જે પહેલુ ઊભી પ્રતિભાનું ભાન કહ્યું અને આ બીજું માન મેઢી પ્રતિમાનું જાણવું . बैठी हुई प्रतिमाका मान कहते हैं। एक हाथसे चार हाथ --गज तकके प्रासादका प्रत्येक हाथमें छः छः अंगुलकी बैठी प्रतिमाका मान जानना | बादमें छः से दस हाथ तकके प्रासादका प्रत्येक तीन तीन अंगुल बढ़ाते जाना । ग्यारहसे पचास हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक राज पर Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० क्षीरार्णव अ. ११० क्रमांक म. १२ चातुर्मुख प्रतिमाका प्रमाण कहते हैं। द्वार विस्तारके बराबर प्रतिमा रखना यह मध्यमान, आठवाँ भाग हीन रखना यह कनिष्ठमान, और विस्तारसे आठवाँ एक एक अंगुलकी वृद्धि करते जाना। यह मध्यभान है। आये हुए मानका बीसवाँ भाग बढ़ानेसे ज्येष्ठमान और बीसवें भागको हीन करनेसे कनिष्ठमान जानना। इस तरह आगे जो पहेला खड़ी प्रतिमाका मान कहा और यह दूसरा मान बैठी प्रतिमाका जानना। प्रासाद गज बैठी प्रतिमा मान अंगुल खड़ी प्रतिमा मान अंगुल प्रासाद गज बैठी प्रतिमा भान-अंगुल खड़ी प्रतिमा मान अंगुल प्रासाद बैठी प्रतिमा मान अंगुल खडी प्रतिमा मान अंगुल | गर्भ पंचाशकेत्र्यंशै ज्येष्ठे लिङ्ग तु मध्यगम् । नवाशे पंच भागं स्यादधि कनिष्ठादेय ॥ अ० १३॥ ગર્ભહના પાંચ ભાગ કરી ત્રણ ભાગના રાજલિંગની લંબાઈ જયેષ્ઠ માનની જાણવી તેના નવ ભાગ કરી પાંચ ભાગની લંબાઈનું લિંગ ઉદય મધ્યમાનનું અને ગર્ભગૃહના અધભાગે રાજલિંગનું ઉદય તે કનિષ્ઠમાન જાણવું. गर्भगृहके पाँच भाग कर तीन भागके राजलिङ्गको लम्बाई ज्येष्ठमानकी जानना। उसके नौ भाग कर पाँच भागकी लम्बाईके लिङ्ग उदयको मध्यमानका और गर्भगृहके आधे भागमें जो राजलिङ्गका उदय है उसे कनिष्ठमान जानना । गृहपूजा योग्य प्रतिमामान-आरंभ्यागुल उर्वं पर्यंते द्वादशाङ्गुलम् । गृहेषु प्रतिमा पूज्या नाधिके शश्यते बुधः ॥ એક આંગળથી બાર આંગળ સુધીની દેવમૂતિ ગૃહપૂજાને યોગ્ય જાણવી તેથી અધિક મેટી મૂતિ બુદ્ધિમાને ઘરપૂજામાં ન રાખવી (મસ્ય પુરાણમાં અંગુઠાના પર્વથી નવ આંગળ સુધીનું પ્રમાણ ગુહપૂજાને માટે આપેલું છે.) एक अंगुलसे बारह अंगुल तककी देधमूर्तिको गृहपूजाके योग्य जानमा। उससे अधिक बड़ी मूर्तिको बुद्धिसानको द्वारपूजामें न रखना चाहिये । (मत्स्य पुराणमें अंगुष्टके पर्वसे नौ अंगुल तकका प्रमाण गृहपूजाके लिये दिया है।) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रतिमा पीठलिङ्ग मानाधिकार भाग ज्यादा रखना, यह ज्येष्ठमान इस तरह चातुर्मुख प्रासादकी प्रतिमाका બાળ વાનના ! ૧૨. पदमांशनीषदार्चा द्वारविस्तार भाषितम् । .. वितराग यदा लक्ष्मी नीकुलीश बुध मेव च ॥१२॥ ગર્ભગૃહના પદના વિભાગે કે દ્વારના વિસ્તાર પ્રમાણથી વિતરાગ=જીન લક્ષ્મીજી કે નકુલીશ કે બુદ્ધની પ્રતિમા રાખવી-૧૨. गर्भगृहके पदके विभागमें या द्वारके विस्तार प्रमाणसे वितराग-जीन लक्ष्मीजी या नकुलीश या बुद्धकी प्रतिमा रखना । १२. उच्छ्ये यत्र पीठस्य त्रिंशता परिभाजिते । एकोशं भूगतं कार्य त्रिभागः कण्ठपीठिका ।।१३।। भागाई मुखपट्टे च स्कन्ध सार्द्धत्रयोन्नतः । स्कन्धस्य पट्टिकावस्याद् भागैकं चान्तरपत्रिका ॥१४॥ कर्ण साई द्वयं वैस्याद् भागैकं चिप्पिका मता । द्विभागं चान्तः पत्रकं कपोताली द्विसाड़िका ॥१५॥ सार्द्ध पंच ग्रासपट्टिः कर्तव्या विधिपूर्वकम् । ... अर्धे मुखपट्टिकाख्या त्रिभागं कर्णशोभनंम् ॥१६॥ अधः स्कन्धपट्टिः कार्या चतुर्भागश्च स्कन्धकः । क्षोभणाश्चष्टभागैः कर्तव्यं तदर्शकितैः ॥१७॥ વિભાગ, દેવસ્થાપન નીચેની પીઠિકા પબાસણ-સિંહાસનની જમીનમાં કંઠપદી ઊંચાઈ (જે ભાગે આવતી હોય તેના) ના ત્રીસ ભાગ કરવા. મુખપટ્ટી તેમાં એક ભાગ ભૂમિમાં–ત્રણ ભાગ કંઠપટ્ટી અર્ધા ભાગની સ્કંધ જબ મુખપટ્ટી, સાડાત્રણ ભાગને રકંધ (ગલ, જાડબે) અંધારી કણીકા કરે (તેમાંથી અરધા ભાગને કંદ કાઢવો) તે પર અરપા ચીપીકા ભાગની અંધારી-તે પર કણ અહી ભાગની–તે પર એક અંતરપત્ર કેવાળી ભાગની ચીપીકા કરવી–તે પર બે ભાગનું અંતરપત્રચાંસપટ્ટી કેવાળ અઢી ભાગને–તેને પર ગ્રાસપટ્ટી સાડાપાંચ ભાગની મુખપટ્ટી વિધિથી કરવી. અરધા ભાગરી મુખપટ્ટી–અંધારી કરવી, કણકા. સ્કંધપટ્ટિ ત્રણ ભાગની કણી કરવી. તે પર અરધા ભાગની સ્કધપટ્ટી=કંદ અને સૌથી ઉપર કંધક. ગલતે ચાર ભાગને કરે. આ બધા થરમાં અંતરપત્રથી કંઠપટ્ટને ઘાટ આઠ ભાગ ઊંડે ટ..., Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सावो मे रीते सिंहासन मंडित २. १३-१४-१५-१६-१७. - ८-भाग 13 be 112-2019 B NEN ५॥ भाग ३० पीठिका = सिंहासन कर्मिकार्य अंतर क्योनाचा सभ्भयडीफ) ] उदय २॥ १ २ २ ३॥ किटगरिको संबंध O क्षीरार्णव अ. - ११० क्रमांक अ.-१२ प्रभाशंकर ओ० स्थयति. देवस्थापनकी नीचेकी पीठिका - सिंहासनकी ऊचाई ( जिस भागमें आवें उसके ) के तीस भाग करना । इनमें एक भाग भूमिमें - तीन भाग कटपट्टी, आधे भागकी मुखपट्टी, साढ़े तीन भागका स्थंध ( गलता - जाडंबा ) करना ( उममेंसे आधे भागका कंद निकालना । ) उसके पर आधे भागकी अंधारी, उसके कणी ढ़ाओ भागकी, उसके पर एक भागकी चिपिका करना । उसके पर दो भागका अंतरपत्र- करना केवाल ढाओ भागका, उसके पर ग्रासपट्टी साढ़े पाँच भागकी विधिसे करना | आधे भागकी मुखपट्टी अंधारी करना । तीन भागकी कर्णी पर ओथयति देव सिंहासनः पीठ - उदय विभाग करना, उसके पर आधे भागकी स्कंधपट्टी-कंद और सबसे उपर स्कंधक गलता चार भागका करना । इन सब स्तरोंमें अंतरपत्रसे कंठपट्टीके घाटको आठ भाग गहरा बिठाना इसीतरह सिंहासनको अंकित करना । १३-१४-१५-१६-१७. इति श्री विश्वकर्मा कृते श्रीरार्णवे नारद पृच्छीयां प्रतिमा लिङ्गपीठ मानधिकारे शताये दशमोऽध्याय ॥ ११० ॥ क्रमांक अ० १२ ઈતિ શ્રી વિશ્વકર્માં વિરચિત ક્ષીરાવે નારદમુનિના સ્વાદરૂપ પ્રતિમા, લિંગ અને પીઠના માના અધિકાર શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશ`કર એઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાના એકસો દશમા અધ્યાય-૧૧૦ ક્રમાંક અ૦ ૧૨ इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव में नारदमुनिके संवादरूप प्रतिमा, लिङ्ग और पीठके मानका अधिकार शिल्पविशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुराकी रची हुआ सुप्रभा नामकी भाषा टीका का अकसौ दसवाँ अध्याय | ॥११०॥ ( क्रमांक अ० १२ ) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ देवता दृष्टिपद स्थापन । क्षीरार्णव अ० १११-क्रमांक अ० १३ . उच्छ्रयं द्वांत्रिशत् भागं द्वार मान विशेषतः (अधःतै अष्ट भागं च शिवस्थानं च निश्चलं ॥१॥) हरश्चदशमे भागे द्वादशे जलशयिते । .. मातरस्य द्वयाधिक्य यक्ष षोडशान्विते ॥२॥ अष्टादशैव कर्तव्यं उमारुद्राश्रिया हरिं । विंशमे ब्रह्मयुग्मंच तत्र दुर्गाअगस्तादय ॥३॥ एवं विधेयप्रकर्तव्या नारदादि मुनीश्वराः । શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. ગર્ભગૃહના દ્વારની ઊંચાઈના બત્રીશ ભાગ કરવા. નીચેના આઠ ભાગ શિવરથાનના જાણવા નીચેથી આઠ ભાગમાં શિવલિ બેસાડવા, દશમે ભાગે, હર શીવર, બારમા ભાગે શેષ શાયિની દષ્ટિ રાખવી, ચૌદમા ભાગે માતૃકાઓની સીમા ભાગે યક્ષની દષ્ટિ રાખવી. અઢારમા ભાગે-ઉમા રૂદ્રલક્ષ્મી અને વિષ્ણુની અને બ્રહ્મા-સાવિત્રીનું વશમા ભાગે તેમજ દુર્ગા અગસ્તાદય નારદ આદિ મુનિની દૃષ્ટિએ વિધિથી એટલે વીશમે ભાગે રાખવી. १-२-3-४. विश्वकर्मा कहते हैं-गर्भगृहके द्वारकी ऊँचाईके बत्तीस भाग करना। नीचे का आठ भाग शिवलिङ्ग का स्थान का समझना उम्बरेसे दस भाग हर शिव बारहवें भागमें शेषशायीकी दृष्टि रखना। चौदहवें भागमें मातृकाओंकी । सोलहवें भागमें यक्षकी दृष्टिं रखना । अठारहवें भागमें उमारूद्र-लक्ष्मी और विष्णु की । ब्रह्मा और सावित्रीका वीसवें भागमें और दुर्गा अगस्त्यादय नारद आदि मुनिकी दृष्टि इस विधिसे अर्थात् बीसवें भागमें रखना । १-२-३-४. एकविंशे भवेक्लक्ष्मीश्चतुर्विशे सरस्वती ॥४॥ पंच विशे जिनस्थानं षड्विंशेचंद्रमेव च। ब्रह्मा विष्णुस्तथारुद्रः सूर्यश्च सप्तविंशतिः ॥५॥ भैरवश्चंडिकाश्चैव एकोनत्रिंशदेशके । तत्पदंच परेशून्यं भूतप्रेतादि राक्षसा ॥६॥ * ૧ કઈ પ્રતોમાં બિરા–ત્રણ ભાગ કહ્યા છે. પણ તે કદાચ અશુદ્ધ હેય-ત્રિશત્ માન कोइ प्रतमें कहा है मगर वो अशुद्ध प्रत होगी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - १२४ श्रीरार्णव म. १११ क्रमांक अ. ११३ એકવીશમા ભાગે લક્ષ્મીની દષ્ટિ, ચવીશમા ભાગે સરસ્વતી (અને ગણેશની) પચ્ચીશમા ભાગે જિન તીર્થકર, છવ્વીસમા ભાગે ચંદ્રની, સત્તાવીશમા ભાગે બ્રહ્મા વિષ્ણુ અને રૂદ્રની અને સૂર્યની મૂર્તિની, ઓગણત્રીસમા ભાગે ભૈરવ અને ચંડિકાની દૃષ્ટિ રાખવી. તે ઉપરના ત્રણ શૂન્ય ભાગમાં ભૂત પ્રેત અને રાક્ષસની દષ્ટિ રાખવી. इक्कीसवें भागमें लक्ष्मीकी दृष्ठि, चौबीसवें भागमें सरस्वती ( और गणेश की) पच्चीसवें भागमें जिन तीर्थंकर, छब्बीसवें भागमें चंद्रकी, सत्ताबीश भागमें ब्रह्मा विष्णु और रूद्रकी और सूर्यकी मूर्तिकी और उनतीसवें भागमें भैरव और चंडिकाकी दृष्टि रखना । उसके उपरके तीन शून्य भागमें भूत प्रेत और राक्षसकी દષ્ટિ રન I –-. द्वारोच्छ्योऽष्टधाभक्तं अर्श्वभागं परित्यजेत् । सप्तमा सप्तमे भागे तस्मिन् दृष्टिस्तु शोभना ॥७॥ દ્વારની ઊંચાઈ આઠ ભાગ કરી ઉપરને આઠમે ભાગ તજી દે. અને સાતમા ભાગના ફરી આઠ ભાગ કરી તેને સાતમા ભાગે દેવેની દષ્ટિ રાખવી તે શુભ છે. द्वारकी ऊँचाईके आठ भागकर उपरके आठवें भागको छोड देना । और सातवें भागके फिर आठ भागकर उसके सातवें भागमें देयोंकी दृष्टि रखना, દ્ રુમ હૈ છે. " હીરાવની કેટલીક પ્રતોમાં “રજી દ્વિશતદાર” આ ત્રિશ ભાગને પાઠ મળે છે પરંતુ એક જૂની આધારભૂત પ્રતમાં શુદ્ધપાઠ અને ઘટતા બે પદોની ત્રુટિ પણ મળી આવી-કહૂર્વ સૂરત માન” નો સાચો પાઠ મળ્યો તે પહેલાં લેકના પાછલા બે પદો પર્સ બષ્ટ માં ૨ શિવ સ્થાનં ૨ નિશ્રઢ ૧u દીપાર્ણવ ગ્રંથના દષ્ટિપદ વિભાગ આ મંથના થોડા થોડા ફેરફાર સાથે મળે છે પરંતુ તે ફેરફાર વધુ ભાગે અશુદ્ધિના આભારી હોય! ૧૮ ભાગે બ્રહ્મા યુગ્મને લઈ ૧૯ભા ભાગે બુધ ચિત્ર લેપને ૨માં ભાગે દુર્ગા નારદાદિ મુનિ દીપાર્ણવમાં કહ્યાં છે. જિન તીર્થકર ૨૧મા ભાગે લક્ષ્મી સાથે લીધેલ છે વ્યારે આ ગ્રંથમાં ૨૫મા ભાગે જિનનું સ્વતંત્ર દૃષ્ટિ સ્થાને કહ્યું છે. હીરાવની કેટલીક પ્રતોમાં વિશે ઘનસ્થાનને અશુદ્ધ પાઠ મળે છે પરંતુ ઉપરોકત આધારભૂત પ્રતમાંથી ઇનને ઘટ્ટ લિનસ્થાનને પાઠ મળી આવ્યા છે તે તે સાચા પાઠ છે. દક્ટિસૂત્ર વિષયમાં અપરાજિત સૂત્ર સંતાન, ઠકકુરફેર વાતુસાર, અને આ૦ વસુનંદી કૃત પ્રતિષ્ઠાસાર જ્ઞાન રત્નકેપ દેવતામૂર્તિ પ્રકરણમાં મતમતાંતરો છે. ઉપરાંત સૂત્ર ૧૩ળ્યાં ચોસઠ ભાગ દ્વારાદયને કહ્યા છે. તેમાં હિંગ ૧૮ ભાગ સુધીમાં, ૨૭મા ભાગે જળશાયિન ૩૭ ઉમાફક, ૪૯ ગણેશ સરસ્વતી અને પપમાં ભાગે બ્રહ્મા વિષ્ણુ રુદ્ર અને જિનની દૃષ્ટિ રાખવાનું કહ્યું છે. કુકુર ફેર વાસ્તુસારમાં કારના ઉદયના દશભાગ કરી પહેલા ભાગમાં Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ देवता दृष्टि-पद स्थापनाधिकार उर्ध्वदृष्टि विनाशाय अधो च भोग हानि च । सुखदा सर्वकालेषु समदृष्टि न संशयः ॥८॥ દૃષ્ટિ સ્થાનથી જે ઊંચી દૃષ્ટિ રાખે તે વિનાશ થાય અને નીચી દષ્ટિ રાખે તે સમૃદ્ધિને નાશ થાય માટે સમસૂત્રમાં સરખી, વિભાગે સૂત્રે દૃષ્ટિ રાખવાથી સર્વ કાળમાં સુખ જ રહે તેમાં સંશય ન જાણો. ૮. ___दृष्टि स्थानसे जो ऊँची दृष्टि रखें तो विनाश होता है, और नीची दृष्टि रखे तो समृद्धिका नाश होता है । इसलिये समसूत्र में समान विभागमें सूत्र में दृष्टि रखनेसे सर्वकालमें सुखही रहे उसमें जरा भी संशय न जानना । ८. શિવલિંગ ત્રીજામાં શેપ શાયી, સાતભામાં શાસનદેવ (યક્ષયાણી)ની રાખવી. હવે તે છે અને સાતમા ભાગ વચ્ચે દશભાગ કરી સાતમા ભાગે જિન તીર્થંકરની દૃષ્ટિ રાખવાનું કહે છે. આઠમા ભાગે ચંડી ભૈરવ અને નવમા ભાગે છત્ર ચામર ધારી ઈંદ્રાદિ દેવ, દીપાવ અને લીરાવના દ્રષ્ટિ વિષયના પાઠોમાં નજીવો ફેરફાર છે. ઠકકુર ફેફ વાસ્તુસાર દશભાગ કરી જિનદષ્ટિ સાતમાં ભાગથી પણ નીચે રાખવાનું કહે છે. તેના વિભાગ કેપ્ટકમાં આપેલ છે. દિગંબરાચાર્ય વસુનંદીકૃત પ્રતિષ્ઠાસારમાં કહે છે. विभज्य नवधा द्वारं तत् षड्भागानधस्त्जेत् । ऊर्चे द्वौ सप्तमं तद्वद विभज्य स्थापयेद् दशाम् ॥ દ્વારની ઊંચાઈના નવ ભાગ કરી નીચેના છ ભાગ અને ઉપરના બે ભાગ છોડી દેવા, બાકીનો સાતમો ભાગ રહ્યા તેના નવ ભાગ કરી તેના સાતમે ભાગે જીન પ્રતિમાની દષ્ટિ રાખવી. આમ બેઉ જન મત પણ દૃષ્ટિ વિષયમાં એકમત નથી. મતભેદ છે. આ મત મતાંતર જોતાં એક દૃષ્ટાંત રૂપે જે ૨ ગજ ૧૭ આંગળના દ્વારની ઉંચાઈ લઈ જિનદેવની દષ્ટિ દષ્ટાંત રૂપે ગણતાં-અપરાજિત સત્રની દૃષ્ટિ ઉત્તરંગથી ૯ આંગળ દો. નીચી ઠકુર ફેરવાતુસારના મતે ૧૮ – ૮ ,, આ૦ વસુનંદીના મતે ૧૬ છે , દીપાવ ૨૨ - રાય , આ રીતે કોઈ જૂના સ્થળે દષ્ટિ નીચી જણાતી હોય તે દોષ જતાં પહેલાં શાસ્ત્રોક્ત નિર્ણય કરે. સર્વ સામાન્ય મત આઠમા ભાગના સાતમા ભાગના આઠ ભાગ કરી સાતમા ભાગનું દૃષ્ટિ સૂત્ર અપરાજિત સૂત્ર સંતાનના ૬૪ ભાગના મતને મળતું છે. અને તે વાત માનમાં વિશેષ વ્યવ્હારમાં છે. બીજો એક મતભેદ વર્તમાનમાં વિદ્વાનોમાં પ્રવર્તે છે. દષ્ટિ સૂત્ર જે આવ્યું હોય તેના ખરે જ આંખની કીકીના મધ્યનું સૂત્ર એકસૂત્ર માં રાખવું જોઈએ. અને તેને શિલ્પી વર્ગ અનુસરે છે. હમણું જન વિદ્વાનો સtતમાળે ને અર્થ સાતમા માં એટલે સાતમાની અંદર નીચે એવો અર્થ કરે છે, જ્યારે શિલ્પીઓ સાતમાના સાતમે જ જે વિભાગ આપે ત્યાં જ દષ્ટિ રાખવાનું માને છે. જન વિદ્વાનો તેના સિંહબ્ધજગજાયે દૃષ્ટિ રાખવા નીચે ઉતારવાનું કહે છે–પરંતુ તે આયમેળ મંડન સૂત્ર Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ क्षीरार्णव अ. - १११ क्रमांक अ. - १३ अष्टाविंशतिर्भागानि गर्भगृहार्ध भागतः । प्रथमे च शिवस्थाप्यं किंचिद्धिशानमाश्रितम् ॥ ९ ॥ कर्णपिप्पलिकासूत्रं भुजगर्भेतु संस्थितम् । पादगुल्फ गर्भसूत्रे पदगर्भेषु देवता ॥ १० ॥ धार सिवायना अर्ध नूना ग्रंथमां आयभेणे दृष्टि रामवानुं हेता नथी. वृक्षार्णव अ० १४७ માં દૃષ્ટિત્ર એક વાલામ્રપણ ન લેાપવાનું કહે છે તે તે સૂત્ર ચાળવે તે દોષ કહ્યો છે. કાર્યસિદ્ધિ સમયે શિલ્પીઓએ આવા મતમતાન્તરના વિતડાવાદમાં ન ઉતરતાં જૈન વિદ્વાના પેાતાના મતના આગ્રહ સેવે ત્યારે તેમ કરવુ, १. क्षीरार्णवकी कई प्रतोंमें 'उच्छ्रय त्रिंशत् द्वार' ऐसा तीस भागका पाठ मिलता है । परंतु एक पुरानी आधारभूत प्रतमें शुद्धपाठ और कम दो पदोंकी त्रुटी भी मिली है। उच्छ्रयं द्वात्रिंशत् भाग यह सच्चा पाठ मिला, उसके पहले लोकके पिछले दो पदों अस्तै अष्टभागं च शिवस्थानं च निश्चलं ॥१॥ दीपार्णव ग्रंथके दृष्टिपद विभाग इस ग्रंथके बहुत थोडे तफावत के साथ मिलता है परंतु वह तफावत ज्यादा भागमें अशुद्धिके आभारी है । १८ वे भागमें ब्रह्मा युग्मके कारण १९ वे भागमें बुध, चित्रोपको बीसवें मार्गमें दुर्गाको नारदादि मुनि दीपार्णवमें कहे हैं। जिन तीर्थकर २१ वे भागमें लक्ष्मीके साथ में लिये हुए हैं । इस ग्रंथ में २५ वे भागमें जिनका स्वतंत्र दृष्टि स्थान कहा है । क्षीरार्णवकी कई प्रतोंमें " पंचविंश धनस्थान " का अशुद्ध पाठ मिलता है । परंतु उपरोक्त आधारभूत प्रतमेंसे धनस्थानके बदले 'जिन स्थान का शुद्ध पाठ मिला है । यह पाठ सच्चा है । दृष्टि सूत्र विषयमें अपराजित, सूत्र संतान, ठक्कुरफेरू वास्तुसार, आ० वसुनंदी कृत प्रतिष्ठासार, ज्ञानरत्नकोश, देवता मूर्ति प्रकरण में मतमतांतर | अपराजित सूत्र १३७ में द्वारोदयके चौसठ भाग कहे हैं । उसमें लिङ्ग अठारह (१८) भाग तक २७ वें भागमें जलशायिन, ३७ उमारूद्ध, ४९ गणेश सरस्वती और ५५ वें भागमें ब्रह्मा विष्णु, रूद्र और जिनकी दृष्टि रखने के लिये कहा गया है । ठक्कुर फेरू वास्तुसारमें द्वारके उदयके दस भाग कर, पहले भाग में शिव लिङ्ग तीसरे में शेष शायी सातवे में शासदेव = ( यक्षयक्षिणी) की रखना। अब वह छः और सातवें भाग के बिच दस भागकर सातवें भाग में जिन तीर्थंकरकी दृष्टि रखनेका कहा है। आठवें भागमें चंडी भैरव और नौवें भाग में छत्र चामरधारी इन्द्रादि देवों दीपाव और क्षीरार्णवके दृष्टि विषयके पाठोंमें नहिवत् तफावत है । ठक्कुर फेर वास्तुसारमें दस भागकर जिन दृष्टिको सातवें भागसे भी नीचे रखनेको कहते हैं । उसके विभाग कोष्ठक में दिये हुए हैं। दीगम्बराचार्य वसुनंदी कृतः प्रतिष्ठा सार में कहते हैं । ८८ द्वारकी ऊँचाईके नौ भाग कर, नीचेके छः भाग और उपरके दो भाग छोड देना । बाकीका सातवाँ भाग जो रहा, उसके नौ भाग कर उसके प्रतिभा की दृष्टि रखना । इस तरह दोनों जैन मत भी दृष्टि विषयमें एक मतभेद हैं । सातवें भाग में सूत्रमें नहीं है, >> Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वामन नृसिंह विष्णु-दशावतार-१ अथ देवता दृष्टि-पदस्थापनाधिकार १२७ ગર્ભગૃહમાં દેવ સ્થાપન કરવાના વિભાગ કહે છે. પ્રાસાદના ગર્ભગૃહના બે ભાગ કરી દ્વાર તરફનો ભાગ છેડી મધ્યગર્ભથી પાછળ ભિંત સુધીના અર્ધ ભાગમાં અઠ્ઠાવીશ ભાગ કરવા. તેમાં મધ્ય ગર્ભના પ્રથમ ભાગમાં શિવલિંગ મધ્યે સ્થાપન કરવા. પરંતુ તે કંઈક ઈશાન त२५ (५।-मधे हो। २रा ) સ્થાપન્ન કરવા અન્ય મૂર્તિઓને કાનન મધ્ય ગર્ભે કે બાહુના ગર્ભે કે પગની ઘુંટીના ગર્ભે એમ કહેલા પદના ગર્ભે हेवानी स्थापना ४२वी. ८-१०. गर्भगृह में देवस्थापन करने के विभाग कहते हैं । प्रासादके गर्भगृह के दो भाग कर द्वारकी तरफके भागको छोड़कर मध्यगर्भसे पीछे दिवार तकके अर्ध भागमें अट्ठाईस भाग करना । उसमें मध्यगर्भके प्रथम भागमें शिवलिङ्गको मध्यमें स्थापन करना । लेकिन उसे कुछ इशानकी तरफ (पा, आधे धागेके बराबर) स्थापन करना । अन्य मूर्तियोंको-कानके मध्यगर्भमें या न बाहुके गर्भ में या पाँवकी घुटीके - गर्भमें इस तरह बताये हुए गर्भमें देवोंकी स्थापना करना । -९-१०. ___ यह मतमतांतर देखते, एक दृष्टांत रूपमें जो २--गज १७ आंगुलके द्वारकी ऊँचाई लेकर जिनदेवकी दृष्टिको दृष्टांत रूपमें गिनते ३ वराह Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ द्वितीये हेमगर्भस्तु चतुर्थे चैव सावित्री रूद्रः स्यात् पंचमे पदे ॥ ११ ॥ षष्टिस्यात् षड्वक्त्रस्तु सप्तमे च पितामहः । अष्टमे वसुदेवश्व नवमे च जनार्दनः ॥ १२ ॥ दशमें विश्वरूपस्तु अग्निदेवं एकादशे । द्वादशे भास्करचैव दुर्गास्याश्च त्रयोदशे ॥ १३॥ चतुर्दशे विघ्नराजो षोडशं मातरो देविं क्षीरार्णव अ.-१११ क्रमांक अ.-१३. नकुलीशस्तृतीयके । ग्रहाणां दशपंचके । गण सप्तदशै तथा ॥ १४ ॥ क्षेत्रपाल तथापरे । पदाधिके ॥ १५ ॥ भैरवं च तदग्रे च विंशति यक्षराजं च हनुमतं द्वाविंशे मृगधोरिद्र ईश्वरं च पदाधिके । [चतुर्विंशे भवेत् त्यो राक्षस पदाधिके ] ||१६| अपराजित सूत्रकी दृष्टि उत्तरंगसे ठक्करफेर वास्तुसारके मतसे आ० वासुनंदीके मतसे दीपार्णव प्रथका मतसे तस्याग्रे पदं शून्यं क्रमेण स्थित देवता ॥ १७ ॥ ખીજા ભાગે બ્રહ્મા શાલિગ્રામ, ત્રીજા ભાગે નકુલીશ ( પાશુપત શૈવ ) ચેાથા ભાગે સાવિત્રી, પાંચમા ભાગે રૂદ્ર, છઠ્ઠા ભાગે કાતિક સ્વામી, સાતમા ભાગે બ્રહ્મા, આઠમા ભાગે વસુદેવ, નવમા ભાગે જનાર્દન, દશમા ભાગે વિશ્વરૂપ (એમ આઠથી દશ ભાગમાં વિષ્ણુ સ્વરૂપ) અગ્યારમાં ભાગે અગ્નિદેવ, બારમે સૂર્ય, તેરમે ભાગે દુર્ગા, ચૌદમે ગણપતિ, પંદરમે ગ્રહો, સોળમે ભાગે માતૃકાદેવીએ, સત્તરમે ભાગે ગણે!--અઢારમા ભૈરવ, ઓગણીશમા ભાગે ક્ષેત્રપાળ, વીશમા ભાગે યક્ષરાજ એકત્રીશમા ભાગે મૃગદ્યારેન્દ્ર, ત્રેવીશમા ભાગે અધેાર શિવ, ચાવીશમા ભાગે દૈત્ય, પચ્ચીસમે રાક્ષસ, છવ્વીસમે પિશાચ, સત્તાવીશમે ભાગે ભૂતની अंगुल धागा नीची ९ 91 33 १८ १६ 911 २२ २॥ इस तरह कोई पुराने स्थल पर दृष्टि नीची दिखती हो तो दोष देखनेसे पहले शास्त्रोक्त निर्णय करना । सर्वसामान्य मत-आठवें भागका - सातवें भागके मतको मिलता जुलता है । और वह वर्तमानमें विशेष व्यवहार में हैं । ० 33 33 "" Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न MA । अथ देवता ह्युष्टि पदस्थापनाधिकार મૂર્તિની સ્થાપના કરવી. એથી બીજા પદે શુન્ય જાણવા. આ રીતે ગર્ભગૃહના અઠ્ઠાવીશ ભાગના મંડળમાં મૂર્તિ સ્થાપનાનો ક્રમ જાણુ. ૧૧ થી ૧૭. [ ] માં દીધેલ ૧૬ કલેક એક શુદ્ધ પ્રતિમાં જ ફક્ત આપેલ છે બીજી પ્રતમાં નથી, दूसरे भागमें ब्रह्मा, शालीग्राम, तीसरे भागमें नकुलीश (पाशुपत शव) चौथे भागमें सावित्री, पाँचवें .भागमें रूद्र, | छटे भागमें कार्तिक स्वामी, सातवें भागमें ब्रह्मा, आठवें | भागमें वासुदेव नवमें भागमें जनार्दन विष्णु स्वरूप, दशमा भागे विश्वरूप, ग्यारहवें भागमें अग्निदेव, बारहवें भागमें सूर्य, तेरहमें देवियाँ, चौदवें गणेश, पंदरमें ग्रहो, सोलहवें मातृकादेवी, सत्रहवें भागमें गणों, अठारहवें भागमें भैरव, उन्नीसवें भागमें क्षेत्रपाल, बीसवें भागमें यक्षराज, इक्कीसवें भागमें हनमानजी. बाईसवें भागमें मृगधोरेन्द्र, तेईसवें भागमें अघोरशिव, चौबीसवें भागमें दैत्य, पचिशा राक्षस, छब्बीसवें पिशाच, सत्ताबीसवें भागमें भूतकी मूर्तिकी स्थापना करना । इससे दूसरे पदोंको शून्य -SHOPAGAIB E जानना । इस तरह गर्भगळके 1 अट्ठाईश भागके मंडलोंमें मूर्तिस्थातोरण -गजसिंह बिरालिका युक्त अनिदेव । पनाका क्रम जानना । ११ से १७ [ ] कौसमें दीया हुआ १६ वे शोक शुद्ध प्रतिमें फक्त है। वर्तमान विद्वानोर्ष एक मतभेद प्रवर्तता है, दृष्टिसूत्र जो आया हो उसके खसरेज आँखकी किकीके मध्यका सूत्र एक सूत्र में रखना चाहिये। और उसे शिल्पी वर्ग: अनुसरता है। अभी जैन विद्वानों "सप्तमा सप्तमें "का अर्थ सातवेमें अर्थात् सातवेंकी:अंदर नीचे ऐसा अर्थ करते हैं। जब शिल्पियों सातवेंका सा वें ही जो विभाग आया हो वहां ही दृष्टि रखनेका मानते हैं। जैन विद्वानों उसमें ध्वज, गज, सिंह आय मीलानेकी व्यर्थ कोशिश करते हैं और दृष्टि निचा उतारने के लिये कहते हैं। परंतु यह आयमेल मण्डन सूत्रधारके सिवा कीसी भी पुराने ग्रंथमें आय मीलानेका कहा नहीं है। वृक्षार्णव अ. १४७ में दृष्टिस्त्रको एक वालाग्र भी न लोपरेके लिये कहते हैं। जो उसका लोप करे तो दोष कहा है। कार्य सिद्धि के समय शिल्पियोंको ऐसे मत मतान्तरके वितंडावादमें न उतरके जैसे विद्वानों अपना मतका आग्रह करे तब वैसा करना । १७ LEARRI ABAda Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ E:- -- - - આ જ १० कल्की विष्णुशाक्तार २ શીવ ૪–૨૨ માં અ-૨ (पेज १२९ की टीका चालु) (કૌસમાં આપેલા અને - ૧૬ મા કો ઉત્તરાર્ધ અને ( ૧૭ મે લેકના પૂર્વાર્ધ શીરા - વની કેટલીક પ્રતોમાં નથી.) દેવ પ્રતિમા સ્થાપન પદ વિભાગ – સંબંધમાં ક્ષીરાવ દીપાર્ણવ, જ્ઞાન રત્નકેશ, અને સુત્ર સંતાન અપરાજિત–આ સર્વ ગ્રંથમાં એક મતે અઠ્ઠાવીશ ભાગને મત સ્વીકારે છે. પરંતુ વાસ્તુરાગ ગર્ભગૃહના દશ ભાગ કહે છે, ઠકુર ફેરૂ વાસ્તુસાર પાંચ ભાગ કહે છે. તેવામૂર્તિ કરણમ્ અને ચમત ૪૯ ભાગ 0 g કહે છે. સમાજના સુત્રધાર દશ છે અને છ ભાગ કહે છે. અને સૂત્રધાર વિરપાલવિરચિત ગાલા fજ પણ પાંચ ભાગ કહે છે. દેવના મૂર્તિ પ્રકરણમાં– ગર્ભ ગૃહાધના એગણુ પચાસ ભાગ કરવા. તેમાં ગર્ભથી પહેલે ભાગ બ્રહ્માંશ-નવ ભાગ દેવાંશ, તે પછીના સોળ ભાગ માનુષાંશ અને તે પછીના ચોવીશ ભાગ પિશાંચક (મળી કુલ ૪૯ ભાગ થયા) બ્રહ્માંશમાં લિંગ સ્થાપના કરવી, બ્રહ્મા વિષ્ણુ સ્થાપન કરવા, મનુષાંશમાં સર્વ દેવ અને પિશાચકમાં માતર, યક્ષ, ગંધર્વ રાક્ષસ, ભૂત આદિની સ્થાપના કરવી. આ એગણ પચાસ વિભાગનું દેવતાપદ સ્થાપન દ્રવિડ ગ્રંથ માત૬ માં પણ આપેલ છે. સમાજ સૂત્રધાર ૩૦ ૭૦ માં મહારાજા ભોજન દેવ કહે છે કે, S ७ राम ६ परशुराम Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = = = अर्थ देवता दृष्टि पदस्थापनाधिकार विष्णुस्थाने उमादेवी ब्रह्मस्थाने सरस्वती । सावित्री मध्यदेशे तु लक्ष्मी सर्वत्र दापयेत् ॥१८॥ भक्ते प्रासादगर्भाधं दशधा पृष्ठं भागतः पिशाच रक्षोदनुजाः स्थायागंधर्वगुह्यकाः आदित्यश्चंडिका विष्णु ब्रह्मेशानाः पदक्रमात् । समराङ्गण सधार પ્રાસાદના ગર્ભગૃહના અધમાં પછીત તરફના અર્ધા ભાગમાં દશ ભાગ કરવા તેની પછીતથી પહેલા ભાગમાં પિશાચ, બીજમાં રાક્ષસ, ત્રીજામાં દૈત્ય, ચોથામાં ગંધવ પાંચમાં યક્ષ છઠ્ઠામાં સૂર્ય, સાતભામાં ચંડી દેવી, આઠમામાં વિષ્ણુ, નવમામાં બ્રહ્મા અને દશયાપ્યાં શિવલિંગની સ્થાપના કરવી એમ અનુક્રમે પદ સ્થાપના જાણવી. સૂત્રધાર રાજસિંહ કૃત વાતુરાક પણ દશભાગગ જુદી રીતે કહે છે. गर्भाद्ध दशभि भक्ते मध्येलिङ्गन्यसेत्तततः विधि हरिमुंमा सूर्य बुध शक जिनं तथा । मातृगणेश गंवान् यक्षान् क्षेत्रेशदानवान् रक्षोग्रहान् क्रमान्मातः पिशाचं भित्तिकावधि ॥ वास्तुराज ગર્ભગૃહના પાછળના અર્ધભાગના દશ ભાગ કરવા. તેમાં મધે ગર્ભે શિવલિંગની સ્થાપના કરવી. ૧. બ્રહ્મા. ૨. વિણ ૩. ઉમા ૪. સૂર્ય. ૫. બુધ. ૬ ઈન્દ્ર છ જિન છે માત્ર ગણેશ ૯ ગંધર્વ યક્ષ અને ક્ષેત્રપાળ અને ૧૦ દસમા ભાગમાં દાનવ રાક્ષસ ગ્રહ ચંડી અને પિશાચની મૂર્તિની સ્થાપના અનુક્રમે કરવી. શ્રી જિનદત્ત સૂરિજીના નીતિશાસ્ત્રના ગ્રંથ વિવેવ વિરાર માં નીચે પ્રમાણે પાંચ ભાગ કહે છે. બાલાર્મ નિત્તત્તર વંત્રા यक्षाद्याः प्रथमे भागे देव्यः सर्व द्वितीयके ॥१॥ जिनार्क स्कंद कृष्णानां प्रतिभाः स्युस्तृतोयके ब्रह्मा चतुर्थ भागे स्थालिंगभीशस्य पंचमे ॥२॥ : વિદ્યાલ પ્રાસાદના ગર્ભગૃહના અર્ધા ભાગના ભીત તરફના અર્ધમાં પાંચ ભાગ કરી પહેલામાં યક્ષ, બીજામાં સર્વ દેવદેવીઓ, ત્રીજામાં જિન, સૂર્ય, કાર્તિક સ્વામી અને કૃષ્ણ ચોથામાં બ્રહ્મા અને પાંચમ ભાગમાં બ્રહ્મા અને મધ્ય ગર્ભમાં શિવલિંગની સ્થાપના કરવી. આ પ્રમાણે સમશગણના બીજા મતે પ્રાસાદ તિલક અને વિવેકવિલાસના મતે આસન એટલે પબાગણ એવો અર્થ શિલ્પી વર્ગમાં પ્રવર્તે છે. પરંતુ ક્ષીરાણુવ દીપાર્ણવ અને અપરાજિત અને જ્ઞાનરત્નકેશ જેવા પ્રાચીન ગ્રંથ–પ્રતિમા સ્થાપનના વિભાગ કહે છે. તે દેવ પ્રતિમાનાં કાનના ગર્ભે, બાહુના ગર્ભે કે પગને ગર્ભે સ્થાપન કરવાનું સ્પષ્ટ કહે છે. બ્રહ્મા અને વિષ્ણુની મૂર્તિની સ્થાપના પ્રાચીન મંદિરમાં તે રીતે જોઈએ છીએ માં મૂર્તિ ફરતી ગર્ભગૃહમાં પણ પ્રદક્ષિણ ફરે તેટલી જગ્યા પાછળ રહે છે. પરંતુ જિન Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१११ क्रमांक अ.-१३ वितरागो विघ्नराजे ये उकता जिनशासने । मातृमंडलमध्ये तु देवीनां समस्तके ॥१९॥ पर्यकासनोर्चाि स्थान विष्णुरूपाणि यानिच । विष्णुस्थाने जलशायी वराहस्तत्पदेस्थितः ॥२०॥ પ્રતિમા પાછળ આવી જગ્યા હજી જોવામાં આવી નથી. જિન પ્રભુને આ સૂત્ર બંધબેસતું કદાચ ન હોય; તેમ પરંતુ પંકિતબદ્ધ જિનાયતનમાં કે નાના ગર્ભગૃહમાં જે અર્ધના પાંચમા ભાગના પાંચમા ભાગના ત્રીજા ભાગે પ્રતિમાજી પધરાવવામાં આવે તે પૂજકેને હરવા ફરવાની જગ્યાની મુશ્કેલી ઉભી થાય. આથી શિપી વર્ગે જેની પ્રતિમા સ્થાપન માટે મંડન સૂત્રધારને નીચને મત વધુ સ્વીકારે છે. पदाधो यक्षभूताद्याः पट्टाने सर्वदेवता । तद्ग्रेवैष्णवं ब्रह्मा मध्येलिङ्गा शिवस्य च ॥७॥ . प्रासाद मंडन ॥ अ० ६॥ ગર્ભગૃહના પાછલા પાટ ભારવટ નીચે યક્ષ ભૂતાદિ દે બેસાડવા. પાટ છોડીને આગળ બીજા દે બેસાડવા. તેનાથી આગળ બ્રહ્મા અને વિષ્ણુ અને મધ્યગર્ભે શિવલિંગની સ્થાપના કરવી. પાટ છોડીને જૈન પ્રતિમા પધરાવવાના સૂત્રને શિલ્પી વર્ગ વધુ પ્રામાણિક માને છે. અર્ધના પાંચ ભાગ કરી ત્રીજા ભાગે સિંહાસન પબાસણું કરવાનું પ્રમાણ માની તેમ કરે છે. જો કે મહારાજ ભાજદેવ સમરાંગણ સૂત્રધારમાં કહે છે કે ગર્ભના જ ભાગ કરી પાછલે ભીંતે તરફનો છઠ્ઠો ભાગ છેડી પાંચમા ભાગમાં સર્વ દેવતાઓની સ્થાપના કરવાનું સ્થળ પ્રમાણ આપે છે તે કંઈક મંડનના મતને મળતું આવે. વ્યવહારમાં પ્રાસાદમંડનને મત શિપી વર્ગમાં પ્રચલિત છે. પાટ નીચે પ્રતિમાજીની અર્ધ ચાટી રાખી બીજો ભાગ પાટથી બહાર રાખવાની પ્રથાને આચાર્ય દેવ શ્રી વિજયનેમિ સુરીશ્વરજી અનુસરવાને જણાવતા. देव प्रतिमा स्थापन पर विभागके संबंध क्षीरार्णव, दीपाव-ज्ञानरत्नकोश और सूत्रसंतान अपराजित इन सब ग्रंथों में अठाईस भागके मलका स्वीकार है। परंतु वास्तुराज गर्भगृहके दस भाग करता है। ठक्कुर फेर वास्तुसार विवेक विलास पाँच भाग कहता है। देवता मूर्ति प्रकरण और मथमतम् ४९. भाग कहते हैं। समराङ्गण सूत्रधार दस और छः भाग कहता है । और सूत्रधार घिरपाल विरचित प्रासादतिलक भी पाँच भाग कहता है। देवता मूर्ति प्रकरणमें-गर्भगृहार्धके उनचास भाग करना। उसमें गर्भसे प्रथम भाग ब्रह्मांश उसमें नौ भाग देवांश बादके सोलह भाग मनुषांश और उसके यादके उपर चौबीस भाग पिशाचक ( मिलकर कुछ ४९, हुए) ब्रह्मांशमें, लिङ्ग स्थापना करना । दवांशमें ब्रह्मा विष्णुका स्थापन करना । मानुषांशमें सर्व देव और पिशाचक्रमें मातर यक्ष, गंधर्व, राक्षस, भूत आदिकी स्थापना करना। इन उनचास विभागका देवता पद स्थापन द्रविड ग्रंथ 'मयमतम् में भी दिया हुआ है। “ प्रासादके गर्भगृहकी दिवारके तरफके अर्ध भागमें दस भाग करना। उसकी दिवारसे पहले भागमें पिशाच, दूसरेमें राक्षस, तीसरेमें दैत्य, चौथेमें गंधर्व, पाँचवेमें यक्ष, छठेमें सूर्य, सातवेंमें चंडी देवी, आठवेंमें विष्णु, नौवेमें ब्रह्मा और दसवेंमें अर्थात् मध्यमें शिवलिङ्गकी स्थापना करना। इस तरह अनुक्रमसे पद स्थापनाका जानना" (समराङ्गण मूत्रधार ) सूत्रधार Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -... - - - अथ देवता दृष्टि-पदस्थापनाधिकार विष्णुरूपाणि सर्वाणि मत्स्यादि नवमेपदे । हरि शंकरे वराह मूर्ति-विष्णुस्थाने प्रदीयते ॥२१॥ अर्धनारीश्वरं देवं रुद्रस्थाने प्रकल्पयेत् । सप्तमे ब्रह्मसंस्थाने मिश्रमूर्ति संस्थापयेत् ॥२२॥ વિષ્ણુના ભાગે ઉમાદેવી. બ્રહ્માના ભાગે સરસ્વતી ને સાવિત્રીદેવી. બ્રહ્માના મધ્ય राजसिंह कृत 'वास्तुराज' भी दस भागका अलग रीतसे कहता है । “गर्भगृहके पीछे के अर्ध भागके दस भाग करना । उसमें मध्यमें, गर्भ में शिवलिङ्गकी स्थापना करना । पहेके ब्रह्मा, २ विष्णुजी ३ उमा ४ सूर्य ५ बुध ६ इन्द्र ७ जिन ८ गणेश ९ गंधर्व यक्ष और क्षेत्रपाल और दसवें भागमें दानव राक्षस ग्रह चंडी और पिशाचकी मूर्तियोंकी स्थापना अनुक्रमसे करना ।" ('वास्तुराज') श्री जिनदत्त सूरिजीके नीतिशास्त्रके ग्रंथ 'विवेकविलास में इस तरह पाँच भाग कहे हैं । “प्रासादके गर्भगृहके अर्ध भागकी दिवारकी तरफ अर्धमें पाँच भागकर पहलेमें यक्ष, दूसरेमें सर्व देव-देवियों, तीसरे में जिन, सूर्य, कार्तिक स्वामी और कृष्ण, चौथेमें ब्रह्मा, और पाँचवें भागमें ब्रह्मा और मध्यगर्भ में शिवलिङ्गकी स्थापना करना।” (विवेक विलास ) इस तरह समराङ्गणके दूसरे मतमें प्रासाद तिलक और विवेकविलासके मतमें आसन अर्थात् पबागण ऐसा अर्थ शिल्पी वर्गमें प्रवर्तता है, परंतु क्षीरार्णव, दीपार्णव और अपराजित और ज्ञानरत्नकोश जैसे प्राचीन ग्रंथों प्रतिमा स्थापनके विभाग कहते हैं। इस देव प्रतिमाके कानके गर्भ में, बाहुके गर्भ में, या पावके गर्भ में स्थापन करनेके लिये स्पष्ट कहा गया है। ब्रह्मा और विष्णुकी मूर्तियोंकी स्थापना प्राचीन मंदिरोंमें उसी तरह देखते हैं। उसमें मूर्तिके फिरते गर्भ गृहमें भी प्रदक्षिणा करे इतनी जगह पीछे रहती है। परंतु जैन प्रतिमाके पीछे ऐसी जगह अभी देखनेमें नहीं आती है। जिन प्रभुको यह सूत्र लागु हो या न भी हो, लेकिन पंक्ति बद्ध जिनायतनमें या छोटे गर्भगृहमें जो अर्धके पाँच भाषके तीसरे भागमें प्रतिमाजीको बिठाया जाय तो पूजकांको चलने फिरने की जगहकी मुश्किल होती है। इससे शिल्पी वर्ग जैन प्रतिमा स्थापनके लिये मंडन सूत्रधार नीचेका मत ज्यादा स्वीकारता है। “गर्भगृहके पीछले पाट-भारवटके नीचे यक्ष भूतादि उग्र देवोंको बिठाना । पाटको छोड़ कर आगे दूसरे देवोंको बिठाना । उससे आगे ब्रह्मा और विष्णु और मध्य गर्भ में शिवलिङ्गकी स्थापना करना। (७ प्रासाद मंडन ॥ अ. ६॥)" पाटको छोड़कर जैन प्रतिमाको बिठानेके सूत्रको शिल्पी वर्ग ज्यादा प्रामाणिक मानता है । अर्धके पाँच भापकर तीसरे भागमें सिंहासन-पबासण करनेका प्रमाण वैसा--शिल्पी वर्ग करता है। यद्यपि महाराज भोजदेव समराङ्गण सूत्रधार में कहते हैं कि “गर्भगृहके छ: भागकर पीछले दिवारकी तरफके छठे भागको छोड़कर पाँचवें भागमें सर्व देवताओंकी स्थापना करनेका स्थूल प्रमाण देते हैं ।" वह कुछ मंडनके मतसे मिलता जुलता है। _व्यवहारमें प्रासाद मंडनका मत शिल्पी वर्गमें प्रचलित है। पाटके नीचे प्रतिमाजीकी अर्ध चोटी रखकर दूसरे भागका पाटसे बाहर रखनेकी प्रथाको आचार्य देवश्री विजय नेमिसूरीश्वरजी अनुसरनेके लिये कहते थे। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१११ क्रमांक अ.-१३ ભાગે અને લક્ષ્મીજી (વિષ્ણુના) કેઈપણ ભાગે સ્થાપન કરી શકાય. જિન તીર્થકર વીતરાગ અને જિન શાસનના દેવ દેવીએ (યા ચક્ષણી)ને વિનરાજ-ગણેશના સ્થાને ચૌદમા ભાગે સ્થાપન કરવા. બધી દેવીઓની મૂતિઓ મનુકા મંડળમાં સ્થાપવી. વિષ્ણુની પાસને કે ઊભી કે શેષશાયી અને વરહાદિ, મસ્યાદિ દશાવતારની મૂતિઓ વિષ્ણુના નવમા ભાગમાં સ્થાપવી. વિષણુ શંકર ઉમાની યુમ્મૂતિઓ વિષ્ણુના સ્થાને સ્થાપવી. અર્ધનારીશ્વરની મૂર્તિ રૂદ્રના સ્થાને પધરાવવી. બ્રહ્માના સાતમા ભાગમાં મિશ્રમૂર્તિ, ત્રિમૂતિ, યુગ્મમૂર્તિ (હરિહર, આદિ બ્રહ્મા વિષ્ણુ કે શિવની મિશ્રમૂતિએ)ની સ્થાપના કરવી. ૧૮ થી ૨૨. विष्णुके भाग पर उमादेवी, ब्रह्माके भाग पर सरस्वती, सावित्री ब्रह्माके) मध्य भाग पर और लक्ष्मीजी (विष्णुके) कोई भी भाग पर स्थापतः हो सकके है। जिन तीर्थंकर वितराग और जिन शासनके देव देवीओं (यक्षयक्षणी) को किन्नराज-गणेशके स्थान पर चौदहवें भाग पर स्थापन करना । सब देवियोंकी मूर्तियाँ मातृकामंडलमें स्थापना । विष्णुकी पद्मासनमें या खडी या शेषशायी और वराहादि मत्स्यादि दशावतारकी मूर्तियों विष्णुके नौवें भागमें स्थापना । विष्णु, शंकर, उमाकी युग्गमूर्तियाँ विष्णुके स्थान पर स्थापना । अर्धनारीश्वरकी मूर्ति रूद्रके स्थान पर पधराना । ब्रह्माके सातवें भागमें मिश्रमूर्ति, त्रिमूर्ति, युग्ममूर्ति (हरिहर आदि ब्रह्मा विष्णु या शिवकी मिश्र मूर्तियों) की स्थापना करना । १८ से २२. त्रिदेव स्थानके चैव हरिहरपितामहः । पितामहंच चंद्राको स्थापयेत्पद भास्करे । वेदाश्च ब्रह्म संस्थाने ऋषिणां पद भास्करे ॥२३॥ હરિહર, પિતામહની ત્રિદેવની મૂર્તિ બ્રહ્માના પદે સ્થાપન કરવી. પિતામહબ્રહ્મા ચંદ્ર ને સૂર્ય અને ત્રાષિઓની મૂર્તિને અને વેદ મૂર્તિઓને બ્રહ્માની साथे पथरावी. २३. हरिहर, पितामहकी त्रिदेवकी मूर्ति, ब्रह्माके पद पर स्थापन करना । पितामह-ब्रह्मा चंद्र और ऋषियोंकी मूर्तिको और वेदमूतिओंको ब्रह्माके साथ पधराना । २३. इति श्री. विश्वकर्मा कृतायां क्षीरार्णव नारद पृच्छायां देवता द्रष्टिपद स्थापनाधिकारे शतामेकादशमोऽध्याय ॥१११॥ क्रमांक अ० १३ ઈતિ શ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત ક્ષીરાવિ નારદજીએ પૂછેલ દેવતા દષ્ટિપદ સ્થાપનાધિકારને શિલ્પવિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ધડભાઈએ રચેલી ગુર્જર ભાષાની સુપ્રભા નામની ટીકાને એકસો અગિયારમા અધ્યાય ૧૧૧. ___इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव नरदजीक संवादरूप देवता दृष्टि पद स्थापनाधिकारका शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओधडभाई सोमपुरा रचित सुप्रभा नामकी भाषा टीकाका अध्याय ॥१११॥ ( क्रमांक अ० १३ ) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव दीपार्णव द्वारोदयका ३२ विभागे दृष्टिस्थान क्षीरार्णव दीपार्णव २१ २० विविध प्रथमते देवता दृष्टिस्थान विभाग दर्शावतुं कोष्टक सुत्रसंतान अपराजित देवतामूर्ति प्रकरणका मत ३२० ३१ भूतप्रेत राक्षस ३०० २९ भैरव चण्डि २८० १७ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, सूर्य २६ चन्द्र २५ जिन २४ सरस्वतीं २३ ० २.२. ० मत लक्ष्मी १९० १८ उमा, रुद्र, विष्णु, लक्ष्मी १७० ४७ ब्रह्मा ४५ - लक्ष्मी नारायण दुर्गा-नारदादि ऋषि ४३ --ऋषिमुनि नारद ब्रह्मयुग्म ४१ - ब्रह्मा सावित्री १६ यक्षराज १५० १४ मातृकाओ १३० ם १२ शेषशायिन ११ १० हर मूर्ति ९. देवतामूर्ति प्रकरणम् त्था अपराजित-सूत्र सन्तान का मते द्वारोदयका ६४ विभागे दृष्टिस्थान शिवलिङ्ग ६४.० ६३ - बैताल ६१ - भैरव ५९ चण्डि ५७ - अघोर रुद्र ५५- ब्रह्मा-विष्णु, रुद्र - जिन ५३ - हर सिद्ध ५१ - पद्मासन त्रिमूर्ति ४९ -- गणेश - शारदा ३९ - बुद्ध ३७ उमा रुद्र ३५-भृंगवराह ३३- यक्ष कुबेर ३१--मातर २९ - गरुड २७- शेषाशयिन २५ - शेष नाग २३- व्यक्तशिव २१ - व्यक्ताव्यक्त लिङ्ग १९ - अव्यक्त लिङ्ग १७ १५ १३ ३ १ -शिवलिङ्ग ठक्कुर फेरु वास्तुसार मते द्वारोदयका दश भागके सातमा भागे दश भाग करके इसके सातवा भागे जिनदृष्टिमान ठक्कुर फेरु वास्तुसार मत १० ९. - छत्र चामरधारी देवो ८- चण्डिका ७- शासनदेव देवियाँ - जिन प्रभु दश भागनें सातवें भाग ६ - चित्रलेप प्रतिमा ६- वराह ४ - लक्ष्मी नारायण ३ शेषशायिन २. शिवशक्ति १- शिवलिंग Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१११ क्रमांक अ.-१३ देवता पद स्थापन विभाग पृथक पृथकू ग्रंथो का मतमतान्तर का कोष्टक १ क्षीरार्णव २ दीपा- समरांगण सूत्रधार प्रासादतिलक | देवमामूर्ति | वस्तुसार विवेक |व ३ शानरत्नकोश का मत प्रकरण वलास | भीतसे मयमतम ४ अपराजित | भोतसे दश भाग | ४९ भाग | भाग पांच भाग | भाग MNNN पिशाच भूत वैताल राक्षस । राक्षस १ यक्षगन्धर्व क्षेत्रपाल अघोर भृग घोर दैत्य हनुमंत यक्षराज क्षेत्रपाल ४ . गंधर्व २ देव और देविका भैरव गण मातृका लक्ष्मी सर्व देवी | यक्ष ग्रहो गणेश लक्ष्मी वितरागजिन दुर्गा लक्ष्मी ३ । कृष्ण जीन सूर्य कार्तिक अग्नि विश्वरूप, उमा, लक्ष्मी ७ चण्डि जनार्दन पद्मासन की ऊभी । विष्णु मूर्ति वासुदेव शेषशायी दशा-16 विष्णु ४ ब्रह्मा वतार शंकर उमा ब्रह्मा, सरस्वती, सावित्री । हिरण्यगर्भ, मिश्र ९ । ब्रह्मा युग्ममूर्ति कार्तिक स्वामी रुद्र अर्ध नारिश्वर १० शिवलोक मध्यमें | ५ | शिवलिंग मध्यमें सावित्री नकुलीश हेमगर्भ शालिग्राम ब्रह्मा । शिवलिंग मध्यमें -२४ भाग मानुयांश--x--२६ पिशाचांश--- | मातृका यक्ष गन्धर्व राक्षस भूतादि सर्वदेव स्थापन सुर्य ---४ ब्रह्मांश---x ब्रह्मा विष्णु स्थापन । मध्यमें Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1584 U ReKCIKARAN UKSTIL RUITLEXI HEASE TOURNA समदल रुपस्तंभ-रुपशाखायुक्त कलामयद्वार. उदंम्बर-उत्तरंग लुणींग वसही-देलवाडा-आबुं Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1- रुपशाखायुक्त द्वार उदंम्बर-उत्तरंग-मध्यमें परिकर साथ प्रतिमा देलवाडा आबु ... Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ शिखर भद्र नासिकादि सरवेधादि ॥ क्षीरार्णव अ० ११२ - क्रमांक अ० १४ विश्वकर्मा उवाच - १ ॥ अतः परं प्रवक्ष्यामि भद्रार्ध शिखरं तथा । भद्रार्ध च ततो रिषि ज्ञातव्यं मूलनासीके ॥ भद्रा च त्रिशति भागं च कर्तव्य च विचक्षणैः । मूल नाशिकं द्विभागं च द्विभागं द्वितीयके ॥ २ ॥ वेदभाग तृतीया तु चतुर्दशभद्रमेव च । पंचमी फालना कार्यों उपागसद्वशा भवेत् ॥ ३ ॥ - इति पचनाधिक P શ્રી વિશ્વકર્મા શિખરના ભદ્રના પંચનાશક હુવે કહે છે. હે ઋષિ, શિખ રના ભદ્રના ભદ્રના ખુણા સુધીના ત્રીશ ભાગ વિચક્ષણ શિલ્પીએ કરવા. મૂળ નાશિક એ ભાગ, બીજી ફાલના પણ એ ભાગ ત્રીજી ફાલના ચાર ભાગ અને આખુ ભદ્ર ચૌદ ભાગનું જાણવું. પાંચમી ફલના ઉપાંગ પ્રમાણે કરવી. ૧-૨-૩, श्री विश्वकर्मा शिखरके भद्रके पाँच नासक कहते हैं । हे ऋषि, शिखरके भद्रके भद्रके कोने तक के तीस भाग विचक्षण शिल्पीको करना चाहिये । मूल माशिक दो भाग, दूसरी फालना भी दो भाग, तीसरी फालना चार भाग और सारा भद्र aौ भागका जाना । पाँचवीं फालना उपांग के अनुसार करना । १-२-३. यावस्त प्रमाणेन विस्तृता क्रियते कटिः । *** तावद्गुल पादेन फालनानां च निर्गमम् ॥ ४ ॥ પ્રાસાર જેટલા હાથના પહેાળે રખાયે હોય તેના પ્રત્યેક હાથે પાપા આંગળની ફાલનાના નીકાલા રાખવા, ૪. जितने हाथका चौडा प्रासाद रखा गया हो उसके प्रत्येक हाथ पर १/४ अंगुलकी फालनाके निकाले रखना । ४. तावदङ्गलमानेन पाठान्तरे । ૧. શિખરના ભદ્રમાં આવી ફ્લનાનુ વિધાન તકાશ અને દીપાણુ વ તથા श्रीरामां मापेक्ष छे. अवरावितसत्रभां । पाठो नथी. पंथ सप्त ने नवनाशि જૂના પ્રાસાદમાં કરેલા જોવામાં આવે છે. કેટલાક જાપથી ભદ્રમાં આવાં નાશિક ફાડે १/ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ क्षीरार्णव अ - ११२ क्रमांक सप्तनाशिक प्रवक्ष्यामि भद्रार्ध षडूमेव च । प्रथमं वसुभिर्भागं द्वितीयं रुद्र संख्यया ॥ ५॥ तृतीयं वसुभिर्भागं चतुसार्द्ध मूल नाशकम् । षष्टम् च सप्तम् चैव कालना नाम नामत् ॥ ६ ॥ વૃત્તિ સમનાશિ ધ્ર હવે હુ' સપ્તનાશિક કહું છું. અભદ્ર છ ભાગનું, પહેલી ફાલના આર્ડ ભાગની, બીજી ફાલના અગિયાર ભાગની, ત્રીજી ફાલના આઠ ભાગની, મૂળનાશક સાડા ચાર ભાગની છઠ્ઠી અને સાતમી ફાલનાએ નામ માત્રની કરવી (ફાલનાના નિકાળા આગળ કહ્યા તેમ રાખવા. ) કુલ પાંચાતર ભાગ સપ્ત નાશિકના જાણવા. પ-૬. છે. તે વિશેષ કરીને નીચે પીંથી તે છજા ઉપર શિખરના ભદ્રમાં આવાં નાશિક પાડેલા જોવામાં આવે છે. મેવાડમાં આ પ્રથા વિશેષ, ગુજરાતમાં અલ્પ છે. ક્ષીરાવ ગ્રંથ ઘણા પ્રાચીન હોઈ તે અસ્તવ્યસ્ત સ્થિતિમાં આડાઅવળા અસ ંબદ્દ વિષયાથી ભરપૂર છે અને એક વિષયની વચ્ચે બીજા વિષયના પાઠો વાળી પ્રતે ગુજરાત અને સૌરાષ્ટ્રમાં છે. હજી શુદ્ર તેા અમને મળી નથી. અમારી પાસેની આઠથી દશ પ્રતાની તારવણી કરતાં આવાં અસ‰& લખાણવાળા અને પારાવારા અદ્દિપૂર્ણ ગ્રંથે! પ્રાપ્ત થયેલા છે. શિખરના પોંચ, સપ્સ, નવ નાશિક સાથે શિખરના થડે વિષય ચી શ્લોક ૧૪ થી ૨૬ સુધીના ઘણાજ અશુદ્ધ અને વિષયાન્તર હોઈ પાઠ મૂળ પ્રતામાં છે, જેમાંથી શરવેધ સરવેધ કે સ્વરવેધના મહાદોષો ઉપરાંત બીજા પાઠે એટલા અશુદ્ધ છે કે તેનેા અથ આપણે તારવી શકયા નથી તે માટે સુનવાચક દરગુજર કરે અને જૂની શુદ્ધ પ્રતાને ક્રમ અને અસંબદ્ધ વિષયાના કારણે મૂળ પા કાયમ રાખી ગ્રંથનું સંકલન કરવા બદલ વાચક ક્ષમા કરે. ક્ષેાક ૨૩ થી ૨૬ ના ચાર શ્લેાકેાને ૧૧૨ એક સે બાર મે અધ્યાય જાની પ્રતામાં ગણાવેલ છે. * तावदङ्गुलमानेन पाठान्तरे । (१) शिखरके भद्रमें ऐसी फलनाओंका विधान ज्ञानरत्नकोश और दीपार्णव तथा क्षीरार्णव में दिया है। अपराजित सूत्रमें यह पाठ नहीं है । पँच सात और नौ नाशिक पुराने प्रासादों में किये हुए दिखते हैं। कई लोग छज्जे के परसे भद्र में ऐसे नाशिक फोड़ते हैं । विशेषतया नीचे पीठसे छज्जाके उपर शिखर के भद्रमें ऐसे नाशिक पाडे हुए दिखते हैं। यह प्रथा मेवाडमें विशेष है और गुजरात में अल्प है। क्षीरार्णव ग्रन्थ बहुत प्राचीन होनेसे वह अस्तव्यस्त स्थिति में असम्बन्ध विषयोंसे भरपूर है और एक विषयके बिच दूसरे विषयके पाठोंवाली प्रते गुजरात और सौराष्ट्र में हैं। अभी उसकी शुद्ध प्रतें हस्तगत नहीं हुई हैं, हमारे पास आठ से दस प्रतों की तुलना करते मालूम हुआ है कि वे असम्बद्ध और अशुद्धिपूर्ण है । शिखर के पंच, सुप्त नौ नाशकके साथ शिखर Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखर भद्र नासकादि - - - ----------पंचनाशक बत्रीश विभाग. ------ ----------सतनाशक७५ विभाम.--------- -------------- नवनाशक ६२ विभाम- - . -- शिखरका भद्रका पाँच सप्त नव नाशक अब मैं सप्तनाशिक कहता हूँ । आधा भद्र छः भागका, पहली फालना आठ मागकी, दूसरी फालना ग्यारह भागकी, तीसरी फालना आठ भागकी, मूल नाशक साढ़े चार भागकी छठ्ठी और सातवीं फालनाएँ नाम मात्रकी करना । (फालनाके निकालेको आगेके अनुसार रखना ।) सप्त नाशिकके कुल पचहत्तर . (७५) भाम जानना । ५-६. नवनाशिक प्रवक्ष्यामि भद्रार्ध मेकत्रिंशतम् । एक भागं द्विभागं वा वेदभागं तृतीयकम् ॥७॥ का थोडा विषय छोडकर श्लोक १४ से २६ तकके बहुत ही अशुद्ध और विषयान्तर वाले पाठ मूल प्रतोंमें हैं, जिनमें से हम अर्थ नहीं निकाल सके हैं। इसके लिये सुज्ञ वाचकगण क्षमा करें, और पुरानी अशुद्ध प्रतोंका क्रम असम्बद्ध विषयोंके कारण मूल पाठको कायम रखकर ग्रंथका संकलन करनेके लिये वाचकों की हम क्षमा माँगते हैं। श्लोक २३ से २६ के चार लोकका ११२ एकसौ बारहवाँ अध्याय पुरानी प्रतोंमें गियाये हुए हैं। : Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११२ क्रमांक अ.-१५ चतुर्थ बाण भागं तु पंचमं वसु संयुतम् । षष्ठं बाम पिभागं तु सप्तमे रस संयुतम् ।।८।। अष्टमं नवमं चैव फाक्तना नाम नामतः । अर्थ न लोपयेद् यस्तु न चाल्यं शिल्पिबुद्धिमान् ॥९॥ હવે હું શિખરના ભદ્રના નવ નાશિક કહું છું. રેખાથી અભદ્રના એકત્રીશ ભાગ કરવા તેમાં પહેલી ફાલના એક ભાગ, બીજી બે ભાગ, ત્રીજી ચાર ભાગ, ચેથી કાલના પાંચ ભાગ, પાંચમી ફાલના આઠ ભાગ, છઠ્ઠી ફાલના પાંચ ભાગ, સાતમી ફલના ભદ્રાઈ છ ભાગની જાણવી, આઠમી અને નવમી ફાલના વામ માત્રની કરવી. (રેખાયે જેટલા હાથ હોય તેમાં પાયા આગળના કાલનાના નીર્ગમ રાખવા) આ પ્રમાણે બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ ફાલનાઓના ભાગ खोपा नहि. ७-८-८. अब मैं शिखरके भद्रके नौ नाशक कहता हूँ। रेखासे आधे, भद्रके इक्कीस भाग करना । उसमें पहली फालना एक भाग, दूसरी दो भाग, तीसरी चार भाग, चौथी फालना पाँच भाग, सातवीं फालना, भद्रार्ध छः भागकी जाबना । आठवीं और नौवीं फालना नाम मात्रकी करना । (रेखाके पर जिसने हाथ हों उनमें है, अंगुलके पालनाके निकाले रखना ।) इस तरह बुद्धिमान शिल्पीको चाहिये कि वे फालनाओंके भागको न लोपें । ७-८-९. रेखा विस्तारमानेन सपादेतदुच्छ्यः । त्रिभाग सहितं श्चैव सार्द्धवा तु विचक्षणः ॥१०॥ છજાપર કહેલ શિખરીએ ચડાવી મૂળ રેખાથી (૧) સવાયું શિખર બાંધણે કરવું. (૨) ૧ કે (૩) દેવું ઊંચું શિખર એમ ત્રણ પ્રકારે બુદ્ધિમાન शिवाय खु. १०. छज्जे पर कही हुई शिखरियोंको चढ़ाना । मूलरेखासे सवा गुना ऊँचा शिखर स्कंधे पर करना । १३ या डेढ़ गुना ऊँचा शिखर तीन प्रकार बुद्धिवान शिल्पीको करना । १०. दशधा मूले पृथुत्वे पइभागः स्कंध उच्यते । पहबाझे दोषदः प्रोक्तः पंचाध:श्च न सभ्यते ॥११॥ | મૂળ શિખરના પાય દશ ભાગ કરી ઉપર બાંધણ છ ભાગ રાખવાનું Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CELLALLLLLOCK burculature नागर शैलीका अलंकृत शिखर, तेरवीं शताब्दी की प्रतिकृती. पंचासरा पाटण. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 Usitdar बेलुर-हलेबिड (मैसूर राज्य ) के कलामय प्रासाद के महा पीठ मंडोवर और शिखर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखर भद्र नासकादि કહ્યું છે. છ ભાગથી વધુ રાખવું દોષકારક કહ્યું છે. અને પાંચ ભાગથી ઓછું ન કરવું. (એટલે સાડા પાંચ ભાગ ભાંધણે રાખવાથી તે શેભે છે.) ___ मूल शिखरके पायचे दश भाग कर उपर स्कंधके पर छः भाग रखनेके लिये कहा है । छ: भागसे अधिक रखना दोषकारक है । और पाँच भागसे कम न करना । ( अर्थात् साढे पाँच स्कंधके पर रखनेसे वह शोभता है ।) ग्रंथान्तर-रेखाविस्तार यन्मानं दशभाग विधीयते । द्विभागकोण भित्युक्तं भद्र भागत्रयं भवेत् ।।१२। प्रतिरथः सार्द्ध भागं तु उभयो परिपक्षयोः । स्कंधनवांशे सार्द्वद्वौ रथकोणो द्विभद्रकम् ॥१३॥ શિખરના પાય રેખા વિસ્તારનું જે માન હોય તેના દશ ભાગ કરવા. બે ભાગ રેખા, આખુંભદ્ર ત્રણ ભાગનું અને વચ્ચે પઢરે દેઢ ભાગને બેઉ તરફને કરો (તે રીતે કુલ દશ ભાગ) તે રીતે નીચે દશ ભાગ અને ઉપર નવ ભાગ બાંધણે સ્કપે કરવા તેને બે ભાગની રેખા. દોઢ ભાગને પઢો અને આખુંભદ્ર બે ભાગનું મળી કુલ નવ ભાગ જાણવા. ૧૨-૧૩. शिखरके पायचे पर रेखा विस्तारका जो मान हो उसके दस भाग करना । दो भाग रेखा, सारा भद्र तीन भागका, और बिचमें पढ़रा-डेढ भागका, दोनों तरफका करना । ( उस तरह कुल दस भाग) इस तरह नीचे दस भाग और उपर नौ भाग स्कंधके पर करना । उसके दो दो भागकी रेखा डेढ डेढ भागका पढ़रा और सारा भद्र दो भागका मिलकर कुल नौ भाग जानना । १२-१३. शरवेध प्रवक्ष्यामि जायते मूलनाशके । कक्षान्तरे प्रभेदेच महा शेष (च) राजयेत् ॥१४॥ प्रथमेत्रयक्षुद्राणां गृहेपक्षेचुगानि च । द्वौ सा शक्ति सतुचाष्टोच पाडेश्यमतुपंचमी ॥१५॥ 'जंधिसशम त्रयोदश क्षाणिषष्टेलनमधेते सूराः । सरवेधे यदि चैव हन्यते पशुबाधवाः ॥१६॥ सानुकूलषयं (कृत) मबले हन्यते शत्रु । ....... "स्वरवेधं न कारयेत् ॥१७॥ (१) सरवेध स्वरवेध ? पाठान्तर (२) मेरु शेष च राजयेत् (३) प्रथम त्रय रुद्राणां (४) गुणानिच (५) शिवशक्ति शिवाष्टोच (६) जंधिपद्म त्रयोदश (५) कल्पते षड् भासिका. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११३ क्रमांक अ.-१५ षट्मासे भवेन्मृत्यु राजदंडस्तथैव च। अथवा त्रीणि मरणं जं षटमासेन संशयः ॥१८॥ स्वरवेध यदा चैव क्रियते पइभागिता ।" तत्र नारी महाव्याधि राष्ट्रभंगं प्रजायते ॥१९॥ दुर्भिक्षश्वापि रुद्रं (स) राजमृत्यायने यथा । यम शमातां निष्फलं यांति शिल्पीनं मृयते ध्रुवा ॥२०॥ अन्यथाकरणे कर्तुं क्षोनास्ति युगान्तरे । पूजायां न लभतेदेव सुम्मकीर्ति राक्षसः ॥२१॥ शोकस्य यदातस्य विरोध: स्थात्परस्परम् । गौ प्राणपीडास्यात् आतासगनिष्टरागर्भगृहावपुभवेत् ॥२२॥ को अपोषांच राजनीक्य कुर्वातीक्यस्ते । केटिरोधस्तत्र वराहा अकाले मृत्यु फलकम् ॥२३॥ अहमद फलं यांति कुकस्तलोकपीड तु । ... ... ... ... ... ... ॥२४॥ प्रासादस्य न सांगाय विस्तारोग्रे स्तथैव च । पड मध्येषु दातव्यो पोत्रिकाद्यं प्रदक्षिणे ॥२५॥ मूलनाशक त्रिसाई कर्तव्यंच तदाग्रतः । नव नाशिक भवेतंश्च सार्द्धते भद्रसनिधैः ॥२६॥ ... ... ... ... ... ... इतिश्री विश्वकर्माकृतायां क्षीरार्णवे नारद पृच्छते.........धिकारे शताने - द्वादशमोऽध्याय ॥ ११२॥ (क्रमांक अ० १४) तिश्री विश्व विरयित क्षीराव ना२६००ये पूछन............अधिारने शि६५ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી ગુર્જરભાષામાં સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાને એક બારસે અધ્યાય- ૧૧૨. ક્રમાંક અ૦ ૧૪. ___इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव नारदजीके संवादरूप...अधिकार का शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा रचि हुभी सुप्रभा नामकी भाषाटीका का ११२ एकसोबारहवाँ अध्याय । ११२ (क्रमांक अ० १४) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ शिखराधिकार ॥ क्षीरार्णव अ० ॥ ११३ ॥ ( क्रमांक अ० १५ ) श्री नारद उवाच - वक्षयनभ्यं धरणीमतः । प्रपत्यमिदं कथयामि न संदेहो शिखरं सर्वकामदं ॥ १ ॥ कस्मिनाकार समुत्पन्ना प्रासाद शिखरोत्तमे । किं दलविभकते च कींमागे विभागते ॥ २ ॥ किंमे अष्टविभक्तं च स्तैषां स्कंधकीतो भवेत् । दशधा स्कंध रेखा च स्कंध मानोकृताभवेत् ॥ ३ ॥ ममवालजरं श्रुत्वा सरत के न हेतवे । क विभागमृतो तन्ना कथितो मम सांप्रतम् ॥ ४ ॥ મહર્ષિ નારદજી શ્રી વિશ્વકર્માને પૂછે છે કે સર્વ કામનાને આપનારી એવી શિખરની વિધિ સન્દેહ વગરની કહે, પ્રાસાદના શિખરેશ કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય, તેના ભાગ વિભાગ અને શ્રૃંગ આદિના વિભાગ કેવી રીતે કરવા ? વળી આ ભાગ કેમ કરવા? શિખરનુ` સ્કંધ આંધણુ કેટલા ભાગે રાખવું દેશ ભાગ નીચે રેખા અને બાંધણે કેમ કરવું? મને વાલ જરની વિધિ તેમાં ભાગ........કેટલા ભાગે ઊંચાઈમાં કેમ કરવું તે મને म १-२-३-४. महर्षि नारदजी श्री विश्वकर्माको पूछते हैं कि सर्वकामनाको देनेवाली ऐसी शिखरकी विधि संदेहके बिना बताओ । प्रासादके शिखरों कैसे उत्पन्न होते हैं, उनके भाग, विभाग, शुंग आदिके विभाग कसे करें ? और आठ भाग कैसे कैसे करें ? शिखरका स्कंध कितने भागपर रखना ? दस भागके नीचे रेखा और स्कंधके पर किस तरह करें ? मुझे वालंजरकी विधि, उसके भाग और कितने भाग में ऊँचाईमें कैसे करना यह अभी.. कहो । १-२-३-४. विश्वकर्मा उवाच - यचया पृच्छते चैव शृणुत्वेकाग्रतो मुनिः । शिखराव विविधाकारा मनेकाकार मुद्रिला ॥ ५॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५ क्षीरार्णव अ.-११३ क्रमांक एकस्थापि सलस्योर्वे शिवराणि बहून्यपि । नामानि जातयस्तेषां मूर्चमार्गानुसारतः ॥ ६ ॥ --६भाग--.---.. - ---------३.भाग भाग------ E A Aw - - - --- NA शिखरमें श्रृंगोर्ध्व श्रृंङ्ग श्लोक ७-८ ऊह श्रृंङ्गोवंऊरुश्रृंग रखनेका विभाग श्लोक २१ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે કે મુનિ, તમે પૂછે છે તે એકમનથી સાંભળે. શિખરે વિધવિધ અને અનેક આકારને થાય. એક જ તળ ઉપર ઘણા પ્રકારના શિખરે ચડે તે શિખરના ઉપરના માર્ગથી પ્રાસાદની જાતિ અને ઓળખાય છે. પ-૬. श्री विश्वकर्मा कहते हैं-हे मुनि, यदि तुम पूछते हो तो एकाग्र होकर सुनो। शिखरों विविध और अनेक प्रकारके होते हैं। एक ही तलके पर बहुत प्रकारके शिखरें चढ़ते हैं। उनके उपरके मार्गसे प्रासादकी जाति और नाम पहचाने जाते हैं। ५-६. छाधोघे प्रहारः स्यात् श्रंगे श्रृंगे तथैवच । प्रहारांश अग्नर्दद्यात् पुनः शृंगाणि कारयेत् ॥७॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार - - समस्ताना मधो भागे कुर्याच्छाद्य विभूषितम् । अधः शृगाल भागेन उर्ध्व शृंगोवरोद्गमः ॥८॥ પ્રાસાદના છજા પર પ્રહાર પહારૂને થર કરી તે પર ઉપરા પર છંગે ઉપર બીજું શૃંગ અર્ધભાગે ચડાવવાં પ્રત્યેક શ્રેગ નીચે કરી પહારૂને થર કરી # ચડાવવા પ્રત્યેક ઢંગના નીચેને ભાગ છાજલીથી વિભૂષિ કરે. વળી નીચેના શૃંગના અર્ધભાગે ઉપરનું ગ ચડાવતા જવું અને દેઢીયા કરવા. . प्रासादके छज्जे पर प्रहार-पहारुका थर कर उसकेपर उपरापर श्रृंगोंकेपर दूसरे श्रृंगको अर्ध भागमें चढ़ाना। प्रत्येक अंगके नीचे फिर पहारुका थर करके श्रृंग चढ़ाना । प्रत्येक श्रृंगका नीचेका भाग छाजली से विभूषित कदना । नीचेके अंगके आधे भागके उपरके श्रृंङ्गको चढ़ाते जाना और दोढिये करना ।' ७-८. मृलकर्णरथादौच एक द्वित्रिक्रमेन्यसेत् । नीरंधारेमूलभित्तौ सांधारभ्रमभित्तिषु ॥ ९॥ પ્રાસાદની મૂળ રેખા અને પ્રતિરથ આદિ ઉપાંગો પર એક બે ત્રણ એમ કહેલા ક્રમ પ્રમાણે શ્રગે ચડાવવા. પરંતુ નિરધાર પ્રાસાદની મૂળ ભીત ઉપર (ગભારાની અંદરની ફરકથી કંઈક વધુ) અને સાંધાર પ્રાસાદને ભ્રમની ભીતે શિખરને પાયો રાખ. (ગળવા ન દે.) __प्रासादकी मूल रेखा और प्रतिरथ आदि उपांगोंके पर एक दो तीन इस तरह कहे हुए क्रमके अनुसार श्रृंगोंको चढ़ाना । परंतु निरंधार प्रासादकी मूल दिवारके पर (गर्भगृहके अंदरके फर्कसे कुछ ज्यादा ) और सांधार प्रासादको भ्रमकी दिवारके पर शिखरका पायचा रखना । (गलने नहीं देना । ) ९. (૧) 'છજા પર પદારૂનો થર કરી શ્રગ ચડાવવા. આધુનિક કાળમાં મંડપને ઘુમટ ઉંચે કરે છે. તેથી પાકનાશ મેળવવા છજા પર જાંગી બે ત્રણ કે ચાર ફૂટની ચઢાવે છે. પ્રહારૂની વિશેષ પ્રથા રાજસ્થાની સોમપુરા ભાઈઓમાં વધુ છે. પ્રહારૂ અને મોરલી પાર એમ તેઓ કહે છે. વૃક્ષાણુવ ગ્રંથમાં પ્રકારના છ પ્રકાર કહ્યા છે. તેના પૃથફ પૃથફ ઘાટ કહ્યા છે. પહારૂના ઘરના ઘાટને ગુજરાતમાં “પા” કહે છે. (१) छज्जेके पर पहारुके थर करके श्रृंग चढ़ाना । आधुनिक कालमें-मण्डपका गुंबज ऊँचा किया जाता है, इससे शुकनास मिलाने के लिये छज्जेके पर जांगी दो तीन या चार फूटकी चढ़ाते हैं । पहारुके विशेष प्रथा राजस्थानी सोमपुरा भाइयोंमें विशेष है। पहारु और मुरलीपार, ऐसा वे लोग कहते हैं । वृक्षार्णव ग्रंथमें प्रहारके छः प्रकार कहे है । उनके पृथक् पृथक् घाट कहे हैं । प्रहारके थरके घाटको गुजरातमे "पाल" कहते है। १८ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११३ क्रमक अ.-१५ . 'रेखा विस्तारमानेन सपादेनतदुच्छ्यः । त्रिभाग सहितश्चैव सार्द्ध कृत्वा विचक्षणैः ॥१०॥ શિખરની મૂળ રેખા: પાયે જેટલો વિસ્તાર હોય તેનાથી (૧) સવાયું ઉંચું શિખર (બાંધણે) કરવું. (૨) મૂળ પાયાથી તેના ત્રીજા ભાગ સહિતની ઊંચાઈ કરવી (૩) મૂળ પાયાના વિસ્તારથી દેતું ઊંચું શિખર વિચક્ષણ શિલ્પીએ કરવું. આ ત્રણ રીત શિખરની ઊંચાઈની (નાગરાદિ જાતિમાં) तपी. (२) १० शिखरकी मूलरेखा-पायचाके बराबर विस्तार हो तो उससे (१) सवा गुना ऊँचा शिखर स्कंथके पर करना । (२) मूल पायचेसे उसके तीसरे भागके सहितकी ऊँचाई करना । (३) मूल पायचेके विस्तारसे डेढ गुना ऊँचा शिखर विचक्षण शिल्पीको बनाना । इन तीन रीतियोंको शिखरकी ऊँचाईके लिये जानना । (नागरादि जातिमें) १० (२). उरुशृङ्गाणि भद्रेस्यु हृयेकादि ग्रहसंख्यया । त्रयादेश समुद्येऽधो लुप्तः सप्तोरशृङ्गकै ॥११॥ શિખરના ભદ્દે ઉશ્રગે ચડાવવાનું વિધાન કહે છે. ભદ્ર ઉપરથી એકથી નવ સુધી (કહેલા-ક્રમ પ્રમાણે) ઉશ્ચંગ ચડાવવા. તેમાં ઉપરના ઉરશ્ચંગના બાંધણુથી નીચે પાયાની ઉંચાઈના તેર ભાગ કરી નીચેના ઉછંગના બાંધણે સાતભાગ સખી લુપ્ત દબાતું મેટું ઉશ્ચંગ કરવું. એમ કમે ચડાવવા (આમ છ ભાગ ઉપરને સાત ભાગ નીચે એમ બાંધણુથી બાંધણા સુધીના જાણવા.) ૧૧ शिखरके भद्रके पर उक्त श्रृंगोंको चढ़ानेका विधान कहते हैं । भद्रके उपरसे एक से नौ तक क्रमके अनुसार उरुश्रृंगको चढ़ाना । उसमें उरुश्रृंगके स्कंधसे नीचे पायचेकी ऊँचाईके तेरह भागकर नीचेके उरुग्वेगका स्कंधके पर सात भाग रखकर लुप्त दबाता हुआ बडा उरुश्रृंग करना । इस तरह क्रमके अनुसार (૨) નાગરાદિ જાતિમાં આ ત્રણ પ્રકારના શિખરની ઊંચાઈના કહ્યા છે. પુરાણોમાં શિલ્પને વિષય સમાવિષ્ટ કરેલ છે. તેમાં શિખર બમણું ઊંચું કરવાનું કહ્યું છે. ઉત્તર ભારતમાં તેવાં શિખરે જોવા મળે છે. ભારતના એક પ્રદેશમાં અઢીગણ ઉંચાઈના શિખરે શાસ્ત્રોકત વિધિના અમે જોયો છે. તે પ્રાસાદની ચૌદ જાતિમાંની એક જાતિ હશે. (२) नागरादि जातिमें इन तीन प्रकारसे ऊँचाइ बतायी है । पुराणों में शिल्पका विषय समाविष्ट किया हुआ है । उसमें शिखरको दूगुना ऊँचा करनेके लिये कहा है। उत्तर भारतमें वैसे शिखर देखनेमें आते हैं । भारतके एक प्रदेशमें ढाई गुनी ऊँचाईके शिखर शास्त्रोक्त विधिसे हमने देखें हैं । यह प्रासादकी चौदह जातियोंमेंसे एक जाति होगी । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र म नर और माय भाग , अप অর্থ হিম্বাধিকাৰ चढ़ाना । (इस तरह छः भाग उपर और सात भाग नीचे, इस तरह स्कंधसे स्कंध तकके जानना ।) ११. शृंगोरूशृंग प्रत्यङ्गारंडकान गणयेत्सुधी। तवका तिलकं कर्णे कूर्याद् प्रासाद् भूषणाम् ॥१२॥ શિખરના અંગ–ખીખરીઓ ઉશ્રગ અને પ્રત્યંગ (ાથે ગરાશિયા) તે અંડકની ગણત્રીમાં લેવષા બાકી તવંગ તિલક ક્રૂર ઘંટા જે રેખા કે પટરા આદિ અંગે પર ચડાવેલા હોય તે પ્રાસાદના આભૂષણ રૂપ જાણવા. તે ગણત્રીમાં ન લેવા. शिखरके श्रृंगको, उरुश्रृंगको और प्रत्यंगको (चोथ गराशिया) अंडककी गिनतीमें लेना । बाकी तवंग तिलक कूट घंटा जो रेखा या पढरा आदि अंगोंके पर चढ़ाये हुए हो उनको प्रासादके आभूषण रूप जानना । उनको गिनती में नहीं लेना । १२. रेखामूलस्य दिग्भागे कुर्यादग्रे षडांशकाः । पइबायै दोषदं प्रोक्तं पंचमध्ये न शोभनम् ॥१३॥ શિખરની મૂળ રેખા–પાયાના વિસ્તારના દશ ભાગ કરી ઉપર બાંધણે– સ્કંધે છ ભાગ પહેલું રાખવું. છ ભાગથી વધુ રાખવાથી દોષ કહ્યો છે. અને પાંચ ભાગથી ઓછું શોભતું નથી. (તેથી સાડા પાંચ ભાગ બાંધણે રાખતું) ૧૩ शिखरकी मूल रेखा = पायचेके विस्तारके दस भागकर उपर स्कंधके उपर छ भाग चौडा रखना । छ: भागसे ज्यादा रखनेसे दोष कहा है, और पाँच भागसे कम शोभायमान नहीं होता है । इससे साढ़े पाँच भाग स्कंधके पर रखना । ) १३ रेखामूलस्य विस्तारात् पद्मकोश समालिखेत् । चतुगुणेन सूत्रेण सपाद शिखरोदयः ॥१४॥ સવાયા શિખરને પાયામાં વિસ્તારથી ચારગણું વૃત સૂત્ર ફેરવવાથી વગર ખીલેલા કમળ પુષ્યના આકારના જેવી શિખરની નમણું રેખા થશે. ૧૪ सवागुने शिखरको पायचेके विस्तारसे चार गुना घृत सूत्र फिरानेसे अविकसित कमलपुष्पके आकारके जैसी शिखरकी नमण रेखा होगी ।। १४ ૩) ૧ શિખરોદયના પાયાથી સાડાચાર ગણું સૂત્રથી વૃત રેખા દોરવી અને દેઢા ઉદયવાળા શિખરના પાયા વિસ્તારથી પાંચગણું સૂત્ર વૃત રેખા દેરવાથી બાંધણે સાડા પાંચ ભાગના હિસાબે બરાબર મળી રહે છે. આ સ્થળ સામાન્ય નિયમ કહ્યો. રેખા દોરવાના અનેક પ્રકાર–ભેદ પ્રાસાદ શિલ્પગ્રંથમાં કહ્યાં છે. તેમાં પ્રાસાદની જાતિ છંદ પ્રમાણે મુખ્ય ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે. ૧ શિખાંત ૨ ઘંટાત ૩ સધાત ૧ શિખત Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ શાળા -૨૨૩ માં – दशधातलरेखा च दिग्भाग द्वौ कर्ण विस्तर । स्थ सार्द्ध विस्तार भद्रार्ध तत्र निर्यम् ॥१५।। हस्तमानार्धाङ्गुलेन फालनानिर्गविचक्षण । दशांशा शिखरे मूले चाग्रे तत्रनवांशकाः ॥१६॥ साांशको स्थौ कोणो द्वौ शेषभद्र मिष्यते । ---- द्वौ मतिरथी मध्ये वृतमामल सारकम् ॥१७॥ શિખરના નીચે મૂળ રેખા–પાય દશ ભાગ કરવા. તેમાં બે ભાગની રેખા –દેઢ દેહ ભાગને પઢરા અને બાકી અધું ભદ્ર પણ તેટલું જ એટલે દેઢ ભાગનું આ ફાલનાઓના નિકાળા-પાય જેટલા ગજ હોય તેના ગજે રાખવા. જેમ દશ ભાગ નીચે કહ્યા તેની ઉપર કંધ બાંધણે નવ ભાગ કરવા. તેમાં બે ભાગની રેખા અને દોઢ દેઢ ભાગના પઢરા અને બાકી આખું ભદ્ર બે ભાગનું કરવું (કુલ નવભાગ) આ સ્કધના ખુણાખુણ પ્રતિરથની મધ્યમાં ગોળ આમલ સારે પહેળે રાખ. ૧૫–૧૬-૧૭ * : “માગ કોમ એટલે નીચે પાયાચાથી ઠેઠ કળશ સુધીની સળંગ વૃત રેખા દોરાય છે. તેમાં બાંધણું અને આમલસારા સાંકડાં થાય ૨. ઘંટાંત–નીચે પાયાથી આમલસારા સુધી વૃત રેખા દેરાય તે Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार शिवरका स्कंधका आमना सामना दो प्रतिस्थका कोया समान आमलसाराका गोलप्त रखना । Aasma शिखरमें नीचे मूलरेखाके पर-पायचेके पर दस भाग करना । उनमें दो भागकी रेखा-डेढ़ डेढ़ भागका पढरा और बाकी आधा भद्र भी उतना ही अर्थात् डेढ़ भागका-इन फालनाओंके निकाले-पायचेके बराबर जितने गज हो उसके आधे अंगुल गजके पर रखना । जिस तरह दस भाग नीचे कहे उस तरह स्कंधके पर नौ भाग करना । उनमें दो भागकी रेखा और डेढ़ भागके पदरे और बाकी पूरा भद्र दो भागका करना । (कुल नौ भाग) इस स्कंधके कोनेके सामने कोनेमें प्रतिरथकी मध्यमें गोल आमल सारा चौडा रखना । १५-१६-१७. આ પ્રકાર વિરાટ ભૂમિ જ અને વલ્લભી જાતિના પ્રાસાદ માટે છે. (૩) સ્કંધાત એટલે નીચે પાયાથી બાંધણુ સુધી ગોળ વૃત રેખા છુટે (ઉપર આમલસારે તેનાથી બહાર રહી જાય છે તે અંધાંત ખાવાળુ શિખર નાગરાદિ જાતિના છંદના સાધાર કે નિરધાર પ્રાસાદને પ્રશસ્ત કર્યું છે. (३) १ शिखरोदयके पायचेसे साढ़े चार गुने सूत्रसे वृत रेखा दोरना और डेढ़ गुने उदयवाले शिखरके पायचे के विस्तारसे पाँच गुनी सूत्र बृत रेखा दोरनेसे स्कंध के पर साढ़ेपाँच भागके हिसाबसे बराबर मिल रहता है । रेखा दोरनेके अनेक प्रकार भेदों प्रासाद शिल्प ग्रंथों में कहे हैं । उसमें प्रासादकी जाति छदके अनुसार मुख्य तीन प्रकार कहे हैं । १ शिखांतर २ घंटांत ३ स्कंधांत Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - क्षीरार्णव अ.-११३ क्रमांक -१५ अथवालंजर-तथा वालंजर प्राज्ञ भागभेद विशेषतः । द्वाविंशश्च पदं कार्य चतुर्भिमूलनासिकं ॥१८॥ प्रतिरक्षेत्रयं भागं द्वितीये द्वयमेव च । द्विभागाचैव भद्रार्द्धभागभागश्च निर्गमम् ॥१९॥ त्रयादेशांश स्कंधोघे कर्तव्यं च प्रयत्नतः । त्रिधाकर्ण विभक्तं च द्विभागउर्ध्वकर्णकः ॥२०॥ तथास्थप्रभेदेन शे मद्रं प्रकीतितम् । वालंजरे च विज्ञेया रेखा मेदस्यकस्तथा ॥२१॥ હે મુજ્ઞ પુરુષ, હવે (સાંધાર પ્રાસાદના) શિખરના વાલંજરના ભાગના ભેદ વિશેષ કરીને કહું છું. શિખરના પાય બાવીશ ભાગ કરવા. તેમાં રેખા ચાર ભાગની, પ્રતિરથ ત્રણ ભાગને. બીજે ઉપરથ બે ભાગને અને અરધું ભદ્ર બે ભાગનું. તેના નિકાળા ભાગ ભાગના રાખવા. હવે તેના ઉપર સ્કંધ બાંધણે તેર ભાગ કરવા. ત્રણ ભાગની રેખા-કર્ણ બે ભાગના પ્રતિરથ, એક ભાગને રથ અને બાકી અર્થે ભદ્ર, અરધા ભાગનું એમ કુલ તેર ભાગ સાંધાર પ્રાસાદના શિખરના બાંધણે જાણવા. એ રીતે શિખરની રેખાના વાલંજરના ભેદ જાણવા.' १८ १८-२०-२१ हे सुज्ञपुरुष, अब (सांधारप्रासादके) शिखरके वालंजरके भागके भेद विशेषतथा मैं कहता हूँ । शिखरके पायचे पर बाईस भाग करना । उसमें रेखा भार सापकी प्रतिरथ तीन भागका दूसरा उपरथ दो भागका और आधा भद्र दो भागका, उनके निकाले भाग भागके रखना । अब उसके उपर स्कंधके पर तेरह भाग करना । तीन भागकी-रेखा-कर्ण दो भागका दूसरा प्रतिरथ, एक भागका रथ और बाकी आधा भद्र आधे भागका, इस तरह कुल तेरह भाग सांधार प्रासादके शिखरके स्कंध पर जानना । इस तरह शिखरकी रेखाके कालंजरके भेद मानना 1४ १८-१९-२०-२१ । (१) शिखांत अर्थात् नीचे पायचेसे कलशतककी सलंग वृतरेखा आँकी जाती है वह, उसमें स्कंध और आमलसारे सँकरे होते हैं । (२) घंटांत-नीचे पायचेसे आमलसारा तक वृतरेखा ऑकी जाती है वह, ये प्रकार विराट भूमिज और वल्लभी जातिके प्रासादके लिये है। (३) स्कंधांत अर्थात् नीचे पायचेसे स्कंध तक गोल वृतरेखा छुटे (उपर आमलसारा उससे बाहर रह जाता है वह) स्कंधांत रेखावाला शिखर नागरादि जातिके छंदके सांधार या निरंवार प्रासादको प्रशस्त है। (૪) આગળ શ્લેક ૧પથી ર૭માં શિખરના ઉપાંગોના ભાગ કહ્યા છે તે નિરધાર Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध शिखराधिकार - Kam - माग---- याRHATA TARA शामा <.--मन-रेखा १०ाग.- -" -..--पालार २२ भागनिरंधार-ओर सांधार प्रासादका भूल शिखरका उपाङ्ग-वालंजर बालपंजर स्कंधहीनं न कर्तव्यं नाधिक किंच कारयेत् । स्कंध हीने कुलोच्छेदो मृत्यरोग भयावहम् ॥२२॥ आयुरारोग्य सौभाग्यं लभते नात्र संशयः । मूलकन्द प्रविष्टे तु स्कंधवेध इति स्मृतः ॥२३॥ शिल्पी स्वामी नौ हन्यते स्कंधवेधेन संशयः। निर्गमे हस्त संख्यैर्वार्धागुलैरुपमादितः ॥२४॥ માન પ્રમાણુથી ઓછા સ્કંધવાળું કે અધિક માનના કંધવાળું શિખર ન કરવું. શિખર ધઃ બાંધણે માપથી ઓછું થાય તે કુળનો નાશ મૃત્યુ અને રોગને ભય ઉપજે. માન પ્રમાણે કરવાથી આયુષ્ય આરોગ્યને સૌભાગ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. તેમાં જરા પણ શંકા ન કરવી. જે કંધના મૂળમાં (ધ્વજાદંડ) પ્રવિણ થાય તે તે સ્કવેધ જાણુ. તે વેધથી શિલ્પી અને સ્વામીને નાશ થાય તે પ્રાસાદને લેગ્ય છે અને શ્લેક ૧૮થી ૧ના વાલજર કહ્યા તે સાંધાર પ્રાસાદના શિખરના છે સાંધારામાં બે પ્રતિરથ કહ્યા છે વાલંજરને સમરાંગણ સૂત્રધારમાં બાલપંજર કહેલ છે. (४) आगे श्लोक १५ से १७ मे शिखरके उपागोंके भाग कहे थे निरंधार प्रासादके शिखरके योग्य है। और श्लोक १८ से २१ मे वालंजर कहे है सांधार प्रासादके शिखरके लिये कहे है । सांधारमें दो प्रतिरथ कहा है । वालंजरको समराङ्गण सूत्रधार में बाल पंजर कहा है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११३ क्रमांक भ.-१५ સંશય વગર જાણવું. બાંધણે વાલંજરના સર્વ નાશિકના નિકાળા જેટલા ગજે પાયે કે બાંધણું હોય તેટલા ગજે અર્ધા આંગળ પ્રમાણે રાખવા. मान प्रमाणसे कम स्कंधवाला या अधिक मानके स्कंधवाला शिखर नहीं करना । शिखर जो स्कंधके मापसे कम हो तो कुलका नाश, मृत्यु और रोगका भय उत्पन्न होता है । मानके अनुसार करनेसे आयुष्य आरोग्य और सौभाग्यकी प्राप्ति होती है। उसमें जरा भी शंका न रखना | जो स्कंधके मूलमें (ध्वजादंड) प्रविष्ट हो तो उसे स्कंध वेध समझना । इस वेधसे शिल्पी और स्वामिका नाश होता है । यह बात निःसंशन जानना । स्कंधके पर वालंजरके सर्व नासिकके निकाले जितने गज' पर पायचा या स्कंध हो उतने गज पर आधे आंगुल प्रमाणमें रखना । २२-२३-२४. । प्रनानि स्कंशान्तरेखा सागरी घंटास रेवा. -- -- वियर मी---यांत रेखा. रेखाका सामान्य स्वरुप-१ स्कंधांत (नागरी)–२ घण्टान्त–३ शिखान्त रेखा (विराट वल्लभीः) अन्योन्ये कथिताश्चैव शुकनाशः मतः शृणु । छार्योर्चे स्कंध पर्यंतं मेकविंशति भाजितम् ॥२५॥ नंद त्रयोदश मध्ये प्रमाण पंचधामतं । कुमारं कपिरुद्रंच निर्धटा हि निशाचरः ॥२६॥ चंद्रधोषश्च विज्ञेयं शुकनाशंपंचधामतं । पणमेकं कुमारं च त्रिषणंकपिरुद्रकम् ॥२७॥ શિખરનું અન્ય અન્ય કહ્યું. હવે શુકનારાના લક્ષણ સાંભળે. છજા ઉપરથી Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार શિખરના સ્કંધ બંધારણ સુધીની ઊંચાઈના એકવીસ ભાગ કરી. તેમાંના નવ દશ અગ્યાર બાદ અને તેર ભાગે શુકનારની ઊંચાઈના પાંચ પ્રકારે સ્થાન વિભાગ કહ્યા. કુમાર કપિરુદ્ર, નિર્ધન્ટ નિશાચર અને ચંદ્રશેષ એમ પાંચ નામે અનુક્રમે शुनाशना शुपा. २५-२६-२७ शिखरका अन्योअन्य कहा । अब शुकनासके लक्षण सुनो। छज्जेके उपरसे शिखरके स्कंध तक ऊँचाईके इक्कीस भागकर उनके नव, दस, ग्यारह, बारह और तेरह भाग पर शुकनासकी ऊँचाईके पाँच प्रकार कहे । कुमार, कपिरूद्र, निर्धर्ट, निशाचर और चंद्रघोष इस तरह पाँच नामों अनुक्रमसे शुकनासके जानना । २५-२६-२७ पंचसप्त नवश्चैव द्विषणांतं प्रकीर्तितं । विमानाकार वर्तते कक्षेमुर्वे च नासिकम् ॥२८॥ (૫) શિખરના શુકનાસ બરાબર મંડપની ઘટા સમાન રાખવી. તેવું વિધાન છે. પણ शुकनासे समाघंटा: न न्यून। न ततोडधिका मेयु अपराजितसूत्र १८५मा अहेलुछे. वणी दीपार्णव भने अन्य शिपथे। तभन्न अपराजितमा भने स्थणे तदूर्बेन प्रकर्तव्यं भवः स्थं नैवदूषयत् " आम ५९ हेन छ. तथा शुरुनाशयी भयनी या नीचे रावी. तेमां होप नथी. शुकनासे समाघटा छे. पण मामलसारे। भ७५ ५२न। यो नथा. तेनु १२५ તેરમી ચૌદમી સદીમાં મંડપ પર ઘુમટ નહીં પરંતુ શામરણ કરતા અને તેની સર્વોપરિ મૂછવંદ આવે તેથી ઘંટા કહેલ છે. સંવરણે પાછલા કાળમાં ઓછી થવા માંડી તેથી ઘુમટ કરી ચંદ્રસ મુકી આમલસારા પર કળશ મુકવાની પ્રથા શરૂ થઈ (५) शिखरके शुकनासके बराबर मंडपकी घंटाको समान रखना, वैसा विधान है। लेकिन “शुकनासे समाचंटा नन्यूना न ततोडधिका " ऐसा “ अपराजित सूत्र "१८५ में कहा है, और दीपार्णव और अन्य शिल्प ग्रंथों और अपराजितमें दूसरे स्थल पर " तदूचे न प्रकर्तव्यं अधः स्थे नैव दूषयेत् ” ऐसा भी कहा है । इससे शुकनाससे मंडपकी घंटाको नीची रखना, इसमें दोष नहीं है । शुकनास समाधा कहते हैं, लेकिन आमलसारा मंडपके उपरका नहीं कहा है । इसका कारण तेरहवीं सदी में मंडपके पर धुमट गुंबज नहीं लेकिन शामरण करते थे और उसकी सर्वोपरि मूलघंटा आवे इसीलिये घंटr कहा है। संवरणां पीछले कालमें कम होने लगी इससे गुंबजकर चंद्रस रखकर आमलसारा के पर कलश रखनेकी प्रथा शुरू हुई। (૬) ક ર૭થી ૧નાં મૂળપાઠ જ અમે મુકેલ છે. તેની અશુદ્ધિના કારણે અનુવાદ કરવામાં ગેરસમજને ભયે અમે તેમ કર્યું નથી. શુકનાસમાં એક ત્રણ પાંચ કે સાત ઉપરાપર દેઢિયા કરી ઉપર સિંહ સ્થાપન થાય છે. (६) श्लोक २७ से ३१ के मूल पाठ ही हमने रखे हैं। उनकी अशुद्धि के कारण अनुवाद करनेमें गैरसमज के संभवसे हमने वैसा रखा है। शुकनासमें एक तीन पांच या सात उपरापर दोढिये बनाकर उमर सिंहका स्थापन होता है। २. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ क्षीरार्णव अ. - ११३ क्रमांक अ - १५ अष्टादश चैवोकतं नष्टकर्णी विशेषत: ? नष्टकर्णी दामू निर्वादं परिभूमिकैः ||२९|| सर्वेसिंह समायुक्ता कलशाये विशेषत: । तथा भद्र विचारेण भृंगस्य शुष्कमेव च ॥ ३०॥ शृङ्गाद्वयं प्रयत्नेन श्रृंगमे के विचक्षणः ॥३१॥ ભાવા—એક ખંડ કુમાર, ત્રણ ખંડ કપિરૂદ્ર, પાંચ ખંડ નિઘંટુ, સાત ખંડ નિશાચર અને નવખંડ ચદ્રઘાષ. એમ ઉત્તરાત્તર બબ્બે ખંડના અંતે.... વિમાનકારનુ શુકનાસ કરવા. તે પર ખજી અને ઉપર નાસિકા કરવી.... .. अठ्ठार्ध કે દશાઈ ખુણી વગરના વિશેષ કરી..........ઉપર કળશના આગળ સિહા કરવા .२७-२८-२८-३८-३१ एक खंड कुमार, तीन खंड कपिरूद्र, पाँच खंड निघंटु, सात खंड निशाचर और नौ खंड चंद्रघोष इस तरह उत्तरोत्तर दो दो खंड के अंत में...... . विमानाकारका शुकनास करना । उसके पर बाजु और उपर नासिका करना । खट्टाई या दसाई कोनेके बिना विशेष कर उपर कलशके आगे सिंहो करना.... ...२७-२८-२९-३०-३१ अथ कोकिला लक्षण - 'अथातः संप्रवक्ष्यामि कोकिला लक्षणं परम् । स्थान प्रमाणमे तेपां शुभं वा यदिवाऽशुभम् ॥ ३१ ॥ कोण विस्तार विस्तीर्णा कोकिला शुभलक्षणम् । उभयोः पार्श्वयोरेव एकैका च प्रशस्यते ||३२|| कोणार्द्ध च यमदृष्ट्रा भित्तिचैव सर्वलक्षणसंयुक्ता कोकिला सुफलप्रदा ॥ ३३ ॥ शुभप्रदा । હવે હું કોકિલાના સ્થાન પ્રમાણ અને શુભાશુભ લક્ષણે કહું છું. પ્રાસાદની રેખા કાણુ જેટલી પહેાળી કોકીલા કરવી તે શુભ લક્ષણ જાણવુ. કોલીના બેઉ. પડખે એકેક કોકીલા-પ્રાસાદપુત્ર કરવા તે પ્રશંસનીય છે. રેખા જેટલા ભાગની હાય તેનાથી ઓછી કે અર્ધા ભાગની કિલા ક૨ે તે યમ દૃષ્ટા વેધરૂપ જાગુવી પણ તે પ્રાસાદની ભિતની જાડાઈ જેટલી કોકિલા શુભ કહી છે. સર્વાં લક્ષણુ युक्त डोडिया ( प्रासादपुत्र ) उरवाथी शुल इंजने मापे छे. ३१-३२-33. अब मैं कोकिला के स्थान प्रमाण और शुभ अशुभ लक्षणोंके बारेमें कहता ૭ કોકિલા લક્ષણના પાઠ કેટલીક ગ્રંથેામાં નથી. તેથી આ પ્રથા પાછળથી પ્રવિષ્ટ થઈ હોય. ७ कोकिला लक्षण पाठ कई ग्रंथों में नहीं है, संभव है उसका प्रचार पीछे हुआ हो । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार हूँ। प्रासादकी रेखाके कोनेके बराबर चौडी कोकिला । यह शुभ लक्षण समझना । कोलीका दोनों तरफ एक एक कोकिला (प्रासादपुत्र) बनाना, यह प्रशंसनीय है ) रेखासे कम भागकी कोकिलाकी जाय, यह यमदंष्ट्रावेधरूप जानना । लेकिन वह प्रासादकी दिवारके मोटेपनके बरावर कोकिला शुभ कही है । सर्व लक्षण युक्त कोकिला (प्रासादपुत्र) करनेसे शुभफलको देती है । ३१-३२-३३. षड्भागैस्कंध विस्तारं सप्तभिः आमलसारकं । अर्धोदयं कर्तव्यं तदृर्षे कलशोत्तमा ॥३४॥ तथामलसारि च विस्तारं च अत:श्रृणु । सप्तभागमध्ये च चतुषष्टि विभाजितम् ।।३५।। द्वात्रिंशोदयं काय ग्रीवा भागं षडंमवेत् । अंडकं भास्करं विद्यात्-अष्ट चंद्रा विलोकित ॥३६॥ TRAF - bar विस्तार २८ भाग - आमलसारा १४मांग . Hamar HINDI M SASTERALLPATTERTAL ANG -- एकITTETRY शिखर स्कंधेभार्ग शिस्त्रका विस्तार भाग- असामिmy आलमसारा विभाग २८ x १४ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१३ क्रमांक अ-१५ ' આમલસારા વિસ્તારનું બીજું પ્રમાણ કહે છે. સ્કંધ-બાંધણે છ ભાગ હેય તે આમલસારે સાત ભાગ વિસ્તારનો કરો. અને તેનું અર્ધ ઊંચે કરી તે પર ઉત્તમ એ કળશ (ઈ) મૂકો, હવે આમલસારાની પહોળાઈને ભાગ કહું છું. છ ભાગ બાંધણે અને સાત ભાગ આમલસારે વિસ્તારમાં કહ્યું તે સાત ભાગમાં ચોસઠ ભાગ પહોળાઈન અને બત્રીશ ભાગ ઊંચાઈન કરવા. ગળું છે ભાગ–અંડક (ટો ગોળ) બાર ભાગને, તે પર ચંદ્ર આઠ ભાગને અને ઉપર જાંજરી (બે) છ ભાગને કરે. એ રીતે ઊંચાઈના બત્રીશ ભાગ જાણવા. હવે તેના નિકાળાના ભાગ સાંભળ. ૩૪-૩૫-૩૬. __ आमलसारा विस्तारका दूसरा प्रमाण कहते हैं । स्कंध छः भाग हो तो आमलसारा सात भाग विस्तारका करना । और उसका अर्थ ऊँचा करके उसके पर उत्तम जैसा कलश (अण्डा रखना । अब आमलसाराकी चौडाईके भाग कहता हूँ। छः भाग स्कंधपर और सात भाग जो आमलसारा जो विस्तारमें कहा वह सात भागमें. चौसठ भाग चौडाई में और छत्तीस भाग ऊँचाई में ના ! રહ્યા છે. મા–અંક (વર્ડ ગોઢા) વાઢ માવા, ઉપર વિંસ થાય भागका और उपर की जांजरी (गोला) छः भागकी करना । इस तरह ऊँचाईमें बत्तीस भाग जानना । अब उसके निकालेके भागको सुनो । ३४-३५-३६ षड्भाग वामलसारिच निष्कांत च अत:श्रृणु । अंडकं द्वादशं भागं च सप्तमि चंद्रकोधिकम् ॥३७॥ षभिः रामलसारि च चतुर्दशोर्ध्वकलशासनम् । तपसा स्कंध संस्थाने अंडकौपर्यकादिपु ॥३८॥ હવે આમલસારાના વિસ્તાર–પહોળાઈના ભાગ કહે છે. અંડક નીકળે (ચંદ્રસની પટ્ટીથી) બાર ભાગને ચંદ્રનો નિકાળે (જાંજરીના ગેળાના પેટાથી) સાત ભાગને, અને જાંજરીને નીકળે તેના કંદથી છ ભાગને રાખ કળશાસન કળશને સ્થાપન કરવાની પહોળાઈને ચૌદ ભાગ રાખવા એ રીતે કુલ ચેસઠ ભાગ વિસ્તારના જાણવા સ્કંધના બાંધણાના કેણે તાપસનાં રૂપ કરવાં અને અંડકમાં પ્રાસાદને સુવર્ણ પુરુષ પર્યક–હેલી સાથે પધરાવ.૮ ૩૭–૩૮ (૮) આમલસારાના પૃથફ પૃથફ વિભાગ જુદા જુદા ગ્રંથોમાં કહ્યા છે. દીપાવમાં ચૌદ ભાગ ઉંચાઈમાં ગળું ત્રણ ભાગ અંડક પાંચ ભાગ ચંદ્રસ અને જાંજરી ત્રણ ત્રણ ભાગની એમ કુલ ચૌદ ભાગ ઉદય અને અાવીશ ભાગ વિસ્તાર બીજા પ્રકારે ઉંચાઈમાં ચાર ભાગ કરી પિણ ભાગનું ગળું સવા ભાગને અંડક ચંદ્રક અને જાંજરી એકેક ભાગની કરવી કુલ ૮ ભાગ વિસ્તારમાન જાણવું. . (૮) તરે નવચત્રવિતિ | Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध शिखराधिकार अब आमलसाराके विस्तार-चौडाईके भाग कहते हैं । अंडक निकाला (चंद्रसकी पट्टीसे) बारह भागका निकाला (जांजरीके गोलेके पेटेसे) सात भागका, और जांजरीका निकाला उसके कंदसे छः भाग का रखना ! कलशासन-कलशको स्थापन करनेकी चौडाईके चौदह भाग रखना । इस तरह कुल चौसठ भाग विस्तारके जानना । स्कंध के कोंणेपर तापसके रूप करना और अंडकमें प्रासादके सुवर्णपुरुष पर्यकके साथ पधराना । ३७-३८ । शिवचेश्वररुपं तु ध्यानमूर्ति विचक्षणः । शिखरकर्णे प्रस्थाप्यं जिनेकुर्याज्जिनेश्वरः ॥३९॥ શિખરના ઔધે–આંધણાના ખુણે આમલસારાના ગળામાં શિવ-ઈશ્વરનું ધ્યાનમગ્ન સ્વરૂપ વિચક્ષણ શિલ્પી એ કરવું. પરંતુ જે જૈન પ્રાસાદ હોય તે જિનેશ્વરની બેઠી મૂતિ કરી મૂકવી. ૩૯. शिखरके स्कंधपर बांधणेके कोनेपर आमलसाराके गले में शिव-ईश्वरका ध्यान मग्न स्वरूप विचक्षण शिल्पीको करना । लेकिन जो जैन प्रासाद हो तो जीनेश्वरकी बैठी मूर्ति कर रखना । ६ ३९ ध्वजादंडकास्थान-प्रासादपृष्ठि देशे तु दक्षिणे प्रतिरथके । ध्वजाधारस्तुकर्तव्य ईशाने नैरुतेऽथवा ॥४०॥ . आमलसाराके पुथक् पृथक् विभाग भिन्न भिन्न ग्रंथों में हैं। दीपार्णव में चौदह भाग ऊँचाईमें गला तीन भाग, अँडक पाँच भाग, चन्द्रस और जांजरी तीन तीन भागकी इस तरह कुल चौदह भाग उदय और अट्ठाईस भाग विस्तार, दूसरे प्रकारसे-ऊँचाई में चार भाग कर पौने भागका गला, सवा भागका अंडक चन्द्रस और जांजरी एक एक भागकी करना। उस तरह ८ विस्तारमान है। (૯) મૂળ શિખરના આમલસારાના મધ્યગર્ભે જીભીરૂપે (કુંડચોથી અલંકૃત કરેલી હોય છે.) પરંતુ પાછલા કાળમાં આમલસારના ચારે ગર્ભે ગિનીના મુખે અને સ્કંધ પર ખુણે તાપસનાં રૂપે કરવાની પ્રથા પ્રવિષ્ટ થઈ હોય તેમ લાગે છે. ભદ્દે યોગિની મુખ કરવાને કઈ ગ્રંથમાં પાઠ નથી. ભારતના અન્ય પ્રદેશના શિખરમાં જીભીના સ્થાને જુના કામોમાં રૂપની આકૃતિ કરેલ જોવામાં આવે છે. ઉડીયા પ્રદેશમાં ઉભડક પગે બેઠેલ હાથ જોડતો પુરુષ જોવામાં આવે છે. બીજી એક પ્રથા શિખરના બાંધણમાં છ આઠ દશ આંગુલને બાંધણુને પદો બહાર કાઢવાની પ્રથા શિલ્પીઓમાં બસોક વર્ષથી નવીન પિઠી છે. જૂના કોઈપણ કામમાં બાંધણને ઉપડતો પટ્ટો જોવામાં આવતો નથી. બારમી સદીના સોમનાથજીના પ્રાચીન મંદિરના શિખરને આ પટ્ટાનો થર નરથર જેવો તેના અવશેષોમાં જોવા મળે છે. ९. मूल शिखरके आमलसाराके मध्य गर्भमें जीभी के रूपमें (कुडचलोसे अलंकृत की हुई होती है। परन्तु पीछले कालमें आमलसाराके चारों गर्मी में योगिनीके मुखों और स्कम्ध के पर Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Focowcampoocacy डलरका MOSOLE पाटलीमा क्षीरार्णव अ.-१३ क्रमांक अ.-११५ પ્રાસાદના શિખરને દૈવજાદંડ . રોપવાનું સ્થાન–પાછલા ભાગમાં જમણી તરફના પહેરે વજાધાર પૂર્વ મુખના પ્રાસાદને તૈત્રાત્ય ખુણે કે પશ્ચિમ મુખના પ્રાસાદને शानणे शमयो. ४०. प्रासादके शिखरको ध्वजादंड रखनेका स्थान पिछले भागमें दाहिनी तरफ के पढरेपर ध्वजाधार पूर्वमुखके प्रासादको नैऋत्य कोने में या पश्चिम मुखके प्रासादको ईशानकोनेमें रखना । ४० ध्वजाधार-स्तंभवेध स्थान प्रमाणरेखोर्चे षष्टके भागे सूत्रांशपाद वर्जितम् । ध्वजाधारस्तु कर्तव्या दक्षिणे च प्रतिरथे ॥४१॥ પ્રાસાદના શિખરની મૂળ રેખાના ઉદય પાયાથી બાંધણ સુધીની ઊંચાઈના છ ભાગ કરી તેમાં ઉપરના છઠ્ઠા ભાગમાં ચે ભાગ હીન કરી તેટલામાં ભાગે બાંધણથી નીચે ધ્વજાધાર (મોટું લામસું કલાબે) શિખરની પાછળ જમણી તરફના પ્રતિરથમાં કરે. આ ધ્વજા ધારને=સ્તંભવેધ–પણ કહે છે. रेखामा २२ (પાછલા બસોક વર્ષમાં ત્યાં भागमा पुरुषनी भूतिः ४२वानी र धार प्रथा शुक्रातभा यात्रु थ छे शिखरोदय का ध्वजाका स्थान ध्वजादंड-मर्कटी पाटली और पताका पताका 493 E mply शिखरोदय-ध्वजाधारका स्थान. ध्वजादंड-मटि . पाटली--पताका Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार . પરંતુ ત્યાં લામસા જે ધ્વજાધર કર ૪૧. प्रासादके शिखरकी मूलरेखाके उदय-पायचेसे स्कंध तककी ऊँचाईके छः भागकर उसमें उपरके छटे भागमें चौथे भागको हीनकर, उतनेही भागमें स्कंधसे नीचे ध्वजा धार (बडा लामसा, कलाबा) शिखरके पीछे दाहिनी तरफके प्रतिरथमें करना । यह ध्वजाधारको-स्तम्भबेध भी कहते हैं । (पीछले करीब दोसौ बर्षमें यहाँ ध्वजापुरुषकी मूर्ति करनेकी प्रथा गुजरातमें चालु हुई है, परंतु वहाँ लामसाके जैसा ध्वजाधार करना । ४१ प्रासादस्य पृष्ठभागे दक्षिणादिशि चानुगे । स्तंभवेधस्तु कर्तव्यों भित्तिश्च षष्टकांशकः ॥४२॥ ध्वजावती स्तंभिका च चाष्टांश्रवा वृत्तास्तथा । तर्वेकलशं कुर्यात वंश बंध प्रतिहरतके ।। ४३॥ પ્રાસાદના શિખરના પાછલા ભાગમાં જમણું પ્રતિરથમાં તંભવેધ (ધ્વજા દંડને ઉભા રાખવાને લામસા જે કલા) કરે તે પ્રાસાદની ભીતની જાડાઈના છઠ્ઠા ભાગ જેટલે કરે. ધ્વજાદંડ સાથે ઉભી કરવાની ખંભિકા (ધ્વજાધારથી તે આમલસારના મથાળા સુધીની ઉંચાઈની) કરવી તે ખંભિક અઠાંશ અથવા ગોળ (ધ્વજાદંડથી થોડી પાતળી) કરી તે ઉપર કળશ કર ધ્વજાદંડ અને તે ખંભિકાને મજબુત (ત્રાંબાના પાટાના) બંધ ગજે ગજે જડવા. ૧૯૪૨-૪૩. कोने में तापसके रूपों करने की प्रथा प्रविष्ट हुई हो ऐसा लगका है। भद्रमें मुख करने का किसी ग्रंथमें पाठ नहीं है। ___ भारतके अन्य प्रदेशोंके शिखरोंमें जीभीके स्थानपर पुराने कामोंसे रूपकी आकृति की हुई दिखती है। उड़ीया प्रदेशमें खड़े पाँव पर बैठा हुआ हाथ जोडना पुरुष देखनेमें आता है। . दूसरी एक प्रथा शिखरके स्कंधमें छः आठ दस अंगुलके स्कंधके पट्टेको बाहर निकालनेकी प्रथा शिल्पियों में करीब दोसों वर्षोंसे प्रविष्ट हुई है। पुराने कोई भी काममें स्कंधका उठता पट्टा दिखत्ता नहीं है। वारवीं सदीके सोमनाथजीके प्राचीन मंदिर के शिखरको ऐसा पट्टा-थर नरथर जैसा उसके अवशेषोंसे देखनेको मिलता है। (૧૦) ધ્વજાદંડ સ્થાપનની પ્રાચીન પ્રથા શ્લેક ૪૧ થી ૪૩માં બતાવ્યા પ્રમાણે કંધ બાંધણું નીચે ધ્વજાધાર સ્તંભવેધ કે કલાબા કરી ત્યાંથી ધ્વજાદંડ ઊભું કરવામાં આવે છે. વળી બાંધણના ભાગમાં પણ પાષાણને નિકાળે રાખી તેમાં કાણું–(હોલ) પાડી ધ્વજાદંડને પરવી સ્થિર મજબૂત કરવામાં આવે છે તે સ્તંભવેધ કલાબામાં આગળ અરધા આંગુલ જેટલું નીચે દંડ ઉતારી સ્થિર કરવો. અને દંડ સાથે સ્તંભિકા જરા પાતળી આમલસારા જેટલી ઊંચી બાંધવી. - બસોક વર્ષોથી ગુજરાતની વર્તમાન પ્રથા આમલસારામાં સાલ ખેદી ત્યાંથી બ્રાદડ ઉભા કરવાથી ધ્વજાદંડની લંબાઈના માનથી એ સાલ જેટલે દંડને ભાગ વધુ રાખવો Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षारार्णव अ-११३ क्रमांक अ.-१५ प्रासादके शिखरके पीछले भागमें दाहिने प्रतिरथमें स्तम्भवेध, (ध्वजा दंडको खडा रखनेका लामसा जैसा कलाषा) करना । उसको प्रासादकी दिवारके मोटेपनके छटे भागके बराबर करना। ध्वजादंडके साथ खडी करनेकी स्तंभिका (ध्वजाधारसे श्रामलसाराके शीर्षक तककी ऊँचाईकी) करना । उसको अठांश अथवा गोल (ध्वजादंउसे थोडी पतली) कर उसके उपर कलश करना । ध्वजदंड और स्तम्भिकाको मजबूत (ताँबेके पाटेकी बंध गज गज पर जड़ देना ।.४२-४३ પડે છે. અને તે ઉંચે જણાય છે. પ્રાચીન પ્રથા બાંધણુથી બહાર અને બાંધણથી નીચે ધ્વજાધાર કરીને તે પર દંડ ઊભો કરવાથી તે પ્રમાણસર દંડ ઊંચે દેખાય છે. રાજસ્થાનના સેનપુરા શિલ્પીઓ ઘણુંખરા આ જૂની પ્રથાને અનુસરે છે. આમલસારામાં ધ્વજાદંડને દાખલ કરવો તે વેધ છે. ઉપર કહ્યો તે ધ્વજાધારને બદલે ધ્વજ ધારણ કરતો પુરુષ શિખરની પાછળ કરવામાં આવે છે. આ પ્રથા માટે મતભેદ છે. કેટલાક જૂના કામમાં જોવામાં આવે છે. પરંતુ શાસ્ત્ર પાઠ ધ્વજાધાર લામાસાનો અર્થ વધુ બંધ બેસે છે. વજાદંડ સાથે ઊભી કરવામાં આવતી દંડી માટે વાદવિવાદ છે. શાસ્ત્રાધારને વધુ ભાન આપવું તે યોગ્ય છે. (१०) ध्वजादंड स्थापनकी प्राचीन प्रथा श्लोक ४१ है ४३ में जो बताया है। उसी अनुसार स्कंधके नीचे ध्वजाधार स्तंभवेध या कलाबा करके वहाँसे ध्वजादण्डको खड़ा किया जाता है, और स्कंधके भागमें भी पाषाणका निकाला रखकर उसमें छिद्र रखके अवजा दंडको पिरोकर स्थिर-मजवूत किया जाता है, वह स्तंभवेध-कलाबेमें अंगुल अर्ध अंगुल जितना नीचे उतारकर दंडको स्थिर करना। और दंडके साथ स्तंभिका जरा पतली आमलसाराके बराबर ऊंची बाँधना । करीब दो सौ वर्षोसे गुजरातकी वर्तमान प्रथा आमलसारेमें सालको गाड़कर वहाँसे ध्वमा दंडको खड़ा करनेसे ध्वजा दंडकी लम्बाईके मानसे उस सालके बराबर दंडका भाग ज्यादा रखना पड़ता है। और वह ऊँचा दिखता है। प्राचीन प्रथा स्कंधसे बाहर और स्कंधसे नीचे ध्वजाधार कर उसके उपर खड़ा करनेसे वह प्रमाणसर ऊँचा दिखता है। राजस्थानके सोमपुरा शिल्पीयों बहुत करके पुरानी प्रथाको अनुसरते हैं। आमलसारेमें ध्वजादंडको दाखिल करना यह वेध है। उपरोक्त ध्वजाधारके बदले ध्वजाधारी पुरुष शिखरके पीछे किया जाता है। इस प्रथाके लिये मतभेद है। कई पुराने काममें दिखाता है। परंतु शास्त्र पाठ ध्वजाधार लामसाका अर्थ ज्यादा बैठता है। ध्वजा दंडके साथ खड़ी की आती दंडिकाके लिये वाद विवाद है । शास्त्राधारको ज्यादा मान देना चाहिये। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार अथकलश-यथाकलशस्य यत् द्रव्यं प्रासादाष्टमांशकंम् । विस्तारकृते प्राज्ञ उदयं च सार्द्ध संगुणम् ॥४५॥ ततो नवधा विभक्तं च पडघीभागमेवच । अण्डकं च त्रयो भाग ग्रीवायां भागएवच ॥१५॥ पनडी कंकणीयुक्तं भागमेकं च कारयेन् । अंडकोच्च यो भागे भागेकं मस्तको परि ॥४६॥ જે દ્રવ્યને પ્રાસાદ હોય તે દ્રવ્ય (પાષાણુ કે ધાતુ કે કાષ્ટ)ને કળશ, પ્રાસાદ જેટલે રેખાયે હોય તેના આઠમા ભાગે પહોળા કરવા અને પહોળાઈથી દોઢે ઉંચે ડાહ્યા શિલ્પીએ કરે નીચેની પડઘી પીઠ એક ભાગની, અંડક ત્રણ ભાગને, ગળું છજીને કણી એકેક કુલ બે ભાગની અને દોડલે = બીજપુર ત્રણ ભાગ ઉંચે અને તે મથાળે એક ભાગને પહેલે ડેડલ કરે એ રીતે. નવ ला याना शुवा. ४४-४५-४६. जिस द्रव्यका प्रासाद हो उस द्रव्य (पाषाण या धातु या काष्ट) का कलश, प्रासादको वह जितना रेखाके पर हो उसके आठवें भागमें चौडा करना । और चौडाईसे डेगुना ऊँचा करना । नीचेकी पडदा पीठ एक भागकी, अंडक तीन भागका, गला, छजी और की एक एक कुल दो भागकी और दोडला = वीजपुर, तीन भाग ऊँचा और उस शीर्षककेपर एक भागका चौडा दोडला करना । इस तरह नौ भाग ऊँचाईके जनता । ४४-४५-४६ (૧૧)પ્રાસાદની રેખાના આમાંશ કળશ એ કનિષ્ઠમાન કહે છે. તેને સામે ભાગ વધારવાથી શ્રેષ્ઠ માન અને બત્રીસમો ભાગ વધારવાથી મધ્યમાન કળશની પહોળાઈને જાણવા. ધિરાટ, દ્રાવિડ, ભૂમિ, વિમાન અને વલ્લભાદિ જાતિના પ્રાસાદને પ્રાસાદના છા ભાગે વિસ્તારને કળશ કરે છે. કળશનાં બીજ બે માણા કહ્યાં છે. શિખરના પાયાની પહોળાઈને પાંચમા ભાગે કળશ પહોળો કરવાનું રહ્યું છે તેમજ આમડાસારાના સેળ ભાગ કરી તેના પાંચમા ભાગે કળશ પહોળો રાખવાનું ત્રીજું પ્રમાણ છે. (११) प्रासादको रेखाके अष्टमांश कलश यह कनिष्मान कहा है। उसके सोलहवे भागका बढ़ानेसे श्रेष्ठमान और बत्तीसवाँ भाग बढ़ा से मध्यमान कलशकी चौड़ाईंके जानना। ... - वैराट, द्रविड, भूमिज, विमान और वल्लभादि जातिके प्रासादोंको प्रासादके छठे भागमें विस्तारका कलश कहा है। कलशके दूसरे दो प्रमाण कहे हैं । शिस्त्ररके पायचेकी चौडाईके पाँचवे भागमें कलशको चौड़ा रखनके लिये कहा है। और आमलसारेके विस्तारके सोलह भाग कर उसके पाँचवे भागमें कलशको चौड़ा रखनेका तीसरा प्रमाण है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११३ क्रमांक अ.-१५ ग्रीवायांक्षोभयेत्प्राज्ञः द्विभागं च विचक्षणम् । पड्अंडकं पनडी चैत्र चतुर्भागानि मध्यत: ।। ४७॥ अग्रेकांशमूले द्वौ वहनी वेदांश कर्णिके। श्रेष्ठं च सर्व श्रेष्ठानां सुवर्णकलशं ध्वजम् ॥४८॥ P "-.. FA-.--.!.1.1 amerarana मो ARTrk . + PER DEHAT TET मगर कलशमान । EST - - - SAR MANORIE । प्रभाशंकर ओ. अनि. विभाग १५ x १० विभाग ९ x ६ હવે કળશના વિસ્તાર ભાગ કહે છે. નીચેની પડઘી પીઠ ચાર ભાગ પહેળી તેનું ગળું બે ભાગનું વિચક્ષણ રીતે ડાહ્યા શિલ્પીએ કરવા. મેટો અંડક છ ભાગ પહેળે છાજલી ચાર ભાગની અને કણી ત્રણે ભાગ વિસ્તારની બીજપુર ડેડલે અગ્રે એક ભાગ અને નીચે મૂળમાં બે ભાગ કણ ત્રણ ભાગ અને છાજલી ચાર ભાગની કરવી. શ્રેષ્ઠમાં શ્રેષ્ઠ અને સર્વશ્રેષ્ઠ સુવર્ણ કળશ Laves प्रासाने ngi. ४७-४८. ___अब कलशके विस्तार भाग कहते हैं। नीचेकी पीठ चार भाग चौडी उसका गला दो भागका विचक्षण रीतसे सयाने शिल्पीको करना । बडा अंडक छः भाग चौडा-छांजली चार भागकी और कणी तीन भाग विस्तारकी-बीजपुर डोडला अग्रे एक भाग और नीचे भूलमें दो भाग-कणी तीन भाग और छाजली चार भागकी करना । श्रेष्ठ में श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ सुवर्णके कलशको ध्वजदड प्रासादको जानना । ४७-४८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध शिखराधिकार બાબાસાપુ –ાયત્તર સંગ્રવામિ yણ કરના न्यसेद् देवालयप्येवं जीव स्थान फलं भवेत् ॥४९॥ स्कंधोय तत स्थाप्य ताम्र पर्यक संस्थिताम् । शयनं चापि निर्दिष्टं पद्मं चै दक्षिण करे ॥५०॥ त्रिपसाक करं वामे कार्ये हृदि संस्थितम् । धृतपात्रं स्यो परि पर्यके सुवर्णपुरुषे ॥५१॥ प्रमाणं तस्य वक्ष्यामि अौगुले चैक हस्तकम् । अर्थांगुला भवेद् वृद्धि र्यावपंचाश हस्तकम् ॥ ५२ ।। હવે હું સુવર્ણના પ્રાસાદ પુરુષ જે જીવ સ્થાન રૂપ છે તે આમલ સારામાં પધરાવવાને વિધિ જે ફળ રૂપ છે તે કહું છું. બાંધણના મથાળે આમલસારામાં ત્રાંબા કે ચાંદીને લીયે ( રેશમના દોરાની પાર્ટી કરી) ગાદલી ઓશીકું રેશમનું કરી તે પર સુવર્ણને પ્રાસાદ પુરૂષ જેના જમણા હાથમાં કમળ અને ડાબે હાથ ત્રણ શિખાવાળી પતાકા ધારણ કરેલ હાથ હૃદયે છાતીએ રાખેલ હોય તેવી આકૃતિવાળી પધરાવવી (સુવરાવવી.) આમલસારમાં ત્રાંબાને ધી ભરેલ કળશ પાત્ર ઉપર હેલીઓ મૂકી તે પર સુવર્ણની પ્રાસાદ પુરુષની મૂતિ સંપૂટ રૂપે સખી સુવરાવવી. તેનું પ્રમાણુ કહું છું. પ્રત્યેક ગજે અર્ધા અર્ધા આંગળની તેમ પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદનું પ્રમાણ પ્રાસાદ પુરુષનું જાણવું.૧૩ ૪૯-૫૭-૫૧-૧૨, (૧૨) સુવર્ણ પ્રાસાદ પુરુષના ડાબા હાથમાં ત્રણ શીર્ષકવાળી પતાકા દેવાનું કહ્યું છે અને તે પ્રથા શિખરમાં વાપુરુષનું પણ કરે છે. ત્રિપતાકને અર્થ તેવી ધ્વજાને બદલે હસ્તમુદ્રા એમ કેટલાક માને છે. વજાને બદલે ત્રિપાક હસ્તમુદ્રા કરવાનું કહે છે. (१२) सुवर्ण प्रासाद पुरुषके याये हाथमें तीन शीर्षकवाली पताका देनेके लिये कहा है। और यह प्रथा शिखरमें ध्वजा पुरुष भी करते हैं। त्रिपताकका अर्थ वैसी ध्वजाके बदले हातमुद्रा कई लोग करते हैं। ध्वजाके बदले त्रिपताक हस्तमुद्रा कहते हैं। (૩) આમલસારમાં મધ્યમાં ઉંડુ ગોળ સાલ ખોદી તેમાં પ્રથમ ગાયનું ઘી ભરેલ શેર સવાશેરના કળશ ઢાંકણું બંધ કરી કપડું બાંધી મૂકે તે પર પાતળું આરસનું પાટિયું ઢાંકી તેના પર સુવર્ણ પુરૂષની ગાદીવાળે હેલીએ ચાંદીનો મૂકી તેમાં પ્રાસાદ પુરુષની ભૂતિ સુવરાવવી તે પર બે ત્રણ કે ચાર આંગળ જેટલી ખાલી જગ્યા રહે તેમ આરસનું પાતળું પાટિયું સંપૂટની જેમ ઢાંકી દેવું. તે પછી પ્રતિષ્ઠા સમયે કળશ સ્થાપન કરવાને કળશના સાલ જેટલી ઉંડાઈ રાખી આમલસારાનું વચલું સાલ વધારાનું પૂરી દેવું. સુવર્ણ પ્રાસાદ પુરુષ દબાય નહી તેમ ઢાંકવું સંપૂટની જેમ ખાલી જગ્યા રાખી સુવર્ણના પ્રાસાદ પુરુષને પધરાવો સુવર્ણ પુરૂષને પ્રાસાદમાં છાતીયા ઉપર શિખરીના થરમાં કે શુકનાશ ઉપર પધરાવી શકાય એમ કહ્યું છે. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ क्षीरार्णव अ-११३ क्रमांक अ.-१५ ____ अब मैं सुवर्णके प्रासादपुरुष जीवस्थानरूप आमलसारेमें पधरानेका विधि जो फलरूप है, वह कहता हूँ । स्कंधके शीर्षक पर आमलसारेमें तांबे या रूपेके पर्यंकपर (रेशमके धागेकी पाटी करना ।) बिछौना और तकिया कर सुवर्णका प्रासादपुरुष जिसके दाहिने हाथमें कमल और बायाँ हाथ तीन शिखावाली पताका लिया हुआ हाथ हृदयपर रखा हुआ हो, वैसी आकृतिको पधराकर संपूट रुप रखके (सुलाकर) आमलसारेमें त्रांबेके घीके भरे हुए कलश पात्रके उपर पर्धकको रखकर उसके उपर सुवर्णकी, प्रासाद पुरुषकीमूर्ति को संपूट जैसे रखके सुलाना । उसका प्रमाण कहता हूँ । प्रत्येक गजपर आवे आधे अंगुलका और पचास हाथ तकका प्रासादका प्रमाणप्रासाद पुरुषका जानना । ३ अथध्वजदंडतथाचानन्तरं वक्ष्ये दंडमान अत: शृणु। एक हस्ते तु प्रासादे दंडपादुन मंगुल ॥५३॥ अर्धागुल भवेद् वृद्धि पंचविंशति हस्तके। प्रासाद भुषणे पुरुष अतोधपादवृद्धिप्रयत्नेन शतार्द्धमानके ॥५४॥ सुवर्ण प्रासाद पुरुष હવે હું દંડમાન કહું છું તે સાંભળે. એક હાથના પ્રાસાદને પણ આંગળને જાડો ધ્યજદંડ કરે, બેથી પશ્ચીસ હાથ સુધીનાને પ્રત્યેક હાથે અર્ધા (१३) आमलसारेमें मण्यमें गहरा, गोलमालको गढ़कर उसमें प्रथम गायके घीसे भरे हुए शेर शवाशेरके कलश ढकना बंधकर कपड़ा बाँधकर रखना । उसके पर पतली आरसकी पट्टी ट्रॅककर उसके पर सुवर्ण पुरुषकी गद्दीवाला चाँदीका पर्यंक रखकर उसमें प्रासाद पुरुषकी मूर्ति को सुलाना । उसकेपर दो तीन या चार अंगुल जितनी खाली जगह रहे इस तरह आरसकी पतली पट्टी संपूट की तरह कना। उसके बाद प्रतिष्टाके समय कलश स्थापन करनेके लिये कलशके सालके बराबर गहराई रखकर आमलसाराके बिचके सालको पूर दना । सुवर्णका प्रासाद पुरुष दव न जाय इस तरह ढंकना। संपूटर्की तरह खाली जगह रखना। सुवर्णके प्रासाद पुरुषको पधरानेके स्थान प्रासादमें छीयाके उपर शिखरी के घरों में शुकनासके उपर ऐसा भी कहा है Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অথ হিগিন্ধা અર્ધા આંગુલની વૃદ્ધિ કરવી. તેથી વધુ પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક ગજે પાપા નું આગળની વૃદ્ધિ કરતા જવી. હે રષિરાજ, એ રીતે ધ્વજાદંડની જાડાઈ કહી. હવે ધ્વજાદંડની લંબાઇનું ઉંચાઈનું भान सालो . ५३-५४. अब मैं दंडमान कहता हूँ, उसे सुनो । एक हाथके प्रासादको पौने अंगुलका मोटा ध्वजदण्ड करना। दोसे पच्चीस हाथ तकके प्रत्येक हाथपर आधे आधे अंगुलकी वृद्धि करना । उससे ज्यादा पचास हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक गजपर पा पा अंगुलकी वृद्धि करते जाना । हे ऋषिराज, इस तरह ध्वजादण्डका मोटापन कहा । अव ध्वजादण्डकी लम्बाईकाऊँचाई का मान सुनो। ५३-५४ पीडंच कथितं वत्स उदयंच अतः शृणु । प्रासादकोण मर्यादा सप्त हस्ता न मध्यतः ॥५५॥ गर्भमाने च कर्तव्यं हस्तस्यात्पंच विंशतिः । रेखामानं च कर्तव्यं यावत्पंचाश हस्तकम् ॥५६॥ હવે ધ્વજાદંડની લંબાઈનું માન પ્રમાણુ કહું છું. એકથી સાત સુધીના પ્રાસાદને બહાર રેખાયે હોય તેટલો દંડ લાંબે રાખવે. આઠથી પચ્ચીશ હાથના પ્રાસાદેને ગભારાના માન જેટલો અને છવ્વીશથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને શિખરની રેખા= પાયાના વિસ્તાર જેટલે ધ્વજદંડ લાંબો રાખવે. ५५-५६. ___ अब ध्वजादण्डकी लम्बाईका मान प्रमाण कहता हूँ। एकसे सात हाथ तकके प्रासादको बाहर रेखापर हो उतना दण्ड लम्बा रखना । आठसे पच्चीस हाथके प्रासादोंको गर्भगृहके मानके बराबर और छब्बीससे पचास हाथ तकके प्रासादाको शिखरकी रेखा-पायचे विस्तारके बराबर ध्वजदण्ड लम्बा रखना । ५५-५६ MAA शिखरपर ध्वजादंड स्थापनका विभाग ओर ध्वजादंड मर्कटी पाटली ओर पताका-ध्वजा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीराव अ-११३ क्रमांक अ.-१५ अष्टमांशयदाहीनं कन्यसं शुभ लक्षणम् । ज्येष्ठ तत्प्रायेत् दंड अष्टमांश तथाधिकम् ।। ५७॥ આવેલ માનથી આઠમે ભાગ હીન કરવાથી શુભ એવું કનિઝમાન જાણવું. અને જે આઠમે ભાગ વધારવાથી જ્યેષ્ઠમાન દંડનું જાણવું. ૧૪ आये हुए मानसे आठवाँ भाग हीन करनेसे शुभ ऐसा कनिष्ठमान जानना । और जो आठवाँ भाग बढाया जाय तो ज्येष्ठमान दण्डका जानना । १४ ५७ (१४) दीपार्णव भावना पांच जुहा नुहा प्रमाणे सापेक्षा छ. ME લંબાઈને વિવિધ પ્રમાણે કહે છે. ૧. પ્રાસાદની જંધાએ વિસ્તાર જેટલે. ૨. ચેકીના પદના બે સ્તંભના વિસ્તારના ગાળા જેટલે. ૩. ગર્ભગૃહ જેટલા ૪. રેખાયે હોય તેટલે ૫. પ્રાસાદના શિખરાના પાયાના જેટલે ધ્વજદંડ લાબો કરે એ પાંચ પ્રકારના જુદા જુદા મત મતાંતરો મેં (વિશ્વકર્માએ) કહ્યા છે. प्रासादकटिविस्तारं चतुष्कि स्तम्भ विस्तरात् । गर्भभित्ति समं देध्यं क्वचित् कर्णस्य विस्तरम् ॥१२॥ विभक्तं चैव प्रासादे शिखर विस्तृते समम् । ध्वजवंशस्य दीर्धत्वं मया प्रोक्तं मतान्तरे ॥९॥ १४. ध्वजादण्डको लम्बाईके भिन्न भिन्न प्रमाण-दीपार्णवमें भवजादंण्ड के कहे है। १. प्रासादकी जंघाके पर विस्तारके वरावर २. चोकीके पदके दो स्तम्भ के विस्तारके अंतरके बराबर ३, गर्भगृहके बराबर ४. रेखाके पर जितना हो उतना ५. प्रासाद के शिखरके पायचेके घराबर ध्वजदण्ड लम्बा करना । ये पांच प्रकार के भिन्न भिन्न मतमतांतर मैंने (विश्वकर्माने) दंडकार्यस्तृतीयांशे शिलान्तः कलशान्तकम् । मध्यश्चाष्टांशहीनोऽसौ ज्येष्टः पादोनः कन्यसः ॥ अपराजित सूत्र નીચે ખરાથી ઈ-કળશ સુધીની ઊંચાઈના ત્રીજા ભાગના જેટલું લાંબે ધ્વજદંડ જયેષ્ઠ માનનો જાણ. તેમાંથી આઠમે ભાગ હીન કરે તે મધ્યમાન અને ચોથા ભાગ હીન કરે તે કનિષ્ઠમાન દંડનું જાણવું. બીજા પણ પ્રમાણે જુદા જુદા ગ્રંથોમાં કહ્યાં છે. नीचे खरेसे अण्डे (कलश) तक की ऊँचाई के तीसरे भाग के बराबर लम्बा ध्वजादण्ड ज्येष्टमानका जानना । उसमेंसे आठवाँ भाग हीन करे तो मव्यमान और चौथा भाग हीन करे तो कनिष्टमान दण्डका जानना । दूसरे भी प्रमाण भिन्न भिन्न ग्रंथोंमें हैं। १. प्रासादरेखा के पर हो इतना ध्वजादण्ड लम्बा, वह ज्येष्ठमान उसका दसवाँ भाग हीन करे तो मध्यमान और जो पाँचवा भाग हीन करे तो कनिष्ठमान जानना । (२) शिखरको पायचेके बराबर ध्वजादंड कनिष्ठमान का आनना । उसमें बारहवाँ भाग बढानेसे मध्यमान और छठ्ठा भाग बढानेसे ज्येष्ठमान जानना । (૧) પ્રાસાદ રેખાયે હોય તેટલે વજાદંડ લાંબા તે પેન્ડમાન–તેને દશમો ભાગ હીન કરે તે મેમાન અને જે પાંચમે ભાગ કનિ નિષ્ઠ માન જાણવું (૨) શિખરના પાયા જેટલો ધ્વજાદંડ કનીષ્ઠ માનને જાણો. તેમાં બારમો ભાગ વધારવાથી મધ્યમાન અને છઠ્ઠો ભાગ વધારવાથી જયેષ્ઠ માન જાણવું. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -2 BAOX ELEVATION & JEYLE PANCHASABA. PASVANAEN PATAN अथ शिखराधिकार - Tomamrowine Sen जम TAIN HABE - - - MANG प्रकार wwe RE App AR 290 / m 4Hd 1N4 ARRin/ - MX9ATRAM -- Minagar PRABHA MINKCA OSU ARCHITEOT छाद्योवं शिखर जंघा देवस्वरुप और भद्रमें अलंकृत गवाक्ष सन्मुख ओर पक्षदर्शन गवाक्ष और संवरणा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ-११३ क्रमांक अ.-१५ तथा पंचप्रमाणं तु शृणुत्वेकाग्रतो मुनि । समपर्वे यदादंड तत्र शक्तिमय प्रभु ॥५८॥ समं च विषमं प्रोक्तं श्रुभतेद्भवनेद्वयं । હે મુનિ! હવે તમે પાંચ પ્રમાણુ એકાગ્રતાથી સાંભળો બેકી પર્વ (ગાળા) વાળે ધ્વજાદંડ તેમ શક્તિ દેવી ઉમીયા અને શિવને કરે એકી અને બેકી પર્વના એમ બેઉ પ્રકારના દંડો રાજભવનને વિશે કરવાનું કહ્યું છે. પ૮. हेमुनि, अब तुम पाँच प्रमाण एकाग्रतासे सुनो । बेकी पर्व (गाला) वाला ध्वजादण्ड तन्त्र शक्ति देवी उमिया और शिवको करना। सम और विषमपर्वके इस तरहके दोनों प्रकारके दण्ड राजभवनके बारे में करने के लिये कहा है । ५९ वैक्षोवाच-कथदंड समुत्पन्ना कथं पर्वप्रमाणतः ।। कथं शिवोमया प्रोक्ता कथं शक्ति विनिर्दिशेत् ॥ ५९॥ વૈશ્ય કહે છે–દંડ કેવી રીતે ઉત્પન્ન થયે તેના પર્વનું પ્રમાણ શિવે ઉમિ યાજીને કહેલું તે શક્તિના દંડના પર્વનું મને કહો. ૫૯૮ वैश्य कहते हैं ! दंड कैसे उत्पन्न हुआ ? उसके पर्वका प्रमाण शिवने उमियाजीको कहा था वह शक्तिके दंडका पर्वका प्रमाण मुझे कहो । ५९ श्री विश्वकर्मा उवाच कृत्वा योगेश्वरी पूजा दंड दारव संश्रये । ..... . महामहोत्सवार्थेन शिवशक्ति समागतः ॥६०॥ चतुषष्टि योगिन्या दंड हस्ते समागत् । नकुलिशायो च योगिन्या दंडकलशमुत्तमम् ॥ ६१॥ कृत्वा प्रासादमयी पूजा दंडकलशं दीयते । पुनयगिरि समुत्पन्नो दंड वंशमधोत्तमा ॥६२॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. દેવદારુવનમાં આવીને રહેલા શિવ શક્તિની જોગેશ્વરી પૂજા કરવા મહામહોત્સાહ કરવા માટે ચોસઠ ચેગિનીઓ હાથમાં દંડ લઈને તથા નકુલેશાદિ દેવે અને જેગિન્યાદિ ઉત્તમ દંડ કળશ લઈને આવ્યા. પ્રાસાદની રચના કરી. ને દંડ અને કળશ ચડાવ્યા. પુનયગિરિમાં ઉત્પન્ન થયેલા વાંસभाथी नावे उत्तम वा उनी उत्पत्ति था. ६०-६१-१२. श्री विश्वकर्मा कहते हैं। देवदारुवनमें आकर बसे हुए शिवशक्तिकी जोगेश्वरी पूजा करनेके लिये, महामहोत्साह करनेके लिये चौसठ योगिनियाँ हाथमें दण्ड लेकर तथा नकुलेशादि देवों और योगिन्यादि उत्तम दण्ड कलश लेकर Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Era नवमी-दशमी शताब्दीका छजा विहीन (कच्छ ) केशकोटा का सर्वतोभद्र शिवप्रासाद Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रविड शिखरों के दो प्रकार-गोपुरम् और शिखर Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार १६५ आये । प्रासादकी रचना कर दण्ड और कलश चढ़ाये । पुनयगिरिमें उत्पन्न हुये बाँस बनाये हुए उत्तम ऐसे दण्डकी उत्पत्ति हुई । ६०-६१-६२ तस्यार्धे पर्वमादाय विषमक्रमानोत्तमा । अधोमुख शिवदंड सन्मुखं शक्तिमेव च ॥ ६३ ॥ मध्यपर्व भवेज्जेष्ठं अधःउर्ध्वं च कन्यस । वंशा न क्रम भवैर्त च समपर्व शक्तिमार्चित ॥ ६४ ॥ ભાવાય — પહેલા એ પદનેા ત્રણ પ્રકારે અથ ઘટાવી શકાય. (૧) તેનાથી અમાં પડમાં ક્રમથી વિષમ કરવા તે જ્યેષ્ઠ (૨) તેના ઉપરના પર્વ જે વિષમક્રમથી હોય તેા જ્યેષ્ઠ (૩) તેમાંથી અર્ધા વિષમ પને ક્રમમી ગ્રહણ કરવા તે ઉત્તમ જ્યેષ્ઠ શક્તિની સામે શિવદડ અધમુખ ઊભે! કરવા તે અધા સુખ એટલે વૃક્ષનુ થડ મૂળ ઉપર અને ટોચના ભાગ નીચે રાખી ઊભેા કરવા. શક્તિને દંડ તેથી ઊલટી રીતે વૃક્ષકાને દડ ઊભેા કરવા એટલે વૃક્ષકાષ્ટનુ ધડમૂળ નીચે અને ટોચને! ભાગ ઊંચા રાખવા (વાંસને પર્વ અને ગાંઠો હોય છે તેનાં પ સરખા નથી હોતાં વાંસને નીચેનાં પવ નાનાં હોય છે અને ઉપરનાં મ મોટાં હોય છે આ અપેક્ષા એ કાષ્ટના દંડને અધેા કહ્યું) ૬૩. (દંડની ઊંચાઇના ત્રણ ભાગમાં) મધ્યમાં પ કરવાં તે જ્યેષ્ઠ માન અને નીચે ઉપર નિષ્ઠ માન દંડના વંશના પર્વ ક્રમથી શક્તિને સમયના દંડ બેટલે વચ્ચે કાંકણી = ગ્રંથીવાળા તેવા દંડ પૂજાય છે. ૬૪ भावार्थ- प्रथम दो पदोंके अर्थ तीन प्रकारसे हो सकते हैं । (१) उससे अर्धमें पर्वदण्डमें क्रमसे विषम करना यह ज्येष्ठ (२) उसके उपरके पर्व जो विषम क्रमसे हो तो ज्येष्ठ (३) उसमेंसे आये विषमपर्व के क्रमसे ग्रहण करना, उत्तम ज्येष्ठ । शक्तिके सामने शिवदण्ड अधोमुख खडा करना । वह अधोख अर्थात वृक्षके खम्भेको मूलके उपर और रोचके भागको नीचे रखकर खडा रना | शक्तिका दण्ड इससे उतरी तरह वृक्षकाष्टका दण्ड खडा करना अर्थात् मकाष्टका थडमूल नीचे और ढोचका भाग ऊँचा रखना (बाँसको पर्व और ठ होते हैं । उसके पर्व समान नहीं होते हैं । ते हैं । और उपर के पर्व बड़े होते हैं । इस बोउर्ध्व करना ) । ६३ बाँसको नीचे पर्व छोटे अपेक्षासे कामु दण्डको (Tusht ऊँचाई तीन भाग में) मध्य में पर्व करना यह ज्येष्ठमान और : वे उपर कनिष्ठ मान दण्डके पर्वक्रमसे शक्तिको समपर्वका दण्ड अर्थात् बिचमें कणी ग्रंथीवाला पैसा दण्ड पूजा जाता है | ६४ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११३ मांक अ.-१५ समपर्वे यदादंड मध्यं कुर्यात्तु किंकिंणि । ज्येष्ठ पर्वे च मूर्षे वा अधःउर्च न कन्यसः ॥६५॥ विषम पर्वे ज्येष्ठ दंड मध्य पर्वेसु ज्येष्ठकं । अंकानु क्रमतो यानि बभूपक्षे न कन्यस ।। ६६ ॥ ભાવાર્થ-જ્યણ પર્વ ઉપર હોય અથવા નીચે ઉપર કનિક પર્વ વિષમ પર્વના જયેષ્ઠ દંડને મુણ્યનું પર્વ ચેક કરવું. આ અંકના કમ હેવાથી બેઉ બાજુ એટલે ७५२ नीये अनिष्ट न ४२५. १५-६९. भावार्थ-ज्येष्ठपर्व उपर होता है अथवा नीचे उपर कनिष्ठपर्व विषमपर्व के ज्येष्ठ दण्डको मध्यका पर्व ज्येष्ठ करना । ये अंकके क्रम होनेसे दोनों तरफ अर्थात उपर नीचे कनिष्ठ न करना । ६५-६६ द्विविमेके च रुपे च चतुष्कंच द्वितीयकं । षटसप्तमं कूर्यात चतुर्थेरष्ट नंदके ॥६७॥ एवमादि क्रमात्युक्तिः पदवै सर्वकामदम् । तथा च मुकुटमान........................॥६८॥ હવે દંડને મુકુટ અને પાટલીનું માન કહું છું. ૬૭-૬૮. अब दण्डका मुकुट और पाटलीका मान कहता हूँ । ६७-६८ मर्कटीमान-दंडदीर्घषष्टमांशेन तदर्ध विस्तरै मर्कटि । विस्तरस्य तृतीयांशेन पीडं कूर्याद्विचक्षण ॥६९।। त्रिभाग भागमित्युक्तं ततो वृत्तं च भूषितः । शङ्ख चक्र करोक्तं च कमलाना मतः शृणु ॥७०॥ मध्ये कलशं च कर्तव्यं दंडोदयात् षोडश । प्राशकं तृतीयाशेन उभयो वामदक्षिणे ।। ७१॥ ધ્વજાદંડની લંબાઈના છઠ્ઠાભાગની મર્કટી = પાટલી લાંબી કરવી. લંબાઈના અર્ધ પહેલી અને પહોળાઈને ત્રીજા ભાગે જાડી પાટલી કરવી. ૬૯. પાટલીના નીચે ત્રીજા ભાગે ગેળ વૃત કરી (બે બાજુ ગગારાની આકૃતિ કરવી) વિષણુના મંદિરના દંડની પાટલી પર શંખ અને ચક કમળ કરવા (શીવ હોય તો ડમરૂ ત્રિશૂલ) પાલી ઉપર ધ્વજદંડની ઉંચાઈન સેળમાં ભાગે ઉંચે કળશ કરે તે Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ शिखराधिकार કળશનાં ત્રીજા ભાગે ઉંચા ભાલા (પક્ષી ન બેસે તેવા) પાટલીને કળશની બે બાજુએ કરવા. ध्वजदण्डकी लम्बाईके छटेभागकी मर्कटी-पाटली लम्बी करना । लम्बाईसे आधी चौडी और चौडाईके तीसरे भाग पर मोटी पाटली करना । ६९ पाटलीके नीचे तीसरे भागपर गोलवृत्त करके (दो तरफ गगारेको आकृति करना) विष्णुके मंदिरके दंडकी पाटलीके उपर शंख और चक्र कमल करना । (शिव हो तो डमरू त्रिशूल) पाटलीके उपर ध्वजादंडकी ऊँचाईके सोलहों भाग पर ऊँचा कलश करना । उस कलशके तीसरे भाग पर ऊँचे भाले (पक्षी बैठ न सके वैसे) पाटलीके कलशकी दो बाजुपर करना । ७०-७१ वंशमयोऽपि कर्तव्यो दृढदारूमयोऽपि च । शिंशप: खदिर चैव अर्जुनो मधुकस्तथा ॥७२॥ सुवृतः सारदारुश्च ग्रंथीकोटिरवर्जितः । पंचदंड-ऊोरुश्रृंगे तूर्य शिखरोल पंचदंडकम् ॥७३॥ ધ્વજદંડ વાસ–મજબુત કાષ્ટને શીશમ ખેર મહુડાના સારા કઠણુને મજબૂત જેમાં ગાંઠે-કેતર કે કાણુ વગરના કાષ્ટના દેવજદંડ માટે લે. પંચદંડ = ચતુર્મુખ, જિન, શિવ કે બ્રહ્માના મહાપ્રાસાદને શિખરના ઉપલા ઉશૃંગ ચારેમાં વજાદંડ સ્થાપન કરી એક મધ્યને ઉપરને મળી પાંચ ધ્વજ६. स्थापन ४२या. ७२-७३ ___ध्वजदण्ड बाँस मजबूत काष्टका शीशम खेर महुडेका अच्छा पक्का कठिन और मजबूत जिसमें गाँठे कोतर या छिद्रके बिनाके काष्टके ध्वजादण्डके लिये योग्य जानना । पंचदण्ड-चतुर्मुख-जिन शिव या ब्रह्माके महाप्रासादको शिखर के उपरके उहशंग चारोंमें ध्वजादण्ड स्थापनकर करके मध्यका उपरका मिलकर पाँच ध्वजदण्ड स्थापन करना । ७२-७३ अथ पताकाप्रमाण-ध्वजदंडप्रमाणेन विस्तरे मर्कटिसमम् । त्रिपंचाग्र शीर्षमा च मणिबंध च शोभितम् ॥७४॥ स्वर्णरेखा यदाकारं सूर्यरश्मिनि रक्षत । प्रलयंति सर्वपापानि यत्रै लोकेच मध्यतां ॥७५॥ વિજાદંડની જેટલી લાંબી અને પાટલીની પહોળાઈ જેટલી પતાકા–દવજો પહેણી કરવી. વજા ત્રણ પાંચ સાત શિખાઝ છેડા પર કરી તેને મણિબંધથી શોભતી કરવી. તેવી ધ્વજાપતાકાથી સૂર્યના કિરણમાં સુવર્ણરેખા જેવી તે દૃશ્ય Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ क्षीरार्णव अ -११३ क्रमांक अ.-१५ માન થાય. આવી પતાકા ચડાવવાથી આ લેકમાં જ સર્વ પાપોનો નાશ થાય छ.१५ ७४-७५. ध्वजादण्डके बराबर लम्बी और पाटलीके बराबर पताका-ध्वजा चौडी करना । ध्वजा तीन पाँच सात शिखान छेडेके पर करके उसे मणिबंधसे शोभायमान करना । जैसी ध्वजा पताकासे सूर्यकी किरनोंमें सुवर्णरेखा जैसी वह दृश्यमान होती है । सी पताका चढ़ानेसे इस लोकमें ही सर्व पापोंका नाश होता है । १५ .. . निष्पन्नं शिखरं द्रष्ट्वा ध्वजहीन न कारयेत् ।। ...... असुरावासमिच्छन्ति ध्वजहीने सुरालये ॥७६॥ તૈયાર કરેલા શિખરને ધ્વજા વગર રાખવું નહિ. કારણ કે ધ્વજારહિત શિખરને (માસ) જોઈને ભૂતાદિ રાક્ષસે તેમાં વાસ કરવા ઈછે તેથી દેવાલય ધ્વજારહિત રાખવું નહિ. ૭૬ तैयार किये हुए शिखरको ध्वजाके बिना नहीं रखना । क्योंकि ध्वजारहित शिखरको (छः मास तक) देखकर भूतादि राक्षसों उसमें वास करनेकी इच्छा करते हैं । इससे देवालयको ध्वजारहित नहीं रखना । ७६ - ૧૫. ધ્વજા અને પતાકાના કેટલાક પૃથફ પૃથફ અર્થ કરે છે. પ્રાસાદની પતાકા લંબ ચોરસ કરવાનું શિલ્પગ્રંથમાં છે. ત્રિકેણ પતાકા કરવાનો કેટલાક યજમાનો આગ્રહ સેવે છે પરંતુ શિલ્પચંમાં ત્રિકેણુ પતાકાનું કોઈ પ્રમાણુ હજુ સુધી જોવામાં આવેલ નથી. બ્રાહ્મણ ગ્રંથમાં છે તેમ કહે છે. પણ તે ક્રિયા કાંડના ગ્રંથમાં યજ્ઞયાગ પ્રતિષ્ઠા વિધિ વિધાનમાં પતાકા વિશે ચર્ચા છે. તેમાં ત્રિકોણ પતાકાનું કહ્યું છે ખરું પરંતુ તે તે યજ્ઞ યાગના મંડપોમાં ફરતી પતાકા–ધ્વજાઓના વર્ણનમાં છે. આમ છતાં ત્રિકોણ પતાકાના વિશે વધુ ચર્ચા કરવાને અને તે વિષયનું સાહિત્ય જેવાને ઉસુક્તા છે. જે ત્રિકોણ પતાકા કરવાનું પ્રમાણ હોય તો શિલ્પગ્રંથ લંબચોરસ પતાકા કરી તેને ત્રિપંચશિખાસ્ત્રનું શું કરવા કહેત ? (१५) ध्वजा और पताका का अर्थ कई लोग पृथक् पृथक करते हैं। प्रासादकी पताका लंच चोरस करनेका शिल्प ग्रंथों में है। त्रिकोण पताका करनेका आग्रह कई यजमानों करते हैं । परंतु शिल्प ग्रंथों में त्रिकोण पताकाका कोई प्रमाण अबतक देखने में आया नहीं है। ब्राह्मण ग्रंथों में है वैसा कहते हैं। मगर क्रियाकांडके ग्रंथोंमें यज्ञ याग प्रतिष्ठा विधि विधानमें पताकाके बारेमें चर्चा है, उसमें त्रिकोण पताकाके लिये कहा है, यह सही लेकिन यह तो यज्ञयागके मंडपोंमें फिरती पताका-ध्वजाओंके वर्णन्में हैं। जैसा होते हुए भी त्रिकोण पताकाके बारेमें ज्यादा चर्चा करनेके लिये और उस विषयका साहित्य देखनेके लिये उत्सुकता है। जो त्रिकोण पताका करने का प्रमाण हो तो शिल्प Jथ लंब चोरस पताका कर उसे त्रिपंच शिखाग्रका किस लिये कहते ? Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अथ शिखराधिकार इदृशं कुरुतेयश्च लभते चाक्षयंपदम् ।। दिव्यदेहो भवेत्तस्य सूरेः सहस्त्रैः क्रीडति ॥७७॥ ઉપર પ્રમાણે ધ્વજાયુક્ત પ્રાસાદ કરાવનારને અક્ષય સુખની પ્રાપ્તિ થાય छ. तेभ हिय हेड धा२३ शा । वर्षा यानी साथे श्री. ४२ छ. ७७ उपरके अनुसार ध्वजायुक्त प्रासादको बनानेवालेको अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है । और दिव्य देह धारणकर हजारों वर्षों तक वह देवोंके साथ क्रीडा करता है । ७७ पुण्यं प्रासादनं स्वामी प्रार्थयेत् सूत्रधारत: । सूत्रधारो वदेत् स्वामिन् अक्षय भवतात् तव ॥७८॥ દેવાલય બંધાવનાર સ્વામિ પતિ સૂત્રધાર પાસે પ્રાસાદ બંધાવવાના પુણ્યની પ્રાર્થના કરી આશિર્વચન માગવા. ત્યારે સ્થપતિ સૂત્રધારે આશિર્વાદ આપ કે હે સ્વામિન્ ! મંદિર બંધાવવાનું તમારું પુણ્ય અક્ષય થા. ૭૮ ___मंदिर बंबानेवाला स्वामी-स्थपतिको पुण्यकी प्रार्थना और आशिर्वाद मांगना जव स्थपत्ति आशिर्वचन देना स्वामिन् ! मंदिर बंधानेका आपका पुण्य अक्षय हो । ७८ इति श्री विश्वकर्मा कृतायां क्षीरार्णवे नारदपृच्छाया शिखराधिकारे शतात्रयो दश अध्याय ॥११३॥ (क्रमांक अ० १५) ઈતિશ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત ક્ષીરાવ નારદજીએ પૂછેલ શિખરાધિકારનો શિલ્પ વિશારદ શ્રી પ્રભાશંર ઓઘડભાઈ સેમપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ટીકાનો એકસે તેરમો અધ્યાય. ૧૧૩. इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव भारदजीके संवादरूप शिखराधिकारका-शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाईकी रची हुई सुप्रभा नामको भाषा टीकाका एकसौ तेरहवां अध्याय ।। ११३ ॥ (क्रमांक अ. १५) कुतूहल दो सांड युद्ध वृषभ और हस्तियुद्ध एकमें दूसरे का मुख प्रदर्शित होता है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ रेखाविचार ॥ क्षीरार्णव अ० ११४-क्रमांक अ० १६ श्री विश्वकर्मा उवाच तथा रेखा विचारेण रिषिराज शृणोत्तमा । पंचखंडादौ खंडवृध्या एकोनत्रिंशकाविधि ॥१॥ खंडचारि कलाज्ञात्वा अंकवृद्धि क्रमेणतु । एकद्वित्री चतुः पंच पडू सप्ताष्ट क्रमोद्धता ॥२॥ अनेन क्रमयोगेन एकोनत्रिंशकावधि । पंचखंडे कलाश्चैव खंडख्य या दशपंच च ॥३॥ एकोनत्रिशे पंचत्रिंशदुत्तरे चतुशतम् । कला रेखाः समाख्याताः सर्वकामफलप्रदाः ॥४॥ -इति कलाभेदोद्भवा रेखा । શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. હું ષિરાજ, હવે શિખરની રેખાનો વિચાર સાંભળી પાંચ ખંડથી એકેક ખંડ વૃદ્ધિ એગણત્રીશ ખંડ સુધીની એ ખંડ ચારી અનુક્રમે અંક વૃદ્ધિથી કરી કળા રેખા જાણવી એક બે ત્રણ ચાર પાંચ છ સાત અને આઠ એમ કમના વેગથી ઓગણત્રીશ સુધી વૃદ્ધિ કરતા જવું. પાંચ ખંડની કળા દશખંડ....એમ એગણત્રીશ ખંડ સુધીની ચાર પાંત્રીશ કળા ભેદની રેખા संघाय ते सर्व भने हात orgeी. १-२-3-४. श्री विश्वकर्मा कहते हैं--ऋषिराज, अब शिखरकी रेखाका विचार सुनो। पाँच खंडसे एक एक खंडकी वृद्धि, उनतीस खंडतककी वह खंडचारी अनुक्रमसे अंकवृद्धिसे कर कला रेखा जानना । एक दो तीन चार पाँच छः सात और आठ इस तरह क्रमके योगसे उनतीस तककी वृद्धि करते जाना । पाँच खंडकी मला दस खंड......इस तरह उनतीस खंड तककी चारसौ पैंतीस कला भेदकी रेखा सधाती हो उसे सर्वकार्यकी फलदाता जानना । १-२-३-४. तथा रेखा द्वयं गृह्य त्रय साद्धं गुणकृतं । ततो वृत्तं च भ्रामयेन रेखा सर्वकामाय ॥५॥ वृषस्थ (स्वष्ट) विमुच्यते रथमध्ये (भद्रे) च भ्रामितं । શિખરના પાયાની બે રેખા વચ્ચેના અંતરથી સાડાત્રણ ગણું કામડી जरी रखवाथी सर्व भिनाने नारी सेवा २मा थशे. ५. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम बानिया शिखरके पायचेकी दो रेखाके बिचके अंतरसे साढ़े तीन गुनी कामडी कर फेरनेसे सर्वकामना को देनेवाली ऐसी रेखा होगी । ५.. दृशधा तल रेखायां द्विभाग कर्ण विस्तरं ॥६॥ रथसाढे च विस्तारा भद्रत्रय निर्यमं । निर्गमं हस्तमानेन अंगुलैकं विचक्षणं ॥७॥ શિખરના પાચે રેખાયે દશભાગ કરી તેમાં બે ભાગની રેખા પહેળી દેઢ ભાગને પઢશે, અને ભદ્રાઈ પણ દેઢ ભાગનું (આખું ભદ્ર ત્રણ ભાગનું) જાણવું તેને નિકાળ ગજે આંગળીના હિસાબે ચતુર શિલ્પીએ રાખો. ૬–૭. शिखरके पायचेपर रेखाकेपर दस भागकर उसमें दो भागकी रेस्ना चौडी डेद भापका पदरा, और भद्रार्थ भी डेढ़ भागका (सारा भद्र तीन भागका)जानना । उसका निकाला गजपर अंगुलके हिसाबसे चतुर शिल्पीको रखना । ६-५. षट भाग स्कंध विस्तारे सप्तभिरामलसारकं । अर्धोदयं च कर्तव्यं तदुर्व्व कलशोपमा ॥८॥ શિખરના સ્કંધ બાંધણે છ ભાગ કરી સાત ભાગને આમલસારા વિસ્તાર રાખી તેનું અર્થ ઊંચો કરી તે પર શેભત કળશ સ્થાપન કરે. ૮ शिखरके स्कंधकेपर छः भागकर सात भागका आमल सारा विस्तार रखकर उसका अर्ध भाग ऊँचा कर उसकेपर शोभायमान कलश स्थापन करना । ८. ___ स्कंधार्धे नवभागेन कर्णभाग चतुर्भवेत् । प्रतिस्थ त्रयं कार्य शेष भद्रे निष्कलं ॥९॥ શિખરના બાંધણે નવભાગ કરી બે રેખા બબ્બે ભાગની અને બે પઢરા દેઢ દેઢ ભાગના બાકીનું આખું ભદ્ર બે ભાગનું કરવું. તેને નીકાળે આગળ કહ્યો (તેમ ગજે આંગળ) રાખવે. ૯ शिखरके एकंधपर नौ भागकर दो रेखायें दो दो भागकी और दो पदरे डेढ डेढ भागके, बाकीका सारा भद्र दो भागका करना । उसका निकाला, आगे कहा । (इस तरह गजपर अंगुल) ९. अनिता इतिरङ्गा च संहिता च सागरा तथा । कालिका कुंडलिकाच स्वरुपा रुपसुंदरी ॥१०॥ बिना विचित्रा चैव स्यात्तारुण तरुणी स्तथा । निशाचरा सर्वरेषाः शरच्चंद्रार्चिताउलि ॥११॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ क्षीरार्णव अ.-११४ क्रमांक अ-१६ मंजिरा वर्धिरा दुर्गा रिद्धिदा सिद्धिदायका । धनदा च वरदा मोक्षदा पंचविंशति ।।१२।। પચ્ચીશ રેખાનાં નામ કહે છે. ૧. અજિતા ૨ ઈતિરંગા ૩ સંહિતા ૪ સાગરા ૫ કાલિકા ૮ કુંડલિકા ૭ સ્વરૂપ ૮ રૂપસુંદરી ૮ ચિત્રા ૧૦ વિચિત્રા ૧૧ તારૂણું ૧૨ તરૂણી, ૧૩ નિશાચરા, ૧૪ સર્વરેખા, ૧૫ શરચંદ્રા, ૧૬ ચર્ચિતા ૧૭ ઉલી, ૧૮ મંજરી, ૧૯ વર્ધાિ, ૨૦ દુર્ગા, ૨૧ રિદ્ધિદા, ૨૨ સિદ્ધિદાયકા, ૨૩ ધનદા ૨૪ વરદા અને ર ક્ષદા એ પચ્ચીશનાં નામે વૃત્તિકા કારથી ૨૯ અંડે રેખાના જાણવા તેનાં સ્વરૂપે હવે કહે છે. ૧૦ થી ૧૨. . पच्चीस रेखाके नाम कहते हैं । १. अजिला २. इतिरङ्गा ३. संहिता ४. सागरा ५. कलिका ६. कुंडलिका ७. स्वरुपा ८. रूपसुंदरी ९. चित्रा १०. विचित्रा ११. तारूणी १२. तरुणी १३. निशाचरा १४. सर्व रेखा १५ शरच्चंद्रा १६. चर्चिता १७. उली १८. मंजरी १९. वर्धिरा २०. दुर्गा २१. रिद्धिदा २२. सिद्धि दायका २३. धनदा २४. वरदा २५. मोक्षदा-ये पच्चीशके नाम वृत्तिकाकार से २९. खंडों रेखाके जानना । उसके स्वरूप अब कहते है। १० से १२. अजिता वृत्तिकाकारा त्रिखंडा इतिरंगिणी। संहिता चतुः खंडा पाखंडा चैव सागरा ॥१३॥ खंडे खंडे भवेन्नाम उच्छ्या युक्त संकुला। संयुक्ता स्कंध संकीर्णा संख्याय पंचविंशति ॥१४॥ અજિતા ગોળાકારે, ઇતિરંગા ત્રિખંડા, સંહિતા ચતુઃખંડા, સાગરા પંચખંડા એમ બંડે ખડે પચીશ નામે જાણવાં તે ઉભણું ઊંચાઈમાં તેમ બાંધણના નમણુમાં એમ પચીશ ભેદો જાણવા. ૧૩–૧૪. अजिता गोलाकारे, इतिरंगा त्रिखंडा, संहिता चतुःखंडा, सागरा पंच खंडा इस तरह खंडे खंडे पच्चीश नाम जानना । वह ऊँचाई में उस तरह स्कंधकी स्कंधकी नमणके पच्चीश भेद जानना । १३-१४. त्रिखंडे तु कलाअष्ट चतु: खंडेदक स्तथा । तिथिकला पंचरंबडे परवं. विंशति ॥१५॥ तथामये प्रकारेण तत्रभेद अतः शृणु । त्रिखंडादिकृतं पूर्व अर्ध भाग वतादिकं ॥१६॥ त्रिखंडे न चतु: सार्द्ध चतुखंडे प्रति स्तथा । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ रेखाविचार पंचखंडे द्विभागे च पटेसिद्ध त्रयोदशे ॥१७॥ तथा ते (त्रि) प्रकारेण आदि मध्यवसानके। तद्विचार प्रयत्नेन संख्या या पंचविंशति ॥१८॥ પહેલા ત્રિખંડની કલા આઠ, ચતુર્મુડની દશ–પંચખંડની પંદરકળા પખંડની એકવીશ કલા (૧૫) એ પ્રકારે તેના ભેદ સાંભળે, ત્રિખંડાથી આગળ ४२वा........(१६) त्रिभ3 साडयार, यतुम ....५२५ से........तेर मेभ १७ એમ ત્રણ પ્રકારે આદિ મધ્ય અને અંત એ વિચારના પ્રયત્નથી પચીશ से oneyqt. १८ (१५ थी १८) पहले त्रिखंडकी कला आठ चतुखंडकी......पंचखंडकी पंद्रह कला, पर्खडकी एकवीश कला (१५) इस प्रकार उसके भेद सुनो। त्रिखंडासे आगे करना । त्रिखंडकेपर सादेचार, चतुखंड पर......पंचखंड पर दो......तेरह इस तरह सीन प्रकारसे आदि मध्य और अंत इस विचार के प्रयत्नसे पच्चीस भेद जानना। (१५ से १८) पुनः स्तेनाविभक्तेनं नामनाशृणुतोऋषि । जयो विजय येकैकं नाम पूर्व त्रि भाषित ॥१९॥ जय अजितादिपूर्व इतिरङ्गा विजयः स्मृता। जय संहिता त्रतिया च चतुर्था विजय सागरा ॥२०॥ जय विजय प्रकारेण संख्यायां पंचविंशति । ફરી તે વિભક્તિના નામ હે ષિ ! સાંભળો. જ્ય વિયના એકેક નામે આગળ કહ્યા છે. જય અજિતાદિ પૂર્વ અને વિજય-ઈતિરફ પૂવે, ત્રીજું જય સંહિતા, શું વિજય સાગર એમ જય વિજયના પ્રકારેથી પચીશ સંખ્યા ना नामी उनी पाना शुवा. १५-२०. फिर उस विभक्तिके नाम हे ऋषि, सुनो। जय विजयके एक एक नाम आगे कहते हैं। जय-अजितादि पूर्व और विजय-इतिरङ्ग पूर्व-तीसरा जयसंहिता, चौथा विजय-सागरा इस तरह जय विजयके प्रकारसे पच्चीस संख्याके नाम खंडकी रेखाके जानना । १९-२०. त्रिनासंपंचकं प्रोक्तं सप्तानं च अतः शृणु ॥२१॥ अष्टमांशेन नवमांश दशमांशे विशेषत् । कृत्वा त्रिनाशकं रिषि चतुर्थांशे च निर्गमं ॥२२॥ २३ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ क्षीरार्णव अ-११४ क्रमांक अ.-१६ - અ આગળ ત્રિનાક પંચનાસક કહ્યા હવે સખ્તનાસક કહું છું તે સાંભળે. (૨૧) તે નાકે આઠમ, નવમા કે દશમા ભાગે નીકળતા વિશેષ કરીને કરવા હે કષિ, ત્રિનાસકને નીકાળ ચતુર્કીશ રાખ. (૨૨) એક મૃગના ઉપર બે માન હવે सली .... २१-२२. अब त्रिनासक-पंचनासक कहा और सप्तनासक कहता हूँ वह सुनो। २१. उन नासकोंको आठवें नौवें या दसवें भागपर निकलते विशेषकर करना । हे ऋषि, त्रिनासकका निकाला चतुर्थाश रखना । (२२) एक श्रृंगके उपर दो मान अब सुनो। २१-२२. +-१८ विनासकर शृङ्गमेकं च तवं च द्वयोमानं अतः शृणु। द्वात्रिंशपदेकृत्वा द्विभागं मूलनासकं ॥२३॥ --३ निभाग पंचनास में. त्रिभागं द्वितीयंश्चैव तृतीय ___ युग संख्यया। ----- १०१ विग सप्त नासक--- शेष भद्रस्य विस्तारं निर्गम च पदाधत ॥२४॥ ११ --७६ उरुशृंङ्ग . द्विधाकार्य रथिकामध्यदाययेत्। +--- १०१ विभाग नवनासक. -- . - + तथा सर्वप्रमाणं च विभागं च अतः शृणु ॥२५॥ પંચનાશકના બત્રીશ ભાગ त्रि-पंच--सप्त-ओर नवनाशक કરવા. મૂળ નાક બે ભાગબીજી ત્રણ ભાગ ત્રીજી ચાર ભાગ અને બાકી ચૌદ ભાગનું ભદ્ર પહેલું જાણવું. તેને नीमा अर्धा लागना रामको. २३- २४. त्रिनासक के बत्तीस भाग करना । मूलनासक दो भाग-दूसरी तीन भाग तीसरी चार भाग और बाकी चौदा भागका भद्र चौडा जानना । उसका निकाला आधे भागका रखना । २३-२४. द्वयालिशं च भागानि द्विभाग मूलनासकं । त्रिभागं द्वितीयं चैव तृतीयं द्वयमेव च ॥२६॥ Page 8 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ रेखाविचार चतुर्थ त्रिभागानि शेषंभद्रस्य विस्तार सिद्धति सप्तनाशिन पंचमं चतुमेव च । निर्गमं च पदार्धतः ॥ २७ ॥ ऊरु स्त्रीणि मस्तके | રથિકા = ભદ્રની મધ્યમાં ઉર્ફીંગ એ પ્રકારે કરવા. સર્વ પ્રમાણુના વિભાગ સાંભળે. સપ્તનાસકના ખેતાળીશ ભાગમાં બે ભાગનુ મૂળનાસક, મીજી ત્રણ ભાગનું, ત્રીજું એ ભાગ, ચક્ષુ' ત્રણ ભાગ, પાંચમું ચાર ભાગ. ખાકી ભદ્ર ચૌદ ભાગ પહેાળુ જાણુવું. તે સના નીકાળા અર્ધા ભાગના રાખવા તે રીતે सप्तनाश सिद्ध थयुं भगुवु ते रुश्रृंग ७५२.... २५-२६-२७. ૨૭૨ राधिका - भद्रकी मध्यमें उरुशृंग दो प्रकार से करना । सर्व प्रमाणके - विभाग सुनो । सप्त नासकके बेतालीश भागमें दो भागका मूलनासक, दूसरा तीन भागका, तीसरा दो भाग, चौथा तीन भाग, पाँचवा चार भाग, बाकी भद्र चौद भाग चौडा जानना । उन सर्वके निकाले अर्ध भागके रखना, इस तरह सप्तनासक सिद्ध हुआ समझना । उस उरु रंगके उपर... .२५-२६-२७. विद्यते ॥ २८ ॥ छंद भंगोन मेकछन्दं तथैव सरतर ज्ञात्वा उपर शृङ्गकूटं च फलस्थाने ततो भृङ्ग तिलक मुनिश्वरः । कस्यमेलय ॥ २९ ॥ पत्रे मयूरे तथाकूटं वृतसूत्रं मुनिश्वरं । जगतीपीठकं ज्ञात्वा प्रासाद लिङ्गमुत्तमात् ॥ ३० ॥ मुगदेशे शिरोरम्यं कर्त० च विचक्षण । लभ्यते स्वर्ग संस्थाने जीव चंद्रार्क मेदिनी ॥३१॥ એ રીતે શીખરમાં પાણીતાટ જાણવા. હે મુનીશ્વર ! એકછંદમાં શ્રુંગ ઉપર શૂટ કરવા કરવા, (૨૯) ગેાળ સૂત્રમાં પત્ર મયુરના ફૂટ હૈ ૨૮. છંદ ભંગ ન કરવેશ. ચેાગ્યસ્થાને શ્રૃંગ અને તિલક મુનીશ્વર કરવા. ૨૮-૨૯. यह रीतसे शिखर में पाणीसार जानना । छेदका भंग न करना । हे मुनीश्वर ! एक छंदमें शृंगके उपर कूट करना । योग्य स्थान पर शृंग और तिलक करना । गोल सूत्र में पत्र मयुर के कूट हे मुनीश्वर, करना । २८-२९. શિવલિંગને જળાધારી રૂપ-એમ પ્રાસાદને જગતી અને પીઠ જાણુવા. (૩૦) મુગદેશના ઉપર (!) રમ્ય એવા જગતી પીઠ વિચક્ષણુ શિલ્પીએ કરવા થી સૂર્ય અને ચંદ્ર રહે ત્યાં સુધી તે યજમાનને સ્વના સ્થાનની પ્રાપ્તિ थाय. (३१) रभ्य मेवा भे३ शिमरना भर्भ हवे सांलवा. ३०-३१. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० क्षीरार्णव अ.-११४ क्रमांक अ.-१६ शिवलिङ्गको जलाधारी रूप इस तरह प्रासादको जगती और पीठ जानना । मुंगदेशके उपर (?) रम्य ऐसे जगती पीठ विचक्षण शिल्पीके करनेसे सूर्य और चंद्र रहे तब तक उस यजमानको स्वर्गके स्थानकी प्राप्ति होती है। रम्य ऐसे मेरू शिखरका मर्म अब सुनो। ३०-३१. मेरुशिखर सदारभ्यं महामर्म अतः शृणु । पंकजे कोमलाकारे अधमाध्यवमूर्धन् ॥३२।। अधस्ते मुधिकं कार्य हस्ते हस्ते द्वि अंगुलम् । अध भागे सप्तमांशे गृहीत्वा तत्र सूत्रके ॥३३॥ तेन मूचे परिस्थाने कलार्चा यत्र सादयेत् । तशिखरं द्वयं भागं शेषं च मानसाधकम् ॥३४॥ स्कंध स्थाने यदामूकिराक्षसं तद्रवक्षते । तानि सर्वाणि दूर्वाति अशुभ कारक स्तदा ॥३५॥' (૧) રેખા વિચારનો આ અધ્યાય બીજી અશુદ્ધ પ્રતોમાં સ્વતંત્ર અધ્યાય નથી પરંતુ મિશ્ર છે. તેથી વિષયાંતર હોઈ તે અધ્યાય ૧૧૪ તરીકે મુકેલ છે. આગળ અર્થ વગરના ત્રણેક શ્લેકના સાવ અશુદ્ધ નિરર્થક પાઠોને એકસે બારમો અધ્યાય અશુદ્ધ પ્રતમાં ગણુવેલ છે. આ ગ્રંથના સંશોધનનું કાર્ય કઠીન છે. કારણ કે ગુજરાત સૌરાષ્ટ્ર કે રાજસ્થાન માંથી હજુ અમને તેવી કોઈ શુદ્ધ પ્રતે પ્રાપ્ત થયેલ નથી. આથી સંશોધનના કાર્યમાં એમએ ગમે તે એક વિષયને સળંગ સંકલિત કરલ. અધ્યાય ક્રમવાર મૂકવાની ધૃષ્ટતા દુઃખ સાથે નાઈલ કરવી પડી છે. તે સુજ્ઞ વિચારક વિદ્વાને પરિસ્થિતિને વિચાર કરી અને ક્ષમા કરશે. એવી આશા રાખું છું. આ એક સે ચૌદમા અધ્યાયમાં કેટલીક અપૂર્ણતા જાણવાથી જે સ્થિતિમાં પાઠ મળ્યા તે જ સ્થિતિમાં પ્રકાશન કરવા પડેલ છે. ભવિષ્યમાં કોઈ સારી શુદ્ધ પ્રતોની પ્રાપ્તિ થયેથી કંઈપણ વિદ્વાન સંશોધન કરી પ્રકાશ પાડશે તે શિપીવર્ગનું ઋણુ અદા કર્યું ગણાશે. તેવા વિદ્વાનને અમે આભાર માનીશું. આ હીરાણુવ ગ્રંથમાં જ્યાં જ્યાં અમોને અનુવાદ કરવામાં અસંબદ્ધતા કે અશુદ્ધિ જણાઈ અને તે પૂર્ણ કરવાનું જ્યાં જ્યાં શક્ય બન્યું નથી ત્યાં ત્યાં અમોએ અનુવાદ કર્યા સિવાય મૂળ પાઠ જ આપેલા છે. (१) रेखाविचारका यह अध्याय दूसरी अशुध प्रामें स्वतंत्र अध्याय नहीं है, परंतु मिथ है। अिससे विषयांतर होनेसे उसे अध्याय ११४ के नामसे रखा गया है। आगे निरर्थक तीनों श्लोकके विल्कुल अशुद्ध पाठोंका अकसौ बारहवाँ अध्याय अशुद्ध प्रतोंमें गिना गया है। जिस ग्रंथके संशोधनका कार्य कठीन है। क्योकि गुजरात सौराष्ट्र या राजस्थानमेंसे भभी तक हमको वैसी शुद्ध प्रत प्राप्त नहीं हुई है। जिससे संशोधन कार्यमें हमने इज्छित Page #259 --------------------------------------------------------------------------  Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिज प्रकार - शैलीका उदयपुर ( मालवा ) के उदयेश्वरका कलामयप्रासाद मंडप पर संवरणा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ रेखाविचार ici ભાવાર્થ –જેમ કમળ કમળ આકારનું નીચે મધ્ય અને ઉપર વિકસિક થાય छे. (३२) तेभ नीथेथी अधि अस्मे यांगण... अर्ध लागमां... सातभो लाग थडलु उवा. ते सूत्र... ( 33 ) मे शेते (५२ परिस्थाने सार्या साधवी.... तेवु शिभर में लाग.... माझी मान साधड (३४) शिरना स्ध यांधाना स्थाने ....ते सर्व हुर्भार्ग थी ते सहा अशुभारम् भवु ३२-३३-३४-३५. जिस तरह कमल कोमल आकारका नीचे मध्य और उपर विकसित होता है, ३२ - इस तरह नीचेसे अधिक दो दो अंगुल... अर्ध भाग में... सातवें भागको ग्रहण करने - उस सूत्र... (३३) इस तरह उपर परिस्थानपर कलार्चा साधना... वैसा शिखर दो भाग... बाकी मान साधक... ... (३४) शिखरके स्कंधके स्थान पर... उसको सर्व दुर्भार्गसे उसको सदा अशुभकारक जानना । ३५. इति श्री विश्वकर्मा कृतायां श्रीरार्णवे नारद पृच्छते रेखा विचार शताग्रे चतुर्दशमोऽध्याय ॥ ११४॥ क्रमांक अ० १६ ઈતિ શ્રી વિશ્વકર્માં વિરચિત ક્ષીરાવે નારદજીએ પૂછેલ શિખર રેખા વિચાર લક્ષણ પર શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ધડભાઈ સામપુરાએ રચેલ સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાને એકસો ચૌદમા અધ્યાય ૧૧૪, ક્રમાંક અધ્યાય ૧૬. इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव श्री नारदजी के संवादप शिखर रेखा विचार लक्षणपर शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुराकी रचि हुआ सुप्रभा नाम्नी भाषाका एकसौ चौदहवाँ अध्याय ॥ ११४ ॥ क्रमांक अ० १६ अक विषयको सांगोपांग संकलितकर अध्यायोंको क्रमशः रखनेकी धृष्टता दुःखके साथ निरूपाय करनी पड़ी है। तों सुज्ञ विचारक विद्वानों परिस्थितिका विचारकर हमें क्षमा करेंगे जैसी आशा रखते हैं । जिस अकसीचौदहवें अध्यायमें कुछ अपूर्णता दिखनेसे जिस स्थितिमें पाठों मिळे अस स्थितिमें उनका प्रकाशन करना पडा है । भविष्य में कोई अच्छी शुद्ध प्रतोंकी प्राप्ति होनेसे कोइ भी विद्वान संशोधन कर प्रकाश डालेगा तो शिल्पि वर्गका ऋण चूकानेका कार्य माना जायगा । वैसे विद्वानोंके हम आभारी होंगे । जिस क्षीरार्णव ग्रंथ में जहां जहां हमें अनुवाद करनेमें असंबद्धता या अशुद्धि देखने में आयी और उसे पूर्ण करनेका काम जहां जहां शक्य नहीं हुआ हमने अनुवाद किये विना मूल पाठ ही दिये हैं । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ स्तंभ लक्षणाधिकार ॥ क्षीरार्णव अ० ॥ ११५ ।। (क्रमांक अ० १७) विश्वकर्मा उवाच एक हस्ते तु मासादे स्तंभ वा चतुरं गुलम् । द्वि हस्ते अगुलसप्तं त्रिहस्ते नवमेव च ॥१॥ ततो द्वादश हस्तांत हस्तेहस्ते द्विरगुलम् । सपादाङ्गुल वृद्धि स्यात् यावत्योडशहस्तके ॥२॥ अंगुलीकास्ततो वृद्धिश्चत्वारिंशत्हस्तके। तस्योर्चे च शताद्धं च पादुनं मङ्गुलं भवेत् ॥३॥ સ્ત ભપૃથુમક શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. એક હાથના પ્રાસાદને ચાર આગુલ આગળ જાડે તંભ રાખવે. બે હાથનાને સાત આંગળ ત્રણ હાથનાને નવ આંગળ, ચારથી બાર હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હસ્તે બળે આગળની વૃદ્ધિ કરવી. તેથી સેળ હાથના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે સવા સવા આગળની વૃદ્ધિ કરવી. સત્તરથી ચાલીશ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે એકેક આગળની અને એકતાલીસથી પચાસ હાથ સુધીના પ્રાસાદને પ્રત્યેક હાથે પિણું પિણું આગળની वृद्धि ४२वी. १-२-3. श्री विश्वकर्मा कहते हैं-एक हाथ के प्रासादको चार १६ , ३२ अंगुल मोटा स्तंभ रखना । दो हाथके प्रासादको सात अंगुल, १० तीन हाथके प्रासादको नौ अंगुल, चारसे बारह हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक हाथ पर दो दो अंगुलकी वृद्धि करना। तेरहसे सोलह हाथके प्रासादको प्रत्येक हाथपर सवा सवा अंगुलकी वृद्धि करना । सत्रहसें चालीश हाथ तकके प्रासादको प्रत्येक हाथ पर एक, एक एक अंगुलकी वृद्धि करना । एकतालिस से पचास हाथ तक का प्रासादको प्रत्येक हाथ पर पौने पौने अंगुलकी वृद्धि करना । १-२-३. प्राकान्तर-प्रासाद दशांश स्तंभ शस्यते शुभकर्मसु । एकादशै तु कर्तव्या द्वादशै च विशेषत् ॥४॥ त्रयोदशांशे: प्रकर्तव्य शक्रांश तथोच्यने । एतन्मानं पंचधा च स्तंभान्तं विस्तरे पृथक् ॥५॥ प्रासाइन (1) शमा लागनी 13 तल, (२) मयारमा मागे, (3) २७ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्तंभ मान लक्षणाधिकार બારમા ભાગે (૪) તેરમા ભાગે, અને (૫) ચૌદમા ભાગની જાડાઈના સ્તંભ કરે એમ પાંચ પ્રકાર સ્તંભની જાડાઈના જુદા જુદા જાણવા. ૪–૫. प्रासादके (१) दसवें भागका मोटा स्तंभ, (२) ग्यारहवें भागमें, (३) बारहवें भागमें (४) तेरहवें भागमें और (५) चौदहवें भागके मोटेपनका स्तंभ करना । इस तरह पाँच प्रकार स्तंभके मोटेपनके अलग अलग समझना । ४-५. सभामंडप स्तंभानां प्रमाणं च अतः शृणु। दशमांश द्वादशांश्य चतुर्दश्या विशेषत् ॥६॥ प्रमाणं तद्विज्ञेयं पश्चात् बुद्धिः पुनः कमात् । ज्येष्ठ कन्यस मध्ये च कन्यसे ज्येष्ठमेव च ॥७॥ सभा मंडपयो यंत्र वेदिका च विशेषत् । स्तंभ वा कन्यसो मानं कर्तव्यं शास्त्रपारगै ।।८।। પ્રાસાદ વગરના ખુલ્લા મંડપે વેદી મંડપ તેવા ચેરસ કાર્યની કલ્પના હે મુનિ! હવે તેવા સભા મંડપના સ્તંભેનું પ્રમાણુ સાંભળો. મંડપના? કે (१) अपराजितस्त्रसंतान--अ० १८५मा प्रासाना प्रभाथा स्तमानी ॥ १०, ११, ૧૨, ૧૩ અને ૧૪ એમ પંચવિધ પ્રમાણ કહ્યાં છે. સ્તંભની જાડાઈનું પ્રમાણુ તે શિલ્પીએ વિવેકબુદ્ધિથી કાર્યના વાસ્તુદ્રવ્યના આધારે તેની દઢતાના પ્રમાણમાં તે જેટલું વજન ખમી શકે તે પર વિચાર કરીને રાખવું. શ્યામપાષાણુ આરસ જોધપુરી ખારે પત્થર કે પોરબંદરી પત્થરો એ એકેકથી ઉત્તરોત્તર દૃઢ છે. પોરબંદરથી ખારે મજબુત ખારાથી જોધપુર વધુ દૃઢ છે. તેથી તે પાતળો સહેજ લઈ શકાય. दीपार्णव भी सामान्य साक्षा जानु प्रभार पारेछ. "चतुर्गुोच्छ्रार्य प्रोक्तंमते स्तंभस्य लक्षणम् ।" यलिदानी पडामाथी या अयाई शनी से सामान्य લક્ષણ ઈટના, ચુનાના કે પોરબંદર પત્થર જેવાના વાસ્તુ દ્રવ્યના ગણું શકાય. (१) अपराजित स्त्र संतान अ. १८५वे पासादके प्रमाणसे स्तंभका मोटापन १०-१११२-१३ और १४ अिस तरह पंचविध प्रमाण कहे हैं। स्तंभके मोटपनका प्रमाण तो शिल्पीको विवेक बुद्धिसे कार्यके वास्तु द्रव्यके आधार पर उसकी दृढताके प्रमाणमें वह जितना वजन झेलसके उसपर विचार करके रखना। श्यामपाषाण आरस जोधपुरी खारा मजबूत खारेसे जोधपुरी ज्यादा दृढ है। जिससे जरा पतला ले सकते हैं। दीपार्णयमें अक सामान्य लक्षण मोटेपनका प्रमाण देते है। चतुर्गुणोच्छायं प्रोक्तामत स्तंभस्य लक्षणम् । स्तंभके मोटेपनसे चारगुनी ऊँचाई रखना। यह स्थूलमान ईंट खडीके या पोरबंदरी पत्थरके द्रव्यका गिना जा सकता है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षारार्णव अ -११५ क्रमांक अ.-१७ પદના? દશમ, બારમા કે ચૌદમા ભાગે સ્તંભની જાડાઈનું પ્રમાણ રાખવું. તે પ્રમાણે વિવેકબુદ્ધિથી પાષાણુની દૃઢતા કે વાસ્તુ દ્રવ્યને વિચાર કરીને કાર્ય કરવું તેમ તે ચેષ્ઠ કનીષ્ઠને મધ્યમાન કે કનીષ્ઠ કમાન એમ પ્રત્યેકના ત્રણ ત્રણ માન (કુલ નવ) ઉપજાવવા. સભામંડપ અને વેદિક મંડપના સ્તંભના प्रमाण उनी४मानना शि५शाखमा पारंगतामे रामवा. ६-७-८. MIST YA THE RTENOUS mti 4 गादास ट्री AND P बिना प्रासाद के खुले मंडप वेदी मंडप वैसे चोरस कार्यकी कल्पना हे मुनिकी । अब वैसे सभा मंडपके स्तंभों का प्रमाण सुनो। मंडपके ? या पदके ? दसवें, बारहवें या चौदहवें भागपर स्तंभके मोटेपन का प्रमाण रखना । इस तरह विवेक बुद्धिसे पाषाणकी दृढता (या वास्तु) द्रव्यका विचार करके कार्य करना और वह ज्येष्ठ कनीष्ठ और मध्यमान या कनीष्ठ ज्येष्ठमान इस तरह प्रत्येकके तीन तीन मान (कुल नौ) उत्पन्न करने घटपल्लव युक्त स्तंभ भरणा मदल ओर सरा 4ma Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्तंभ मान लक्षणाधिकार १८५ के लिये सभामंडप और वेदिका मंडपके स्तंभोंके प्रमाण कनीष्ठमान के शिल्प शास्त्रके पारंगतोंको रखना । ६-७-८. रुचकाश्च चतुरस्रास्युभद्रेका भद्र संयुता । वर्धमानो प्रभद्राः स्युरष्टास्त्राश्राष्टका मता ॥ ९ ॥ आसनो भवेद् भद्रं स्वस्तिकाचाष्टक पंच विधाव कर्तव्या स्तंभा प्रासाद रूपिणः ||१०|| | 1000 00 भद्रज्ञा. स्वर्धमान. अष्टसंश्र स्तंभोका पंच स्वरुप तलदर्शन रुचक 三月 स्वस्तिक. स्तंभोंकी आकृतिपरसे उसका नामाभिधान कहते हैं । (१) चोरस स्तंभको रुचक (२) भद्रवाले ( विनाश ) को भद्रक (३) प्रति भद्रवाले स्तंभक वर्धमान (४) अष्ठ स्तंभको अष्ठक और वेदिका - आसनके उपरकी भद्र अष्ठांश और आठ कणीवाले स्तंभ का ( ५ ) स्वस्तिक नाम जानना । इस तरह पाँच प्रकारके स्तंभों नाम जानना । प्रासादके स्वरूप प्रमाण स्तंभोंका रूप होता है । २९-१०. સ્તાની આકૃતિ પરથી તેનું નામાભિધાન કહે છે. ૧. ચેારસ સ્તંભને ३२ २. लद्रवाणा (त्रिनाश) ने लड 3. प्रतिलद्रवाजा स्तंभने वर्धमान ४. અષ્ટાંસના સ્તલને અષ્ટક અને વૈદિકા આસનપટ પરની ભદ્ર અષ્ટાંશ અને આડ કણીવાળા સ્તંભનું (પ) સ્વસ્તિક નામ જાણવુ. એ રીતે પાંચ પ્રકારના સ્ત ંભાનાં નામ જાણવાં. પ્રાસાદના સ્વરૂપ પ્રમાણુ સ્તંભોનુ રૂપ થાય. (૨) ૯–૧૦. ( २ ) अपराजितसूत्र १८५ भ स्तंभनी आइति स्वय या प्रमाणे यापेक्षा मत्स्यपुराण अ० २५५ ने मानसार अ० १५ पृथथ नामो अवश्य पेसा छे. ચારસ અજ્ઞેશ સાળાંશ બત્રીશણ્શ ગાળ 430 દ્વિક પ્રલીનક વૃત મામલર બ્રહ્મકાંત વિષ્ણુકાંત કાંત मन्न्यपुराण ३५५ સ્કંધકાંત (પાંચ કે ७ लांशनाने) આમ પૃથક્ પૃથક્ થામાં નામ અને સ્વરૂપ જુલ જુદા આપેલાં છે. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફ્ कुंभी घटपलव युक्त स्तंम्भ भरणा सरा श्रीरार्णव अ. - ११५ क्रमांक अ.-१७ भद्रैरलंकृता कुंभी संभो भद्राष्टावृतः । भरण्यां पल्लवावृता शीर्षाय वाथ किन्नराः ॥ ११ ॥ પ્રાસાદના મ’ડપ ચાકીના સ્તંભના છોડનુ વર્ણન કરે છે. કુંભી અલંકૃત નકશીવાળી ભદ્રયુક્ત કરવી. એક સ્તંભમાં જુદાં જુદાં સ્વરૂપ કહ્યાં છે. પરંતુ એક સ્ત'ભમાં નીચે ભદ્ર વચ્ચે અષ્ટાઘ્ર અને ઉપર વૃત્તગોળ ઘટ પલ્લવયુકત પણ કરવા. ભરણાના ભદ્ર કે પત્ર પાંદડાં ખુલ્લાં કરી નીચે ગેાળ કર્ણિકા કરવી. સર્ એક યા એ ગુંડાવાળું કરવું અગર કિન્નર (કીચક) ના રૂપથી અલંકૃત કરવુ. ૧૧. प्रासादकी मंडप चोकी के स्तंभके पौधेका वर्णन कहते हैं । कुंभी अलंकृत नकशीवाली भद्रयुक्त करना । एक स्तंभ में भिन्न भिन्न स्वरूप कहे हैं । परंतु एक स्तंभ में नीचे भद्र बिच में अप्रान और उपरवृत्त= गोल पल्लवयुक्त करना । भरणेके भद्रके उपर पत्र पान खुले करके नीचे गोल कर्णिका करना । सरा एक या दो गुण्डेवाला करना अगर किन्नर (कीचक) के रूपमें અત્યંત ના ૬૬. घटपल्लव कुंभीभिः स्तंभाः कार्यास्वलंकृताः । ईलिकातोरणैर्युक्ता मदलमंडिताः માઃ।। देवाङ्गना अष्ठ द्वादश षोडश जिन द्वां त्रिशाः । चतुषष्टि कला युक्ता स्तंभे स्तंभे बिराजिते ॥ १३॥ સ્તંભના ધાટ અનેક પ્રકારના થાય છે. સાદા, નકશીવાળા, રૂપવાળા પણ થાય, એક સ્તંભમાં નીચે ભદ્ર તે ઉપર અદૃશ અને તે પર ગેાળ વળી ઉપર છ એક ઇંચને પટ્ટો અશને કરી તેમાં ગ્રાસમુખ કે ફૂલો કરે છે. નીચે ગાળ ભાગમાં કણી બાંધાના અધેડ કરી ઊભી સાંકળી ટોકરી કે પુષ્પને તારા કરે છે. સાંકળી ટોકરી એ આધ્યાત્મિકરૂપે સુચક તેના ઘાટ કહે છે. એવા એવા ઘાટના સ્તંબાની સુંદર રચના કુશળ શિલ્પી પોતાના ભેજામાંથી ઉપજાવી કાઢે છે. તે કે તે અશાય તો નથી જ. બારમી તેરમી સદીના સ્થાપત્યોમાં અવશેષોમાં ઘટપલ્લવયુક્ત કળામય સ્ત મુદર લાગે છે. ચારે ખુણે કળભય પત્રા કરી વચ્ચે ઘટકુંભની આકૃતિ સ્તંભના મધ્યમાં કરેલી વ્હેવામાં આવે છે. દક્ષિણાપથ પ્રદેશમાં કુંભીને ઘાટ ખુણે પત્ર કરી મધ્યમાં કુંભની આકૃતિ કરી કુંભીના નામને સાફ કરેલ તેવામાં આવે છે, Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्तंभ मान लक्षणाधिकार . . મહાપ્રાસાદના કુંભી અને સ્તંભે ઘટપલ્લવોથી અલંકૃત શેભિત કરવા ઈલિકા તેરણ યુક્ત કે મદળવાળા સુંદર સ્તંભે કરવા. દેવાંગનાઓ=દેવકન્યા अपराजित सूत्र १८४में स्तंभोंकी आकृतिके स्वरूप जिस प्रकार दिये है। अ० १५ में पृथक् पृथक् नामों और स्वरूपों दिये है। आकृति - चोरस - अष्ठांश – सोलांश --- बत्तीसांश -- गोल मत्स्य पुराण - रूचक -- वज्र -द्विवज्रक -- प्रलीनक --- वृत्त मानसार - ब्रह्मकांत ---विष्णुकांत - रुद्रकांत --- स्कंधकांत ---- पंच-छहांश पृथक् पृथक् ग्रैंथों में नाम और स्वरूप भिन्न भिन्न दिये हैं। स्तंभ के घाट अनेक प्रकारके होते हैं। सादे-नकशीवाले रूपयाले भी होते हैं। अक स्तंभमें नीचे भद्रक उसके उपर अठांश और उपर गोलवलीके उपर छः ईचका लगभग पट्टा अठांशका कर उसमें प्रास मुख या फूलों करते हैं। नीचे गोल भागमें कणी स्तंभके बंधको कर खडी सांकल टोकनी या पुष्पका तोरा बनाते हैं। सांकली, टोकरी, आध्यात्मिक रूपसे सुचक उसके घाट कहते हैं। जैसे जैसे घाटके स्तंभोंकी सुंदरत रचना कुशल शिल्पीयों अपने दिमागमेंसे उत्पन्न करते हैं । यद्यपि वह अशास्त्रीय तो नहीं है। बारहर्वी तेरहवीं सदीके स्थापत्यो में अवशेषोंम घटपल्लवयुक्त कलामय स्तंभों सुंदर लगते हैं। चारों कोनेमें कलामय पत्रोंका बिचमें घटकुंभकी आकृति कर कुंभीके नामको सार्थक किया हुआ देखने में आता है।। (3) मे स्तमो वयेना લાંબાગાળાના પાટની મજબુતાઈ कर्णाटक शैलीकी दर्पणयुक्त विधिचिता दवाङ्गना शोभा साथे खाने महा ४२वामा આવે છે. તે કમાન જેવું સુંદર દેખાય છે. તરણું કે કાચલાવાળા તોરણું કરતાં મદળની મજબુતાઈ વિશેષ રહે છે. તેરણની પુરાણી શૈલીનું સ્થાન કાલાવાળી પડદીવાળી ફમાતે લીધું. તે પાછલા કાળની કૃતિ છે. ધ્રુવ સૂત્રમાં સાદી કમાને પંદરમી સદી પછી HESH Ata AU) - श्रीजेश . नाजीवतिय CHANDULAL Sot Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१५ क्रमांक अ.-१७ આઠ બાર સેળ ચોવીશ કે બત્રીશ નૃત્યાદિ ચેષ્ટા કરતી એસઠ કળાયુક્ત એવા લક્ષવાળી થાંભલે થાંભલે મૂકવી.* ૧૨-૧૩. __महाप्रासादके कुंभी और स्तंभों घट्टपल्लवोंसे अलंकृत करना । ईलिका झूलयुक्त मदलेकाले सुंदर स्तंभों करना । देवाङ्गनाओं-देवकन्या आठ वारह सोलह चौबीस या बत्तीस नृत्यादि चेष्टा करती चौसठ कलायुक्त ऐसे लक्षणोंवाली प्रत्येक स्तंभ पर रखना ।४ १२-१३. आधयरजाज्यकुंभ कर्णिका ग्रास एव च । इत्येवं पीठ बन्धस्य भ्रमतश्च प्रदक्षिणे ॥१४॥ कुंभ कलश कपोताल्या वा राजसेन वेदिका । आसन्न पट्टश्च कार्य: कक्षासन विभूषितः ॥१५॥ ખુલ્લા મંડપને (૧) પહેલા થરમાં ભિદ્ર જાડેબે કણ અને ગ્રાસપટ્ટીનું પીઠ બંધ ફરતું પ્રદક્ષિણાએ કરવું. અગર (૨) કુંભ કળશે કેવાળ ને પુષ્પકંઠના થરે અગર (૩) પીઠ પર રાજસેવક વેદિકાને આસનપટ્ટ મૂકી તે પર કક્ષાસનથી તે મંડપ કરે. (આવા ત્રણ પ્રકારના જુદા જુદા કક્ષાસનના નામે વૃક્ષાव मापेक्षा छे.) १४-१४. ભારતમાં પ્રવિષ્ઠ થઈ. જોકે કમાન બીજા રૂપે ભારતમાં બૌદ્ધ કાળની સ્થાપત્યોમાં જોવામાં આવે છે. કમાનની જેમ ઘુમટ પણ સાદરૂપે પાછળથી પંદરમી સોળમી સદીમાં ભારતીય સ્થાપત્યમાં દાખલ થયા. (३) दो स्तंभांके षिचके लम्बे अंतरके पाटकी मजबूतीको शोभा के साथ करनेके लिये मल किया जाता है। वह कमानकी तरह सुंदर दिखता है। तोरणके काचलेवाली कमान मदलोंकी मजबूती विशेष रहती है। झूलकी पुरानी शैलीका स्थान काचलेवाली पडदीवाली कमानने लिया । वह पीछले कालकी कृति है। धूव सूत्रमें सादी कमानों सोलहवीं सदीके बाद भारतमें प्रविष्ठ हुई । यद्यपि कमान दूसरे रूपमें भारतमें बौद्धकालकी दखनेमें आती है। . ___ कमानकी तरह गुंबज भी सादे रूपमें पीछेसे पंद्रहवीं सोलहवीं सदीमें भारतीय स्थापत्यमें प्रविष्ठः हुभा। (૪) દેવાંગના દેવકન્યાનાં સ્વરૂપ અને નામ લક્ષણો બત્રીશ કહેલાં છે. શરીરના અંગ મરડ અને ચેષ્ટા પરથી તેના લક્ષણ અને નામે જુદા જુદા સવિસ્તર બહુસુંદર રીતે વૃક્ષાર્ણવતાં. ૪મા અધ્યાયમાં આપેલા છે. કલ્પિત દેવાંગનાનું સ્વરૂપ કરવું નહિ તેમ શાસ્ત્રોક્ત પાઠ સાથે તેના આલેખન સહિન આ ગ્રંથ અધ્યાય ૧૨૦માં સચિત્ર આપેલા छ ते . (४) देवांगना-देवकन्याके स्वरूपों और नाम लक्षण बत्तीस कहे हैं। शरीरके अंग मरोड और चेष्टा परसे लक्षण और नाम भिन्न भिन्न सविस्तर बहुत सुंदर ढंगसे वृक्षार्णवक अ. १४०मे दिये हैं। कल्पित देवांगनाका स्वरूप नहीं करना। उसके शास्त्रोक्त पाठके साथ उसके आलेखन सहित यह क्षीराणव ग्रंथमे अ. १२०में सचित्र दीया है सो देखना । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70.STHARA AaluwarASSARARIATRE SATTAFINATILLUTITANAJALAL DATE VOIESSUE KE.SE सुंदर कलामय रुपस्तम्भके छोड, गवाक्ष और ईलिका तोरण (आबु देलवाडा) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IPLIEDHARMAHARRY TitalamUSERAL ராம் iiiiiiiii OBCHODNOG आबु-बस्तुपाल भदिर के रतभोको विविधता और हीडोलक (आंदोलक) तोरण Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथस्तंभ मान लक्षणाधिकार खुले मंडपको (१) पहले थरमें भिट्ट जाडंबा कणी और प्रासपट्टीका पीठ बंध फिरती प्रदक्षिणामें करना । अगर (6) कुंभ कलश केवाल और पुरुषकंठका थर अगर (३) पीठपर राजसेवक वेदिका और आसन रख कर उसकेपर कक्षासनसे मंडप करना । (ऐसे तीनों प्रकारके भिन्न भिन्न कक्षासनके नामों वृक्षाणवमें दिये हैं । १४-१५.) Fitiiritu खुला- हत्यमण्ड का पीठां-धामकार. प्रासाद् त्रिपंच भूमिः सप्तभिः नवभिस्तथा । ब्रह्मस्थानं सदारम्यं स्वर्ग प्रासाद शाश्वतम् ।।१६।। चतुर्मुखो ब्रह्मणो हि विष्णावे: कुर्याद् विशेषतः । चतुर्मुखश्च रुद्रस्य प्रासादः पुण्यहेतवे ॥१७॥ यथा दिन विना सूर्य शशांक विना शर्वरी । यस्मिन् देशे चतुर्मुखः प्रासादोन हि विद्यते ॥१८॥ HEA13:-- का हत्य Mard Anatग pen दीगम्बर शिव-नृत्य शिव-नृत्य ईशानदेव-दिग्पाल दिग्पाल ब्रह्मा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० 4248 क्षीरार्णव अ. ११५ क्रमांक अ. SCALP 1 Posts } INce 1.1 Sa FRONT CHORI OF SAN SOMNATH TEMPLE. Dobermancs NA संबंधक कम Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ स्तंभ मान लक्षणाधिकार મહાપ્રાસાદ ત્રણ પાંચ સાત કે નવ ભૂમિ-માળવાળા કરવા. સ્વર્ગ જેવા શાશ્વત પ્રાસાદમાં બ્રહ્મ=મધ્યસ્થાન હમેશાં રમ્ય કરવું. બ્રહ્મ વિષ્ણુ અને રૂદ્રના ચતુર્મુખ પ્રાસાદ કરાવવાથી મદુપુણ્ય ઉપાર્જન થાય છે. જે દેશમાં આવા રમ્ય ચતુર્મુખ પ્રાસાદ નથી તે દેશ સૂર્ય વગરના દિવસે જે કે ચંદ્ર વિનાની शनि or agai. १६-१७-१८. महा प्रासाद तीन पाँच सात या नौ भूमि मजलेवाले करना । स्वर्ग जैसे शाश्वत प्रासादमें ब्रह्म मध्यस्थान हमेशा रम्य करना । ब्रह्मा विष्णु और रुद्रके चतुर्मुख प्रासाद करानेसे महद् पुण्य उपार्जन होता है। जिस देशमें ऐसे रम्य चतुर्मुख प्रासाद नहीं है वह देश सूर्यके बिना दिन जैसा या चंद्रके बिना रात्रि जैसा जानना । १६-१७-१८. शिवरूपं च कर्तव्यं वामाऽघोर मीशानकम् । लास्यं तांडव नृत्यं च वैतालं च विशेषतः ॥ १९ ॥ नारद स्तुबरुश्चैव वादित्रै विविधैः सह । सिद्धि बुद्धि समायुक्ते नृत्यकृद् गणनायकः ॥२०॥ अष्टाशिति सहस्त्राणि ऋषि रुपाण्यनेकधा । चतुसहस्र गोपीयुक्त कृष्ण: परिकरै वृतः ॥२१॥ स्त्री युग्म संयुते रुपं लोकलीला प्रदर्शयेत् । मिथुनैः पत्र वल्लिभिः प्रमथैश्चय शोभयेत् ॥२२॥ (૫) મિથુનનો અર્થ શિલ્પી બંધુઓએ મૈથુનમાની અનેક જૂના પ્રાસાદોમાં તેવી આકૃતિઓ કુતુહલ વૃત્તિથી કરેલી છે. અશ્લીલ સ્વરૂપ ઘણું જૂના મંદિરમાં તેવી ચેષ્ટા કરતા ખુણે ખાંચરે મંડેવરમાં, છતમાં, કુંભામાં કે નરપીઠમાં કરેલી જોવામાં આવે છે. તે સહેતુ છે એવી પણ એક માન્યતા પ્રવર્તે છે. આવાં સ્વરૂપ એરીસ્સા, ભુવનેશ્વર, જગન્નાથજી અને કોણાર્કના સૂર્યમંદિરમાં મોટા અને આબુ રાણકપુરના જૈન મંદિરમાં નાનાં સ્વરૂપ रेलांछे. નાટ-આ ગ્રંથની કેટલીક અપૂર્ણ પ્રતમાં ફક્ત નવ જ ક છે. વળી કલોક १3थी २३ सुधा दीपार्णव थने भणता छे. (५) मिथुनका अर्थ शिल्पी बंधुओंने मैथुन मानकर अनेक पुराने ग्रासादोंमें वैसी आकृतियों कुतूहल वृत्तिसे कैंडारी हैं। अश्लील स्वरूपों बहुत पुराने मंदिरोंमें वैसी चेष्टा करते कोनेमें -मंडोवरमें, छतमें, कुंभामें या नरपीठमें की हुई देखनेमें आती है। वह सहेतु है जैसी भी अक भान्यता प्रवर्तती है। जैसे स्वरूपों ओरीसा, भुवनेश्वर जगन्नाथजी और कोनार्कके सूर्य मंदिरमें बड़े और आबु राणकपुरके जैनमंदिरोंमें छोटे स्वरूधों बनाया है। नोट-अिस ग्रंथकी कुछ अपूर्ण प्रतीमें सिर्फ नौ ही श्लोक १३से २१ तक पाठों दीपार्णव ग्रंथको मिलते जुलते हैं । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णध अ.-११५ क्रमांक अ.-१७ 100 . Me POST F4 Kalam - KAR क.AAMSA दिक TATE ..'- ". Hidiarred ATI MIC राम पंचायतन युक्त वानर सेना साथ हनुमत शिव पंचायतन युक्त गणपति विरालिका साथ स्तंभ तोरण नीम्न सिद्धि ओर सिद्धि नार શિવના પ્રાસાદના મંડપમાં શિવનાં અનેક સ્વરૂપે વામ અઘર, તપુરૂષ ઈશાનાદિ કરવા. લાસ્ય તાંડવ નૃત્ય કરતાં શિવનાં સ્વરૂપે કરવાં. વૈતાલના પણ રૂપે કરવાં. (તે રીતે જે દેને પ્રાસાદ હોય ત્યાં તેવાં સ્વરૂપ કરવાં.) નારદ તુંબરૂ. વિવિધ વાજીંત્રયુક્ત સિદ્ધિબુદ્ધિ સહિત નૃત્ય કરતાં ગણપતિના રૂપ કરવા. અડ્ડાશી હજાર ષિમુનિનાં અનેક સ્વરૂપે ચોરાશી હજાર ગેપી સહિત કૃષ્ણથી ફરતા પરિકયુક્ત સ્વરૂપ (વિષ્ણુમંદિરમાં ને મંડપમાં) કરવાં સ્ત્રીપુરુષના જેડલાં રૂપ લેકલીલા કરતાં દર્શાવવા. સ્ત્રીપુરુષનાં યુગ્મરૂપે કમળનાં પત્ર અને साडीमाथी ३५॥ शमिता ४२वां. १८-२०-२१-२२.. शिवके प्रासादके मंडप में शिवके अनेक स्वरूपों वाम अघोर तापुरूष इशानादि करना । लास्य तांडव नृत्य करते शिवके स्वरूप करना । वैतालके रूपों भी करना । ( इस तरह देवोंका प्रासाद हो वहाँ वैसे स्वरूपों करना ।) नारद तुंबरू, विविध वाजिंत्र युक्त सिद्धि बुद्धि सहित नृत्य करते गणपतिके रूप करना । अठ्ठाशी हजार ऋषि मुनिके अनेक स्वरूपों चौरासी हजार गोपी सहित कृष्णसे फिरते परिकरयुक्त स्वरूपों (विष्णु मंदिरमें त्था मंडपोंमें) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयं स्तंभ मान लक्षणाधिकार KIR MANDU KOREA LI K VICE / JAN में पवनुन सहयुगा मी पाच मुमहरंप नणेहना पंचमुख रुद्र हनुमंत मनुष मुखहस्ती की सिंह वराह पंचमुख हेरंम्ब गणपति परिकर युक्त करना । स्त्रीपुरुषके युगलरूपों लोकलीला करते दिखाना । स्त्रीपुरुषके युग्मरूपों कमलके पत्रों और बेलियोंसे रूपोंको शोभित करना । १९-२०-२१-२२. आदित्य सूर्यका बारा स्वरुप x C J S HINA १ सुधाता २ मित्रा ३ आर्य मणि Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ४ रूद्र ७ भग क्षीरार्णव अ. - ११५ क्रमांक भ.-१७ इंद्रादि लोकपालाश्व नृत्यकुर्वीत ते सदा । भास्करादि ग्रहः कार्या द्वादश राशयस्तथा ॥ २३ ॥ सप्तविंशतिर्नक्षत्रा कर्तव्यानि प्रयत्नतः । स्वरुपकम् ॥ २४ ॥ अष्टावाया श्राष्टव्यया नवतारा ५ वरूपा आदित्य सूर्यका स्वरूप ८ विवस्थान ६ सूर्य ९ पुषा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रय स्तंभ मान लक्षणाधिकार आदित्य सूर्यका स्वरुप AN Israe १Rh १० सविता ११ त्वष्टा १२ विष्णु सप्तस्वराश्च पइरागाः षट्त्रिंशत्वरागिनिकाः। द्वादशमेघरुपाणि कर्तव्यानि प्रयत्नतः ॥२५॥ नवग्रह RE मंगल Feate OD शुक्र शनी राहु Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११५ क्रमांक .-१७ यक्ष गंधर्व विद्याधाः पन्नगाः किन्नरास्तथा। अनेक देवता नृत्य-मंडपे परिवेष्टिताः । इलिकातोरणैर्युक्ता गजसिंहविरालिका ॥ २६॥ છે : - ૨ मदल युक्त तिलक तोरण इलिका तोरण - હા કિ ' હા स्तंभ भरणा सरा भदल आंदोलक हीडोलक तोरण મહાપ્રાસાદને કે મંડપની ફરતા જાંગી વેદિકા કે ઘુંમટ વિતાન શેઈપાટમાં ગ્ય સ્થાને ઇંદ્રાદિ દિપાલ નૃત્ય કરવા, સૂર્યાદિ નવ ગ્રહે, બાર રાશિએ, સત્તાવીશ નક્ષત્ર, આઠ આય, આઠ વ્યય, નવસારી, સાત સ્વર. છ રાગ, છત્રીશ રાગિણું, બારમેઘ, યક્ષગાંધર્વ વિદ્યાધર, નાગ, કિન્નર વગેરે અનેક દેવ દેવી દેવતાઓનાં સ્વરૂપ મંડપ ફરતા નૃત્ય કરતાં કરવાં. (મુખ્ય સ્વરૂપને) ઈલિકા તેરણ સાથે ગજસિંહ અને વિરાલિકા સાથે થાંભલી સાથે કરવા. ૨૩-૨૪-૨૫-૨૬. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ स्तंभ मान लक्षणाधिकार %3D - - गवालुकायुक्त तोरण महाप्रासादको मंडपके फिरते जांगी वेदीका या गुंबज वितान शेई पाटमें योग्य स्थानपर इंद्रादि दिग्पाल-लोकपाल नृत्य करते करना । सूर्यादि नवग्रहों, बारह राशियों, सत्ताईश नक्षत्रों, आठ आय आठ व्यय, नवतारा, सात स्वर, छः राग छत्तीस रागिगी, बारहमेध, यक्ष, गंधर्व, विद्याधरों, नाग, किन्नरों वगैरह अनेक देवों देवी देवताओंके स्वरूपों मंडपके फिरते नृत्य करते करना । (मुख्य स्वरूपको) इलिका झूलके साथ गजसिंह और विरालिकाके साथ स्तंभिका के साथ करना । २३-२४-२५-२६. इतिश्री विश्वकर्माकृतायां क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां स्तंभ मान लक्षणाध्याये शताग्रे पंचदशमोऽध्याय ।।११५॥ क्रमांक अ० १७ ઈતિશ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત ક્ષીરાણુ નારદજીએ પૂછેલ ખંભમાન લક્ષણો શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાને એકસો પંદરમે અધ્યાય ૧૧૫. ક્રમાંક અધ્યાય ૧૭. .. इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णवमें नारदजीके पूछे हुए स्तंभमान लक्षणका शिल्प विशारद श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुराकी रचि हुी सुप्रभा नामकी भाषाटीका का एकसो पंद्रहवाँ अध्याय ।।११५॥ क्रमांक अध्याय १७ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ मंडपाधिकार ॥ क्षीरार्णव (अ० ११६ ) क्रमांक अ० १८ विश्वकर्मा उवाच उत्सवार्थे प्रयत्नेन कर्तव्या शुभमंडपाः । प्रासाद राजवेश्मानि वापी कुप तडागयो ॥ १ ॥ तत्रैव मंडपा कार्यों ऋषिराज शृणोत्तमा । प्रासादाग्रे महारम्या मंडपास्यामनेकधा ॥ २ ॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. યજ્ઞયાગાદિ ઉત્સવકાર્ય માં શુભ એવા મડપ, પ્રાસાદ આગળ રાજભવન, આગળ, વાવ કુવા, તળાવાદિ જળાશ્રય આગળ મંડપા કરવાનું, ટુ ઋષિરાજ! હવે સાંભળે, પ્રાસાદની આગળ મહારમ્ય એવા અનેક પ્રકારના भयो वा ह्या छे. १-२. श्री विश्वकर्मा कहते हैं । यज्ञयागादि उत्सव कार्य में शुभ ऐसे मंडप प्रासा - दके आगे राजभवन के आगे, बाव- कूए तालाबादि जलाश्रय आगे मंडप करनेका है। ऋषिराज, अब सुनो । प्रासाद के आगे महारम्य ऐसे अनेक प्रकारके मंडप करनेके लिये कहे हैं । १-२. प्राग्वादि विजयाचाद्यं मंडपा उक्तमानतः । द्विस्तंभ स्ततो वृद्धि मंडपा पुष्प उच्यते ॥ ३ ॥ कन्यसं च ततो हीन द्विगुणं नैव कारयेत् । जगती मंडपा प्राज्ञ ग्रस्तदोषं परित्यजेत् ॥ ४ ॥ પ્રાપ્વાદિ અને વિજયાદિ અનેક મંડપે માનથી કહ્યા છે. પુષ્પકાઢિ પ્રકારના મડપેા પ્રથમ સુભદ્ર મડપથી બબ્બે થાંભલાની વૃદ્ધિએ પુષ્પકાદિ ૨૭ મંડપા કહ્યા છે. કનીમાનથી હીન પણ તે પદ્મથી ખમા (મ’ડપ) કદિ ન કરવે. સુન્ન શિલ્પીએ ગતીથી મડપ નીચેા ગાળવાના દોષ ન કરવા. ૩-૪. प्राग्वादि और बिजयादि अनेक मंडपों मानसे कहे हैं । पुष्पकादि प्रकारके मंडपों प्रथम सुभद्र मंडपसे दो दो स्तंभोंकी वृद्धिकर पुष्पकादि २७ मंडप कहे हैं । कनीgमान से हीन भी उस पदसे दुगना (मंडप ) कभी नहीं करना । सुज्ञ शिल्पीको जगतीसे मंडप नीचा गाढ़नेका दोष न करना । ३-४. प्रथमे सम सपाद सार्द्धच पादोनद्वयम् । द्विगुणं चापि कर्तव्या सपाद द्वयमेव च ॥ ५॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार सार्द्ध द्वयं तु कर्तव्यं अत ऊर्ध्वन कारयेत् । सप्तधा प्रमाण सूत्रं वास्तुविद्भिदाहृतम् ॥ ६ ॥ મંડપના વિસ્તાર પ્રમાણુ હવે કહે છે (૧) પ્રથમ પ્રાસાદ જેટલે (૨) प्रासाथी सवाय. (3) प्रासायी होढा (५) प्रासाथी पाए गए। (५) પ્રાસાદથી બમણે (૬) પ્રાસાદથી સવા બે ગણે (૭) પ્રાસાદથી અઢીગણે મંડપ કરે તે સાત પ્રમાણ જાણવા તેથી મેટો મંડપ ન કરે. વાસ્તુશાસ્ત્રના જ્ઞાતાઓએ એ રીતે સાત પ્રમાણુ સૂત્ર મંડપના કહ્યા છે. પ-૬. मंडपके विस्तार प्रमाण अब कहते हैं। (१) प्रथम प्रासादके बराबर (२) प्रासादसे सवा गुना (३) प्रासादसे डेढ़ गुना (४) प्रासादसे पौने दो गुना (५) प्रासादसे दो गुना (६) प्रासादसे सवा दो गुना (७) प्रासादसे ढाई गुना मंडप करना । ये सात प्रमाण कहे । इससे बड़ा मंडप नहीं करना । वास्तुशास्त्रके ज्ञाताओंने इसी तरह सात प्रमाण सूत्र मंडपके कहे हैं । ५-६. समं सपादं पंचांशत्वर्यतं दशहस्तकम् । । दशत्पंच हस्ते सार्द्ध चतुर्हस्ते द्वयपादून ॥ ७॥ त्रिहस्ते द्विगुणं तद्विशिष्टा चतुष्किका । चतुष्कं वाऽपि चाष्टांश शुकस्तंभानुंसारत् ॥ ८॥ પચાશ હાથથી દશ હાથના પ્રાસાદને પ્રાસાદ જેટલે સમ અગર સવા મંડપ કરો. પાંચથી દશ હાથના પ્રાસાદને દે, ચાર હાથના પ્રાસાદને પિણું બે ગણે ત્રણ હાથનાને બમણું અને તેનાથી ઓછા નાના પ્રાસાદને વિશિષ્ઠ એવું ચેકિયાળું કરવું. ચોકી ચેરસ કે અછાંશ શિખરના આગળ શુકનાશના શુક સ્તંભને અનુસરતા પાદમંડ જેવું કરવું. –૮. पचास हाथसे दस हाथ के प्रासादोंको प्रासादके बराबर सम अगर सवा गुना मंडप करना । पाँचसे दस हाथ के प्रासादको डेढ गुना, चार हाथके प्रासादको पौने दो गुना तीन हाथके प्रासादको दूगना और इससे कम छोटे - अपराजितसूत्र १८५ भां माने भगतो ५४ . भला नाव विरचित समराङ्गण स्त्रधार अ• ६७मा बधु प्रासाने मोटो म७५ ४२॥ य तो यश. पा२तुभूमिना સંકોચના કારણે ઓછો પણ કરી શકાય તે આગળ જતા મહામં૫નું કહે છે. शतमष्टोतरं ज्येष्ठश्चतुःषष्ठि करोऽवरः । .कनिष्ठो मंडपः कार्यों द्वात्रिंशत्कर संमितः ॥ એક આઠ હાથને છ મંડપ, ચોસઠ હાથને મધ્યમાન અને બત્રીશ હાથને કનિકમાનને મંડપ રચી શકાય છે, Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ-११६ क्रमांक अ.-१८ प्रासादको विशिष्ट ऐसी चोकी करना । चोकी चोरस या अष्ठांश शिखरके आगेके शुकनासके शुकस्तंभको अनुसरते पादमंडप जैसा करना । ७-८. शुकनासे समाघंटा कर्तव्या सर्व कामदा । तेन मानेन पादान्त (?) मंडपोदय समुत्सृजेत् ॥ ९॥ પ્રાસાદના શુકનારાની બરાબર મંડપની શામરણની મૂલ ઘંટા સમાન એક સૂત્રમાં રાખવી. તે સર્વ કામનાને આપનાર જાણવું. તેથી તે માનથી મંડપની याई रामवी.२ ४. ___प्रासादके शुकनासके बराबर मंडपकी शापरणकी मूल घंटाके समान एक सूत्रमें रखना । उसे सर्व कामनाको देनेवाला जानना । इससे उस मानसे मंडपकी ऊँचाई रखना ।। ९. नरपीठस्य चोचं तु उत्तरङ्गस्य मस्तके । कृत्वा दश सार्दानि भागैकं राजसेनकं ॥१०॥ वेदिका च द्विभागा तु भागार्द्धासनपट्टकं । स्तंभश्चैव चतुर्भागा भागाध भरणं भवेत् ॥११॥ शरं च भागमेकेन पट्टश्च साई भागकः । कन्यसं च समाख्यातं मध्यमं चमतः शृणु ॥१२॥ મહાપ્રાસાદને નરથરના મથાળાથી દ્વારના ઓત્તરંગના १ राजसेवक २ वेदिका મથાળા સુધીની ઊંચાઈના (મુખ પ્રાગ્રીવ મંડપના) સાડા ॥ आसरपद દશ ભાગ કરવા. તેમાં એક ભાગનું રાજસેનક. બે ભાગની ४ स्तंभ व मन मानानुसासनपट (मआसराट)- ४२वो. ॥ भरणी તે પર ચાર ભાગને સ્તંભ–અરધા ભાગનું ભરણું એક ભાગનું શરૂ અને દોઢ ભાગને પાટ ભાડે કરે એ રીતે १०॥ भागउदय सा. ६ मा भपना ध्यान निष्ठमानना Myat. हवे मध्यमानना मध्य सामगो. १०-११-१२. महाप्रासादके नरथरके शीर्षकसे द्वारके ओत्तरंगके शीर्षक तककी ऊँचाई के - (२) अतिसूत्र १८५मां शुमा माटे छे. "तदयें न च कर्तव्यः मधःस्थं नैव दूषयेत् । शुकनासनी यी न ४२वी पनीय होय होप नथा. मंडनस्त्रधार ५५५ तेभ छ “न्यूनाश्रेष्टा न खाधिका । (२) अपराजितसूत्र १८५ में शुकनानाके लिये कहते हैं। तद न च कर्तव्यः मधः स्थं नैव दूषयेत् । शुकनाशकी घंटाको ऊँची न करना लेकिन नीचे हो तो दोष नहीं है। मंडन सूत्रधार भी जैसा कहते हैं। न्यूना श्रेष्टा न चाधिका । भाग १ सरु १॥ पाट Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ अथ मंडपाधिकार (मुख प्राप्रीवा मंडपके) साढ़े दस भाग करना । उसमें एक भागका राजसेनक दो भागकी वेदिका और आधे भागका आसनपर (आसरोट) करना। उसके पर चार भागका स्तंभ-आधे भागका भरणा एक भागका शरा और डेढ भागका पाट मोटा करना । इस तरह साढ़े दस भाग मंडपके उदयके कनीष्ठमानको जानना । अब मध्यमानका उदय सुनो । १०-११-१२. उनकायकसयामस्थ AN पाद ज Hin १ Birendra , - 4e | भाग...---.-" AMI त ----ध-भाग-.--.. - उपथ 30भाग माग ----11 - E अंn डागेवय -- Diary भा भाग-.- परिका * ..- ••----२-भाग-2011-.--14 नेरिका भाग ---- ....--..नामकरणीय काउ +-3दीरमग घर SA - - - PRADE Marupakammutton रबर पा मारय कनिसमान उदय आधारसम योग्य ज्यमाउस साधारभक्षम बिया ग्रास मान.ओ.स्ययति. मीठ. सांधार निरधार प्रासादके स्त्रीक मंडपका कक्षासन युक्त स्तंभादि उदय प्रमाण Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११६ कामांक अ.-१५ ભાગ ૧ રાજસેવક नरपीठस्या चोवंतु कूटछाद्यस्य मस्तक । ૨ વેદીકા कृत्वा दश सााशान् पूर्वमानेन मध्यमम् ॥१३॥ - આસન પર ૪ સ્તંભ નિરધાર પ્રાસાદના મંડપની નરથરના મથાળાથી છજા ૦માં ભરણું સુધીની ઊંચાઈના સાડા દશ ભાગ કરી આગળ જે વેદિકાને ૧ સટ્ટ ૧૧ ૫ટ ખંભાદિના ભાગ કહ્યા પ્રમાણે કરવાથી મધ્યમાન જાણવું. ૧૩. १० भाग निरंधार प्रासादके मंडपकी नरथरके शीर्पकसे छज्जे तककी ऊँचाईके साढ़े दस भाग कर आगे जो वेदीकाके स्तंभादिके भाग कहे. उसके अनुसार करनेसे मध्यमान जानना । १३. नरपीठरय चोर्ध्वं तु यावद् भरणी मस्तके । भागाश्च दशसार्द्धशां ज्येष्ठमानं विधीयते ॥१४॥ સાંધાર મહાપ્રાસાદના નરથરના મથાળાથી અંડેવરની ભરણીના મથાળ સુધીના ત્રીક મંડપના ઉદયના સાડાદશ ભાગ કરી તેમાં આગળ કહેલા ભાગમાન પ્રમાણે વેદિકા ખંભાદિ કરવા. આ એકમાન જાણવું. ૧૪. सांधार महाप्रासादके नरथरके शीर्षकसे मंडोवरकी भरणीके शीर्षक तकके त्रीक मंडपके उदयके साढ़े दस भाग उसमें आगे कहे हुए भाग मानके अनुसार वेदिका स्तंभादि करना । यह ज्येष्ठमान जानना । १४. नरश्च भरण चैव सार्द्धदश भाग समुच्छ्रयं । दंड छाद्यं द्विभागं च निर्गमं च विनिर्दिशेत् ॥१५॥ भागार्धे च कपोतालि पालके मंडप शुभं । भागाद्यं पद विस्तारं ततो वृतं च भ्रामितं ॥१६॥ (૩) નિરધાર પ્રાસાદમાં છજુ અને પાટ એકસૂત્રમાં જ હોય તે પ્રમાણે અહીં શ્લોક ૧૪ પ્રમાણે મંડપના છોડનું કહ્યું છે. બાકી સાંધાર પ્રાસાદમાં એરંગના મથાળા જેટલી મંડપની ઉભણી અગર તે ભરણુ જેટલી ઉભણી રાખવાનું હોય. આનું તારંગામાં दृष्टांत छ. (३) निरंधार प्रासादमें छज्जा और पाट अॅक सूत्रमें ही हो, जिस तरह यहाँ श्लोक १४ के अनुसार मंडपके पौधेके लिये कहा है। बाकी सांधार प्रासादमें ओतरंगके शीर्षकके बराबर मंडपका उदय अगर तो भरणीके बराबर उदय रखनेका होता है। इसका दृष्टांत तारंगामें है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडाधिकार રા નરપીઠથી ભરણી સુધીના ઉયના સાડાદશ ભાગમાં દોઢ ભાગનું દંડ છાઘદાંતીયું છઠ્ઠું કરવું. અને નીકાળે પણ તેટલા એ ભાગના રાખવા, તે પર (દાખડી પર) અરધા ભાગનેા કેવાળ અને પાલ માંડપ ઉપર બહારના ભાગમાં કરવા તે શુભ જાણવું. અંદર પદ્મ વિસ્તારથી હાંશે વગેરે થર કરતા ગાળ खा. १५-१६. नरपीठसे भरणी तक के उदयके साढ़े दस भाग में देढ भागका दंड-छाथदांतीया छज्जा निर्गम करना । और निकाला भी उतना दो भाग का रखना । चतुष्कीका की छत शिलिंग-वितान उसके पर ( दाबड़ीके पर ) आधे भागका केवाल और पाल मंडपके बाहरके भागमें करना । उसे शुभ जानना । अंदर पद विस्तारसें हांशो वगेरा थर फिरता गोल करना । १५-१६. वितानानि विचित्राणि क्षिप्तान्युक्षिप्तकानि च । समतला नि ज्ञेयानि उदितानि त्रिधाक्रमात् ॥ १७॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरार्णव अ.-११६ क्रमांक -१८ હસતાજ્જૈવ વિતાનાનિ કોશ ! प्रोक्ताश्च विविधाञ्छंदा लुमा स्तत्रत्वनेकधा ॥१८॥४ II S : IPE I : *: ( . * જે ધ નનજર वितानका प्रकार-क्षिप्तानुक्षिप्त-तलदर्शन और छेद दर्शन (૪) વિતાન એટલે આકાશ ચંદરવો, મંડપનું વિતાન એટલે ઘુમટ છત, કેલ કાચલા વાળા ઘુમટ સારા કામોમાં થાય છે તે શીપીઓ પોતાની બુદ્ધિથી સુંદર કરતા રૂપકંઠ ઉપર એક કેલ, એક ગવાળ વળી કેલ એમ ક્રમે ક્રમે એકેક કરી મધ્યમ ઝુમર જેવી પદ્ધશિલા અલંકૃત થાય છે. કેટલાક ત્રણ કેસ અને એક ગવાળને થર એમ પણ રડાવે છે. ગેળ રૂ૫કંઠમાં દેવરૂપ-કથાના દો તરે છે. કેઈ બ્રાસ કે હંસના ૩૫ કરે છે. જૈન પ્રાસાદમાં ચાલીશ તીર્થકર તેમના ચાયણી સાથે કરે છે. મધ્યમાં પદ્મશિલા સ્થાપનનું વિધિથી મુહુર્ત થાય છે. કારણ કે તે ઘણું જોખમી કામ છે. કેલ કાલાવાળું કામ ઘુમટનું કીંમતી કામ ન કરવું હોય તો ૫-૭-૯ કે ૧૧ થરે ગલતા ગલતાના નીકાળા કાઢીને ઘુમટ કરે છે. આ છેલી સાદી રીત સોળમી સદી સુધી હતી. મુસ્લીમ રાજ્ય કાળમાં સાદા ઘુમટે થવા માંડયા તેમાં ધ્રુવમાં સાંધો રાખવામાં આવે છે. વિતાનના ૧૧૧૩ વિવિધ પ્રકારે શિલ્પશાસ્ત્રમાં કહ્યા છે. તેમાં કોલ કાલાના થરો થાય તે ઉપરાંત લુમ લામસા મળના નીકાળાથી સંચી ગળ અગર રસ પણ કામ થાય છે. મુસ્લીમ રાજ્યકાળમાં ઘુમટે અંદર બહાર સાદા થવા માંડયા. તારાનું સ્થાન કમાને લીધું. ઘુમટની બહાર ઉપર સંવરણુને બદલે સન્યાસીના-મસ્તક જેવા ગેળ ઘુમટ થવા માંડયા. સંવરણુંની રચના સુંદર છે. જોકે તેવું વર્તમાન કાળમાં થોડા ફેરફાર સાથે સંવરણ શિલ્પકાર કરી રહ્યા છે તે શુભચિહ છે. (४) विप्तान अर्थात् आकाश, चंदरवा, मंडपका धितान अर्थात् गुंबज छत, कोल Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ খ্রয় ম্যাথিকা અનેક પ્રકારના વિતાને-ઘુમટ વિચિત્ર પ્રકારના થાય તેમાં મુખ્ય ત્રણ ले छे. १. क्षिप्तानुक्षीप्त भेटले आयलाना थरी ये यडी वणी नीय उतरे તે ઘાટ (૨) સમતલ– સરખા છાતિયા જેવા કે પટ્ટની જેમ તેમાં આકૃતિઓ પણ કેતરે. (૩) ઉદિતાનિ– એટલે કેલ કાચલના ઊંચા ઊંચા ચડતા થરને FIC AT NEE ANSESS Ky 3.55.44653 H16 CASHTRA A SOTES992255ple PRODIASEANTRA indiगरम KuMORA PARIYAR OMMEDIA SimRSS MES SAMARIWAVE AAVAAHATMAL infine गजतालु और कोल का थरों से अलंकृत वितान (गुम्बज) का तलदर्शन-उदित (२) काचलावाला गुंबज अच्छे कामोंमें होता है । ये शिल्पीओ अपनी बुद्धिसे सुंदर करते है। रूपकंठके उपर अक कोल अिसी तरह क्रमसे अक अेक कर मध्यम झुम्मरके जैसी पद्माशीला अलंकृत होती है। कभी लोग तीन कोल और अक गवालुका थर जिस तरह भी चढ़ाते हैं। गोल रूप कंठमें देवरूप कथाके दृश्योंको कोतरते हैं। कभी लोग ग्रास या हँसके रूप करते हैं। जैन प्रासादमें चौबीस तीर्थकरोंको उनके यक्ष यक्षणियों के साथ करते हैं। पद्मशिला स्थापनका Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ-११६ क्रमांक अ.-१८ ઘુમટ, એ રીતે વિતાન છત ઘુમટના ત્રિવિધ પ્રકાર જાણવા. તેની જુદી જુદી આકૃતિઓ એક હજાર એકસે તેરની વિવિધ છંદની લુમ મદલેના પ્રકારની કહી का -... -.acte:- edita LENERGICHANDSOMCHAND P O DELILIK GODIDIKKINCIDCOKINGKIRKLACEWIN LikhuDOCODEODEDITORS 22 SUFORIGeney SCEL. ISISAIRATी . वालाहयाकल Galaa 42 48444 गजतालु और कोल से अलंकृत वितान (गुम्बज) का दर्शन और छेद दर्शन उदित (१) विधिसे मुर्हत होता है क्योकि वह बहुत खतरेवाला काम है। कोल काचलावाला काम गुंबजका कीमती काम न करना हो तो ५-७-९ या ११ थरों गलते गलतेके निकाले निकालकर [वज करते हैं। यह अंतीम सादी रीत सोलहवीं सदी तक थी। मुस्लीम राज्य कालमें सादे गुंबज होने लगे। उसमें ध्रुवमें सधान रखा जाता है। वितानके १११३ विविध प्रकारों शिल्पशास्त्रोमें कहे हैं । उसमें कोल काचलेके थरों होते है, तदुपरांत लुम लामसा मदलोंके निकालेसे संकोचकर गोल या चोरस भी काम होता है। मुस्लीम राज्यकालमें गुंबज अंदर बाहर सादे होने लगे। झलका स्थान कमानने लिया । गुंबजके Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माय मंडपाधिकार છે. તેમાં શુદ્ધ સંઘાટ (સમતલ) મિશ્ર સંધાટ ઊંચા નીચા તલવાળા ક્ષિપ્ત લટકતા કાલાવાળા ૪ ઉક્ષિપ્ત-ઉંચા ચડતા કાચલાના થરેવાળા એવા પ્રકારના અનેક વિતાને કહ્યા છે. મુખ્ય ત્રણ ભેદ છે. ૧૭–૧૮. __ अनेक प्रकारोंके वितानों-गुंबज विचित्र प्रकारके होते हैं। उसमें मुख्य तीन भेद हैं । १ क्षिप्त उक्षिप्त-अर्थात् काचलोंके थर उँचे चढ़कर और नीचे उतरे वैसा घाट २ समतल-समान छातिये जैसेकि पट्टकी तरह उसमें आकृतियोंको भी कोतरें । ३ उदितानी-अर्थात् कोल काचलेके ऊँचे ऊँचे चढ़ते थरोंका गुंबज इस तरह वितान छत गुंबजके त्रिविध प्रकार जानना । उसकी भिन्न भिन्न आकृतियाँ एक हजार एकसौ तेरहकी विविध छंदकी लुम मदलादिके प्रकारकी कही गई हैं । उसमें शुद्ध संघाट (समतल) २ मिश्र संघाट-ऊँचे नीचे तलवाले ३ क्षिप्त-लटकते काचलेवाले ४ उक्षिप्त-ऊँचे चढ़ते काचलेके थरोवाले ऐसे अनेक प्रकारके वितानों कहा हैं, मुख्य तीन भेद हैं । १७-१८. ЯКЕЗДЕ ЕКСКУКУКТVEXXXXXXXXх, кто काशलामालालाबालिकामावालपाली តថា -३३ भाग उपय-..... CAWORUSZAM ESTITKES WIKITENING जमालु HERE HERBापासमा -- वितान विस्तार माग प्रभाकर यति गजताल और कोलादि थरो युक्त वितान (गुम्बज) विस्तार भाग ६६ उदय भाग ३३ . बाहर उपर संवरणाके बदले सन्यासीके मस्तक जैसे गोल गुम्बज होने लगे। संवरणाकी रचना सुंदर है.। यद्यपि वैसा वर्तमान कालमें कुछ फेरफारके साथ संवरणा शिल्पकारों करते है। यह शुभ चिह्न है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ क्षीरार्णव अ.-११६ क्रमांक अ.-१८ अष्टास्त्रे षोडशास्त्रे च वृतं कुर्यात्तदृतः । उदयं विस्तरार्धेन षट षष्टि विराजिते ॥१९।। कर्ण ददरिका सप्त भागेन निर्गमोतुच्छता । रूपकंठे तु पंचभाग द्वयभागेन निर्गमम् ॥२०॥ षोडशाष्टार्क जिन संख्ये विद्याधर निर्गमम् । तदूचे चित्ररुपा देवाङ्गना नृत्य शोमिता ॥२१॥ गजतालु षडमागं प्रथमा द्वितीया तु षष्ठ । पंचभागं भवेत्कोलं चतुर्भाग द्वितियके ॥२२॥ मध्ये वितान कर्तव्यं चित्रवर्ण विराजितम् । एवं तु कारयेन्नित्य वितानेक सुमंडिताम् ॥२३॥ મંડપના અંદર ઉપરના ભાગમાં અઢાંશ સેળાંશ (અત્રીશાંશ) આદિ થશે કરી ગેળ થર ફેરવવાં. ત્યાં તેના વિસ્તારના છાસઠ ભાગ કરી તેના ઉદયના અર્ધ–એટલે તેત્રીશ ભાગ જાણવા. કણ દાદરીને થર સાત ભાગને અને તેને નિકાળે પણ તેટલે જ કરે. તે પર રૂપકંઠ ને થર પાંચ ભાગને, તેને નિકાળે બે ભાગને રાખવે. તે રૂપકંઠના થરમાં આઠ, બાર સેળ કે વીશ એમ સંખ્યામાં વિદ્યાધરે ના નિકળતા સ્વરૂપે કરવા, ને વિદ્યાધર. ઉપર ચિત્ર વિચિત્ર એવી દેવાંગનાઓ નૃત્યથી શેભતી કરવી. પહેલે ગવાળને થર છ ભાગને અને-બીજે તે પર ગવાળને થર પણ છ ભાગને કરે. પાંચ ભાગને કેલને થર કરી તે પર ચાર ભાગને બીજે કેલને થર કરે. (એ રીતે કુલ તેત્રીશ ભાગ ઉદયના જાણવા) તેની મધ્યમાં લટકતી ઘણુ કતરણીવાળી પદ્મશીલા કરવી એવા લક્ષણ યુક્ત વિતાન-ઘુમટ હંમેશા તારામંડળ જે સુભિત. ४२३१. १८ थी २3. मंडपके अंदर उपरके भागमें अठाश सोलांश (बत्तीसांश) आदि थरोंको बनाकर गोल थरको फिराना । वहाँ उसके विस्तारके छियासठ भागकर उसके उदयके अर्ध अर्थात् तैतीस भाग जानना । कणी दादरीका थर सात भागका और उसका निकाला भी उतना ही करना । उस रूपकंठके थरमें आठ, बारह सोलहया चौबीस इसी संख्यामें विद्याधरोंके निकलते रूपों करना । उस विद्याधरके उपर चित्र विचित्र ऐसी देवाङ्गनाओंको नृत्यसे शोभित करना । पहला गवालुका थर छ: भागका और उसके पर दूसरा गवालुका थर भी छः भागका करना । पाँच भागका कोलका थर कर उसके पर चार भागका दूसरा कोलका थर Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितान छतके क्षिप्तानुक्षिप्त प्रकार (पंचासरा पाटण) मूर्ति निर्माण कर्ता गुजरातके सुप्रसिद्ध शिल्पकलाविद श्री चंदुलाल भ. सोमपुरा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस CABAC देवदेवाङ्गनादि : स्वरुप सहित कौल और गजतालु (६वालुं के थरयुक्त वितान ( गुम्बज ) जबर जख समतल ( छतयुक्त ) वितानका एक प्रकार ( आरासण - अंबाजी ) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेथे मंडाधिकार २०९ करना । ( इस तरह कुल तैतीस भाग उदयके जानना । ) उसके मध्य में लटकती बहुत ही कँडारी हुई पद्मशिला करना । ऐसे लक्षण युक्त वितानबज हमेशां तारा मंडल जैसा सुशोभित करना । १९ से २३. (सुभद्र ३२तं ૨૭ पुष्पकोऽथ चतुषष्टि आधे द्वारा स्तंभा | पुष्पकाद् द्वौ द्वौ हीनाः स्युः मंडपाः सप्तविंशति ॥२४॥ फॉलो शत्रुमर्दन ઉધરસમ ભા हर्षण સરનેમ ୯ श्यामद्र IC સેમ मानव उस्तंभ फोटो सिंहक ३६ स्तंभ युष्य काहि मण्डपो. સુત્રધર ३६ स्तंभ सुग्रीव રઘો नंदन ३०स्तंभ कौली ย धार्मिक ३८ स्तंभ अभीशंकर ओशिय पुष्पकादि २७ मंडप सरूप ( १ से १४ ) (१) कर्णिकार २० स्तंभ विभान भद्र २६ स्तभ T भूजय विशालाक्ष् Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० क्षीरार्णव अ.-११६ क्रमांक- अ.-१८ ૫ પુષ્પકાદિ ચોસઠ તંભના મંડપને આ પહેલે મંડપ બાર સ્તંભેને સુભદ્ર નામથી બબ્બે સ્તની વૃદ્ધિ કરતા. એસઠ ના પુષ્પક મંડપ થાય, તેનાથી બમ્બે સ્તંભ ઓછાં ઓછ કરતાં-ર૭ મંડપ થાય. (તેનાં નામે અને સ્તંભ સંખ્યા નીચે ફૂટનેટમાં આપેલ છે.) ५पुष्पकादि चौसठ स्तंभोंके मंडपोका आय पहला मंडप बारह स्तंभोंका सुभद्र नामसे दो दो स्तंभोंकी वृद्धि करते चौसठ स्तंभोंका पुष्पक मंडप होता - (५) (१) अपराजित सत्र संतान अ. १८६ मा पुपाहि २७ भयोना स्व३॥ स्तन સંખ્યા સાથે બહુ સ્પષ્ટ વિગતથી તેની રચના કેમ કરવી તે સાથે આપેલાં છે. તેમજ मत्स्यपुराणमा पर तनां नाम सध्या साथे सापेक्ष छे. () समराङगण सत्रधार अ. ६. માં મંડપોનાં નામે સ્તંભ સંખ્યા અને સ્વરૂપ અસ્પષ્ટ અને અશુદ્ધ આપેલા છે. (૨) मत्स्यपुराण अ. २७० मा तनाभ। सने स्तन सय डी छे. विश्वकर्मा प्रकाश भां पर સત્તાવીશ મંડપનાં નામ અને સ્તંભ સંખ્યા આપેલાં છે. પરંતુ સ્વરૂપ આપેલા નથી. અહીં પુષ્યકાદિ ૨૭ મંડપ સ્તંભ સંખ્યા સાથે તેનું કેષ્ટક ક્રમબદ્ધ આપેલ છે. જુદા જુદા એમાં ડાં નામ ફેર જોવામાં આવે છે. દીપાર્ણવમાં તેના સ્વરૂપ વિગતથી આપેલા છે. .(५)(१) अपराजित सूत्र संतान अ-१८६में पुष्पकादि २७ मंडपोंके स्वरूपों स्तंभ संख्याके साथ बहुत स्पष्ट विगतसे उसकी रचना कैसे करना यह सब साथमें दिया हुआहै और मत्स्य पुराणमें भी उसके नाम संख्याके साथ दिये है। (२) समराङ्गणसूत्रधार अ. १७ में मंडपोंके नाम स्तंभ संख्या और स्वरूपों अस्पष्ट और अशुद्ध है। (३) मत्स्य पुराण अ. २७०में सिर्फ नामों और स्तंभसंख्या बतायी गयी है। विश्वकर्मा प्रकाशमें भी सत्ताीश मंडपोंके नाम और स्तंभ संख्या बतायी गयी है परंतु स्वरूप नहीं बताया है । यहां पुष्पकादि २७ मंडपों स्तंभ संख्याके. साथ उसका कोष्टक क्रम बद्धदिया हुआ है । भिन्न भिन्न ग्रंथोंमें कुछ नामफेर देखने में आता है। दीपार्णवमें उसका स्वरुप विगतसे दीया गया है। स... स्तंभ स्तंभ .. स्तंभ स्तंभ सुभद्र १, सुभद्र : १२६ हर्षण २२११ भूज ३२१६ श्रीधर । ५२.२१ गजभद्र .५२ ..२ श्यामभद्र १४ (हरित) : (भागपंच) २२ बुधिसंकिर्ण ५४ (यति जय) २ ३ कौशल्य ५६ (सिंहभद्र) सुग्रीव २४१२. शत्रुमर्दन ३४:१७ धारतुकीर्ति ४२४ मृगनंदन ५८ ३. सिंहक १६८ विमानभद्र २६.१३ सुश्रेष्ठ ३६१८ विजय ४६ (अमृतनंदन) शतधिक पदाधिक, १८९ मानध २८१५ विशालाक्ष ३.८ १९ श्रीवत्स ४८ २५. सुप्रभ... ६० ४ (शर्धिक): 7 (सुवृत) । २६ पुषभद्र ६२ ५ कर्णिकार २०१०नंदन ३०१५ यज्ञभद्रे ४०२० जयावद ५०२७ पुष्यक ६४ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार है । उससे दो दो स्तंभों कम कम करते सत्ताईस मंडपों होवें (उनके नाम) और स्तंभ संख्या नीचे फूटनोट में दिये हैं ।) ke Noभा । । । । FODTE - - -विजय IMW भविस -2 अया म - - T - - -- पुष्पका दि मण्डयो. - - - -24 २१ गजमद बहसमिती --- %3D - - -- -R५म -1/ mit पुष्पकादि २७ मंडप स्वरूप ( १५ से २३) ९) एक त्रिवेद षट् सप्त नव चतुरिककान्वितः । अग्रे भद्रं द्विपार्श्वे द्वेचानपार्श्वद्वयो स्तथा ॥२५॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સત્તાવ અને માં ૬૮ अग्रतस्त्रि चतुष्कयश्च तथा पार्श्व द्वयोऽपिच । મુળ વતુૌ જોતિ દશ મve: રા. ૧) એક પદની ચોકી સુભદ્ર (૨) ત્રણ પદ કીરિટ (૩) ત્રણ પદ આગળ વિક દુભિ (૪) છ ચેક પ્રાંત (૫) છકી આગળ ૧ ચેકી મનહર (૬) નવ શિક શાંત મંડપ (૭) તવ ચકી આગળ ૧ ચાકી (નંદ) (૮) નવ કીની બાજુમાં બે શેકી (૧૧ પદ) સુદર્શન (૯) સુદર્શનના ૧૧ પદ આગળ એક એક કમ્પક (૧૦) આગળ ત્રણ ચેકીના ૧૪ પદ સુનાભ (૧૧) સુવાભાઈ એલી બે ચેક ને પાછળ બે તરફ એકેક પદ વધારતા ૧૬ પદને સિફિક धुधकादि२७की सन Tી માને. દિન 1 - - જ છે :: -~ - - , રૂalf ૨૦ મંડપ (૨૪ ૨) (૨) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार शिवादिम - - - की याद २० पिन --- ------ BIO O -O-------- - 10--- ५० .-------- २यदा चाकमयऽय --- २स्सा (१२) पाय पहनी पति આગળ ત્રણ ચેકીના ૧૮ पनी सूर्याभ 20 प्रमाणे બાર પ્રકારના પ્રાચિવ ચેકી भ७५ णुवा. २५-२६. (१) एक पदकी चौकी सुभद्र (२) तीन पदका किरिट (३) तीन पदके आगे एक चौकी दुंदुभि (४) छः चौकी प्रांत (५) छः चौकीके आगेकी चौकी मनोहर (६) नौ चोकीका शान्त मंडप (७) नौ चौकीके आगेकी चौकी (नंद) (८) नौ चौकीकी बाजुमें दो चौकी (११ पद) सुदर्शन (५) सुदर्शनके ११ पदके आगे एक चौकी रम्यक (१०) आगे तीन चौकीके १४ पद सुनाभ (११) सुनाभकी बाजुकी चोकी और पीछे दो तरफ एक एक पद . ---- - नाम: --------- - . .-. ------ ---- - . . शात 0. 03 ---- ---- -------- - -0 - - --.. फिल्मकाज पायका बढ़ाते १६ पदका सिंहक (१२) पाँच पदकी तीन पंक्तिके आगे तीन चौकीके Again.ओ.यानि ---- ---- निगूढ आगे सुभदादि त्रीक द्वादश मंडप चौकी तरह बारह प्रकारके प्रानिव चौकी मंडप जानना । २५-२६. सुभद्रस्तु किरीटं च दुन्दुभिः प्रान्त एव चः । मनोहरश्च शान्तश्च नन्दाख्याश्च सुदर्शनः ॥२७॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. ११६ क्रमांक अ. १८ रम्यकश्च सुनामश्च सिंहः सूर्यात्मकस्तथा । निगूढाग्रे त्रिकेख्यातं द्वादश मुखमण्डपाः ॥२८॥ ઉપરનાં સ્વરૂપવાળા બાર મંડપનાં નામ ૧. સુભદ્ર ૨. કિરીટ ૩. દુન્હભિ ४. प्रान्त ५. मनाइ२६. शांत ७. नहान्य ८. सुशन ६. २भ्य: १०.सुनाल ૧૧. સિંહ ૧૨. સૂર્યામક એ બાર મુખમંડપ ગુઢ મંડપની આગળ સ્ત્રીકરૂપ मा२ मं५ वा. २७-२८. . .. उपरके स्वरूपवाले बारह मंडपोंके नाम १ सुभद्र २ किरीट ३ दुंदुभि ४ प्रान्त ५ मनोहर ६ शांत ७ नंदाख्य ८ सुदर्शन ९ रम्यक १० सुनाम ११ सिंह १२ सूर्यात्मक इन बारह मुखमंडपको गुढमंडपके आगे स्त्रीक रूप बार मंडप जानना । २७-२८. क्षीरार्णवे समुद्भूता मेरवादि मंडपाः मेरु ग्येलोक्य विजयांत् संख्यायां पंचविंशति ॥२९॥ भित्तिद्वार प्राग्रीवांश्च भूमिका मांडमुच्छयम् । समत्तावरणच्छाय संवरणं वितानकम् ॥३०॥ ક્ષીરાણુંવથી ઉદ્ભવેલા એવા મેરવાદિ મંડપ મેરૂથી ચૅલય વિજય સુધી પચીશ સંખ્યાના મંડપ છે. તે ભીંતેવાળા દ્વારવાળા પારિવારિરૂપ મજલાવાળા ઊંચા કરવા. તે કક્ષાસન યુક્ત મત્તવારણ વાળા વિતાન-ઘુમટ અને સંવરણથી છાયેલા કરવા. ર૯-૩૦. क्षीरार्णवसे उत्पन्न मेखादि मंडपां मेरूसे ज्यैलोक्य विजय तक पच्चीस संख्याके मंडप हैं। उनको दिवारोंवाले द्वारवाले प्रानिधादिरूप मजलेवाले ऊँचे करना । उनको कक्षासन युक्त मत्तवारणवाले वितान-गुंबज और संवरणेसे छाये हुए करना । २९-३०. मेवादि मंडप लक्षण-लक्षणानि स प्रोक्तानि कथयामि समासतः । चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे अष्टधा प्रविभाजिते ॥३१॥ भवेन्मध्ये द्विभागस्तु चतुष्काः संवृतौ धरै । अलिंद भागिकं कुर्याद् द्वादश स्तंभैः शोभित्तम् ॥३२॥ હવે હું મેરવાદિ મંડપનાં લક્ષણે કહું છું. સમરસ ક્ષેત્રને આઠ ભાગ કરવા એટલે ૪૪૪ ભાગથી વિભાજિત કરવું. (એટલે ૧૬ પદ થયા) તેમાં વચલા ચાર વિભાગનું એક પદ કરી, ફરતી ચારે દિશામાં બબ્બે ભાગની પહેલી Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार ચતુષ્કિકા કરવી. અને તે ચતુર્કિકા = અલિંદ એકેક ભાગ નીકળતી કરવી તે पडला मार स्तमना भ७५ शामती ४२३.. 31-3२. ___ अब मैं मेखादि मंडपके लक्षण कहता हूँ। समचोरस क्षेत्रको आठ भागसे अर्थात् ४४४ भागसे विभाजित करना । (सोलह (१६) पद हुए।) उसमें मध्यके चार विभागका एक पद कर फिरती चारों दिशाओंमें दो दो भागकी चौडी चतुष्किका करना । और वह चतुष्किका = आलिंद एक एक भाग नीकलती करना । उससे पहले बारह स्तंभका मंडप सुशोभित करना । ३१-३२. . द्वितियो विंशति स्तंभ रष्टाविंशतिः परैः। भद्रं तु भाग निष्कांश पड़ भागं चैव विस्तरे ॥३३॥ બીજે મંડપ વીશ સ્તભને (એટલે ઉપરના બાર રસ્તંભના સ્વરૂપને ફરતું ભદ્ર ચારે તરફ બબ્બે સ્તંભોનું ચોકીનું કરવું) અને ત્રીજો મંડપ અઠ્ઠાવીશ સ્તોને જાણો. તેમાં એકેક પદ નિકળતું (ત્રણ પદ પહોળું) કરવું–આ મંડપ ७ ७ मा विस्तारमा (पुस छत्री भागम) ४२२१-33. दूसरा मंडप बीस स्तंभका (अर्थात् उपरके बारह स्तंभके स्वरूपको फिरता भद्र चारों तरफ दो दो स्तंभोंकर चौकीका करना । और तीसरा मंडप अढाईस स्तंभोंका जानना । उसमें एक एक पद निकलता (तीन पद चौडा ) करना । यह मंडप छः छः भाग विस्तारमें (कुल छत्तीस भागमें ) करना । ३३. प्रतिभद्रं ततो भागे चतुर्भागं विस्तरम् । द्विभागायाम विस्तारः प्राग्रिवः स्याच्चतुर्दिशि ॥३४॥ (સેળ પદમાં બાર સ્તવાળા મંડપને ચારે તરફ) ચાર ભાગ વિસ્તારનું ( ५६ नीतु) प्रतिभद्र यारे त२३ ४२७, तनाथी भाग ( मा નીકળતી અને બે ભાગની લાંબી વિસ્તાર ચતુષ્ઠિકા–પ્રાઝિવ અલિંદ ચારે તરફ કરવી. આમ મંડપ (છત્રીશ તંભનો) જાણુ. ૩૪. (सोलह पदमें बारह स्तंभोंवाले मंडपको चारों ओर ) चार भाग विस्तारका (एक पद नीकलता) प्रतिभद्र चारों ओर करना । उससे आगे (एक भाग) नीकलती और दो भागकी लम्बी विस्तार चतुष्किका-प्राग्रीव अलिंद चारों ओर करना । इस तरह चौथा मंडप (छत्तीस स्तंभोंका ) जानना। ३४. सूर्योत्तरशतंस्तंभा भूमिका पंचधोच्छिता । मेरुमंडप उक्तश्च द्विभौमोर्ध्व च मांडतः ॥३५॥ दौ द्वौ स्तंभी इस्व योगान्मंडपाः स्युरनुक्रमात् । . . चतुषष्टि स्तंभ कान्त मंडपा: पंचविंशतिः ॥३६॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. ११६ क्रमांक ..१८ એક બાર સ્તંભોને બે મજલાથી પાંચભૂમિ મજલા સુધીને મેરૂમ૫ જાણુ. એ બાર સ્તંભોથી બબ્બે સ્તંભોના ઓછા ઓછા કમથી અનુક્રમે ચોસઠ સ્તંભ સુધીના પચીશ મંડપ જાણવા (ચેસઠ સ્તંભોને ચેલેક્ય વિજય भ७५ मे भिनी oneya) ३५-३६. एक सौ बारह स्तंभोंका दो मजलोंसे पाँच भूमि-मजले तकका मेरूमंडप जानना । एक सौ बारह स्तंभोंसे दो दो स्तंभोंके कम कम क्रमसे अनुक्रमसे चौसठ स्तंभों तकके पच्चीस मंडपों जानना । (चौसठ स्तंभोंका त्र्यैलोक्य विजय मंडप दो भूमिका जानना। ३५-३६. एक भूम्यादि पंचभूम्या गर्भसूत्रानु सारतः । 'छाद्यादधत्यं पदान तथा पद्मसंभवा ॥ ३७॥ "जंघाकार्या सातस्या नवधा पंचलक्षणं । 'जंघाछाद्य समोदधः षोडशांश मथोर्धत् ॥ ३८ ॥ उत्तरंगोतर सूत्रेण प्राय पट्टानसंशयः। गर्भछाधं तुलाधस्ता'' शाखोत्सशचोर्ध्वत् ॥३९॥ एतत् क्षेत्रस्य मित्युक्तं ब्राह्मपदं न संशय । मंडपाने द्वितीयांश्च१२ युग्मपदं यदा भवेत् ॥४०॥ द्वार चानिक्रमं यत्र। भारषटुं न संशयः । द्वारस्या यत' त्रिभागं च ' पद दशांश विधियते ॥४१॥ न दोषो समाख्यातो स्ताल भेदो न योजयेत् । अलिंदास्यैवलिंदस्य "सम सूत्रानुसारतः॥४२॥ बाह्यलिंदं च कर्तव्यं किंचिन्मूलाधिकं शुभं । गभसूत्रानुसारेण मध्यदेवा चतुष्किदा ॥४३॥ (६) छाद्यादू_द्विपदरयात् (७) अंघोऽर्धेतु तथा कार्या (८) पद (९) जंघोत्सेधंसमोदयं (१०) समोर्धतः (११) तत्सेधस्था (१२) तृतीयस्तु (१३) यस्यद्वारपट्ट (१४) द्वारस्था (१५) सावद् (१६) भ्रम (१५) मंडपंकास्यदे बुधः। (૧) શ્લોક ૩૭ થી ૪૩ સુધીનાં સાત શ્લેકના પાઠ ભેદની સ્પષ્ટતા કઈ વિદ્વાન શિપી દ્વારા થશે તો તે નવી આવૃત્તિમાં સાભાર સ્વીકારીશ. અશુદ્ધ પાઠવાળી પ્રતે પરથી અમે જે આપી શક્યા છીએ તેનાથી અમે સંતુષ્ટ નથી. (१८) लोक ३७ से ४३ तकके सात श्लोकके पाठ भेदकी स्पष्टता कोई बिद्वान शिल्पीके द्वारा होगी तो उसे नये संस्करणमें साभार स्वीकारेंगे। हमको अशुद्ध पाठोंवाली प्रतों परसे जो पता चला है उससे हम संतुष्ठ नहीं है । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भथ मंडपाधिकार पंचभूमियुक्त मेरवादि २५ मंडप रचना क्रमांक मंडपों के नाम स्तंभ संख्या प्रथम भूमि । द्वितिय भूमि ! तृतिय भूमि चतुर्थ भूमि पंचम भूमि १ येलोक्य विजय ६४ प्रथम ३६ २८ २ लक्ष्मीविलास ६६ ३ पद्म संभव ६८ ४ विमान ५ तेजवर्धन द्वितिय भूमि -- - - - - - - २८१. ३६२८ १४ ६ प्रताप ७ सुर्याग ८ भुर्भुवा ९ पुण्यात्मा १. शान्तिदेह १. सुरवल्लभ १२ शतङ्ग तृतिय भूमि 4/ RRRRRENA २८ १६ " भूमिथुन मेदि २५ पास चन A १६ २८ १४ १० . १३ पूर्णाख्य १४ कीर्तिपताक १५ महापद्म १६ पद्मराग १७ इंद्रनील १८ शृंगवा ९.४ ३६ २८ २० १० ९. ८ A ३६२८ २०१४ १०० __ur २० १२ ६॥ 138 १९ रत्नकूट २० हेमकृट २१ गंधमादन २२ हिमवान २१ कैलास २४ मंदार २५ मेरु पंचम भूमि १२१० २६ २८ २०१२१२ ११० ३६२८ २०१२१५ ३६ २८ २०१२१६ - २८ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - क्षीरार्णव अ. ११६ क्रमांक म. १८ ભાવાર્થ –એક ભૂમિથી પાંચભૂમિ મજલાના મંડપ ઊભા બ્રહ્મગર્ભને અનુસરીને કરવા. છજા ઉપર (બે) પદની નીકળતી ચતુણ્ડિકાની રચનાવાળા મંડપનું નામ પસંભવ જાણવું. જંઘાના નવ વિભાગમાંના પાંચ લક્ષણ જાણવા. જંઘાની છાજલી બરાબરથી નીચે સળગે અંશ ઉપર લઈ જવા. ઉત્તરંગના ઉત્તર સૂત્રની બહાર પટ્ટને સંશય ન રાખ..ગભારાની છાજલીના તળાંચા નીચે શાખ.. (३८) से रीत क्षेत्रना पापह....शय....७५नी २014 मीभनेत्री ५६.....४०) दाना....मारपट्ट से सूत्रमा राणवा. द्वारा श्रीमागे....शश ५४....(४१) होष आर्य ४२. सलेह थवा न वो. मलि-यडी ઉપર ચકી સમસૂત્ર અને ગર્ભસૂત્રાનુસાર કરવી. બહારના અલિંદ = ચકી કઈક મૂળથી અધિક કરવી તે શુભ જાણવું. મધ્યની ચોકી ગર્ભ સૂત્રને અનુસરીને ४२वी. ३७ थी ४७. भावार्थ-एक भूमिसे पाँच भूमि-मजलेके मंडपों खडे ब्रह्मगर्भको अनुसरके करना। छज्जेके उपर (दो) पदकी निकलती चतुष्किकाकी रचनावाले मंडपका नाम “पमा संभव" जानना । जंघाके......तकमें नौ विभागमें पाँच लक्षण जानना । जंघाकी छाजली बराबरसे नीचे सोलहवाँ अंश उपर लेजाना। उत्तरंगके उत्तर सूत्रकी बाहर पट्टका संशय न रखना ।...गर्भगृहकी छाजलीके तलांचेके नीचे शाखों... इस तरह क्षेत्रके बाह्य पद...संशय...मंडपके आगे दूसरा और तीसरा पद... द्वारके...भारपट्ट एक सूत्रमें रखना । द्वारके तीसरे भागमें...दशांशपद...दोष रहित कार्य करना । तालभेद न होने देना। अलिंद-चौकीके उपर चौकी समसूत्र और गर्भसूत्रानुसार करना । बाहरके अलिंद-चौकी कुछ मूलसे अधिक करना । वह शुभ समझना । मध्यकी चौकी गर्भसूत्रको अनुसरके करना । ३७ से ४२ मेरुमंदर कैलासः हिमवान् गंधमादनः । हेमकूटो रत्नकूटाख्य ते शृङ्गमेव च ॥४४॥ इंद्रनीलः पद्मरागः महापद्मस्तथा परः । कीर्तिपताक-पूर्णास्यो-शतशृङ्ग सुरवल्लभ ॥४५॥ शांति देहो पुन्यात्म भूर्भुवः स्वः सूर्योग स्तथा । प्रताप तेजवर्द्धन विमानः पद्मसंभवः ॥४६॥ लक्ष्मीविलासो विज्ञेय त्रैलोक्यविजयस्तथा । पंचविंशति संप्रोक्ता मंडपा मेखादिका ॥४७॥ મેરવાદિ પચીશ મંડપનાં નામો કહે છે. ૧ મેરૂ ૨ મંદર ૩ કલાસ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ मंडपाधिकार ૪ હિમાવાન ૫ ગંધ માદન ૬ હેમકૂટ ૭ રત્નકૂટ ૮ શૃંગવા ૯ ઈદ્રનીલ ૧૦ પદ્મરાગ ૧૧ મહાપદ્મ ૧૨ કીતિ પતાક ૧૩ પુણુખ્ય ૧૪ શતશૃંગ ૧૫ સુરવલ્લભ ૧૬ શાંતિદેડ ૧૭ પુણ્યાત્મા ૧૮ ભુર્ભાવ ૧૯૯ સૂર્યાગ ૨૦ પ્રતાપ ૨૧. તેજવર્ધન ૨૨ વિમાન ૨૩ પદ્મ સંભવ ૨૪ લેફમી વિલાસે ૨૫ ગૈલોકય વિજય એમ મેરવાદિ પચ્ચીશ મંડપનાં નામે કહ્યાં. ૪૪ થી ૪૭. मेखादि पच्चीश मंडपके नामों कहते हैं । १ मेरू २ मंदर ३. कैलास ४ हिमवान ५ गंधमादन ६ हेमकूट ७ रत्नकूट ८ वैशृंग ९ इंदनील १० पद्मराग ११ महापद्म १२ कीर्तिपताक १३ पूर्णाख्य १४ शतश्रृंग १५ - सुखवल्लभ १६ शांतिदेह १७. पूण्याल्मा १८ भुर्भुव १९ सूर्या ग २० प्रताप २१ तेजवर्धन २२ विमान २३ पद्म संभव २४ लक्ष्मी विलास २५ त्र्यैलोक्य विजय-इस तरह मेरवादि पच्चीस मंडपोंके नाम कहे। ४४ से ४७. अत: प्रासादतुल्याच द्वितीया भूमिरुव॑तः । तृतीया च प्रकर्तव्या प्रासाद स्कंधहीनक ॥४८॥ मत्तवारणच्छाद्यं च संवरणाः वितानकम् । प्रासादस्याग्रतः कार्या बलाणकस्य चोपरि ॥४९॥ હવે પ્રાસાદના પ્રમાણુથી ઊંચી બીજી ભૂમિની ઉપર ત્રીજી ભૂમિ મજલે પણ તે પ્રાસાદના સ્કંધથી નીચા કરવા. મંડપને કક્ષાસન વેદિકાયુક્ત કરી ઢાંકી અંદર વિતાન ઘુમટ અને ઉપર શામરણ કરવી. આવા મેરવાદિ મંડપો પ્રાસાદ मा मने : ५२ ५६ ४२वा. ४८-४८. अब प्रासादके प्रमाणेसे ऊँची दूसरी भूमिके उपर तीसरी भूमिके मजले भी उस प्रासादके स्कंधसे नीचे करना। मंडपोंको कक्षासन वेदिका युक्त कर ढंक कर अंदर वितान गुंबज और उपर शामरण करना | इस तरह मेरवादि मंडपों प्रासादके आगे और बलाणकके उपर भी करना । ४८-४९. प्रांगणे माढरूपाढयः कर्तव्यः शुभलक्षण: । राजवेदिकासनश्च कक्षासन विभूषित: ॥५०॥ ॥इति मेरवादि मंडपाः॥ શુભ લક્ષાણુવાળા આ મેરવાદિ પચ્ચીશ મંડપિ આગળ પ્રવેશદ્વાર પર બલાણુક કે માઢ કરી વેદિકા આસનપટ અને કક્ષાસનથી વિભૂષિત કરવા. ૫૦. इति मेखादि २७ मंडप शुभ लक्षणवाले इन मेखादि पचीस मंडपोंको आगे १८. भेरवादि उपना २१३५ भने तेनी सामान्य २१३५ो अपराजितस्त्र १८८ मां ડહ્યાં છે. એ સિવાય સૂત્ર ૧૮૬માં પુપકાદિ સત્તાવીશ મંડપ લક્ષણ સાથે આપેલાં છે. સૂત્ર ૧૮૭માં વર્ધમાનાદિ આઠ ગૂઢ મં તથા સુભદ્રાદિક બારે મંડપો સૂત્ર ૧૮૮માં પ્રચિવાદિ ડિશ મંડપ સુરાલય ૫ મંડપ, યજ્ઞાથે ૫ મંપિ, સભા મંડપ પાંચ, રાજ ભુવણર્થ પાંચ, નૃપ ભજનાથ પાંચ એમ પચ્ચીશ મંડપ સ્તંભ સંખ્યા સાથે કહ્યા છે. ઉપરાંત નંદનાદિ આઠ મંડપ પણ કહ્યા છે. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०. क्षीरार्णव अ. १९६ क्रमांक अ.-१८ . मम सुनंदन घ कोली AWOM कोली गूढ मण्डपके ८ प्रकारमेंसे ६ watara . गुटमंडप . સોમ ૬ सुमन PM वर्धमान गुढ मंडप आठ प्रकार से छ तलदर्शन प्रवेश द्वार पर बलाणक घर माढ कर राजसेनक वेदिका आसनपट और कभासनसे विभूषित करना । ५० इति मेखादि २७ मडंप । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : છો ને વા કી TI रत्नसमय भय मंडपाधिकार वर्धमानः स्वस्तिकाख्यो गरुडः सुरनंदनः । सर्वतोभद्र कैलासेंन्द्रनीला रत्नसंभव ॥५१॥ इत्यष्टौच समाख्याता वर्धमानादि मंडपाः । सपीठ मंडोवरादि प्रासादाकृति मेखला ॥५२॥ एकं वा त्रीणि वा कुर्याद् द्वाराणि कामदायकः । चतुष्किका याभ्योत्तरे अग्रे वा वामदक्षिणें ॥५३॥ આઠ ગૂઢ મંડપનાં નામ કહે છે. ૧ વર્ધમાન (ચેરસ) ૨ સ્વસ્તિક (ભદ્રયુક્ત) ૩ ગરૂડ (પ્રતિશ્યયુક્ત) ૪ સુરનંદન (પ્રભદ્રવાળો) ૫ સર્વતોભદ્ર (કેણુકાયુક્ત ખુર્થીઓ કરવી) ૬ કૈલાસ (અધિક ભદ્રવાળે = મુખ ભદ્રયુક્ત) ૭ ઈદ્રિનીલ (બે પ્રતિ રથ વળે) ૮ રન સંભવ (ત્રણ પ્રતિ રથવાળા) એમ આઠ ગૂઢ મંડપનાં નામ જાણવા. તે ગૂઢ મંડપને પ્રાસાદના સ્વરૂપ જેવા પીઠ મંડોવર જેવા થરે કરવા. તેવા મંડપને એક સન્મુખ દ્વારા અગર ત્રણ એમ બાજુના દ્વારા કરવાથી તે કામનાને આપે છે. આગળના દ્વારે એક અને ડાબી જમણી તરફના મંડપના દ્વારોએ આગળ ચેકીયે કરવી. (આનાં સ્વરૂપે દીપાવ અને અપરા જિતમાં આપેલાં છે) गूढ मण्डपके ८ प्रकारमेंसे अंतिम दो प्रकार પ૧-૫૨-૫૩, गुदमंडथ. इंद्रनील ७ - : ક | Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. - ११६ क्रमांक अ. - १८ आठ गूढ मंडपके नाम कहते है । १ वर्धमान (चोरस ) २ स्वस्तिक ( भद्र युक्त ) ३ गरूड ( प्रतिरथ युक्त ) ४ सुरनंदन ( प्रभद्रवाला ५ सर्वतोभद्र ( कोणीका युक्त कोना करना । ) ६ कैलास ( अधिक भद्रवाला = मुखभद्र युक्त ) ७ इंद्रनील ( दो प्रतिरथवाला ) ८ रत्न संभव ( तीन प्रतिरथवाला ) इस तरह आठ गूढ मंडपके नाम जानना । उन गूढ मंडपोंको ग्रासादके स्वरूप जैसे पीठ ister जैसे थरों करना । वैसे मंडपोंको एक सन्मुख द्वार अगर तीन बाजु द्वारों करनेसे ये कामनाओंको देते हैं। आगेके द्वारको एक और बाई दाहिनी तरफके मंडपके द्वारोंके आगे चौकियाँ करना । ५१-५२-५३. ( इनके स्वरूपों दीपार्णव और अपराजित में दिये हैं । ) २३३ यथाक्रमम् । वृक्षराजसु ॥ ५४ ॥ स्तथैव च । अतः परं प्रवक्ष्यामि मंडपानां नामस्वरूपं मानं च प्रयुक्तं शिवनाद हरिनादो ब्रह्मनाद रविनादो सिंहनादः षष्टको शिवनादा षण्मंडपा द्विसार्द्धा सर्वदेवेषु कर्तव्या स्व नाम्ना च विशेषतः ॥ ५६ ॥ मध्य स्तंभाष्टके गडदी तोरणानि प्रदक्षिण । रथयुक्ताश्च प्रासादा वेदियुक्ताश्च मंडपाः ॥ ५७ ॥ मेघनादकः ॥ ५५ ॥ सयभूमिका । ५. હવે હુ છ મહામ પેાનાં નામ ક્રમથી કહુ છું. જે વૃક્ષાવમાં તેના માન અને સ્વરૂપો કહેલાં છે. ૧. શિવનાદ ૨. રિનાદ ૩. બ્રહ્મનાદ ૪. રિવના સિહુનાદ ૬. મેઘનાદ એમ છ મહામડા જાણવા. આ શિવનાદાદિ છ મહામ પે। જાણવા. આ શિવનાદાદિ છ મડપેા અઢી કે ત્રણ ભૂમિ ઉડ્ડયના વિશેષ કરીને કરવા. (તેથી પણ ઊંચા થાય છે.) આ મડપેા સર્વ દેવેશને કરવા પરંતુ વિશેષ કરી જેના જેવા નામના દેવાને કરવા. તે પ્રાસાદની જેમ ભદ્રસ્થાદિ અંગવાળા (ખુલ્લા મ`ડપ) કરવા. આ મંડપને પ્રાસાદના જેવુ પીઢ કરી તે પર વેદિકા કક્ષાસનયુક્ત ખુલ્લા સ્ત ંભો પણ કરી શકાય. મ`ડપના મધ્યના (१९) मेखादि मंडप के स्वरूप और उनके सामान्य स्वरूपों अपराजित सूत्र १८८ में कहे हैं । अनके सिवा सून १८६ में पुष्पकादि सत्तास मंडपों लक्षणके साथ दिये हैं । सूत्र १८७ में वर्धमानादि आठ गूढमंडपों, तथा मुभद्रादि त्रिक बारह मंडपों सूत्र १८८ में प्राग्रीक आदि षोडश मंडप सुरालय ५ मंडपों यज्ञार्थ ५ मंडपों, सभा मंड५, राजभूषणार्थं ५, नृपभोजनार्थ ५ अस तरह पच्चीस मंडपों स्तंभ संख्या के साथ कहे हैं। उपरांत नंदनादि आठ मंडपों भी कहे हैं । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पाधिकार २१३ આ સ્તંભને ઠેકી ચઢાવીને દોઢીયા ઉદયવાળા મંડપ કરવા. તેને ફરતા આઠે तोरणा १२वा. २० ४७ थी ५४. · अब मैं छः महामंडपोंके नाम क्रमसे कहता हूँ जो वृक्षार्णवमें उनके मान स्वरूपों कहे हुए हैं । १ शिवनाद २ हरिनाद ३ ब्रह्मनाद ४ रविनाद ५ सिंहनाद ६ मेघनाद इस तरह छः महामंडपों को जानना । इन शिवनादादि मंडपों को ढाई या तीन भूमि उदयके विशेष करके करना ( इससे भी ऊँचे होते हैं । ) इन मंडपों सर्व देवोंको करना । परंतु विशेषकर जिसके जैसे नामके देवोंको करना । उस प्रासादकी तरह भद्ररथादि अंगवाले ( खुले मंडप ) करना । इन मंडपोंको प्रासादके जैसा पीठकर उसके घर वेदिका कक्षायुक्त या खुले स्तंभ भी कर सकते हैं। मंडप मध्यके आठ आठ स्तंभोंको ब्रह्मनाद તુંહોયગ સ્તમ शिवनाद વેંતમા रविनाद B तुला स्तंभ २८६ ओ. मेघनादादि षड् महामंडप (૨૦) આ છ એ મહામંડપનુ વિશેષ વિભાગથી ભદ્ર પ્રતિભદ્ર રથ ઉપરાદિ અગ સાથે શિલ્પના મહામથ વૃક્ષાૌવના અધ્યાય ૧૦૨ માં વિગતથી આપેલું છે. અહીં સંક્ષિપ્ત છે. શિવનાદ ભાગ આઠ સ્તંભ ૨૮, હરિનાદ ભાગ ૧૬, સ્તંભો ૫૬, બ્રહ્મનાદ ભાગ ૨૪, Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११६. क्रमांक अ.-१८. ठेकी चढ़ाकर डेढ़िया उदयवाले मंडप करना। उनके फिरता तोरण झूल करना । २०५४ से ५७. समतलं च विषमं संघाटो मुखमंडपः । भित्यंतरे यदा स्तंभ पट्टादौ नेव दृषणम् ॥ ५८॥ क्षणमध्येसु सर्वेषु पट्टमेकं न दापयेत् । युग्मंच दापयेत्तत्र वेदोष विवर्जयेत् ॥५९ ।। सहनाव HintamanM. मेघनादादि ष णहामंडप એકથી બીજે મંડપ જોડતાં જે ભિતીનું અંતર હોય તો જે ભૂમિનું ઊંચાનીચું તળ હોય અગર સ્તંભ કે પાટ આઘા પાછા હાય (એટલે કે એક સ્તંભો ૧૦૦, રવિનાદ ભાગ ૨૮, સ્તંભો ૧૦૪, સિંહનાદ ભાગ ૩૦, સ્તંભ ૧૩૬, મેઘનાદ ભાગ ૩૬, સ્તંભ ૧૦૮ની રચના કહ્યા છે, આવા મોટા મહામંડપને વચલી અદાંશ wલાકમાં ઘણા મોટા વર્તાલમાં થાય છે. ડબલ અ8ાંશ પાડે છે. ઉપરના મજલે વરચેની અખંશ પર બીજી અડાંના થર પર કોલ કાલાના થર ભળી જાય છે. (२०) यह छ महामंडपका विशेष विभाग (भद्र, प्राप्त भद्र, रथ, उपरथादि अङ्ग सहित शिल्पका महाग्रंथ " वृक्षार्णव' अ. १०२में सविस्तर दीया है। यहां संक्षिप्तम है। शिवनाद भाग ८ स्तंभ २८ । हरिनाद भाग १६ स्तंभ ५६ । ब्रह्मनाद भाग २४ स्तंभ १.० । रविनाद भाग २८ स्तम्भ १०४ । सिंहनाद भाग ३२ स्तंम्भ १३६ । मेघनाद भाग ३६ स्तंम्भ १०८की रचनाका कहा है। एसे बडा महामंडपोंके मध्यमे अष्ठाश्रमें कीतनेमें बडा वर्तुल होता है। कीतने में डबल अध्याय बी बराते है। उपरकी भूमिमें अष्टाश्र पर दुसरी अष्टांश्रका थरके उपर कौल काचला गवालुका थरो मील जाता है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mom मुष मंडपाधिकार २२५ સત્રમાં લેવલમાં ન હોય) તે પણ દોષ લાગતું નથી. ક્ષણ એટલે અડ-નાહમાં વચ્ચે એક પાટ ન મૂકો. પણ બેકી સ્તંભ કે પાટ મુકીને દોષ તજવા ૫૮-૫૯ एकसे दूसरे मंडपको जोडते जो इसीका अंतर हो तो जो भूमिका ऊँचा नीचा तल हो या स्तंभ या पाट आगे पीछे हो (अर्थात् एक सूत्र में न हो) तो भी दोष लगता नहीं है। क्षण अर्थात् खंड-पदमें बिचमें एक पाट नहीं रखना लेकिन सम स्तंभ या पाटको रखकर दोषको तजना । ५८-५९. तलैस्तु विषमा स्तुलैयः क्षणैः स्तंभैः समैस्तथा । उदुम्बरार्धे व्यंशे वा पादे गर्मभूमिके ॥६॥ मंडपेषु च सर्वेषु पीठान्ते रङ्गभूमिका। कूर्याद् वै द्वित्री पट्टेन चित्रपाषाण जै नवा ॥३१॥ મંડપની રચના વિષમ એકીપદ વિભાગના તળ ઉપર સમ બેકી સ્તંભથી કરવી, પ્રાસાદના ગર્ભગૃહના ઉંબરાની ઉંચાઈને અર્ધાભાગે, ત્રીજાભાગે કે ચોથા PR DE MAHANI ofile YatIAN TMEHARSHIw IIT योगेश्वर विष्णु. लक्ष्मी नारायण योगेश्वर शिव गांधर्वयुक्त अडभूत तोरण . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रीरार्णव अ. - १६ क्रमांक ६ अ.-१८ ભાગે નીચુ ગર્ભ ગૃહનું ભૂમિતલ રાખ્યું. રંગ મંડપનુ તળ પીઠના મથાળા ખરાખર રાખવું રંગમંડપનું તળીયું આરસના ચિત્ર વિચિત્ર પાષાણાવાળું રંગીન પટ્ટીઆથી શાભતુ કરવુ' (ગર્ભગૃહથી મંડપ નીચેા તેનાથી નીચી ચાકી એમ ઉત્તરાત્તર 'नी रामवु राजे तो होष धुवा. ६०-६१. मंडपकी रचना विषम पद विभाग के तलके उपर सम स्तंभो से करना । प्रासादके गर्भगृहके ऊँबरेकी ऊँचाई के आधे भाग में, तीसरे भाग में या चौथे भागमें नीचे गर्भगृह के तलको रखना । मंडप रंगमंडप के तल-पीठके शीर्षकपर रखना । रंगमंडप का तल आरस के चित्र विचित्र पाषाणवाला रंगीन पट्टियों से शोभित करना । ( गर्भगृह से मंडप नीचा उससे चौकी नीची, इस तरह उत्तरोत्तर नीचा रखना, ऊंचा रखनेसे दोष होता है । ६०-६१. अथात्कथित रिषि ! बलाणकस्य प्रासाद व्यासमानेन गभमानेन शालालिंद मानेन त्रिविध लक्षणम् । चाऽथवा ॥ ६२ ॥ मानलक्षणम् । अन्यच्च युक्ति मेदैन पुरतः पृष्ठतोऽथवा ॥ ६३॥ હૈ! ઋષિ હવે હું અલાણુકનાં લક્ષણ કહું છું. (૧) પ્રાસાદની પહેાળાઇના માનથી (૨) ગ ગૃહના માને (૩) શાલા આલિંદ ચાકીના પ્રમાણથી અલાણુકના વિસ્તાર રાખવાના આ ત્રણુ માન જાણવા અન્ય યુક્તિ ભેદે કરીને પૂર્વ અને પશ્ચિમ આગળ પાછળ એમ ચતુમુખ પ્રાસાદને ચારે તરફ બલાણુક કરવા. એક મુખના પ્રાસાદને આગળ એક અલાણુક કરવું. ૬૨-૬૩. . हे ऋषि, अब मैं बलाणकके लक्षण बताता हूँ । (१) प्रासादकी चौडाई के मानसे (२) गर्भगृह के मानसे (३) शाला अलिंद चौकी के प्रमाण से बलाक विस्तार रखने के ये तीन मान जानना । अन्य युक्तिभेदे कर पूर्व और पश्चिम आगे पीछे इस तरह चतुर्मुख प्रासादको चारों तरफ बलाक करना । एक मुख प्रासादको आगे एक बलाक करना । ६२-६३. वामनश्च विमानश्च हर्म्यशालच पुष्करः । तथा चोतुंगनामा च पंचैते च चलाणकाः ॥ ६४॥ वर्तन कथयिष्यामि पदं संस्थानमानतः । प्रासादग्रे च प्राकारे मंदिरे वारिमध्यतः ॥ ६५ ॥ પંચ પ્રકારના અલાણુકનાં નામેા કહે છે, ૧ વામન ૨ વિમાન ૩ હું શાલ ૪ પુષ્કર અને પ ઉત્તુ ંગ એમ પાંચ અલાણુકના વન સ્વરૂપ પદ્મ સંસ્થાનના માનથી ક્યાં Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार કયાં કરવા તે હું કહું છું. દેવમંદિર આગળ પ્રાસાદ (રાજમહેલ) આગળ, નગરના કિલ્લા આગળ, જળાશયની મધ્યમાં કે આગળ એમ બલાણુકના પદ સ્થાન જાણવા. ૬૪-૬૫. पाँच प्रकारके वलाणकके नामों कहते हैं । १. वामन २. विमान ३. हर्म्य शाल ४. पुष्कर ५. उत्तुंग । इस तरह पाँचों बलाणकके वर्तन स्वरूपपद संस्थान के मानसे कहाँ कहाँ करना वह कहता हूँ। देव मंदिर आगे प्रासाद (राजमहल) के आगे; नगर के कोटके आगे; जलाश्रय के मध्यमें या आगे इस तरह बलाणक के पद स्थान जानना । ६४-६५. वामनो देवताग्रे च विमानोतुङ्गै राजवेश्मनि । हर्म्यशाले गृहे वाऽपि प्रासादे नगरानने ॥६६॥ Yoye NGO पररर STANUSA AARS M FOCIEOD). Sthak HERE ENARAYAN OBC. शिव-विष्णु और ब्रह्मा-त्रिभूतिका तोरण युक्त गेबलं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११६ क्रमांक २८ पुष्करं वारिमध्यस्थं मातश्चैव भूपितम् । सप्त नव भूम्युत्तुंङ्ग मत उर्वन कारयेत् ॥६७॥ દેવ પ્રાસાદની આગળ જે બલાણુક કરવામાં આવે તેનું ? વામન નામ જાણવું રાજમહેલ આગળના બલાણુકને ૨ વિમાન નામ જાણવું; અગર તેને રૂકનું નામ પણ કહ્યું છે. ઘરના આગળ ડેલી કે નગર આગળના બલાણુંકને ४ हम्येशाल नाम Mg. राजाश्रयना मध्यभा रायना भुस मागण समितु ५ पुष्कर नाभनु मा ३ उत्तु नाभने। Rames सातथी નવ માળ સૂધીને ઉંચે (કીર્તિસ્તંભ જે કરે તેથી વધુ ચ ન अश्वो (२१) ६६-६७. . देवप्रासाद के आगे जो बलाणक करने में आवे उसका १ वामन नाम जानना । राजमहल के आगेके बलाणक का २ विमान नाम जानना । अगर उसका ३ उत्तुंग नाम भी कहते हैं। घरोंके आगे खिड़की या नगरमुखके आगे के बलाणकका ४ हर्म्यशाल नाम जानना । जलाश्रय के मध्य में या जलाश्रय के मुखके आगे शोभता पुष्कर नामका बलाणक जानना । उत्तुंग नामका बलाणक सात से नव मालभूमि तकका ऊँचा (कीर्तिस्थम्भ जैसा) करना । इससे ज्यादा ऊँचा न करना२१ । ६६-६७. प्रासादाने जगत्यग्रे ग्रस्तः स्यान्मुखमंडपः । उर्वभूमिः प्रकर्तव्या नृत्यमंडप सूत्रतः ॥६८॥ लक्षणं तस्य वक्ष्यामि स्थानमानं च भूमिकाम् । एक द्वित्रि चतु: पंच रस सप्ताष्टभिस्तथा ॥६९॥ પ્રાસાદની આગળ, જગતીની આગળ કે જગતીથી અંદર સમય તેવે આગળ મુખ મંડપ કરે જગતીને ભૂમિમંડપ નૃત્યમંડપના ગર્ભસૂત્રે કરે. ૨૧ બલાણુક વિશે અન્ય મત પણ છે. પ્રાસાદની જગતી આગળ જવાતીમાં સમાય તેવી यो भ७५ ४२३॥ तेने १ वामन नामर्नु पसाए छ. २०००महेश मा २ विमान કે પાંચ સાત ભૂમિ ઊંચું એવું બલાણુક તું કહે છે. ઘર આગળના દ્વાર પર ગેપુરાકૃતિ એક કે બે ત્રણ માળની ડેલી ને હમ્મશાલ બલાણુક કહે છે. અહીં જળાશ્રય આગળ પુષ્કળ બલાણુક કહ્યો તેથી જળાશ્રય આગળ ઉ¢ગ કીર્તિ સ્તંભ જેવો અને મંદિર આગળ મેપુર કહે છે. २१. बलाणकके बारेमें अन्यमत भी है। प्रासाद की जगती जागे जगतीमें समास के ऐसी चौकी या मंडप करना। उसकी १ वामन नामका बलाणक कहते है। राजमहल के 'मागे २ विमान या पाँच सात भूमि ऊँया ऐसा बलाणक उत्तुंग कहा जाता है। घरके पासके हारपर गोपुराकृति एक या दो तीन मजलेके प्रवेशद्वार को हर्म्यशाल वलाणक कहते हैं । यहाँ ‘जलाश्रय आगेका पुष्कर बलाणक नहीं कहा है अपूर्ण है । उत्तुङ्ग जलाश्रयके पास कीर्तिस्तम्भ असा होता है। मन्दिरके आगे गोपुर भी होता है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તેનાં લક્ષણ કહું છું. આ બલાણુક પ્રાસાદથી જગતીથી એક બે ત્રણ પાંચ છ સાત કે આઠ પદ છેટે સ્થાન માનને આશ્રય જાણુને ભૂમિ છેડીને કરે. ૬૮-૬૯. प्रासादके आगे, जगतीके आगे या जगतीके अंदर समास के एसे आगे मुख मंडप करना । जगतीका भूमि मंडप नृत्य मंडप के गर्भसूत्र में करना । उसके लक्षण कहता हूँ। यह बलाणक प्रासादसे या जगतीसे एक दो तीन पाँच छः सात या आठ पद दूर स्थान मानका आश्रय जानकर भूमि को छोड़कर करना । ६८-६९. ALANNIKHANTHL AM KGHTTA OILA मामला तोरण परिकार साथ नृत्यशिष का गेबस Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११६ क्रमांक अ.-१८ जगती तु शिरोदेशे जठरे चोत्तरङ्गकम् । अधस्तुलोदये भूमिर्घटनादि च तत्समम् ॥७॥ तत्समं तु प्रकतव्य मुत्तरङ्गे सपट्टकम् । उदयोन्नतमानेन सोपानं तुलामध्यतः ॥७१ ॥ જગતીના મથાળા સુધીમાં એટલે કે તેના જઠરના દ્વારના ઉત્તરંગને સમાસ કરે. (જગતી નીચે પ્રવેશ મંડપ કે ચેકીના) તુલા પાટડાને ઉદય ભૂમિદય કે કુંભા બરાબરમાં કે નીચે સમાવ. જગતીની ચેકીના પાટ બરાબર પ્રવેશ દ્વારને ઉત્તરંગ રાખે. જગતીના ઉદયના માનમાં પાટડાની અંદર ઉપર ચડવાનાં પગથિયાં કરવાં. ૨૨. ૭૦–૭૧. जगतीके शीर्षक तकमें अर्थात् उसके जठरमें द्वारके उत्तुंगका समास करना। (जगतीके नीचे प्रवेश मंडप या चौकीके) तुला पाटडेका उदय भूमिदय या कुंभे के बराबर में या नीचे समाना । जगती की चौकी के पाट बराबर प्रवेश द्वारका उत्तरंग रखना । जगतीके उदयके मानमें पाटडे के अंदर ऊपर चढ़नेके पगधिये જરના ૧૨ ૭૦-૭૨. कुंभीस्तंभ शिरः पढें पृथक् सूत्र तुलादिकम् । भूमिं तु भुमि मानेन समसूत्रे विंचक्षणाः ॥७२॥ બલાણુકના કુંભી તંભ સરાપાટ આદિ મૂળ પ્રાસાદના રસ્તંભના છેડ પ્રમાણે સમસૂત્રે કરવા પ્રત્યેક મજલના ઉદય પ્રમાણે વિચક્ષણ શિલ્પીએ સમસૂત્રે રાખવા. ૭૨. ૨૨ બલાણુક એટલે લૌકિક ભાષામાં ડેલી–પ્રવેશ દ્વાર પર ભાગ જાણ દેવ પ્રાસાદમાં આવા બલાણક બનાવવાને ભૂમિનળથી એક મજલા જેટલી જગતી ઉંચી કરી તે પર પ્રાસાદ કરેલ હોય તે જ દેવપ્રાસાદ સામે બલાણુક કરવું યોગ્ય થાય છે. જો કે જગતીના બરાબર ઉંચાઈ બરાબર પણ આગળ જે મંડપ કરવામાં આવે છે તેને પણ વામન” નામનું બલાણુક કહ્યું છે. જેમાં દેવ સ્થાપના પ્રલોભને બલાણમાં પ્રાસાદની ર સામે ગર્ભગ્રહ કરી તે પર શારણ કે ત્રિસ્ટ કરે છે. એટલે મળ મંદિરથી નીચે કરવાના હેતુથી તેમ કહે છે. કારણ કે મૂળ પ્રાસાદ કે મૂળ ભવન કે મૂળ ઘરની ડેલી રૂ૫ આ બલાણુક હંમેશાં નીચું રહેવું જ જોઈએ. એ ઉદયવાળી જગતીમાં કલેક ૭૦-૭૧ પ્રમાણે નીચેના મુખમંડપ કે ચેકીના પાટ અને તે પરના ભૂમિ દળ (છાતીયા રણું થાળ). ૨) નો સમાસ મૂળ પ્રાસાદના ઉમ્બરની અંદર એટલે કુબાની અંદર સમાવે છે તેનાથી નીચું થાય તો ઉત્તમ ગણાય. જગતી બરાબર ના મુખ મંડપ કે ચોકીને પાટ. મુખ્ય પ્રવેશ દ્વારના ઉત્તરંગ ઉપર હોય છે. આ વિષય સ્થાન માન અને ભૂમિતળના જગતીને ઉદય પર આધાર રાખે છે. ઉત્તગ નામને બલાણુક દ્રવિડને ગોપુર જે અગર રાજ પ્રાસાદ આગળ ટાવર જેવો જાણવો કીર્તિસ્તંભ એ આ ઉત્તમના સહેદર જેવો જાણું. २२. बलानक अर्थात् लौकिक भाषामें डहली-प्रवेश द्वारके उपरका भाग समजना । देव प्रासादमें ऐसे बलाणक बनानेमें भूमितलसे एक भूमि जातिनी जगती ऊँची करके प्रासादका Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार २३१ बलाक के कुम्भी स्तंभ सरापाट आदि मूल प्रासाद के स्तंभ के छोड़के अनुसार समसूत्रमें रखना । ७२. बलाणकस्त तदग्रेतोरणभद्रमस्तके तद् बाह्ये मत्तावरणं सन्मुख वामदक्षिणे ॥ ७३ ॥ इति पंचविध बाणक અલાણુકના આગળ ભદ્રભાગના તભાને તેારણુ કરવું. તેની બહાર સન્મુખ અને માજીમાં જમણી ડાબી તરફ મત્તવારણ કક્ષાસન કરવાં. ૭૩. बाणके आगे भद्र भागके स्तम्भों को झूल करना । उसके बाहर सन्मुख और बाजुमें दाहिनी बायीं तरफ मत्तवारण - कक्षासन करना । ७३. अथ संवरणा --संवरणाश्च प्रवक्ष्यामि प्रथमं पंचर्यटन् । चतुर्घटाभिर्वृध्ध्या च यावदेकोत्तरं शतम् ॥ ७४ ॥ पंचविंशतिरित्युक्ता विभक्तिर्भाग संख्यया । विभक्ति रष्टभागाद्या यावद् वेदोत्तरं शतम् ॥ ७५ ॥ હવે હું: સંવરણા વિશે કહુ છું. શરૂમાં પાંચ ઘંટાથી ચચ્ચાર ઘંટાની વૃદ્ધિએ એકસે એક ઘંટા સુધીની તેમ ભાગ સંખ્યાથી પચીસ સંવરણા કહી છે. વિભકિત ભાગ સંખ્યાએ પહેલી આઠ ભાગની સામરણથી એક સેા ચાર ભાગ સુધીની એમ પચીશ સવરણા ચચ્ચાર ભાગની વ્રુદ્ધિથી કરતા જવું. ૭૪–૭૫. अब मैं संवरणाके बारेमें कहता हूँ । शुरू में पाँच घण्टेसे चार चार घंटे की वृद्धि पर एकसौ एक घण्टे तककी उस भाग संख्या से पच्चीश संवरणा कही गयी है । विभक्ति भाग संख्या से पहली आठ भागकी शामरणसे एक सौ निर्माण कीया हो तो ज देव प्रासादके सामने बलाणक हो सकता है । जगतीका उदय सम आगे जो मंडप बनाते हैं उनको "वामन” नामक बलाणक कहते हैं । जैन में देव स्थापनका प्रलोभनसे बलाणक प्रासादकी बराबर सामने गर्भगृह करके उसकी पर संवरणा या त्रिषट बनाते हैं । शिखर नहि करता ! मूल मंदिरसे नीचा रखनेका हेतुसे औसा करता है । मूल प्रासाद या मूल भवन या मूल घरसे डहली बलापक हमेशा नीचा होना चाहीये। कम उदय वाली जगतीमें श्लोक ७०-७१ का प्रमाणसे नीचेका मुखमंडप = चोकीका पाट= बीम और ते परकी भूमिदल ( छालिया-रणथल = लादी - फलोर ) का समास मूल प्रासादके उदम्बकी अंदर होना चाहीये। उससे ऊँचा नहिं मगर नीचा रखना उत्तम है। जगती बराबर मुख मंडप = चोकीका पाट=बीम मुख प्रवेश द्वारका उत्तरङ्ग उपर होना चाहिये ! यह विषय स्थान मान और भूमितला जगतीका उदय पर आधार रखता है । उत्तुंग नामका बलाणक द्रविडका गोपुरम् जैसे अगर राजप्रासाद आगे टावर जैसे समजना । कीर्ति स्तम्भ ये उत्तु का सहोदय जैसा समझना । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्त मातृका elnut they ७ रक्त चामुंडा ६ इन्द्राणि gelb Télé & ३ कौमारी १ ब्रह्माणी २ महेश्वरी विरेश्वर = विरभद्र સવરાતે શિલ્પીઓની ભાષામાં શામરણુ કહે છે. અહીં મંડપ પર શામરણુ કરવાનું કહે છે. પરંતુ ગર્ભગૃહ પર પણ જ્યાં શિખર કરવાની દુષ્કરતા હોય અગર અલ્પ દ્રવ્ય મયના કારણે ગર્ભગૃહ પર શામરણ કરે છે. જીના મહામુલા દિશ પર શામરજી, આરિસાકલિંગ દેશમાં એરીસા ફાલગ અને ખજુરાહેામાં શિખર અને શામરણુ બેઉ જોવામાં આવે છે. શામરણના બીજો પ્રકાર ત્રિષટા છે. કલિંગાદિ દેશના જુના કામેામાં જોવામાં આવે છે. આપણા સૌરાષ્ટ્ર ગુજરાતને કચ્છ રાજસ્થાનના જૂના કામેમાં ત્રિષટ લેવામાં આવે છે. એક પર બીજી છાજલી પાછી મારી સકાતી ઉપર આમલસારા લટા કરી કળશ ચડાવે છે. ત્રિષ્ટાને નાગરાદિ શિલ્પમાં શાસ્ત્રોક્ત પાઠ હજી જોવામાં આવેલ નથી. ૧. શિખર ૨. શામરણ ૩. ત્રિષટા. એમ ત્રણ સર્વોચ્ચશિલ્પ મનાય છે. ત્રિષટાએ ઘેાડા ફેરફાર સાથે શામરણનુ સક્ષિપ્ત સ્વરૂપ છે. સંવરણાને શિલ્પમાં નારિતિથી સમાધાય છે. શામરણુ વિસ્તારથી અધ ઉંચી કહી છે, પરંતુ શિલ્પીએ પોતાની કળાનુ પ્રદર્શન કરવા પ્રત્યેક ઘરે જાગી ચડાવી ઊ’ચી કરે છે. જેસલમેરમાં તેવુ છે. વતમાનકાળમાં શામરણુ ચડાવવાની જે પ્રથા શિલ્પીઓમાં છે તે બસે!ક વર્ષથી ચાલી આવી છે. છાજલી ફૂટએ ધટા પ્રત્યેક ઘરમાં કરવાનું શાસ્ત્રકાર કહે છે. જ્યારે વમાન કાળની શામરણુમાં એકલી ઘટા કામસાના થર પર થર ચડાવે છે. જો કે આ રીત અશાસ્ત્રી તે। ન હી શકાય. જ્યારે ગભંગૃહ પર સવરણા કરવાની હાય છે ત્યારે ઉપર મૂળ ધંટાના સ્થાને આમલસારે જ કરવાની ફરજ પડે છે કારણ કે ધ્વજાદ’ડ ઊભા કરવાનું મૂળ ધંદ્રામાં ખી શકતું નથી. પરંતુ આમલ સારામાં સાથે રાખીને દંડ સ્થાપન કરી શકાય છે. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ अथ मंडपाधिकार अथ संवरणा-संवरणाश्च प्रवक्ष्यामि प्रथमं पंचघंटन् । चतुर्घटाभिर्वृध्या च यावदेकोत्तरं शतम् ॥७४।। पंचविंशतिरित्युक्ता विभक्तिर्भाग संख्यया। विभक्ति रष्टभागाधा यावद् वेदोत्तरं शतम् ।।७५।। હવે હું સંવરણ વિશે કહું છું. શરૂમાં પાંચ ઘંટાથી ચચ્ચાર ઘંટાની વૃદ્ધિએ એકસે એક ઘંટા સુધીની તેમ ભાગ સંખ્યાથી પચ્ચીસ સંવરણ કહી છે. વિભક્તિ ભાગ સંખ્યામાં પહેલી આઠ ભાગની સામરણથી એક સો ચાર ભાગ સુધીની એમ પચ્ચીશ સંવરણ ચચ્ચાર ભાગની વૃદ્ધિથી કરતા જવું. ૭૪-૭૫. - IN टिका धाटिका पुम्पिका नाम संधी) पिरमा ५ट १६.सिंह भामत. अमारीR.ओ.ययति , अब मैं संवरणाके बारे में कहता हूँ । शुरूमें पाँच घण्टेसे चार चार घंटे की वृद्धि पर एकसौ एक घण्टे तककी उस भाग संख्या से पच्चीश संवरणा कही गयी है। विभक्ति भाग संख्यासे पहली आठ भागकी शामरणसे एक सौ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રેષ્ઠ क्षीरार्णव अ.-११६ क्रमांक अ.-१८ चार भाग तक की इस तरह पच्चीस संवरणा चार चार भाग की वृद्धि से करते जाना । ७४-७५. चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे अष्टभाग विभाजिते । भागौ द्वौ रथिका कार्या चतुर्दिक्षु व्यवस्थिता ||७६ || कर्णे घंटिकाद्विभागा तदधः कूट कोणतः । मूल घंटा त्रयोभागा भागैकं कलशं भवेत् ॥७७॥ उदयं च प्रवक्ष्यामि भागाश्चत्वार एव च । छाद्योगमास्तरकूट: तदूर्ध्व घंटिका भवेत् ॥ ७८ ॥ १ पुष्पिका नाम संवर्णा तल दर्शन ( उपर सन्मुख दर्शन ) ચારસ ક્ષેત્રના આઠે વિભાગ કરવા. તેમાં ગભે મધ્યમાં એ ભાગની રથિકા (ભદ્ર) અને ત્રણ ત્રણ ભાગની રેખા કરવી તે રીતે ચારે બાનુએ વિભાગની વ્યવસ્થા કરવી. રૂખાયે એ ભાગની પહેાળી ઘટિકા કરી તેની નીચે ખુણે ફૂટ કરવા. સપિરિ મૂળ ઘંટ ત્રણ ભાગની ફ્રૂટ સાથે ચાર ભાગની પહેાળી કરી તે ઉપર એક ભાગના કળશ કરવા. આમ તળવિભાગ કહ્યા હવે ઉડ્ડય ઉભણી ચાર ભાગની કરવાનું કહુ છું. પ્રત્યેક ઘટા નીચે છાજલી તે પર શૂટ કરવુ ફૂટના થરમાં ઘટિકાના ગભે ઉદ્ગમઃ દોઢીયા કરવા. તે ફ્રૂટ ઉપર ઘટિકા કરવી, Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार આ રીતે શામરણ-પચીશ ચડાવવી. શામરણના પ્રત્યેક ઘરમાં નીચે છાજલી ફૂટ ઉડમ અને તે પર ઘંટીકા ચડાવવાં આમ શામરણના પ્રત્યેક થેરેને કેમ જાણવો આ રીતે કરતાં જેમ શિખરને ઉરુ ફૂગ ચડે છે તેમ શામરણને ગર્ભે ઉઘંટા ચડે તે પર સિંહ બેસે છે. મધ્યની સર્વોપરિને મૂળ ઘંટા કહે છે. અને તેના પર માટે કળશ સ્થાપન થાય. જોકે પ્રત્યેક ઘંટા પર કળશ. छ। भूपां. ७६-७७-७८. चोरस क्षेत्रके आठ विभाग करना । उसमें गर्भ में भध्य में दो माग की रथिका (भद्र) और तीन तीन भाग की रेखा करना | इस सरफ चारों बाजु विभाग की व्यवस्था करना । रेखापर दो भागकी चौडी घंटिका कर उसके नीचे कोने में कूट करना । सर्वोपरि मूल घण्टा तीन भागकी कूटके साथ चार भाग की चौडी करसे उसके ऊपर एक भागका कलश करना । इस तरह तलविभाग कहे। अब उदय चार भागका करने के लिये कहता हूँ। प्रत्येक घण्टा के नीचे छाजली उसके ऊपर कूट करना । कूटके थरमें घंटिका के गर्भ में उदय डेढिया करना । उस कूटके ऊपर घंटिका करना । __ संवरणाको शिल्पीओंकी भाषामें शामरण कहते हैं। यहाँ मंडप पर शामरण करने के लिये कहा है। परंतु गर्भगृह पर भी जहाँ शिखर करनेकी दुष्करता हो अगर अल्प द्रव्य व्ययके कारण गर्भगृह पर शामरण करते हैं। आबूके महामूले मंदिरों पर शामरण ओरिसाकलिंग और खजुराहोमें शिखर और शामरण दोनों देखनेमें आते हैं। शामरण का दूसरा प्रकार त्रिषट है । और कलिंगादि देशोंके पुराने कामोंमें देखने में आते हैं। अपने सौराष्ट्र, गुजरात और कच्छ, राजस्थान के पुराने कामोंमें त्रिषट देखनेको मिलता है। एक पर दूसरी छाजली पीछे मारकर संकोचकर उपर आमलसाराघटा कर कलश चढ़ाते हैं। त्रिसटाका नागरादि शिल्पमें शास्त्रोक्त पाठ अभी देखने में आया नहीं है। (१) शिखर (२) शामरण (३) त्रिषटा इस तरह तीन सर्वोच्च शिल्प होता है । त्रिषटा थोड़े फेरफारके साथ शामरणका संक्षिप्त स्वरूप है। संवरणा को शिल्पमें नारी जातिसे संबोधन किया जाता है। शामरण विस्तार से अर्ध ऊँची कही गई है। परंतु शिल्पीओं अपनी कलाका प्रदर्शन करनेके लिये प्रत्येक थर पर जांगी चढ़कर ऊँची करते हैं। जैसलमेरमें वैसा है। वर्तमानकालमें शामरण चढ़ानेकी जो प्रथा शिल्पियोंमें है, वह करीब दो सौ सालसे चली आयी है। छाजली कूट घंटा प्रत्येक थरमें करनेका शास्त्रकारका विधान है। और वर्तमानकाल की शामरणमें अकेली घंटा लामसाके घर पर थर चढ़ाते हैं। यद्यपि यह रीत अशास्त्रीय नहीं कही जाती। जब गर्भगृह पर संवरणा करनेकी होती है तब उपर मूल घंटाके स्थान पर आमल सारा ही करनेका फर्ज पड़ता है, क्योंकि ध्वजा दंड खडा करने का कारण मूल घंटेमें बनता नहीं है। परंतु आमलसारेमें साल रखकर ध्वजा दंड स्थापन किया जा सकता हैं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ क्षीरार्णय अ. - ११६ क्रमांक अ.-१८ १८ वीं शताब्दी से वर्तमान की संवर्णा शैली प्रभारी आस्थयनि. वर्तमान कालसे शिल्पोओं को शामरण की प्रथा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRO SINESEARSHAN देवराणी जेठाणी के स्पर्धाका सुंदर कलामय गोखला-लुणिंग वसही ( देलवाडा आबु ) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAREE देलवाडा आयु के विमल वसही मंडप के स्तम्भ देवाशना और ईलिका तोरण Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मंडपाधिकार इस तरह शामरण पच्चीस चढ़ाना-शामरणके प्रत्येक थरमें नीचे छाजली कूट--उद्गम और उसके पर घण्टीका चढ़ाना। इस करह शामरणका प्रत्येक थरका क्रम जानना । इस तरह करते जिस तरह शिखर को उरुशृंग चढ़ता है इस तरह शाभरण के गर्भमें उरुघण्टा चढे उसके पर सिंह बैठता है । मध्य की सर्वोपरि को मूल घण्टा कहता हैं और उसके पर बड़ा कलश स्थापित होता है। यद्यपि प्रत्येक घण्टा पर कलश-अंडा रखा गया है । ७६-७७-७८. इति श्री विश्वकर्मा कृतायां क्षीरार्णवे नारदपृच्छायां मंडपाधिकारे शताने षड्दशमोऽध्याय ॥ ११६ ॥ (क्रमांक अ० १८) ઈતિ શ્રી વિશ્વકમાં વિરચિય ક્ષીર શ્રી નારદજીએ પૂલ મંડપાંધિકારના શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકા સાથેનો मेसो सभी अध्याय (११९) (भा अ० १८) इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णवमें श्री नारदजीके पूछे हुए मंडपाधिकारके शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुराकी रचि हुई सुप्रभा नाम्नी भाषाटीका का एकसौ सोलह, अध्याय । ११६) (क्रमांक अ० १८) Om. HEAL Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ सांधार भ्रम निरूपणाध्याय ॥ क्षीरार्णव अ० ॥ ११७ ॥ क्रमांक १९ श्री विश्वकर्मा उवाच भ्रमभित्ति प्रवक्ष्यामि प्रासाद मानतां बुधः । दशहस्तोत्तरा यावत्प्रासादा: सभ्रमा भवेत् ॥१॥ दशोचे च शतपादे भ्रममेकं प्रकीर्तितम् । सप्तविंशे द्वयं चैव अष्टमांशे तथा पुनः ॥२॥ . सप्तपादे तु चत्वारि षड्पष्टै पंचसीयुते । भ्रमभित्ति विभागानि भृत्वात्वेकाग्रतो मुनिः! ॥३॥ प्रासाद द्वादशभागा गर्भेषडू साद्ध मध्ये।। 'सार्द्ध द्वयो द्वयभित्ति शेषं च भ्रम विस्तरे ॥४॥ इति एक भ्रममान શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. બુદ્ધિમાન શિલ્પીઓ? પ્રાસાદના માનથી સાંધાર પ્રાસાદના ભ્રમ અને ભિત્તિના માન પ્રમાણ હવે હું તમને કહું છું દશ હાથ ઉપરના પ્રાસાદને ભ્રમ કર. દશથી પચીશ હાથના પ્રાસાદને એક ભ્રમ કરે. સત્તાવીશ હાથના પ્રસાદને બે ભ્રમ કરવા અને આઠમા ભાગે બ્રમભિત્તિ કરવી. ............येभ भ्रम भने मित्तिना विलास रामवा. उ भुनि, एकम (साधारमाभावे येताथी सली. प्रासाह બહાર રેખાયે હોય તેના બાર ભાગ કરી વચલે તૃપ-ગર્ભગૃહ બ્રિત્તિ સાથે સાડા છ ભાગને રાખ અને બે છેડાની બહારની બેઉ ભીતે અહી ભાગની જાડી રાખવી. (એટલે સવા ભાગની એકેક ભીંત જાડી) બાકીના ત્રણ ભાગમાંથી દોઢ દેઢ ભાગના ભ્રમને विस्तार युवा. १-२-3-४. एक भ्रम तलदर्शन श्री विश्वकर्माजी कहते हैं । हे ! बुद्धिमान शिल्पि ! प्रासादके मानसे भ्रम गर्भगृष्ट पो Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे सोधार भ्रम निरूपणाधिकार और मितिमान सांधार प्रासादके मान प्रमाण अब मैं तुम्हें कहता हूँ । देश हाथके उपरके प्रासादको भ्रम करना । दशसे पच्चीस हाथके प्रासादकों एक भ्रम करना । सत्ताईश हाथके प्रासाद को दो भ्रम करना और आठवें भागमें भ्रमभित्ति करना । .........इस तरह भ्रम और मित्ति के विभाग करना । हे मुनि ! अब एकाग्रतासे सुनो। प्रासाद बाहर रेखाके पर हो उसके बारह भाग कर बिचका स्तूप--गर्भगृह भित्तिके साथ साढे छ भागका रखना और दो अंतकी बाहर की दोनों दिवारें ढाई भाग की मोटी रखना । (अर्थात् सवा सवा भागकी एकेक दिवार मोटी) बाकीके तीन भागमें से डेढ़ डेढ़ भागका भ्रमका विस्तार जानना । १-२-३-४. इति एक भित्तिमान । द्विभ्रमं च प्रवक्ष्यामि यथा शास्त्रे न संभवः । चतुर्विंश कृते क्षेत्रे द्वादशं लिङ्ग पीठयोः ॥५॥ चतुर्भिभित्ति त्रिभागानि शेषं च भ्रम मुत्तमम् । स्तंभः श्रेणि यदा सूत्र भ्रमद्वय विराजिता ॥६॥ कर्ण मध्ये प्रकर्तव्या मंडपा महता श्रता । ॥ इति भ्रमद्वयं मध्यमान ॥ હવે બે ભ્રમનું શાસ્ત્રોક્ત માન સંશય વગરનું કહું છું સાંધાર પ્રાસાદની यभम.. (साधारासादा બહારની રેખાયે એવીશ - પુર્વ પ્રમાણે ભાગ કરી વચલું લિંગપીઠ= સ્તૂપ–ભિત્તિ સાથે ગર્ભગૃહ –બાર ભાગને રાખ ચાર ભીતે ત્રણ ભાગની એટલે પિણું પિણ ભાગની પ્રત્યેક ભિંત જાડી રાખવી. બાકીના બેઉ બ્રમે બબ્બે ભાગના Trt રાખવા ભ્રમની ભિતેના સ્થાને સ્તની શ્રેણી ભીંતને સૂત્રના સ્થાને રાખવી. આ ગલી કર્ણ-રેખા-મંડપમાં - मध्यमान द्वय भ्रम तल दर्शन સ્તની શ્રેણીથી જાણવી. अब दो भ्रमका शास्त्रोक्त मान असंशय कहता हूँ। सांधार प्रासदि की सम सम PL Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० क्षीरार्णव अ. ११७ क्रमांक अ. १९ बाहर की रेखाके पर चौवीस भागकर विचका लिंगपीठ-स्तूप-मिति के साथ गर्भगृह-बारह भागका रखना। चार दिवारे तीन भागकी अर्थात् पौने पौने भाग की प्रत्येक दीवार मोटी रखना । बाकीके दोनों भ्रम दो द्रो भागके रखना । भ्रम की दिवारोके स्थानपर स्तम्भों की श्रेणी भीतके सूत्रके स्थानपर रखना । आगेकी कर्णरेखा-मंडपमें स्तम्भों की श्रेणीसे जानना । षत्रिंश कृते क्षेत्रे लिङ्ग पीठ दशाष्टकम् ॥७॥ भित्तिपइ सार्द्धश्च चत्वारिभ्रम कन्यसेत् । रूद्रसार्द्ध चतुभ्रम स्तंभ युक्तं न संशय ॥८॥ एवं विभक्ति मादाय भ्रमाद्वय विराजिते । (भ्रमा त्रीणि विराजित) इति भ्रमद्वय कनिष्ठमान હવે કનીષ્ટ માનના બે ભ્રમવાળા પ્રાસાદના ભાગે કહે છે. બહાર રેખાયે છત્રીશ ભાગ કરવા. તેમાં વચલે લિંગપીઠ (તૂપ) ભિતિ સહિત ગર્ભગૃહत्यसमा (सांधारपासादर मार लामनी रामवा. तना चतुर्भुमासाद ચાર ભી તે સાડા છ ભાગની (એટલે ૧ ભાગની એકેક કરવી) કનીષ્ઠ માનના કય બ્રમ ની રાખવી સાડા અગ્યાર भागना या अभ। (२॥= ભાગની એકેક) = પ્રદક્ષિણા -- मुख्यमे રાખવી. ભિતેના સ્થાને (બ્રમના ભદ્રમાં) સ્તંભે મૂકી શકાય. તેમાં સંશય ન કરે એ રીતે બે ભ્રમના પ્રાસાદના વિભાગ કનીમાનના જાણવા प्रम द्वय (कनिष्टमान) तलदर्शन अब कनिष्ठ मानसे दो भ्रमबाले प्रासादोंके भागों कहते है। बाहर रेखाके पर छत्तीस भाग करना । उसमें बिचका लिंगापीठ (स्तूप) (भित्तिसहित) गर्भगृह अठारह भागका रखना। उसकी चार दिवारें सारे छः भागकी (अर्थात् १शा भागकी एक करना) कनिष्ठमान के द्वय भ्रमकी रखना । साढ़े ग्यारह भाग के चार भ्रमों (२- भागकी एक एक प्रदक्षिणा रखना । भिंतोंके स्थानपर (भ्रम के २. इयाश्रीशेत् पंच अमबिस्तरे-पाठांतर । TRUE Hश्रम अ.भोसो Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव सांधार भ्रम निरूपणाधिकार २४१ भद्रोंमें) स्तम्भों रख सकते हैं। उसमें संशय न करना, इस तरह दो भ्रम के प्रासादके विभागों कनिष्ठभान के जानना । ७-८. यथा एवं विभागं च जेष्ठत्वेष्टादशः शुभं ॥९॥ सर्व भित्ति भवेद्भागं भागैकं भ्रमणद्वयं । द्विभागं द्विभ्रमजेष्ठं शेषं गर्भगृहं भवेत् ॥१०॥ ॥ इति भ्रमद्वय ज्येष्ठमान ॥ હવે જેષ્ઠમાનના બે ભ્રમની વિધિ કહે છે. અઢાર ભાગ ખાયે કરવા સર્વત ભીતે એકેક ભાગની અને બે ભ્રમ એકેક ભાગના રાખવા એટલે એક તરફ બે श्रम लागना शु. सने माडी ६॥ भागन ( -(साथे स्तू५)स रामवी. ८-१०. . ___अब ज्येष्ठमान के दो भ्रमकी विधि कहते हैं । अठारह भाग रेखाके पर करना। सर्व दिवारें एक एक भागकी और दो भ्रम एक एक भागके रखना । अर्थात् एक तरफ दो भ्रम दो भागके जानना और बाकी दश भागका (गर्भगृह स्तूप साथका रखना । ९-१०. क्षेत्राष्ट दशभिर्भाग षड्भाग लिङ्गपीठके । भागैकं षटभित्ति च भाग भागं भ्रमत्रय ॥११॥ स्तंभा श्रेणि युतां तंश्च भ्रमांश्चत्वारि धीमताम् । मध्यवेदिककृते गम (क्षेत्र) सभ्रमं च करोटकः ॥१२॥ ज्ञायते तद् भ्रमं पंच महामेरुप्रसिद्धयेत् । कवलिका सनमाख्याता भाषितं विश्वकर्मणा ॥१३॥ સાંધાર પ્રાસાદના બહાર રેખાયે હોય તેના અઢાર ભાગ કરવા. તેમાંથી વચ્ચે છ ભાગનું લિપીઠ સ્તૂપ ભિતિ સાથે ગર્ભગૃહ–રાખવે. તેની છ ભિંતે એકેક ભાગની અને ત્રણ ત્રણ ભ્રમ પણ એકેક ભાગના કરવા. (એ રીતે प्रभानु प्रमाण यु.) ११-१२-१३. सांधार प्रासादके बाहर रेखाके हो उसके अठारह भाग करना । उनमें से विचमें छः भागका लिङ्गपीठ-स्तूप-मित्ति के साथ गर्भगृह रखना। उसकी छः (२) श्लोक ७-८ ना ! ! १४ अशुद्ध अने गशुत्री महान विभाग अशु हता. શુદ્ધ પાઠો મળશે તે નવી આવૃત્તિ શુદ્ધ પાઠ મુકીશું. २. श्लोक ७-८ के पाठो अशुद्ध है। शुद्ध मिलनेसे नया संस्करणमें शुद्ध पाठ रखेंगे। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "चोगा | गर्भगृह क्षीरार्णव अ. ११७ क्रमांक अ. १९ दिवारे एक एक भागकी और तीन तीन भ्रम भी एक एक भाग के करना । (इस तरह तीन भ्रमका प्रमाण जानना । ११-१२-१३. ભ્રમની ભી તેમાં મધ્યભાગમાં ચરચાર શ્રેણીના સ્તંભે બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ प्रयभम (सांधार पासाद) કરવા. (તેવું બબ્બે એટલે ચાર चतुषार ભ્રમના પ્રાસાદને કરવું.) મધ્યમાં વેદીકા કરી ગર્ભગૃહને ઘુમટી– કલાડીયા-કરેકટ કરે. પ્રસિદ્ધ એવા મહામેરૂને પાંચ કામ કરવા. (અથવા પંચ મેરૂને આ રીતે ભ્રમ કરવા !) આગળ કેલીકા ભ્રમના વિભાગમાં શ્રી વિશ્વકર્માએ ही छे. भ्रमकी दिवारोंमें मध्यभागमें भ्रमत्रय-तलदर्शन चार चार श्रेणीके स्तंभ बुद्धिमान शिल्पी को करना । (वैसा दो दो अर्थात चार भ्रमके प्रासादको करना । मध्यमें वेदीका कर गर्भगृहको धुमटी कलाडिया-करोटक करना । प्रसिद्ध ऐसे सहामेरूको पाँच भ्रम करना । (अथवा पंचमेरू को इस तरह भ्रम करना ?) आगे कोलीका भ्रम के विभागमें श्री विश्वकर्माने कही है। एक द्विद्वयो त्रीणि तृतीये चतुपंचके । मध्य वेदी समायुक्त श्रमस्तैतालिलक्षणम् ॥१४॥ नमश्च भ्रमर्योमध्ये यदाभित्ति निवेशितम् । सषष्टं तसोत्परे प्राज्ञ क्रमशा क्रमणान्तके (?) ॥१५॥ સાંધાર પ્રાસાદને એક ભ્રમ બેને બે ત્રણના ત્રણ અને ચાર અને પાંચ મે કરવાં વચ્ચે વેદી (ભદ્રમાં) બ્રમની તાલીકાનાં લક્ષણે જાણવા ભ્રમ અને બીજા ક્રમની વચ્ચે ભિતી કરવી. ભ્રમના મધ્ય ભાગમાં સ્તની શ્રેણ કરવી. એ રીતે ડાહ્યા શિલ્પીએ કેમ પર ક્રમથી બ્રમો કરવાં. ૧૪-૧૫. सांधार प्रासादको एक भ्रम दो को दो, तीनके तीन और चार और पांच भ्रमों करना । बिचमें वेदी (भद्रमें) भ्रमकी तालिकाके लक्षण जानना । भ्रम और दूसरे भ्रमके बीच मिती करना । भ्रमके मध्य भागमें स्तंभों की श्रेणी करना । इस तरह बुद्धिमान शिल्पीको क्रमपरक्रमसे भ्रमों करना चाहिये । १४-१५ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सांधार भ्रम निरूपणाधिकार शिवेच देवता उक्ता आगमस्ता पुनः पुनः । एहि-उक्ता ग्रहासर्वे तत्सर्वेश्नममध्यनः॥१६॥ भवाज्ञा रुप संयुक्ता गणपति विविधानि च । नकुलिशो शेषरामाश्चभ्रमस्तुयलंकृते ॥१७॥ प्रवेक्ष्णं यदा सूयें सौम्यादि नवमेव च । भ्रमस्थाने प्रदातव्या पूजिता च सुखावहा ॥१८॥ प्र पत ब्रह्मा विष्णु महिषासुरमर्दिनी सूर्य उध्वें पृथक् पृथक् पक्ष तोरण पक्षे विरालिका स्तमिका आदि परिकर युक्त આવા સાંધાર બ્રમયુકન પ્રાસાદમાં શિવઆદિ દેવે જે આગમાં તેની सध्या री शने ४४ी छे............ते स तथा सर्व अर्डी ३२ता मनी ભીંતેના મધ્યમાં કરવા...ગણપતિના જુદા જુદા બત્રીશ સ્વરૂપે (મુદ્દલ પુરાણમાં કહ્યા છે તે નકુલીશ ભગવાન શેષનારાયણ રામ આદિ સ્વરૂપો ભ્રમ પ્રદક્ષિણમાં કરી અલંકૃત કરવા... સૂર્ય અને ચંદ્રાદિ નવ ગ્રહ બ્રમના સ્થાનમાં તેનાં સ્વરૂપે કરી પૂજવાથી સુખને આપનારા જાણવા, ૧૬-૧૭–૧૮. ऐसे सांधार भ्रमयुक्त प्रासादो में शिव आदि देवों जो आगमों में उनकी अंग संख्या बार बार कही गई है......उन सब तथा सब ग्रहोंके चारों ओर भ्रमकी दिवारों के नकुलीश भगवान शेषनारायण राम आदि स्वरूपों भ्रम प्रदक्षिणामें कर अलंकृत करना...सूर्य और चन्द्रादि नौ ग्रहों भ्रमके स्थानमें उनके स्वरूपों कर पूजन करनेसे सुखके देनेवाले हैं। १६-१४-१८. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર १ महाधेनु क्षीरार्णव अ. ११७ क्रमांक अ.-१९ श्रुतदेवी - शारदा सरस्वती का १२ स्वरूप २ वेदगर्भा ३ इश्वरी Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सांभार भ्रम निरूपणाधिकार वार wwe XN ४ जयादेवी ५ विजयादेवी ६ सारंङ्गादेवी ८ नारदीदेवी ७ तुबरीदेवी ९ सर्वमंगला नारदादि रिषि सर्वे पांडवाद्यायुधिष्ठिरः। - प्रासादे भ्रम संस्थाने स्वस्थाने भ्रम प्रदक्षिणे ॥१९॥ स्वच्छंद भैखाद्यं च आनंदो प्रति भैरव । मुक्ति उक्ता यथा देव्या भ्रम स्थाने सुखावहा ॥२०॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११७ क्रमांक अ० १९ -- U . TH १० विद्याधरी ११ सर्वविश्वा १२ सर्वप्रसन्ना भारदीय अष्टाशिति सहस्त्राणि ऋषिराज सुखावहा । ब्रह्मणे भ्रमसंस्थाने वसिष्ठाय प्रदक्षिणे ॥२१॥ નારદ આદિ સર્વ ઋષિઓ અને યુધિષ્ઠિરાદિ પાંડે પ્રાસાદના ભ્રમના પિત પિતાના સ્થાને ફરતા કરવા. તેમાં સ્વચ્છેદ ભરવાદિ આનંદ રાવ પ્રતિ શૈરવ તથા મુકિતને દેનારા એવા દે અને દેવીઓને પ્રદક્ષિણામાં સ્થાપવા તે સુખને આપનારા જાણવા ભ્રમમાં અડયાશી હજાર ઋષિ વસિષ્ઠાદિનાં સ્વરૂપે બ્રાહ્યાના मडा प्रासाहना श्रमनी प्रक्षिष्याम ४२१. १८-२०-२१. FOR AAI PERS दक्षिण दिग्पाल यम भैरव-क्षेत्रपाल नीरुती उमामहेश-आसनस्थ उर्ध्व नृत्य-ललाट तिलक शिव Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अथ सांधार भ्रम मिरूपणाधिकार ___ नारद आदि सर्व ऋषियों और युधिष्ठिरादि पांडवों को प्रासादके भ्रमके अपने अपने स्थानपर फिरते करना। उनमें स्वच्छंद भैरवादि. आनन्द भैरव, प्रति भैरव तथा मुक्तिदाता ऐसे देवों और देवियों को प्रदक्षिणा में स्थापना वे सुखके देनेवाले हैं। भ्रममें अठासी हजार ऋषि वसिष्ठादि के स्वरूपों ब्रह्मा के स्वरूपों ब्रह्माके महाप्रासादके भ्रमकी प्रदक्षिणामें करना । १९-२०-२१. । इतिश्री विश्वकर्माकृतायां क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां सांधार भ्रम निरुपणाधिकारे शताने सप्तदशाधिकारे ॥ ११७॥ क्रमांक अ० १९ ઈતિ શ્રી વિશ્વકર્મા વિરચિત ક્ષીરાણુવ શ્રી નારદઋષિએ પૂછેલા સાંધાર ભ્રમ નિરૂપણ અધિકાર પર શિલ્પ વિશારદ શ્રી પ્રભાશંકર ઓધડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાને એક સત્તર અધ્યાય. ૧૧૭, (ક્રમાંક અ૦ ૧૯) ___ इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णवमें नारदजीके पूछे हुए सांधार भ्रम निरूपण अधिकार का शिल्प विशारद श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुराकी रचि हुी सुप्रभा नामकी भाषाटीका एकसौ सत्रहवाँ अध्याय ॥११॥ (क्रमांक अ० १९) mu शिव तांडवनृत्य Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ सांधार चतुर्मुख प्रासाद वर्णन ॥ क्षीरार्णव अ० ११८ क्रमांक २० श्री नारदोवाच स्वर्ग स्थानाचितं पूर्व शिवस्थानं चतुर्मुखः । जिनभवन देवलोके ममभृत्वा मुहुर्मुहुः ॥१॥ पुनः कांच विशिष्ट . च मानतुङ्गे महीतले। उक्ता चातुर्मुखा सर्वे कथितं मम सांप्रत ॥२॥ શ્રી નારદજી કહે છે. ચાતુર્મુખ એ શિવસ્થાન પ્રાસાદ સ્વર્ગમાં પૂજાય તે આપે આગળ કહ્યો, તે દેવલોકમાં પૂજાય તેવા જન ભવનને મર્મ મને કહો. મૃત્યુ લેકમાં પૃથ્વીને વિશે વિશિષ્ઠ એ કાંચન જેવા પ્રાસાદ ચાતુર્મુખ ६३ भने ४डा. १-२. ___ श्री नारदजी कहते हैं-चातुर्मुख ऐसा शिवस्थान प्रासाद स्वर्गमें मी पूजनीय होवे वैसा आपने आगे कहा, वैसा ही देवलोक से पूज्य होवे वैसा जिनभवन का मर्म मुझे बताओ। १-२. श्री विश्वकर्मा उवाच * उक्तं माहवमितिश्च क्षेत्रे चातुर्मुखं वंदिते । प्रासाद ब्रह्मसूत्रे सस्थर युक्तेन च ॥३॥ नंदकोष्ट प्रतिष्ठे त्याद्यततः वेदि भ्रमति परिघा । मंडपा तस्य चाग्रेण त्रिभिः कर्णे पद्भिर्यता वेदिका ॥४॥ तेषां युक्ति विधातन सुरे जैनेद्र पुर्वोत्तरे। युक्ताको प्रमाण विवरे आयार्मा विस्तीर्पा कोष्टे ॥५॥ उपसिविटपे (?) आयामं त्रिंश गृह्यंति कोष्टा। विधेभ्यश्रति, मेघा रचति मेघस्वरानि सिंहनिते॥६॥ पाठान्तर १. स्वचित पूर्व चतुर्मुछ, २. विसिष्टं, ३. मातलोगे, ४. ज्येत्रे, ५. सरबयुक्तेन ६. नंदाकाष्टे, ५. कर्णे कर्णे त्रिभिः, ८. नेनेंद्र, ९. पूणोत्तरे, १०. मेघध्वरानि । * શ્લેક ૩ થી ૧૦ માં ઘણી અશુદ્ધિઓ હોવાથી અનુવાદ થઈ શક નથી, Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NITIATTI SHEHARनपान त्रिताल तोरण सांचीस्तूप ईस. पूर्वे दुसरी शताब्दी MEDIEO re YOOO कछामय हीडोलक (आंदोलक) तोरण सोमनाथ (प्रभासपाटण) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAR पीठ, स्तम्भ, गडदी, छाद्य ईलिकायुवत सुंदर कलापूर्ण तोरण मध्यमें गजतालु तोरण वडनगर (गुजरात) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सांधार चतुर्मुख लक्षण २४९ अधरः ११ aer मेघारति सार्ध्व नाल्योपरिः संक्रमे । स्वभूमिते नंदवेदी कक्षांन्तरे ||७|| वर्तने त्यावच्छादनं भूमति चेड़ चातुर्दक्षु निर्मिता । द्वौ कोष्टो भ्रमण रहितं त्रिचिटिस्तु मे संचयम् ॥८॥ प्रासाद १२ पक्षे भ्रम वेदि उच्छालयं उत्तमं । संलग्नं स्तंभत्यजे भिति त्यजेत् .. ..... ॥९! लग्नापुढं उछालने रुपमनेक चित्रे प्रासादानां सन्मुखम् । च्छादंति छानिरुपाः प्रसिद्धः सूर्यादि ताराउली ||१०|| रथोपस्थ निष्क्रान्ते माने कवली सदा । १३ निर्भितं गवाक्ष मदलै स्तंभस्य सहित पदभ्यं पठान्तरे ॥ ११ ॥ द्वारश्र द्वारे ' शाखा प्रशाखे उपर्युपरि भूमिके | १४ पुनः पुनः कपोताली जंघा प्रजंघा कपोल " छाद्यकै ॥१२॥ ભાવાય -થ ઉપરથના ઉપાંગેાના નિકાળાના માનથી કાળીનું નિર્માણુ હંમેશાં કરવું ગેાખ જરૂખા મદન સ્ત ંભા સહિત સુોભિત કરવું–પદના પાટ સુધી....દ્વાર ઉપર દ્વાર દ્વારની શાખા ઉપશાખા ઉપરાઉપર કરવી. ઉપલી ભૂમિને ફ્રી કેવાળ જંઘા તે પર ફરી જ ધા કરી ફેવાળ પર છઠ્ઠું કરવું ૨૯-૩૦ भावार्थ- — रथ उपरथके उपांगोंके निकालेके मानसे कोलिका निर्माण हमेशां करना । गोख, झरोखा महल स्तंभों के सहित सुशोभित करना । पदके पाट तक... ... द्वारके ऊपर द्वार द्वारकी शाखा उपशाखा उपरापर करना । उपरकी मूमिं को फिर . केवाल जंघा, उसके पर फिर जंधा कर केवाल - पर छज्जा करना । २९-३० मानतुङ्गो विराजितः सदा जिनेंद्र उक्ता श्रुभा । त्याच जुगती भ्रमती परिधी लुब्ध मानतुङ्गा ईता ||१३|| ज्ञाति वरादिच्छेदविमाने मर्य रेखा निजः । श्री भद्भागतश्च क्रियते अक्षय पदं लभ्यते (१) ॥ १४ ॥ ભાવા —માનતુંગ પ્રાસાદ જ્યાં છે ત્યાં સદા શુભ એવા જિનેન્દ્ર પ્રભુ વિરાજે છે, તેની જગતી પરિધી-ભ્રમવાળી છે. માનતુ ંગ પ્રાસાદ વૈરાટી જ્ઞાતિ છંદ કે વિમાન જાતિમાં મજરી રેખાવાળુ શિખર કરવું. આવા પ્રાસાદ કરાવનારને અક્ષય પદના લાભની પ્રાપ્તિ થાય છે. ૩૧-૩૨ पाठान्तर ११. रतिः, १२, प्रासाद क्षेत्रह्मवेदिः १३. मदलैर्धभस्या, १४. ईर श्रद्धारे, १५. कपोत । ३२ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. ११८ क्रमांक अ. २० भावार्थ — मानतुंग प्रासाद्र जहाँ है वहाँ सदा शुभ ऐसे जिनेन्द्र प्रभु बिराजते हैं । उसकी जगती परिघी-भ्रमवाली है । मानतुंग प्रासाद वैराटी ज्ञाति छंद या विमान जातिमें मंजरी रेखावाला शिखर करना । ऐसा प्रासाद करानेवाले को अक्षयपद के लाभकी प्राप्ति होती है । ३१-३२. शिखरोर्ध्वे पंचदंड स्कंधे क्यादि जिनेश्वरम् । २५० ઉપલા ચાર ઉશ્રૃંગાના આમલસારામાં ચાર અને મૂળ શિખરને મળી પાંચ ધ્વજાઈંડ ચામુખને કરવા અને શિખરના બાંધણા ઉપર જિનેશ્વરની મૂર્તિ કરવી. ૩૩, उपरके चार उरुशृंगों का आमलसारे में चार और मूल शिखर सब मिलकर पाँच ध्वजादण्ड चौमुखको करना और शिखरके स्कंध के ऊपर जिनेश्वरकी मूर्ति करना । ३३. चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे अष्टादश विभाजिते । कर्ण त्रिभाग विस्तारं पल्लवी पदमेव च ॥ १५ ॥ निर्गमं तत्समं कार्य प्रतिकर्णद्वयो भवेत् । निष्क्रांत समंवक्ष्ये कर्णि भागाश्च विस्तरः ||१६|| निवेशं च समं कुर्यात् भद्रार्ध भाग द्वयो भवेत् । निर्गमं पद सार्द्धे च उभयो वामदक्षिणे ॥ १७ ॥ ૧૮ પ્રાસાદના ચેારસ ક્ષેત્રના અઢાર ભાગ કરવા કરવા. તેમાં રેખા ત્રણ ભાગની પલ્લવી (નઢી) એક ભાગની સમહલ, એવા એ પ્રતિક મએ ભાગના તે પણ સમદંલ કરવાં. નદી ખૂણી એક ભાગની સમદલ અરધુ ભદ્ર બે ભાગનુ અને તેના નીકાળે દોઢ ભાગના રાખવે એમ એ ઉત્તર ડાબી જમણી તરફ એમ यारे तर ४२. १५-१६-१७ मुगु ૧ પલ્લવી ૨ પ્રતિરથ ૧ નદી ૐ ભદ્ર ૯ ભાગ ૯ ભાગ प्रासादके चोरस क्षेत्रके अठारह भाग करना। उनमें रेखा तीन भाग की पल्लवी (नंदी) एक भागकी सभदल, ऐसे दो प्रतिकर्ण दो दो भाग के, वे भी समदल करना । नंदी कोनी एक भाग की शमअर्धा भद्र दो भागका और उसका निकाला डेढ़ भागका रखना। इस तरह दो उत्तर बायीं दायीं तरफ ऐसे चारों तरफ करना । १५-१६ - १७. कर्णे नन्दनं सर्वेषां नवभृङ्गे रथोपरि । नंन्दि श्रीवत्समेकैकं रथिका भद्रभूषितं ॥ १८॥ रथे कण पुनः कार्य नव पञ्च परि भ्रमं । १७ कर्णि तिलकं प्रदातव्यं कूटकारादिकं क्रमात् ॥ १९॥ पाठान्तर १७ कंटकारादिकं Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ सांधार चतुर्मुख प्रासाद लक्षण $3e & oalke apalal Ple (e) દે ! છે ! | lale ap lak helle (s) Tips ਆਪ केसरी कर्ण संस्थाने મારી મૂજ રેવા ૨ MR मातु पासाद तल भाग १८ બેંક ૨૬૫ નિજ ૩૬. (1) પ્રાર્ १८ तिलकं विंशोत Soc ૨૬૫ ટ્ પરે रथे श्रीवत्सदाययेत् । પટ્ટાસતુજા (!) રા प्रत्याङ्गे सरतरा सर्वकामदा । करु नागेषवेद युक्ताश्च श्रृङ्गवत् શિાંન્તરે કરા १८ तिलकं पडूत्रिशोक्तं मानंतुङ्ग विराजिते । तेषा लक्ष मातंगैश्व रिषिराज श्रृणोत्तमम् ||२२|| इति मानतुङ्ग રૂખ કણે તેર અડકનું નાદન કમ પહેલું ચડાવવુ. પઢરે નવ અંડકનું સતાભદ્ર ચડાવવુ, ભદ્રની બેઉ ખૂણીઓ પર એકેક શ્રૃંગ ચડાવવુ. ફરી રેખા પર નવ ધ્રુંગનું સ તાભદ્ર અને પ્રતિરથ પર પાંચ અડકતુ કેસરી ચડાવવુ. ખૂણીઓ પર તિલક ફૂટ ચડાવવા. રેખા પર ત્રીજુ કમ કેસરી પાંચ અડકવું અને પ્રતિરથ પર શ્રીવત્સ-શ્રૃંગ ચડાવવું. મૂળ રેખા પર મંજરી ( તિલક ચડાવવુ. ) ............. ભદ્રના ખૂણે એક તિલક ચડાવવું) ઉરુશ્રૃંગ સેાળ અને આઠ પ્રત્યાઙ્ગ ચડાવવાથી મસા એગણુસીત્તેર ૨૬૯ શ્રૃંગ અને છત્રીશ તિલક ચડે ત્યારે ઇતિ માનતુંગ નામના પ્રાસાદ થયે ૪-૫ જાણવા. હવે માતંગ પ્રાસાદના લક્ષણ ડે ઋષિરાજ ! કહ્યું તે સાંભળે, ૧૮ થી ૨૨. कर्ण पर तेरह का नंदन कर्म प्रथम चड़ाना । प्रतिरथ पर ९ सर्वतोभद्र Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ पाल परास - - ४८॥ भागका कनिष्मानका मंडोवर क्षीरार्णव अ -११८ क्रमांक अ.-२० भद्रके कोणी पर. एकेक शृङ्ग चड़ाना-फिर कर्ण पर नौ शृङ्गका सर्वतोभद्र, और प्रतिरथ पर केसरी चड़ाना । कौने पर तिलक कट रखना-कर्ण उपरे तीसरा कर्म केसरी पाँच शृङ्गका चड़ाना और प्रतिरथे एक अङ्ग चड़ाना । मुल रेखा पर मञ्जरी-तिलक चड़ाना......... ...भद्रके कौने पर तिलक रखना। उरुश्रङ्ग सोलह और प्रत्यांग आठ चड़ानेसे दोसौ उनसित्तर श्रङ्ग और छत्तीस तिलक चड़ानेसे मानतुङ्ग नामक प्रासाद समजना । अब हे ऋषिराज ! मातङ्ग प्रासाद का लक्षण मैं कहता हुँ वो सुनो। १८ से २२ इति मानतुङ्ग दशधात यदा क्षेत्रं चेइ आणे निवेशितं । मानतुङ्गश्च यदाङ्गा शिखर सर्व कामदम् ॥२३॥ अन्यत्रांङ्गे न कर्तव्यं ग्रासादादि संयुतम् । चेहआणे विशेषण शोक सन्ताप कारितः ॥२४॥ यादशं मूल प्रासाद तादश जगतीः क्रम ।। रथेयुक्ते विभागं च समेश्रृङ्ग समाकुलम् ॥२५॥ इति मातङ्ग ભાવાર્થ-માતંગ પ્રાસાદ ચેઈચાણના ક્ષેત્રના દશ ભાગકરવા તેમાં અંગ ફલના માનતુંગ પ્રાસાદ જેટલા (અઢારના દશભાગે) કરવા અને भागत શિખર પણ એવા જ પ્રકારનું કર્મશૃંગવાળું કરવાથી સર્વ કામનાને આપનારૂં જાણવું. તે પ્રાસાદ અંગ વિભાગ બીજા ન કરવા. જે બીજા કરે તે શેક સંતાપને આપે. જ્યાં સુધી મૂળ પ્રાસાદના રથ આદિ અંગ વિભાગ કરવા અને ગે પણ એમ તેટલા જ ચડાવવા (રેખા બે ભાગ, બે નંદી અરધા અરધા ભાગની, પ્રતિરથ અને ભદ્ર એકેક ભાગના भनी ४ मा ४२वा.) ति भात . २३-२४-२५. मातङ्ग प्रासादका क्षेत्रका दश भाग करना (२ भाग रेखा दो नंदी आधा आधा भाग । प्रतिरथ और भद्रार्ध एकक भाग) उनका फालना मानतुङ्ग जीतना १९ तादशं चतुदिइयो । -11-1-1-1- ॥- --.-.--१५ -------- ----- समसभागामालका मघर क्षीराणे अ----- --३-14-३-- ५ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- - अथसांधार चतुर्मुख प्रासाद लक्षण प्रमाणसे रखना। शिखर उसी प्रकारका कर्म श्रृंग युक्त करना यह सर्व कामना दायक समजना । प्रासादका अङ्गविभाग और शृङ्गादि अन्य प्रकारका करना नहि यदी करे तो शोक संतापकारक समजना । २३-२४-२५ इति मातङ्ग तथा मंडोवरे रिषि विभाग श्रृणु सांप्रतम् । पीठं पूर्व प्रमाणेन कुबेर - कुमुदोद्भवम् ॥२६॥ खुरक हृय भागानी कुंभकं पंच मेव च । कलशं त्रिभागमुत्सेधं रन्तरपत्रं पदार्धत ॥२७॥ कपोताली त्रिभागेन २ मञ्चिका त्रिणि वे रिषि । २'चतुर्दश्योच्छिता जंधा साधचत्वारि उद्मम् ॥२८॥ भरणी गुण विचारेण द्विपदंउर्ध्वकपोतिका । छादनं पदमेकेन कपोताली च पूर्वतः ॥२९॥ अर्धयान्तर पत्रं च चत्वारि कूट छाद्यकं । कन्यसं च अत: प्रोक्तं मध्यमानं च कथ्यते ॥३०॥ - હે કષિરાજ ! હવે મંડોવરના વિભાગ સાંભળે. પીઠ આગળ કહ્યા २ स्वरो પ્રમાણે કુબેર કે કુમુદોદ્દભવ પ્રકારનું કરવું. ખરે બે ભાગ, કુ - પાંચ ભાગને, કળશે ત્રણ ભાગને, અંતરપત્ર અરધા ભાગનું, ।। अंतरपत्र अक्षण मानो, माया त मानी, धा यौह मानी, ३ केवाल ઉદ્દગમ દેઢીયે સાડા ચાર ભાગને, ભરણ ત્રણ ભાગની, (૩૮ ३ मंचिका १४ जंघा ભાગ) તે પર ઉર્વ કેવાળ બે ભાગને, છાદન એક ભાગનું, કેવાળ ४|| उद्रम ત્રણ ભાગને, અંતરપત્ર અરધા ભાગને, ચાર ભાગનું છજું. એ ३ भरणी આ રીતે ૪૮ ભાગના કનીષ્ઠ માનના મંડેવરના ભાગ કહ્યા. હવે १ छादन मध्यभानना भवन विलास छु. ३ केवाल हे ऋषिराज ! अब मंडोवर का विभाग सुनाता हुँ । पीठ आगे ॥ अंतराल " कहा ऐसा कुबेर-या कुसुदोद्भव प्रकारका करना । खुरो-दो भाग, भाग कुंभक पाँच भाग, कलशा तीन भाग, अंतराल आधा भागका, केवाल कनिष्ठमान और माची तीन तीन भागकी जंघा चौदा भागका, देढीया साला चार भागका, भरणी तीन भाककी, (३८ भाग) उसकी पर अर्ध्व केवाल दो भागका, छादन एक भागका, केवाल तीन भागका, अंधारी आधे भागकी, और छज्जा चार भागका । ऐसे कनीष्ठ माकका मंडोवर ४८॥ भागका कहा, अब मध्य मानका मंडोवर कहता हुँ । २६ से ३० पाठान्तर २० मंचिका स्तंभवेदिमि २१ चतुर्दश Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११८ क्रमांक अ.-२० भरणी मस्तके प्राज्ञ चतुर्भागा शिरावटिः। छादनं कथ्यते पूर्व कपोतालि च पूर्वत:२२ ॥३१॥ .. पुनः कपोताली त्रिभागेन अर्ब चांन्तरपत्रय । कूट छायं भवेत्पूर्व मध्यमानतु निश्चयं ॥३२॥ ઉપર કહેલા કનિષ્ઠમાનના મંડેવરમાં ત્રણ ભાગની ભરણું (સુધીના ૩૮ ૩ ભરણી ભાગ) ઉપર ચાર ભાગની શિરાવતી અને આગળ ૪૮ ભાગ આગળ કહ્યા તે પ્રમાણ છાદન એક ભાગ, કેવાળ ત્રણ ભાગ ૪ શીરાવટી ફરી કેવાળ ત્રણ ભાગને, અંધારી અર્ધ ભાગની, ૧ છારન કે કેવાલ છજુ ચાર ભાગનું કરવું. એ રીતે પા ભાગને वाल મધ્યમાનને મંડોવર જાણ. ૩૧-૩૨. મા અંધારી ૯ અંધા आगे कहा हुआ कनिष्ठमान का मंडोवर में ४७ ૪દોઢીયે ૩ ભરણ ભાગ પડા तीन भागकी भरणी (थर्यतका ३८ भाग) उपर ભવ્યમાન उपार चार भागकी शिरावटी, एक भागका छादन, तीन માં અંધારી भागका केवाल फीर तीन भागका केवाल, आधे - भागकी अंधारी, चार भागका छज्जा करना । ऐसे मान ५३॥ भागका मध्यमानका मंडोवर समजना । कपोताली बभूमध्ये जंघा भाग नव स्तथा । २"उपरे छाद्य प्रधानं च ज्येष्ठ मानं च सिद्धति२४ ॥३३॥ ભાગ ૭૦ ઉપર કહ્યા મધ્યમાનના પડા ભાગમાં બે કેવાળ વચ્ચે ૪૬ ભાગ પર જંઘા નવ ભાગની કરવી. તે ઉપારના થરો આગળ કહ્યા. દોઢીયે જા ભાગ, ભરણી ત્રણ ભાગ, કેવાળ ત્રણ ભાગને, અંધારી અરધો ભાગ અને ચાર ભાગનું છજુ મળી કુલ ૭૦ ભાગને જેષ્ઠ માનને મંડોવર સિદ્ધિને આપનાર જાણો. (બે ભૂમિ એક છાઘ) ૩૩. आगे मध्यमानका ५३॥ भागमें दो केवालकी बिवमें ४६ भाग, उपर जंघा नव भागकी ते उपरके थरों आगे कहा उद्गम ४॥ भाग, भरणी तीन भाग, केवाल तीन भाग, अंधारी आधा भाग उपर मुख्य छाद्य चार भागका मीलके ७० भागका ज्येष्ठमानका मंडोवर (दो भूमि एक छाद्यका) सिद्धि दायक जानना । ३३ २२ पूर्वक २३ थरे छाद्यं २५ सिद्धिमि । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ ४-17-३-१-३०-४- 1 ----- 1 म ५३॥ भागका मध्यमानका मंडोवर अथ सांधार चतुर्मुख प्रासाद लक्षण विश्वकर्मा उवाच 'तथा जगती कोष्ठेन आयामं५ च विस्तीर्णम् । कोष्ठे वेदि चत्रयोविंशे २ मुखायते च त्रिंशतिः ॥३४॥ ततो कोष्टान मध्ये चैई मेकोन विशतिः। पंचविंशति मुखायते २७त्रयमाने विधीयते ॥३५॥ त्रयो २८ कोष्टान्तरे अष्टत्रयो भद्रे च षोडशः। सिंहद्वार२६ बभुपक्षे द्वांत्रिशैव सिद्धयति ॥३६॥ भद्रपक्षे भवेत्स्त्रीणी कक्षान्तरे प्रवेष्टितं । १० (अष्टमत्वधू प्रविष्ठस्य भद्रे भद्रे जिनालयं) ॥३७॥ जिनालये वरश्रेष्ठः सर्वक्षेत्रे च बावन । ....... ........ ॥३८॥ (भावार्थ) श्री विश्व छ....बिनायतनना જગતીને કોઠે લાંબે પહોળા કરે. તે કોઠાના વેદિ ૨૩ ભાગ અને ઉંડાઈ ત્રીશ ભાગ તે કોઠામાં મૂળ પ્રાસાદ ચૅઈઆણ (૧) ઓગણીશ ભાગ અને પશ્ચીશ ભાગ લાંબે ઉંડાઈમાં વિધિથી કરે. ત્રણ डाना मत माः मेवा र भद्रे....सोण.... મધ્યગર્ભથી બેઉ પડખે બત્રીશ.ભદ્રના પડખે ५....त्र ऋण ५७माना भतरे प्रविष्ठ ४२वा. माई.... प्रविण्ठ....भने भने निसय ४२वां જિનાલયમાં બાવન જિનાલય સર્વમાં શ્રેષ્ઠ છે. ." रभाग ३४-३५-38-30-3८ - -----२४-------- मागका मध्यमामावर २ ----- -14-३-1-471 AWAL ---.- - -.-..--...-..-.- -.--.--- ----- -- - -- ----- - - ----- (1) અહીં આપેલ અધ્યાય ૧૧૮ મો કેટલીક જાની પ્રતિમા ને * ૧૪૭મો ગણ્ય છે. એટલે તે કદાચ પાછળના ભાગમાં હોય ! આ ગ્રંથના કેટલાક પાછલા અધ્યાયો વૃક્ષાર્ણવ ગ્રંથને મળતા તેના કેટલાકના ભાગ અને પાડે છે. १. यहाँ दिया हुआ अध्याय ११८ वाँ की पुरानी प्रतोंमें अ० १४७ वाँ गिना गगा है। इससे हो सकता है वह पीछेके भागमें भी हो। इस भन्थके कभी पीछले अध्याय के वृक्षार्णव प्रन्थसे मिलते जुलते उनके की भाग या पाठों है। पाठान्तर २५ आयामंत्र विस्तृतम् , २६ आयमं च त्रिंशति, २७ क्रियमान, २८ कक्षान्तरे २९ सिद्धा बभूपक्षे ३० () ३२ छ ते मा मे पहो इसी प्रभा नथा. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % पाट L उETTE - CHATTERRI -118-2- दाच A-IISED निय भूमि --- - A A GAYIn ange - .-.-:/09-विभाग-- - - - - -- r ज्येष्ठ मानका महामंडोवर एक छज्जा उदय भूमि-उदयजघा युक्त मंडोवर समस्त भाग ७. अथ सांधार चतुर्मुख प्रासाद सूक्षण (भावार्थ) विश्वकर्मा कहते है... जिनायत की जगतीका कोष्ठ लम्बा चोडा करना । उस कोष्ठके वेदि २३ भाग और गहराई तीस भाग । उस कोठे में मूल प्रासाद-चेइयाण उन्नीस भाग और पच्चीस भाग लम्बा गहराई में विधि से रखना | तीन कोठे के अंतरे आठ ऐसे तीन भद्रे ...सोलह ...मध्यगर्म से दोनु और बत्तीस...भद्रके बगलमें भी...तीन तीन बाजुके अंतरमें प्रविष्ठ करना । आठ ...गहरा प्रविष्ठ...भद्रे भद्रे जीनालय करना । जिनायतमें बावन जिनायतन सर्वमें श्रेष्ठ हैं। ३४-३५-३६-३७-३८. दिग्पाल तांडवनाचं लास्यं लोके वैतालश्च ॥३९॥ प्रकृते षु पुनर्निमिक्षु (१) नृत्य कूर्याच्चतुर्मुखे । स्तर स्थाने विशेषण शाखे स्तंभे निरंतरे ४ ॥४०॥ यावज्जीवानि सर्वाणि नृत्यकुर्वति मे सदा। प्रासाद मानतुङ्गश्च द्विपंचाश जिनालयः ॥४॥ छंद नागर , मादाय ___ सर्वछंदानिमाश्रितम्। येनपीठ विरंचितम् मंडोवर विशेषतः ॥४२॥ चातुर्मुखे चदातव्या पुनर्दद्या चतुर्मुखे। इति मातंग (मानतुङ्गप्रासाद) ---118- t --- ishan.tarumentre - - - ......Kikutaha - - - 17 IH | - - Erack Anking नाममा90 ३१ प्रकन्ये न कृत्य चातुर्मुख, ३२ चातुर्दशै । पाठान्तर ३३ पदस्थाने, ३४ विस्तरे, ३५ दिपत्रिंश बाबन, ३६ जीतपिराज्यते । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ अथ सांधार चतुर्मुख प्रासाद लक्षण ભાવા -ચાતુર્મુખ જિનાયતનને ફરતા તાંડવ લાસ્યાદિ નૃત્ય કરતા ક્રિપાલ લાકપાલ વૈતાલાદિનાં સ્વરૂપ કરવા. અને વિશેષે કરીને થરના સ્થાને, શાખાઓમાં અને સ્તંભના વિસ્તારમાં હંમેશાં સ્વરૂપા કરવાં. જ્યાં સુધી જીવાનુ અસ્તિત્વ છે ત્યાં સુધી જાણે તે સં ંમેશાં નૃત્ય કરતા રહે, તેવા માનતુંગ પ્રાસાદ (૩૫) આવન..જિનાલયવાળે કરવે. પ્રાસાદના સર્વ છંદમાં નાગરછંદના આશ્રયે એટલે પ્રાધાન્ય રૂપે જાણવેલ. તેના પીઠ પર મડેવર કરવા. ચતુર્મુખના ઉપર ફરી शोभुम भवा ४०-४१-४२. इति भात (मान) आसाह भावार्थ - जिनालय के चारों ओर तांडव लास्यादि नृत्य करते दिग्पाल लोकपाल, बैतादि के स्वरूप करना और विशेषकर थरके स्थानपर, शाखाओं में और स्तंभके विस्तार में हमेशां रूपों करना । जहाँतक जीवोंका अस्तित्व है वहाँ तक वे सब जाने हमेशां नृत्य करते रहते हो ऐसा मानतुंग प्रासाद (३५) बावन... जिनालयवाला करना । प्रासादके सर्व छंद में नागरछंद के आश्रयपर अर्थात प्राधान्य रूपसे जानना | उसके पीठपर मंडोवर करना । चतुर्मुख के ऊपर फिर चोमुख ऐसे करना । ४०-४१-४२. इति मातङ्ग (मानतुङ्ग) प्रासाद | ३ प्रदीया "जिन ॥ ४३ ॥ ३६ मूर्ध्वनाय | रंङ्गमण्डपे ॥ ४४ ॥ ४ १ *** जगती प्रदीया क्षेत्रे महावेदे प्रदीया जिन संस्थाने जिणमाला चामदक्षे तथा पृष्ठाग्र मंडया पंचविंशति विस्तार अष्टाविंश मुखायतम् । ४० भागक लोपयेत्कर्ण चतुराशिति जिणालयम् ॥ ४५ ॥ विंश विशाय पृष्ठे (चतु) चत्वारिं मुखायते । ४२ जिणमाला स्तदानाम सर्वकल्याण कारिणी ॥ ४६ ॥ ભાષા -જગતીના ક્ષેત્રના....સંસ્થાનમાં જીણુમાલાની વૃદ્ધિ કરવી. ડાબી જમણી તરફ અને આગળ તથા પાછળ રંગમંડપો (ફરતા ચામુખને) કરવા. ક્ષેત્રના પચ્ચીશ ભાગ પહેાળાઈ અને અઠ્ઠાવીશ ભાગ (મુખાયત=ઊંડા) લખાઈમાં કરી ચાર ખુણે એકેક ભાગ લેપવા. એ રીતે ચેારાશી જીણાલય વીશ વીશ આગળ પાછળ અને પડખે બાવીશ ખાવીશ એટલે ચુમાલીશ મુખાયતમાં જીનાયત કરવાં. એવું ચેારાશી જણા यतन सर्वनुं ऽस्याशु ४२ना३ मेवु" जिणमाला" नाम भएयु. ४३-४४-४५-४६. १ चतुर्मुख ७६ देवलोका ८ महघर ८४ ८ मंडप ४ बलाणक स्तंभ संख्या ४२० ३३६ देरी ८४ १२ मूळगर्भगृह गर्भग्रह स्तंभ ७६८ प्रथम भूमि ३७ महाविद्ये ३८ प्रतिमादिच, ३९ विवर्द्धनीय, ४० भागे लोपये, ४१ विंशविंशकृते क्षेत्रे पृष्ठे चत्वारिंश मुखायतो, ४२ जिपादृष्टि विचार कृतै पृष्ठे । ३३ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3D क्षीरार्णव अ.-११८ क्रमांक अ.-२० जीणमाला तलदर्शन --- चोक F great .५१२८ ELECTEERELLESTERRENTAT +-- जेक ratngan 4444 In४३।२९ न bread apan JABRamay जिनायतन नाम निशान .. धान in E मय सायद २२.४२८ मुग्धासन Fir r e म+8लाक" नया २८४२५=खण्ड-विभागका ८४ जिनायतनके चतुर्मुख “जिणमाला" ૧ ચતુર્મુખ મંડપ–૮ ७१ हेवनि मनाए-४ ___ जगतीके क्षेत्रके...संस्थान के जिनमालाकी वृद्धि ८ भडावर नालीम ५-४ ...करना बाी दायीं तरफ और आगे तथा पीछे रंग मण्डपों (फिरते चोमुख के) करना । क्षेत्रके पच्चीश भाग સ્તભ સંખ્યા ૪૨ ૦ चौडाई और अट्ठाईश भाग (मुखोयत गहरे) लम्बाई में દેરી ૮૪ના ૩૩૬ મૂલ ગર્ભગૃહ ૧૨ कर चारों कोनों में एक एक भाग लोपना । इस तरह ७६८ चोराशी जिनालय बीस वीस आगे पीछे और बाजुमें बाईस Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सांधार चतुर्मुख प्रासाद लक्षण २५९ बाईस अर्थात चुमालीश मुखायतमें जिनायत करना । ऐसा चोर्याशी जिनायतन सर्वका कल्याणकर ऐसा “जिणमाला" नाम जानना । ४३-४४-४५-४६. द्वारस्य विस्तरंगृह्य अष्टमांशानि मध्यतः । ज्येष्ठमध्या कनिष्ठं वा अर्चामानं चतुर्मुखे ॥४७॥ द्वारग्य विस्तरं ग्राह्यं द्विधा भक्तं च कारयेत् । वीतरागो स्तथा कृष्ण अर्चामानं च सर्वतः ॥४८॥ हीने हानि प्रकुर्वित अधिके स्वजनक्षयम् । . रेखामानं भवेर्चा सर्वकामर्थकारिणी ॥४९।। ગર્ભગૃહના દ્વારના વિસ્તાર જેટલી પ્રતિમા કરવી. તે મધ્યમાન–તેને આઠમે ભાગ હીન કરવાથી કનીષ્ઠમાન અને આઠમે ભાગ અધિક કરવાથી જેમાં માન તે ચાતુર્મુખ પ્રતિમાનું માન જાણવું. દ્વાર વિસ્તારના બે ભાગ કરી એક ભાગની જિન પ્રતિમા અને કૃષ્ણ તથા લક્ષ્મીની પૂજનીક મૂર્તિનું માન જાણવું. કહેલા માનથી હીન કરવાથી હાનિ થાય અને વધુ મટી કરવાથી પિતાના સ્વજનને નાશ થાય. કહેલા આમ રેખા માનથી પ્રતિમા કરાવવાથી કામ અર્થને લાભ થાય छ. ४७-४८-४६. __गर्भगृहके द्वारके विस्तारके बराबर प्रतिमा करना । उस मध्यमानका; आठवाँ भाग हीन करनेसे कनिष्ठमान और आठवाँ भाग अधिक करने से ज्येष्ठमान ...चातुर्मुख प्रतिमाका भान जानना । द्वार विस्तार के दो भाग कर एक भागकी जिन प्रतिमा और कृष्ण तथा लक्ष्मी की पूजनीक मूर्तिका मान जानना। कहे हुए मानसे हीन करनेसे हानि होती है, और ज्यादा बड़ी करनेसे अपने स्वजन का नाश होता है । कहे हुए ऐसे रेखामान से प्रतिमा करने से काम अर्थका लाभ होता है। ४७-४८-४९. द्वारोछ्यष्टधा भक्ते भागमेकं परित्यजेत् । सप्तमाष्टमे सप्तम देवद्रष्टि नियोजयेत् ॥५०॥ उर्ध्व द्रष्टि द्रव्यनाशाय अधस्ते भोगहानि च । रेखा द्रष्टि यदाप्राज्ञ दानपुण्य विवर्धनम् ॥५१॥ अर्चाद्रष्टि स्तर स्तंभं पीठ मंडोवरं स्तथा। * वालाग्र लोपयेद्यत्र निष्कलं तत्पूजायते ॥५२॥ * કેટલીક જુની પ્રતિમાં એક ૪૭ થી પર ના પાઠો નથી. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISTRAINIK D २६० ETIRETT H-1k...44 IAM TUULYNI TREN जिन प्रतिमा अंग विभाग श्रीरार्णव अ.-११८ क्रमांक अ. २० सन FITTANDIVATERNATAN TNA AMAND ITTTTTTTTI जैन प्रतिमा सन्मुख विभाग जैन प्रतिमा पृष्ठ विभाग जैन प्रतिमा पक्ष विभाग Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सांधार चतुर्मुख प्रसाद लक्षण PAY TANAMOLUNTERRRC अजय भाट - H mom - AIR जय TATA AADHARY ++ TTTTTTIITTIITRILIIT JIN MRE जैन प्रतिमा और परिकर विभाग Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... २६२ रत्न २ सुवर्ण वस DEM समका जैन समवसरण क्षीरार्णव अ. - ११८ क्रमांक अ. - २० ગર્ભગૃહના દ્વારની ઊંચાઈના આઠે ભાગ કરી તેને ઉપલા ભાગ તજી, નીચેના સાતમા ભાગના આઠે ભાગ કરવા. તેના સાતમા ભાગે દેવષ્ટિ રાખવી. કહેલા માનથી જો દૃષ્ટિ ઊંચી રાખે તા ધનને! નાશ થાય અગર જો નીચી રાખે તેા સમૃદ્ધિના નાશ થાય. માટે ડાહ્યા પુરુષાએ રેખા પ્રમાણે જ્યાં રેખા આવી હૈાય ત્યાંજ દૃષ્ટિ રાખવાથી દાન પુણ્યની વૃદ્ધિ થાય છે. પ્રતિમા દૃષ્ટિ થર, સ્ત ંભ, પીઠ અને મડવર તેના માનથી જો એક વાળ જેટલેા પણ ઊંચા નીચે લાખથાય તે તે કાય ફળને આપનારૂં ન જાવું. પૂજા निष्ङ्गलय. ५०-५१-५२. गर्भगृह के द्वारकी ऊँचाईके आठ भाग कर उसका उपर का भाग आठवाँ तज कर सातवें भागका आठ भाग करना । उसके सातवें भागमें देवदृष्टि रखना । कहे हुए मानसे जो दृष्टि ऊँची रखे तो धनका नाश होता है अगर जो नीची रखे तो समृद्धिका नाश होता है। इस लिये सुज्ञ पुरुषोंको चाहिये कि रेखाके बराबर जहाँ रेखा आयी हो वहाँ ही दृष्टि रखना, इससे दान पुण्य की वृद्धि होती है । प्रतिमा दृष्टि थर, स्तंभ, पीठ और मंडोवर उसके मानसे जो एक बाल जितना भी ऊँचा नीचा लोप हो तो उसे फल प्रदकार्य न जानना । ५०-५१-५२. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्म म अथ सांधार चतुर्मुख प्रासाद लक्षण २६३ इतिश्री विश्वकर्मा कृतायां क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां सांधार चातुर्मुख प्रासाद मंडोवरादि लक्षणं नाम शताने अष्टादश मोऽध्याय ॥ ११८ ॥ क्रमांक अ० २० - ઈતિ શ્રી વિશ્વકમ વિરચિત ક્ષીરાવ શ્રી નારદજીએ પૂછેલા સાંધાર ચાતુર્મુખ પ્રાસાદ અને મંડવરાદિ લક્ષણના શિલ્પ વિશારદ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈએ રચેલ સુપ્રભા નામની ભાષા ટીકાને એકસે અઢાર અધ્યાય. ૧૧૮. ક્રમાંક - ૨૦ ___ इतिश्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णव श्री नारदजीके पूछे हुए सांधार चातुर्मुख प्रासाद और मंडोवरादि लक्षणके शिल्प विशारद श्री प्रभाशंकर ओघडभाईकी रची हुई सुप्रभा नाम्नी भाषा टीकाका एक सौ अठारहवाँ अध्याय ॥११८॥ क्रमांक अ० ॥२०॥ संवरणा के कोष्टक. अ-११६ के श्लोक ७४ से ७८ का स्पष्टीकरण संवरणानु विभक्ति घटिका फूट सिंह - संवरणानु विभक्ति घंटिका फूट सिंह कम म माम भाग संख्या संख्या संख्या - नाम भाग संख्या संख्गा संख्या १. पुष्टिका ८ ५ १६ ८ १४ देव गांधारी ६. ५७ - ६. २ नंदिनी १२ ९ ४८ १२ १५ रत्नगर्भा६४६१ .. -- दशाक्षा १६ १६ १६ चूडामणि ४ देवसुंदरी २० १७ - २० १७ हेम रत्ना ७२ कुल तिलक २४ १८ चित्र कूट रम्या १९ हिमा ७ उभिन्ना ३२ २० गंध माधनी. ८ नारायणी ३६ २१ मंदरा ८८ ९ नलिका ४० २२ मेदिनी १० चंपका ४४ ४१ ४४ २३ कैलासा . ९६ ११ पद्मा २४ रत्न संभवा १०० १२ समुद्भवा ५२ ४९ - ५२ २५ मेरु कूट १०४ १०१ १३ त्रिदशा . ५६ ५३ -- ५६ अशपद. rms or २१ M.MAME Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ केशरादि वैराग्यकूलप्रासाद ॥ क्षीरार्णव (अ० ११९) क्रमांक २१ श्री नारदोषाच प्रणपत्यमिद वक्ष्ये यावन्मे धारणामतः । कथियामि न संदेहो शिखरं सर्वकामदम् ॥१॥ कस्मिनाकारे समुत्पन्ना प्रासाद शिखरोत्तमं । किं दलं किं विभक्तेन किंमा शृंगे विभागतः ॥२॥ શ્રી નારદજી કહે છે હું પ્રણામ કરીને કહું છું કે મને પ્રાસાદના શિખરે કે જે સર્વ–કામનાને પૂરનાર છે તેના વિષે સંદેહ વગર કહે. તે કેવા આકારના ઉત્પન્ન થયા, તેના દલ અને શૃંગના વિભાગ આદિ મને કહે. ૧-૨ श्री नारदजी कहते हैं- मैं प्रणाम कर कहता हूँ कि मुझे प्रासाद के शिखरों के बारेमें कि जो सब कामनाओं को पूरने वाले हैं, उनके बारे में निःसन्देह कहो । वे कैसे आकार के उत्पन्न हुए, उनके दल विभाग और अंग के विभाग आदि मुझे कहो । १-२. किं मे अष्ट विभक्तं च तेषां स्कंध कितां भवेत् । दशधा स्कंध रेषा च स्कंधमान कितां भवेत् ॥३॥ मम वालंजरं श्रुत्वा सरतरकं हेतवे । किं विभागे समोत्पन्ना कथय ममसांप्रतं ॥४॥ આઠ વિભાગ કેમ કરવા શિખરનું આંધ બાધણું કેટલા ભાગે કેવું કરવું, શિખરના બાંધણુની રેખા સ્કંધનું માન કેવું રાખવું, વાલજરના ભાગ તથા પાણીતાર उभ ४२वा....विभागोनी पत्ति वा रीते थ? ते भने हुवे .. ३-४ आठ विभाग कैसे करना, शिखर का स्कंध कितने भागपर कैसे करना, शिखरके स्कंध की रेखा-स्कंधका मान कैसे रखना, वालंजरके भाग तथा पानीतार कैसे करना...विभागोंकी उत्पत्ति कैसे हुई ?-यह मुखे अब बताओ। ३=४. विश्वकर्मा उवाच यत्त्वया पृच्छते चैव शृणुत्वेकाग्रतो मुने । शिखरं विविधाकाराः अनेकाकारमुद्रितः॥५॥ उक्तं च प्रवक्ष्यामि श्रेष्ठानां वैराज्य कुल सभवेत् । केसरादि विधिस्तेषां तथा क्षीरार्णवे स्मृते ॥६॥ द्विमान मयुरे प्रोक्ता! कस्यमेनफलेथवा । शिखरो पुष्करे विद्यात् विमामा रूह देवता ॥७॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अथ केशरादि वैराज्यकूल प्रासादाधिकार શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. તમે પૂછે છે હે મુનિ, હવે એકાગ્ર મનથી સાંભળે. શિખરોના અનેક વિધ આકારોના અને અનેક આકારના કહ્યા છે, તે Maरमा भावना कमेंनी समज तभाने श्रेष्ठ सेवा वैन्य કુળના ફેશાદિ પ્રાસાદને વિધી प्र अनुलमे साधीय सादि 30 તે ક્ષીરાર્ણવમાં (સ્થા વૃક્ષાર્ણવમાં ५६४) दुछु. ५-६-७ श्री विश्वकर्मा कहते हैंतुम पूछते हो तो हे मुनि, अब एकाग्रता से सुनो। शिखरों के अनेकविध आकारों और अनेक आकारके शिखर कहे हैं । वह मैं तुम्हें श्रेष्ठ वैराग्यकुल के केशरादि प्रासाद का विधि मैं क्षीराणंव में भी कहता हूँ। ५-६-७. 'वज्र पद्मराग वैडूर्य रत्नकोट विमानकः। भूधरो च महानीलं ईन्द्रनीलो पृथ्वीजयः ॥८॥ कैलास हेमकूट श्वामृतोद्भव मंदिरं तथा।। श्रीवास नंदशाली नंदनं च हयेते तिलक माजरी कूट-- श्रीवत्स केसरी विभक्ति दशतलम् ॥९॥ વૈરાગ્યકુળના ૨૫ પ્રાસાદના ૧૧ થી ૨૫ શિખરો દશાઈતળનાં નામ કહે (1) મૂળ જૂની પ્રતીમાં ઉપરોકત આપેલા શ્લોક ૮ થી ૧૧ ના પાઠોનાં નામ અને તળ વિભકિત અને શ્રમની સંખ્યાને કયાંય મેળ ખાતા નથી. તેથી ઉપર આપેલ ક્રમ પ્રમાણે મળે છે. પરંતુ અાઈ અને દશાઈ તળના છ નામો બંને વિભક્તિનાં બેવડાય છે. કેઈની શુદ્ધ પ્રતની પ્રાનિથી આ અધ્યાય સ્પષ્ટ થઈ શકે. અમને મળેલી ગુજરાત સૌરષ્ટ્રની દશ બાર પ્રતિમાં આવા પ્રકારની અશુદ્ધિ છે. અપરાજિત સૂત્ર ૧૫૪ થી ૫૭ ના Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫ ૨૪ क्षीरार्णव अ.-११९ क्रमांक अ.-२१ छ. २५ १०१ २४ ५२२, २3 वैडूर्य, २२ २त्नपूट, २१ विमान, २० भूधर, १६ હાનીલ, ૧૮ ઇંદ્રનીલ-૧૭ પૃથ્વી જય ૧૬ કૈલાસ, ૧૫ હેમકૂટ, ૧૪ અમૃતેuદ્ધવ, ૧૩ મંદિર, ૧૨ નંદશાળી અને ૧૧ નંદન એ પંદર પ્રાસાદના શીખરની દશાઈતળની વિભક્તિ જાણવી. ૮–૯. . वैराज्यकुलके २५ प्रासादोंके ११ से २५ शिखरों दशाई तलके नाम कहते हैं। २५ वन, २४ पद्मराग, २३ वैडूर्य, २२ रत्नकूटी, २१ विमान, २० भूधर ચાર અધ્યાય વૈરાજ્યાદિ પ્રાસાદના છે. તેના સાથે અહીં આપેલાં નામ કે વિભાગનો પણ મેળ ખાતે નથી, કેઈ ગ્રંથને આધાર હશે. મૂળ જૂની પ્રતમાં આ પ્રમાણે ક્રમ વગરના નામે આપેલાં છે. તે મૂળ પાઠ આ નીચે આપીએ છીએ. वज्र वैडूर्य मुक्तं वाइद्रमणि भूतिलकं । पुष्परांग च गोमेधं प्रवालं गृहं भूषणं ॥ ८॥ तथा शृङ्गतलं विद्यादृष्ट भागं च लक्षणम् । केसरी सर्वतोभद्र नंदनस्य विशेषतः ॥९॥ मंदिरो हेमकूटश्च कैलासोभृतोद्भवः । श्रीवृक्षो विजयं श्चैव अष्ठधा च निश्चलम् ॥१०॥ नंदशाल हेमवांश्च नंदिश्यो इंद्रनीलकम् । श्रीवत्साद्यो मनेकाश्च दशधा तलं दीयते ॥११॥ મૂળ પ્રતમાં આ આપેલ પાઠો અસ્તવ્યસ્ત છે તેથી સુધારીને ઉપર ૮ થી ૧૧ ક ક્રમબદ્ધ આપવામાં આવ્યા છે. તે જ પ્રમાણે આગળ આપેલી વિભકિત તળ અને શ્રગ સંખ્યા અને નામ કમ બરાબર મળી રહે છે. ઉપરના ચાર શક સુધારીને મૂકવાની ધૃષ્ટતા કરવા બદલ વિદ્વાને ક્ષમા આપશે અગર... (१) मूल पुरानी प्रतोंमें उपरोक्त दिये हुए श्लोक ८ से ११ के पाठोंके नाम और तल तल विभक्ति और शृङ्गकी संख्याका कहीं भी पता नहीं लगता है। इससे उपर दिये हुए क्रमके अनुसार मिले, लेकिन अठ्ठाई और दशाई तलके छः नामों दोनों विभक्तिमें दुने होते है 1 किसी प्राचीन शुद्ध प्रतकी प्राप्तिसे यह अध्याय स्पष्ट हो सके। हमें मिली हुई गुजरात सौराष्ट्रकी दस यारह प्रतोंमें जैसे ही प्रकारकी अशुद्धि है। अपराजित सूत्र १५ध से ५७ के चार अध्यायों वैराज्यादि प्रासादोंके हैं। उनके साथ यहाँ दिये हुए नामों या विभागका भी मेल नहीं मिलता है। किस ग्रंथका आधार होगा ? मूल पुरागी प्रतोंमें क्रमके बिना अस्तव्यस्त क्रमसे नामो दिये हैं। वह मूलपाठ ( लोक ८ से ११) उपर लिखा गया हैं। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ केशरादि वैराज्यकूल प्रासदाधिकार १९ महानील, १८ इन्द्रनील, १७ पृथ्वीजय, १६ कैलास, १५ हेमकूट, १४ अमृतोद्भव, १३ मन्दिर, १२ नंदशाली और ११ नंन्दन इन पन्द्रह प्रासादों के शिखरों की दशाईतल की विभति जानना । ८-९. रत्नकूट भूधराख्य महानील हेमकूटकू । हेमवर्णाऽभृतोद्भवो श्रीवत्सं मंदिरं स्तथो ॥१०॥ सर्वतो भद्र केशरी च ह्यते चाष्ट विभक्तितलम् । तथा शृङ्गतल विद्यात् दशाष्ट भागं च लक्षणम् ॥११॥ તે પછી ૧૦ રત્નકૂટ, ૯ ભૂધર, ૮ મહાનલ, ૭ હેમકૂટ, ૬ હેમવર્ણ, ૫ અમૃતાદ્ધવ, ૪ શ્રીવત્સ, ૩ મંદિર, (નંદન) ૨ સર્વતે ભદ્ર અને ૧ કેશરી એમ દશ પ્રાસાદના શિખરની અઠ્ઠાઈ તલ વિભક્તિ જાણવી. એ રીતે કુલ પચ્ચીશ પ્રાસાદ અઠ્ઠાઈ અને દશાઈ તલ અને ઝાડનાં લક્ષણે હવે કહે છે. ૧૦-૧૧. __उसके बाद १० रत्नकूट, ९ भूधर, ८ महानील, ७ हेमकूट, ६ हेमवर्ण, ५ अमृतोद्भव, ४ श्रीवत्स, ३ मन्दिर, २ सर्वतोभद्र और १ केशरी । इस तरह दस प्रासादों के शिखर की अट्ठाई तल विभक्ति जानना । इस तरह कुल पच्चीस प्रासादो अट्ठाई और दशाई तल और श्रृंगके लक्षणों अब कहते हैं। १०-११. संक्षेप्तं कथितं चैव तथा विस्तरशृणु । क्षेत्रांधं च भवेद्भद्रे भद्रार्द्ध कर्ण विस्तरम् ॥१२॥ कर्णार्द्धन प्रयत्नेन कर्तव्यं भद्र निर्गमम् ।। श्रीवत्स कर्ण संस्थाने भद्रे च उद्गमोत्तमम् ॥१३॥ पंचशृङ्ग प्रदातव्यं केसरी शिखरान्वितं । भद्रे शृङ्ग प्रदातव्यं सर्वतोभद्र नामतः । सांधार केशरी प्रासाद १ तलभाग ८ श्रृंश ५ सांधार सर्वतो भद्र प्रासाद २ तलभाग ८ ग १ પ્રાસાદેનાં નામ અને વિભક્તિ સંક્ષિપ્તમાં sai. पिता२थी सindi. AtEL ક્ષેત્રના (આઠ) વિભાગ કરવા. તેમાં ક્ષેત્રના અર્ધમાં આખું ભદ્ર પહેળું કરવું અને ભદ્રનું અર્ધ કર્ણ રેખા પહોળી કરવી. એટલે બે ભાગની રેખા અને અરધું ભદ્ર બે ભાગનું કુલ આઠ ભાગ રેખાનું અર્ધ એટલે એક ભાગને ભદ્રને નિકાલ રાખવે. કર્ણરેખા પર શ્રીવત્સ શૃંગ ચડાવી ભદ્દે દેઢીયો કરવે તે संधिार गरी बार आधार सर्वतार मालार तेलमेश य तलमागरम विमाया सिदा विमानरसारक Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-११९ क्रमांक अ.-२१ પિાંચ ઇંગને ૧ કેસરી નામને પ્રાસાદ જાણ. જે કેશરીના સ્થાને ભદ્ર ઉરુગ ચડાવે તે ૨ સર્વતોભદ્ર નામનું નવ અંડકનું બીજું શિખર જાણવું. ૧૨-૧૩-૧૪. प्रासादों के नाम और विभक्ति संक्षिप्तमें कहे गये, अब विस्तारसे सुनो। प्रासाद के क्षेत्रके (आठ) विभाग करना। उसमें क्षेत्रके अर्धमें पूरा भद्र चौडा करना और भद्रका अर्ध कर्ण = रेखा चौडी करना । अर्थात् दो भाग की रेखा और आधा भद्र दो भागका, कुल भाग आठ, रेखाका अर्ध अर्थात एक भागका भद्रका निकाला रखना | कर्ण-रेखा के पर श्रीवत्स-श्रृंग चढ़ाकर भद्र पर डेढिया करना, वैसा पाँच श्रृंगका केसरी नामका प्रासाद जानना । जो केशरी के स्थानपर भद्र पर उरुशृंग चढाया जाय तो सर्वतोभद्र नामका नव अंडक का दूसरा शिखर जानना । १२-१३-१४. कर्णे केसरी सर्वेण भद्रे श्रृंग चतुर्भवेत् । भद्रकर्णकृते कूटं गवाक्षं मध्यदापयेत् ॥१५॥ उस्शृङ्ग तथा मध्ये शिखरं सर्वकामदं । अन्य शृङ्ग च संस्थाने मंदिरं सौश्रमानकं ॥१६॥ MITRAawe HOM - CUP - " अवतोभद्र .. . पन. सावंधारादि केशरी प्रासाद હવે પચીશ શ્રેગનું મંદિર શીખર હવે સાંભળો. ઉપરના અડ્રાઈતળના ચારે કણે-કેસરી કર્મ (પાંચ અંડકનું) ચડાવવું અને ભદ્ર એકેક એમ ચાર ઉઝંગ ચડાવવા અને ભદ્રના ખૂણે ફૂટ ચડાવવા. ભદ્રના વચ્ચે ગવાક્ષ કરે. આથી Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सांधार मंदर प्रासाद ३ तलभाग ८ श्रृंग २५ मध केशरादि वैराज्यकूल प्रासादाधिकार २६९ સર્વ કામનાને આપનારું એવું અન્યશૃંગના સ્થાનરૂપ મંદિર નામનું ત્રીજું શિખર ५श्यीश अनु . १५-१६. अब पच्चीस शृंगका मन्दिर शिखर सुनो। ऊपर के अट्ठाई तलके चारों कणों पर केसरी कर्म (पाँच अंडक का) चढाना और भद्र पर एक एक इस तरह चार उरुशृंग चढाना और भद्रके कोने पर कूट चढाना । भद्रके बिचके गवाक्ष करना । इस सर्व कामना को देनेवाला ऐसा अन्य शृंगका स्थानरूप मंदिर नामका तीसरा शिखर पच्चीस अंडकका जानना। १५-१६. कर्ण शृङ्ग द्वितीयं च श्रीवत्सं सर्वकामदं । व सर्वे भद्रे उरुशृङ्गं अमृतोद्भव संज्ञकः ॥१७॥ મંદિર શિખરની રેખાયે એક બીજું શૃંગ ચડાવવાથી સર્વ કામનાને मासी भीमारमा नार याथु श्रीवत्स शिभर २८ . અંડકનું જાણવું. અને શ્રીવન્સ શિખરના ચારે ભદ્ર અંડક ઉરુગ્રંગ ચડાવવાથી ૩૩ અંડકનું અમૃતભવ નામનું પાંચમું શિખર જાણવું. ૧૭. मन्दिर शिखर की रेखापर एक दूसरा शृंग चढानेसे सर्व कामनाओं को देनेवाला चोथा श्रीवत्स शिखर २९ अंडकका जानना और श्रीवत्स शिखर के चारों भद्रके पर अंडक उरु,म चढाने से ३३ अंडकका अमृतोद्भव नामका शिखर पाँचवा जानना । १७. सर्वतोभद्रं च कर्णेषु भद्र शृङ्गततोष्टमि । हेमवर्ण च माक्षातं हेमकूटं च अतः शृणु ॥१८॥ मूल प्रतमें इन दिये हुए पाठोंको सुधारकर उपर ८ से ११ श्लोक क्रमबद्ध दिये गये है। उसी तरह आगे दि हुई विभक्ति तल और शृङ्ग संख्या और नामका क्रम बराबर मिलता है। उपरके चार श्लोक सुधारकर रखनेकी धृष्टता करनेके लिये विद्वानों हमको क्षमा करें ।... सांधार श्रीवत्स प्रासाद ४ तलभाग ८ श्रृंग २९ पिसे भांमार मामा मलभाग भए मिनिसावद विमान-शामाद Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્ષીરા મ.-૨૨૨ માં અ.-૨ ચારે ભદ્રના ખુણ પર (ફૂટના બદલે) એકેક એમ આઠ ઇંગ ચડાવવાથી એકતાલીશ અંડકને સાક્ષાત્ હેમવર્ણ નામને છ પ્રાસાદ જાણો. હવે હેમકૂટ પ્રાસાદનું સ્વરૂપ સાંભળે. ૧૮. ___ चारों भद्रके कोनेपर (कूटके बदले) एकेक इस तरह आठ शृंग चढाने से इक्यालिश अंडकका साक्षात हेमवर्ण नामका छठ्ठा प्रासाद जानना । अब हेमकूट प्रासाद का स्वरूप सुनो । १८. कर्णे शृङ्ग प्रदातव्यं तथा नवमालय उच्यते । कर्ण ते अंडक: प्रोक्त भद्रे शृङ्ग प्रदापयेत् ॥१९॥ शृङ्ग संभावर चैव महानीलं च मिश्रक । पुनः शृङ्गं तदा भद्रे भूधरो मिश्रकान्वितः ॥२०॥ હિમવર્ણને રેખા પર એકેક ઝંગ ચડાવવાથી ૪૫ અંડકનું નવ માલ્ય એવું હેમફટ શિખર સાતમું જાણવું. રેખાયે એકેક અને ભદ્ર એકેક ઉઝંગ ચડાવવાથી પ૩ અંડકને એ મિશ્રક મહાનલ પ્રાસાદ આઠમ જાણુ. ફરી વળી એક ઉરુગ્રંગ ભટ્ટે વધારવાથી ૧૭ અંડકને ભુધર મિશ્રક નવમે પ્રાસાદ જાણો. ૨ __ हेमवर्ण की हर रेखापर एकेक शृंग चढानेसे ४५ अंडकका नवमाल्य ऐसा हेमकूट शिखर सार्यधारादि केशरी नन्दिश मंदिर सातयां जानना । रेखाके पर एकैक और भद्रपर एकैक उरुवंग चढाने में ५३ अंडकका महानील मिश्रक प्रासाद आठवाँ जानना । फिर एक उरुशृंगको भद्र पर बढानेसे भूधर नामक मिश्रक प्रासाद नवमाँ जानना ।२ (૨) ઉપર કહેલા ૧ કેસરી ૨ સર્વતોભદ્ર ૩ મંદિર ૪ શ્રીવત્સ અને વધુમાં ૫ અમૃતધવ–એમ પાંચ પ્રાસાદ મૂળ અઠ્ઠાઈતળ પર આ પાંચ શિખર ચડી શકે તે પછીના પાંચ હેમવર્ણથી રત્નફૂટ સુધીના પાંચ પ્રાસાદના શિખરો અઠ્ઠાઈ તળ પર ચડાવવાનું ઘણું મુશ્કેલ છે, અગર અહીં પાઠ ત્રુટક છે. જો કે અમેએ પાંચ સાત પ્રતે મેળવીને પ્રયાસ કરી Hદ. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अथ केशरादि वैराज्यकल प्रासादाधिकार कर्णे शृङ्गं द्वितियं च रत्नकूटं प्रणष्टकम् । एकाशी अंडकै चैव कर्णे द्वितिय केसरी ॥२१॥ ભુદર શિખરની રેખાયે એક વધુ કંગ શ્રીવત્સ અને એક બીજું પંચાડી કેસરી કર્મ ચડાવવાથી એકાશી ગ્રંગને પાપનાશક એ રત્નકૂટ નામને પ્રાસાદ દશમ જાણે. એ રીતે અઠ્ઠાઈ વિભક્તિ ઉપર દશ ભેદ કહ્યા. ૨૧. भुदर शिखर की रेखा पर एक ज्यादा शृंग श्रीवत्स और एक दूसरा पंचांडी केसरी कर्म चढानेसे इक्याशी शृंगको पापनाशक ऐसा रत्नकूट नामका प्रासाद दशवाँ जानना । इस प्रकार अट्ठाई विभतिके उपर दस भेद कहे । २१. तथा च दशमीक्षेत्र कर्णस्य पंचमांशकः । तस्यार्द्ध रथंकार्य शेष भद्रस्य विस्तरम् ॥२२॥ भाग भागं च निष्कान्तं उर्ध्वमानं अतः शृणुः । कर्णे द्वयं कार्य भद्र शृङ्ग च मेव च ॥२३॥ मध्ये गवाक्ष प्रदातव्यं सर्वकामदा। भद्रे शृङ्ग प्रदातव्यं नंदशाली मनोहर ॥२४॥ હવે દશાઈતળના પ્રાસાદો કહે છે. પ્રાસાદના ક્ષેત્રના દશ ભાગ કરવા. તેમાં રેખા-કણું પાંચમે ભાગ એટલે બે બે ભાગની કરવી. એક ભાગને પ્રતિરથ અને બાકીના ચાર ભાગનું ભદ્ર પહોળું જાણવું. તે ઉપગેના નીકાળા એકેક ભાગના રાખવા. અને ઉપરના શિખરનું માન સાંભળ. ૨૨. अब दशाईतल के प्रासादोंके बारे में कहते हैं । प्रासादके क्षेत्रके इस माग करना । उसमें रेखा-कर्ण पाँचवा भाग अर्थात् दो दो भागकी करनी। एक भागका प्रतिरथ और बाकीके चार भागका भद्र चौडा जानना । इन उपांगों के नीकाले एकेक भागके रखना और ऊपरके शिखरका मान सुनो। २२. રેખાયે બએ શ્રેગ અને ભદ્રે એકેક ઉશંગ ચડાવવાથી ને ભદ્દે ગોખ કરવાથી તેર અંડકને નામને અગ્યારમે નંદન પ્રાસાદ સર્વ કામનાને દેનારે જાણુ. જ છે. પરંતુ અમને મળતી બધી પ્રતોમાં આવા સરખા જ છે મલ્યા છે તેથી જેવું અમને મળ્યું તેવું અહીં રજુ કરીએ છીએ. (२) उपर कहे हुए १ केसरी २ सर्वतो भद्र ३ मंदिर ४ श्री वत्स और ज्यादा से ज्यादा ५ अमृतोद्भव-इस तरह पाँच प्रासाद तक अठाई तल पर ये पाँच शिखरों चढ़ सके उसके बादके पाँच हेमवर्णसे रत्नक्ट तकके पाँच प्रासादके शिखरों अट्ठाई तल पर बढ़नेका काम मुश्किल है, या तो यहाँ पाठ त्रुटक है। जो कि हमने पाँच सात प्रतों मिलाकर प्रयास किया है, परंतु सब प्रतोंमें जैसे समान ही पाठों है इससे जैसा हमें मिला वैसा यहाँ रखते हैं। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराज्यादि-नंदन प्रासाद ११ तलभांग १० श्रृंश १७. क्षीराव अ.-११९ क्रमांक अ.-२१ નંદનશિખરમાં જે એકના બદલે બબ્બે ઉગ ચડાવે તે મનહર એ સત્તર અંડકને બારસે નંદશાલી प्रासातो . २३-२४. रेखाके पर दो दो श्रृंग और भद्रके पर एक उरुश्रंग चढ़ानेसे औरभद्रपर गोख करनेसे तेरह अंडकका नंदन ११वा नामका प्रासाद सर्व कामना का देनेवाला जानना । नंदन शिखरमें जो एक के बदले दो दो उरुश्रृंग चढ़ाया जाय तो मनोहर ऐसा सत्रह अंडकका नंदशाली प्रासाद बारवाँ जानना । २३-२४. रथे शृङ्गप्रदातव्यं उरुशृंङ्ग तथोपरि । मंदिरख्यातं शृंङ्गस्यात्पंचविंशतिः ॥२५॥ પઢરાએ એક શ્રગ મૂકવું. જેની પર ઉઠંગ છે ત્યાં ત્યારે તે પચીશ શ્રેગનું મંદિર શિખર તેરમું शु. २५. प्रतिरथ के पर एक श्रृंग रखना। जिसके पर उरुश्रृंग है वहाँ तब उसे पच्चीस श्रृंगका मंदिर शिखर तेरहवाँ जानना । २५. कर्णे केसरी सर्वे रथकूटं प्रदीयते । अमृतोद्भव नामाख्यं वल्लभं सर्व देवता ॥२६ ।। રેખાયે બે છંગ છે ત્યાં એક પંચાંડી કેસરી કર્મ રેખા પર વધારે મૂકવું અને પઢરા પર ફૂટ ચડાવવાથી સર્વ દેને વલ્લભ એ અમૃદૂભવ નામને (४५ श्रृंगना) यौहमा प्रासाद थाय. २६. रेखाके पर दो श्रृंग जहाँ है वहाँ एक पंचांडी केसरी कर्म रेखापर ज्यादा रखना और पढ़रेपर कूट चढ़ानेसे सर्व देवोंको वल्लभ ऐसा अमृतोद्भव नामका (४५ श्रृंगका) चौदवाँ प्रासाद होता है । २६. रथे शृंगप्रदातव्यं हेमकूट स उच्यते । मुखभद्रे श्रृंगमेकं कैलास सर्वकामदं ॥२७॥ પઢરે એક શ્રગ ચડાવવાથી (૫૩ અંગનું) હેમકૂટ પંદરમું શિખર થાય, અને જે ભદ્ર ઉપર બે ઉરશ્ચંગના બદલે ત્રણ ઉશંગ ચડાવીએ તે ૫૭ શ્રૃંગનું સેળયું કૈલાસ નામનું શિખર (૧૬) જાણવું. ૨૭, गैजनामा मा05130 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रययुक्त वैराज्यकुल — पृथ्वीजय प्रासाद ( १७ ) तलभाग १० श्रृंग ९७ अथ केशरादि वैराज्यकूल प्रासादाधिकार गर्भगृह युवक - २०३ पढ़रेपर एक श्रृंग चढानेसे (५३ श्रृंगका) हेमकूट पंदरवाँ शिखर होता है, और जो भद्र के पर दो उरुश्रृंग बदले तीन उरुश्रृंग चढायें तो ५७ श्रृंगका कैलास नामका शिखर (१६) जानना । २७. कर्णे च नंदन सर्वे रथे शृङ्गपरित्यजेत् । उरुशृङ्गाष्ट कर्तव्यं पृथ्वीजयं चमुत्तमम् ॥ २८ ॥ રેખાયે ચારે ખુણે એકેક તેર અડકતું નદન ક` ચઢાવવું અને પઢરે એ શ્રૃંગ છે તે એક તજવાથી અને ઉરુશ્રૃંગ આઠ કરવાથી પૃથ્વીય નામનું ૯૭ श्रृंग शियर वु. २८. रेखाके पर चारों कोनेमें एक एक तेरह अंडकका नंदनकर्म चढाना और पढरे पर दो श्रृंग है वह एक तजने से ओर उरुचंग आठ करनेसे ९७ श्रृंगका पृथ्वीजय नामका १७ मा शिखर जानना । २८. पैराज्य कुल पृथ्वी जस् भाग इंद्रनीलं च प्रासादे उरुशृङ्गानी द्वादश । उरुभंग परित्यज्यं रथेग प्रदापयेत् ॥ २९ ॥ महानीलं च विज्ञेयं सर्व मनोरथदायक | પૃથ્વીયના સ્થાને આઠને બદલે ખાર ઉરુશ્રૃંગ ચડાવવાથી (૧૦૧ શ્રૃંગનું) ઈન્દ્રનીલ નામનુ અઢારમુ શિખર થાય. ઇંદ્રનીલના સ્થાને ભદ્રનુ એક ઉરુશ્રૃંગ તજીને પઢરાપર એકના બદલે એ શ્રંગ ચડાવવાથી ૧૦૫ શ્રૃંગનું મહાનીલ (૧૯) નામનું સર્વ પ્રકારના મનેરથને આપનાર' શિખર જાણવુ. ૨૯. पृथ्वीजय के स्थानपर आठके बदले बारह उस्चंग चढानेसे ( १०१ श्रृंग ) इंद्रनील नामका शिखर होता है । इन्द्रनील के स्थानपर भद्रका एक उरुश्रृंग तजकर पढरेपर एक के बदले दो श्रृंग चढानेसे १०५ श्रृंगका महानील (१९) सर्व. प्रकारका मनोरथ देनेवाला शिखर जानना । २९. शृङ्गार्क शेष च भूधर सुरवल्लभ ॥ ३०॥ केसरी सर्वतोभद्रं कर्णस्थाने प्रदापयेत् । रथश्व संस्थाने विमानं च विचक्षणं रथश्रृङ्गे प्रयोजयेत् ॥ ३१ ॥ उरुश्रृङ्गाष्ट कर्तव्या रत्नकोटि यथाविधि । * पाठान्तर रथश्टङ्ग संस्थाने विमाने त द्विचक्षणात् ॥ ३१ ॥ २॥ पाह र विभान શિખર ઉપજાવ્યા પછી રત્નફોટિ ઉપજે, ૨૫ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झीरार्णव अ.-११९ क्रमांक -२१ Anni भ्रमयुक्त वैराज्यकुल विमान प्रासाद (२१) तलभाग १० श्रृंग १४५ મહાનલ શિખરના સ્થાને આઠને બદલે બાર ઉરુઝંગ ચડાવવાથી દેને દુર્લભ એવું (૧૦૯ શૃંગનું) ભૂધર નામનું વિશિમું શિખર જાણવું. ભૂધરના સ્થાને રેખાયે ૯ ઇંગનું સર્વભદ્ર કર્મ ચડાવવાથી ૨૧મું વિમાન નામનું ૧૪૫ શૃંગનું શિખર જાણવું. વિમાન શિખરના સ્થાને પઢરાપર એક શૃંગ ચડાવવું અને ભદ્ર આઠ ઉછંગ કરવાથી ( १४८ श्रृगनु) (२२) रत्नाटि नमनु शिभर तरा. ३०-३१. ____ महानील शिखरके स्थानपर आठके बदले बारह उरुश्रंग चढानेसे देवों को दुर्लभ ऐसा (१०९ श्रृंगका) (२०) भुधर नामका शिखर जानना । भूधर के स्थान पर रेखा के पर ९ श्रृंगका सर्वतोभद्र कर्म चढानेसे (२१) विमान नामका (१४५ श्रृंगका) शिखर जानना । विमान शिखरके स्थानपर पढरेपर एक श्रृंग चढाना और भद्रके पर आठ उरुश्रृंग करने से (१४९ श्रृंगका) (२२) रत्नकोटि नामका शिखर जानना। ३०-३१ तथा वैद्य प्रासादो उरुश्रृंगानि द्वादश ॥३२॥ भद्रे श्रृंग परित्यज्य स्थे श्रृंग प्रदापयेत् । १राध्यकल विमानमा eam 2, १३ पद्मरागं च नामाख्यं प्रासादा सर्वकामदम् ।।३३।। રત્ન કટિ શિખરના સ્થાને બાર ઉશ્ચંગ ચડાવે તે ૧૫૩ અંગનું (૨૩) વૈર્ય નામનું શિખર જાણવું. તે પછી જે ભદ્રનું એક ઉરુગ્રંગ તને પઢરે એક શ્રેગ ચડાવે તે સર્વ કામનાને દેનારુ એવું ૧૫૭ ઇંગનું ૨૪મું पारा नाम शिभ२ थाय. ३२-33. रत्नकोटि शिखरके स्थानपर बारह उरुश्रृंग चढावें तो १५३ श्रृंगका २३वाँ वैडूर्य नामका शिखर जानना । उसके बाद जो भद्रका एक उरुश्रृंग तजकर पढरे पर एक अंग चढायें तो सर्व कामना को देनेवाला ऐसा १५७ श्रृंगका २४वां पराग नामका शिखर होता है । ३२-३३. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ केशरावि वैराज्यक्ल प्रासादाधिकार भद्रेश्रृंग प्रदातव्यं वनकर्म मुमुक्षुका । मुकुटोज्वल प्रासादं उरुश्रृंगार्क भूषिते ॥३४॥ तन्वधा जायते प्राज्ञ आदि मध्या च सानकं । પરાગ શિખરને ભદ્રે શ્રેગ ચડાવી કુલ બાર ઉરુગ્રંગથી ભતું શિખર (૨૫) १०० भन। मुमुक्षुने....१०१४ नाम (१६१ श्रानु) शिम तेरीते..... पद्मराग शिखरको भद्रपर एक श्रृग चढ़ाकर कुल बारह उरुङ्गसे शोभित शिखर (२५) वनकर्मके मुमुक्षुको...दुर्लभ ऐसे १६१ शृङ्गका बत्रक नामका शिखर आनना, इस तरह...४. ४ अष्टधा दशधा क्षेत्र केशरी पंच विंशति ॥३५॥ तथा मृक्षके च ज्ञात्वा त्रिविधं च विशेषत् । વૈરાજ્ય કુળના કેશરાદિ પચીશ પ્રાસાદના શિખરે અઠ્ઠાઈ અને દશાઈ તળ ક્ષેત્રના કહ્યા. આવા પ્રાસાદ કરાવવાથી ત્રિવિધ ધર્મ અર્થને મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. ૩પ. __ वैराज्यकुलके केशरादि पच्चीस प्रासाद के शिखरों अट्ठाई और दशाई तल क्षेत्रके कहे । ऐसे प्रासादों बनवाने से त्रिविध धर्म अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति होती है । ३५. (૪) વૈરાજ્યકુળને કેશરાદિ ૨૫ પ્રાસાદોને પાઠમાં આપેલ ક્રમ અને શ્રગ સંખ્યા अट्ठाईतल विभक्ति दशाईतल विभक्ति [ क्रम प्रासाद शृङ्ग | क्रम प्रासाद शृङ्ग क्रम प्रासाद शृक्ष १ केसरी ११ नन्दन १९ महानील १०५ | २ सर्वतोभद्र १२ नन्दशाली | २० भूधर ३ मन्दिर * । १३ मन्दिर २१ विमान १४५ ४ श्रीवत्स * १४ अमृतोद्भव ४५ २२ रत्नकूट ५ अमृतोदुभव * | १५ हेमकूट २३ वैडूर्य १५३ ६ हेमवर्ण १६ कैलास २४ पद्मराग १५७ J. हेमकूट १७ पृथ्वीजय [८ महानील १८ इन्दनील ९ भूधर * १० रत्नकूट અહીં આપેલા પચીસ પ્રાસાદોના શિખરે અઠ્ઠાઈતળ વિભક્તિના દશ ભેદ અને દશાઈ તળ વિભક્તિના પંદર ભેદ મળી કુલ પચીસ શિખરો કહ્યા છે. તે બે વિભક્તિના પ્રાસાના ફૂલવાળા નામો દશાઈ અઠાઈમાં એક જ આવે છે. એ વિચિત્ર છે. તેના કંગની વિધિનાં ૧ કેશરાદિથી વધુમાં વધુ પાંચમા અમૃતોદ્ભવ સુધી શ્રગ અઈમાં CCC ANS २५ वज्रक ८१ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ क्षीरार्णव अ. ११९ क्रमांक अ. २५ श्रृङ्ग मिश्रधा रुचकं (भद्रे) मिश्रके तिलकोत्तम् ।।३६।। कर्णे तिलक प्रदातव्या स्थित्वरुचकोत्तमा । श्रृङ्गमध्ये गतं श्रृङ्ग तन्मध्ये शिखरं भवेत् ।। ३७॥ (इति) मिश्रक सर्वतोभद्रं कर्णे तिलक द्वितीयकम् । . .. लावाय-श्रृंग मिश्र५-३५४ भने भद्र मिश्रने तिम........४६-३माये પર શિપીઓ પિતાની બુદ્ધિથી અંડક ચઢાવી શકે પરંતુ પાછળના ૬ થી ૧૦ સુધીના પાંચ શિખરના અગ ચડાવવા એ ઘણું મુશ્કેલ છે. અન્ય ગ્રંથોની સાથે સરખાવતાં બીજા કેઈ ગ્રંથમાં આને મળતા પાઠો કે નામ પણ નથી. સંશોધન પાછળ યથામતિશ્રમ લીધે છે, જો કે અમુક પાઠમાં શકય હોય ત્યાં ક્રમને અબાધિત રાખીને સંશોધન કરી મૃગના ક્રમ મેળવવા પ્રયાસ यो छ. वैराज्य कुलके केशरादि पच्चीस प्रासादोंका पाठमें दिया हुआ क्रम और उनकी क्रमसंख्या-(उपर देखिये।) ___ यहाँ दिये हुए पच्चीस प्रासादोंके शिखरों-अठाईतल विभक्तिके दश भेद और दशाईतल विभक्तिके पंद्रह भेद मिलकर कुल पच्चीश शिखरों कहे हुए हैं। वे दोनों विभक्तिके प्रासादके फूलवाले नामों दशाई अठाईमें एक ही आते हैं। उसके शृङ्गकी विधिके १ केशरादि ज्यादासे ज्यादा पाँचवाँ अमृतोद्भव तक शृङ्गो अट्ठाई तल पर शिल्पीओं स्वबुद्धिसे अंडक चढ़ा सके, परंतु पीछेके ६ से १० तकके पाँच शिखरोंके गृङ्ग चढ़ाना यह बहुत मुश्किल है । अन्य ग्रंथों के साथ मिलाते दूसरे किसी ग्रॅथमें इससे मिलते जुलते पाठी या नाम भी नहीं है । संशोधन के पीछे यथामति श्रम लिया है। जो कि अमुक पाठोंमें शक्य हो वहाँ क्रमको अबाधित रखकर संशोधन कर Zङ्गोका क्रम मिलाने का प्रयास किया है। (૫) અહીં શ્લોક ૩૬ થી મિશ્રક રૂચકાદિ જાતના પ્રાસાદના હોય તેમ જણાય છે. પરંતુ અપરાજિત Bur Maya सूत्र ११८ ते पाह। आधेरछे परंतु माडी भां | तालमा ३०५१५३ घणी अशुदिई चमेसतु नथी. (५) यहाँ श्लोको ३६ से मिश्रक सूचकादि जगतिके प्रासादके हो ऐसा दिखता है। परंतु अपराजित सूत्र १६८ में वे पाठो दिये हैं, लेकिन यहाँ पाठोंमें बहुत अशुद्धि होनेसे मिलता जुलता नहीं है। Ma भ्रभयुक्त वैराज्यकुल वज्ञक प्रासाद (२५) तलभाग १० श्रृंग १६१ Ind Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ केशरादि वैराज्यकूल प्रासादाधिकार २७७ તિલક ચડાવવું અને રથ-પટરા પર ઉત્તમ એવું રૂચક ચડાવવું. મૃગની ઉપર श्र| मने ते ७५२ (२५२........भि संवतो भने ४ ३ाये मी तिस यायु. 38-3७. ... .. भावार्थ-श्रृंग मिश्रक-रूचक और भद्र पर मिश्रको तिलक......कर्णरेखा के पर तिलक चढाना और रथ-पढरेपर उत्तम ऐसा सूचक चढाना । श्रृंग के उपर श्रृंग और उसके उपर शिखर.........मिश्रक सर्वतोभद्र को कर्णरेखा पर दूसरा तिलक चढाना । ३६-३७. कर्णे तिलकं मेकं श्री वत्सं च तथोपरि ? ॥३८॥ माल्यातकं च कर्तव्यं ऊरुश्रङ्गे विभूषितं ।। केसरी मिश्रकं विद्या तिलकः श्रृङ्ग समाकुलम् ।। ३९ ।। तथा च सर्व क्षेत्राणां मिश्रकं सर्व कामदं । केशराचं प्रयोज्यते यावत्कैलासमिश्रकं ॥४०॥ .. भाये मानु तिस श्री पत्स ७५२ ५वषु'........२ गथी शोलतो भायातस.......प्रासा: nega. भिसरी प्रासाति भने श्री पाने પિતાના સર્વ ક્ષેત્રે (અઠ્ઠાઈ દશાઈ) સર્વ કામનાને દેનારા એવા મિશ્રક साहिथी भिश्रम दास सुधीन(५२यीश प्रासा) onjा. ४०. रेखाके पर दूसरा तिलक श्रीवत्स उपर चढाना ।......उरुश्रंग से शोभता माल्यातल...प्रासाद जानना । मिश्रक केसरी प्रासादों तिलक और श्रृंगों चढाकर अपने सर्व क्षेत्रपर (अट्ठाई दशाई) सर्व कामनाको देनेवाले ऐसे मिश्रक केसरादि से मिश्रक कैलासतक के (पच्चीस प्रासादों) जानना । ४०. इति श्री विश्वकर्मा कृतायां क्षीरार्णवे नारद पृच्छते केसरादि वैराज्यकूल मिश्रक प्रासादाधिकारे शताएकोविंशतेऽध्याय ॥११९॥ क्रमांक अ० २१ ઈતિશ્રી વિશ્વક કૃતાયા ક્ષીરાણુ નારદે પૂછેલ કેસરાદિ વૈરાજ્ય કુલ મિશ્ર પ્રાસાદને અધિકાર શિલ્પ વિશારદ પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરાએ રચેલી ગુર્જર ભાષામાં સુપ્રભા નામની ટીકાનો એક સો ઓગણસમો અધ્યાય ૧૧૯. ક્રમાંક - ૨૧ इति श्री विश्वकर्माले क्षीरार्णवे में नारदपृच्छा में वैराज्यकूल मिश्रक प्रासादाधिकार शिल्प विशारद प्रभाशंकर ओघडभाई की रची हुई भाषामें सुप्रभा नामकी भाषा टोकी का एकसौ. उन्नीसवाँ अध्याय ११९ क्रमांक अध्याय २१ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चातुर्मुख प्रासाद स्वरूप लक्षणम् क्षीरार्णव अ० १२० क्रमांक २२ श्री नारद उवाव स्वर्गे देवलोके च मधवन्स्थानमुत्तमम् । अन्यच्च किं विशिष्ठं स्यात् कथय मम साम्प्रतम् ॥ १ ॥ यावत् सप्तपातालं ब्रह्मांड सप्तसंख्यया । चतुर्मुखो हि प्रासादो कथय परमेश्वर ॥ २ ॥ શ્રી નારદજી કહે છે. જેમ સ્વર્ગમાં દેવલાક વિશે ઈંદ્રનું સ્થાન ઉત્તમ છે તેમ ખીજું શું ઉત્તમ છે તે મને હમણાં કહે. સાત પાતાળ અને સાત બ્રહ્માંડ એ ચૌદ લેાકમાં એવું ચતુર્મુખ પ્રાસાદનું વન હે પરમેશ્વર, भने । १-२. श्री वास्वजी कहते हैं - जिस तरह स्वर्गमें, देवलोकमें इंद्रका स्थान उत्तम है इस तरह दूसरा क्या उत्तम है, वह मुझे अब कहो । सात पाताल और सात प्रांड इन चौदह लोकमें ऐसे चतुर्मुख प्रासादका वर्णन हे परमेश्वर मुझे कहो । १-२. ffer क्षीराचे समुत्पन्नाः प्रासादाच अनेकधा । तन्मध्ये श्रेष्ठप्रासादः चतुर्मुखः सुशोभनः ॥ ३ ॥ શ્રી વિશ્વકર્મા કહે છે. ક્ષીરાણુ વમાં અનેક પ્રકારના પ્રાસાદો ઉત્પન્ન થયેલા છે તેમાં સ્વેત્તમ એને શ્રેષ્ઠ શ્રેણીના ચતુર્મુખ પ્રાસાદ સુંદર શાભનીક છે. ૩. श्री विश्वकर्मा कहते हैं-क्षीरार्णवमें अनेक प्रकार के प्रासादों उत्पन्न हुए है। जनमें सर्वोत्तम ऐसा श्रेष्ठ श्रेणीका चतुर्मुख प्रासाद सुंदर शोभनीक है । ३. (૧) આ અધ્યાય સ. ૧૭૬૭ આસે શુકલ ૧૫ ભેમવારની પ્રત પરથી ઉતારેલ છે આજ અધ્યાય વ્રુક્ષાવમાં સંપૂર્ણ છે જ્યારે હીરાણુવમાં શ્લોક ૯૨ સુધીના અપૂર્ણ ગુજરાત સૌરાષ્ટ્રની પ્રતામાં મળે છે. શ્લોક ૪ થી ૧૦ સુધીના અનુવાદ અમારી મતિ પ્રમાણે બંધ બેસતા કરવા પ્રયત્ન કર્યાં છે. શુદ્ધિ પ્રાપ્ત થયેલી અમારી કોઈ ક્ષતિ હશે તે તે સુધારીશું અગર કોઈ વિદ્વાન અમારું' લક્ષ્ય દોરશે તે! અમે આભારી થઈશું. ( १ ) इस अध्यायको सं. १७६७ आसो शुक्ला १५ भोमवार की प्रत पर से उतारा है। वृक्ष यही अध्याय संपूर्ण हैं और क्षीराणैव श्लोक ९२ तकका अपूर्ण गुजरात सौराष्ट्रकी प्रतोंमें मिलता है। श्लोक ४ से २० तकका अनुवाद हमारी मतिके अनुसार योग्य रूपमें लागु करनेका प्रयत्न किया है। शुद्धि प्राप्त होके हमारी कोई क्षति होगी तो उसे हम सुधारेंगे। या कोई विद्वान हमारा लक्ष्य खिंचेगा तो हम उसके ऋणी बनेंगे । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे सर्वक्षेत्रास्यमध्यतः । निर्गमो वेदिवैर्युक्त त्रयोविंशति विस्तरे ॥ ४ ॥ सिद्धयति । विचक्षणः ॥ ५ ॥ मध्यमम् । किंचिदाज्यामते गृहे ॥ ६ ॥ जायते । आयामे षट् विंशति निरंधारं च शरं नवकोष्टानि ब्रह्मस्थानं पंचर्य कीटकं ज्येष्ट सार्द्धत्रयं च त्रिपदं कन्यसं वक्षे पड़ चत्वारिंशत्कोष्ठ उत्तमोत्तम कोष्ट तथैव चत्वारी जायते स्थान मानकम् ॥ ७ ॥ शपंच हस्त मध्ये शरंध्रे नव कोष्ठके । पोडशैव यदा हस्ते कर्णाते नव कोष्टभिः ॥ ८ ॥ तस्योर्ध्व षट् त्रिशान्तं शरंधं पंचविंशतिः । कर्णात्पंचविंशत्या शतार्ध हस्त मानयोः ॥ ९ ॥ तथा च नवकोष्टेन ब्रह्मस्थानं प्रजायते । ભાવા —પ્રાસાદના ચૈારસ ક્ષેત્રના સની મધ્યમાં નીકળતી વેદી સાથે ગ્રેવીશ પદ પહેાળાઈના કરવા. લખાઈમાં છત્રીશ પદ્મ નિરધાર પ્રાસાના નવ શર ધ કાઠાને મૂળ ગર્ભ ગૃહ બ્રહ્મસ્થાન સાથે વિચક્ષણુ શિલ્પીએ કરવા. તેમાં પાંચ કાઠા જેમાન–સાડાત્રણ કોઠા મધ્યમાન અને ત્રણ કોઠા–કનિષ્ઠમાન કંઈક લાંબા (ગર્ભગૃહ) કરવા (૬) છેતાલીશ પદ્યના ગૃહમાં ઉત્તમાત્તમ સ્થાન માન પ્રમાણે ચાર કોઠા કરવા. દર હાથના ગૃહમાં શરધ્ર ( ) नव डोठानो-सोग हाथ સુધીમાં પણ નવ કીડાના શરધ્ર ( ) કરવા. તે પર છત્રીશ સુધીમાં शरंध्र ( ) પચ્ચીશ પદના કરવા. તે પચાસ હાથ સુધીના ને કાંત પ'વિશ સુધી બ્રહ્મ સ્થાનમાં નવ કોઠા કરવા, भावार्थ -- प्रासादके चोरस क्षेत्रके सबकी मध्यमें नीकलती वेदीके साथ तेईश भाग चौडाई करना । लम्बाई में छत्तीस पद निरंधार प्रासादके नौ कोटेका शरंध्र मूल गर्भगृह - ब्रह्मस्थानके साथ विचक्षण शिल्पिको करना । उसमें पाँच कोठे जेष्ठमान-साढेतीन कोठे मध्यमान और तीन कोठे कनिष्ठमान कुछ लंम्बा (गर्भगृह) करना । (६) छयालीश पदके गृहमें उत्तमोत्तम स्थानमान के अनुसार चार कोठे करना | पंद्रह हाथके गृहमें शरंधं ( ) नौ कोठेका सोलर हाथ में भी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ० २२ नौ कोठेका शरंध्र (::..) करना । उसके पर छत्तीस तकमें शरंध्र ( ) पच्चीश पदके करना । उस पच्चास हाथ तकके को कर्णातं पंचविश तक ब्रह्म स्थानमें नौ कोठे करना । द्विचत्वारशदतक्षेत्रे सप्तधाकर्ण विस्तरे ॥१०॥ द्विपदं समसूत्रेण कर्णिका सर्वकामदा। अनुगश्वतुरो भागे निर्गमं च समं भवेत् ॥११॥ नन्दी भागद्वयं कार्या समनिष्कांशमेव च । शेषभद्र विस्तार स्त्रय निष्काशं वर्तये ॥१२॥ મહા ચાતુર્મુખ પ્રાસાદના ક્ષેત્રના બેતાળીશ ભાગ કરવા. તેમાં રેખા સાત ભાગની. બે ભાગની કર્ણિકા સમદલ-અનુગ (પ્રતિરથ) ચાર ભાગને સમદલ, નંદી બે ભાગની સમદલ નીકળતી, બાકીનું આખું ભદ્ર (બાર ભાગ પહેળું) ने त्र लास नातु ४२. १०-११-१२. । महा चातुर्मुख प्रासादके क्षेत्रके बयालीश भाग करना । उसमें रेखा सात भागकी. दो भागकी कर्णिका समदल, अनुग (प्रतिरथ चार भागका समदल नीकलती, बाकीका पूरा भद्र (बारह भाग चौडा) और तीन भाग नीकलता करना । १०-११-१२. . तथा षणं भ्रमं तेन पदं पंच दशस्तथा । नन्दन स्थापयेत्कर्णे सर्वतोभद्र चानुगे ॥१३॥ नंदिके केसीं देयं भद्रे द्वारं च धीमताम् । गवाक्षे: परिवेष्टितं इलिका तौरणैयुतम् ॥१४॥ अनुगै दापयेत्कर्ण नन्दयो च उत्तमोपरि । तिलकं पल्लवी प्राज्ञं उरुप्रत्याङ्ग भूषणम् ॥१५॥ कर्णे केसरी चैव तिलकं रथिकोपरि। . मंजरी मूलरेखा च च षडम् (१) शृङ्गभूषितं ॥१६॥ पंचचत्वारिंशत्त्रया · उरु शृङ्गानि द्वादश । प्रत्याङ्गस्तु भवेदष्टौ तिलके सर्वदापयेत् ॥१७॥ - શ્રમ ભાગ પાંચને અને (બે ઓસાર) દશ ભાગના (અને મધ્યને સૂપ-લિંગ આવીશ ભાગના તેના એસાર પાંચ પાંચ ભાગના) જાણવા. રેખાયે Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- --- भ्रभयुक्त चातुर्मुख चंद्रशाल प्रासाद भाग ४२ व ३४५ तिलक २८ अपरख मैहाप्रासाद स्वरुपाध्याय તેર અંડકનું નંદન કર્મ ચડાવવું. અનુગપઢરે નવ દંડકનું સર્વ તેભદ્ર કર્મ ચડાવવું. રેખા પાસેની નંદી પર પાંચ અંડકનું કેસરી કર્મ ચડાવવું અને બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ ચારે ભદમાં દ્વાર મુકવા. તે પર ચારે તરફ ગવાક્ષ–શેખ, ઝરૂખા અને ઈલીકા -તેરણાદિથી શુભેભિત ભદ્ર કરવું. બીજા થરમાં અનુગ પઢરે રેખાની જેમ તેર અંડકનું નંદન કર્મ (અને ૯ અંડકનું સર્વતેભદ્ર કર્મ) ચડાવવાં. ભદ્ર પાસેની નંદી પર એક તિલક ચડાવવું. (રેખા પાસેની નંદી પર) પ્રત્યાગ ચડાવી શુભભિત કરવું. રેખાયે ત્રીજું પાંચ અંડકનું ચડાવવું. પઢરા પર (બેલકૂટ) તિલક ચડાવવું અને મૂળ રેખા પાયા નીચે ફૂટ યુક્ત મંજરી ચડાવવું અને બાર ઉરુગ્લંગ અને આઠ પ્રત્યાં ચડાવી કુલ ત્રણ પીસ્તાળીશ અંડકને પ્રાસાદ જાણ. અને તિલક (૨૮) સંર્વ સ્થાને ચડાવવાં. __ भ्रम भाग पाँचका और (दो ओसार) दश मागके (और मध्यका स्तूप-लिंग बाईस भागके, उनके ओसार पाँच पाँच भागके) Dર પ્રમm anઝve નાજના રેલ પર તે બં " તમે છરી જમરૂપે ા નંદન કર્મ જાના અનુar पढरा नौ अंडका सर्वतोभद्र वर्म चढाना । रेखाके पासकी नंदी पर पाँच अंडकका केसरी कर्म चढ़ाना । और 1 થી s RY NOTE mr. ૩૦ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ क्षीरार्णव अ. १२० क्रमांक अ. २२ बुद्धिमान शिल्पीको चारों भद्रमें द्वार रखना । उस पर चारों और गवाक्ष - गोख, dar और इfear तोरणादिसे शुशोभित भद्र करना। दूसरा थर में अनुग-प्रतिरथ पर रेखाकी तरह तेरह अंडकका नंदन कर्म ( और नौ अंडकका सर्वतोभद्र कर्म ) चढ़ाना | भद्रके पासकी नंदी पर एक तिलक चढ़ाना ( रेखाके पास की नंदी पर ) प्रत्यंग चढ़ाकर सुशोभित करना । रेखा पर तीसरा पाँच अंडकका चढ़ाना | पढरे पर ( बलकूट ) तिलक चढ़ाना । और मूल रेखा पायचेके नीचे कूटयुक्त मंजरी चढ़ाना | और बारह उरुशृङ्ग और आठ प्रत्यंग चढ़ाकर कुल तीनसौ पैंतालीश अंडा प्रासाद जानना । और तिलक ( २८ ) सर्व स्थानों पर चड़ाना । १३१४-१५-१६ - १७. अर्चा एमि वीतरागाणां तिलकं त्रिभुवनस्य च । स्वगैर्युकता चंद्रशाल चतुर्मुखे ॥ १८ ॥ इति चंद्रशाल चातुर्मुख प्रासाद भाग-४२, अंडक ३४५ વીતરાગ જિન ભગવાનની મૂર્તિ જે ત્રણ ભુવનમાં તિલક સમાન તેના ચદ્રશાલ નામના ચતુમુ ખ પ્રાસાદ તે જાણવા. ઇતિ ચંદ્રશાલ પ્રાસાદलाग-४२, श्रृङ्ग ३४५ भने तिस + २८. वीतराग जिन भगवानकी मूर्ति जो तीन भुवनमें तिलक समान है, उसका चंद्रशाल नामका चतुर्मुख प्रासाद जानना । इति चंद्रशाल, प्रासाद भाग - ४२ श्रृंग ३४५. और तिलक २८. तथा पीठं च विस्तारं चत्वारो मंडपैर्युते । षणमेकं भवेत्कर्ण प्रतिकर्ण स्तथैव च ॥ १९॥ कर्ण च सपाद निष्क्रांत अनुगे भद्रे मंडपाः । भद्रं त्रिणि षणं प्राज्ञ पणमेकं तु निर्गमम् ॥ २०॥ सिंहद्वार विशेषेण अनुगे सह संयुतम् । षणपंचैव विस्तारं यावत् त्रयमंडपाः ॥ २१ ॥ चत्वारि च पुनर्वेदा स्त्रीणि त्रीणि पदा नपि । अष्टाविंशं सिंद्वद्वारे अष्टस्थानं अतः श्रृणु ॥ २२ ॥ પ્રાસાદને ચારે તરફ મડપે પીઠ સહિત વિસ્તારથી કરવા તેને એક ભાગ રેખા પ્રતિરથ એક ભાગ તે રેખાથી સવાય। નીકળતા અનુગ (પઢ) અને ભદ્રને રાખવે, ભદ્ર ત્રણ ભાગનું ચતુર શિલ્પીએ રાખવું. નીકાળે એક ભાગ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sलपास अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय २८३ તેનું (નીચે) બહારનું સિંહ દ્વારની (ચતુણ્ડિકા) અનુગ પઢરા સહિતના વિસ્તાર જેટલું રાખવું. ત્રણે મંડપના પાંચ પદ જેટલું રાખવું. ચાર ભાગ રેખા, ચાર ભાગ અનુગ, ત્રણ ભાગ પ્રતિરથ અને ત્રણ ભાગ (અર્થે ભદ્ર) એમ બેઉ બાજુના મળી એટલે અઠ્ઠાવીશ ભાગ સિંહ દ્વાર સાથે મંડપ કરવા. આઠ स्थान हवे सालो . १५-२०-२१-२२ प्रासादकी चारों तरफ मंडपों पीठ सहित विस्तारसे करना । उसको एक माग रेखा ' प्रतिरथ एक भाग उस रेखासे सवागुना SHAR E al(Nrms) नीकलता अनुग (पढरा) और भद्रका चंद्रशाल प्रासादकी चारो और ऐसा रखना । भद्र तीन भागका चतुर शिल्पीको मंडप-९६-९६ स्तंभोंका करना रखना । नीकाला एक भाग-उसका (नीचे) बारहका सिंह द्वारकी (चतुष्किका) अनुग पढरा सहितके विस्तार जितना रखना। तीन मंडपके पाँच पदके जितना रखना । चार भाग रेखा, चार भाग अनुग, तीन भाग प्रतिरथ और तीन भाग (अर्ध भद्र) इस तरह दोनों बाजुके मिलकर अर्थात् अट्ठाईस भाग सिंह द्वारके साथ मंडप करना | आठ स्थानका अब सुनो । १९-२०-२१-२२. त्रीणि व त्रीणि चाष्टस्थाने चतुर्विंशति धीमता। चंद्रीआणाश्च सिध्यन्ति द्विपंचांशद् मनोहरा ॥२३॥ स्थयुक्ताः च प्रासादा चन्द्रिआण सनिर्मिता। चंद्रवक्त्रस्य नामानि विभागं शिखर सह ॥२४॥ एत क्षेत्रान मध्यं च चतुःकर्ण वर्जिताम् । . चावनो जिन अर्चाणी उक्ता क्षीरार्णवे शुभे ॥२५॥ આઠ સ્થાને ત્રણ ત્રણ ( ) એમ ચવીશ ચંદ્રયાણ (પ્રમુખ મંદિર સહિત અને મને હર એવા બાવન જિનાલય ચંદ્રીઆણુ પ્રસાદના રથભંદ્રાદિ યુક્તનું નિર્મિત કરવું. શિખરના વિભાગ સાથે ચંદ્રવત્ર નામ જાણવું. એવા ક્ષેત્રના ચારે કર્ણ ખુણુ વગરના (ચાર ખુણે ખાંચા પાડેલ) ચેરસ मान किनभूति ना सावन जिनालय क्षीराम शुभ अहो छे. २३-२४-२५: Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ कलमे Jag विशद का बुध मार . मानतु प्रासादके आगे २८ विभागका मंडप, स्तंभ १०४ क्षीरार्णव अ - १२० क्रमांक अ.- २२ आठ स्थानों पर तीन तीन ( आण ) इस तरह चौबीश चंद्री( प्रमुख मंदिर सहित ) और मनोहर ऐसे बावन जिनालय चंद्रआण प्रासादके रथ भद्रादि युक्तका निर्मित करना | शिखर के विभागके साथ चंद्रवक नाम जानना । ऐसे क्षेत्रकी मध्यमें चार कर्ण कौने विनाका चोरस बावन जिनमूर्तिका बावन लिनालय क्षीरा व शुभ कहा है । २३-२४-३५. बावनासेन भद्रा च बासठि त्रीणि कर्णिका । महामान जगतीनां विचित्रै विधि भूषणै ||२६|| तथाच सिंह द्वारेण बभूव पक्षे नवस्तथा । ते नालये त्रयो दश चत्वारिंशन्मुखायते ॥ २७॥ सिंहद्वारे पराङ्गामुखे चतुःस्थाने शुभं भवेत् । अशीति चतुराग्रेण चेन्द्रियाणां च सिध्यति ॥ २८ ॥ सिंहद्वारे विचारेण ब्रह्मस्थाने अतः शृणु । प्रासादे नवकोष्ठेन षणमेकं प्रदक्षिणे ॥ २९ ॥ श्रीमंवृष षण: पंच मेघनादे तु पंचके । स्त्रि नालित्परिचैव नववेदाभद्राग्रत ॥ ३० ॥ भावार्थ - जवन निनायतना लद्र लागत्रशु अर्जुडा विचित्र એવી જગતી વિધિથી શેાલતી કરવી (૨૬) સિંહ દ્વારની બેઉ માજી ના..... नास ( मंडपनी ) मागण पहोगा तेर भाग भने यादीश लोग डा........ કરવા. સિ'હ દ્વારની પાછળ મુખે પશ્ચિમે અને ચારે સ્થાનમાં શુભ..... ( એવા મહાધર કરવા ?) ક્રૂરતા ચારાશી જિનાયતનની દેવ કુલિકાઓ સિદ્ધ કરવી. સિદ્ધ દ્વારના વિચાર કરીને શુભ એવુ' મધ્યનું બ્રહ્મ સ્થાનનું સાંભળે. પ્રાસાદના નવ કોઠાને એક ભાગ પ્રદક્ષિણાના રાખવા. તેવા પાંચ વાઁ (?) શ્રીમવૃષ, Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय २८५ (મુખ!) થાય તે પાંચને મેઘનાદ મંડપ કરવા. તેને નીચે સિંહ દ્વારે नासि (४५) तेना ७५२ पाय 3 नव ५६ भद्रनो An (भ७५).... २६-२७-२८-२८-30 भावार्थ-बावन जिनायतनके भद्र भाग......तीन कर्णिका......विचित्र ऐसी जगती विधिसे शोभती करना । (२६) सिंह द्वारकी दोनों बाजु नौ...... ताल (मंडपकी) आगे गहरा तेरह भाग और चालीश भाग चौड़ा......करना । सिंह द्वारकी पीछे मुख पर पश्चिममें और चारों स्थानोंमें शुभ......(ऐसे महाधर करना!) फिरते चौरासी जिनायनकी देवकुलिकाओं सिद्ध करना । सिंह द्वारका विचार कर शुभ ऐसा मध्यके ब्रह्मस्थानके बारेमें सुनो। प्रासादके नौ कोठेको एक भाग प्रदक्षिणाका रखना । वैसे पाँच वर्ण (?) श्रीमघृष (चौमुख!) होवे उन पाँचको मेघनाद मंडपों करना । उनके नीचे सिंह द्वार पर नालि (मंडप) उसके पर पंच या नौ भद्रका आगे ( मंडप)...२६-२७-२८-२९-३०. ब्रह्मस्थाने त्रय: पक्षे निर्गमं च विशेषतः । त्रयो मंडपान मध्ये पण द्वयं प्रदापयेत् ॥३१॥ मंडपै नालिकैर्वक्ष्ये पणमेकेन बासतेः । निर्गमो वेदिका बाह्ये अब च योणि वेदिका ॥३२॥ तेषां प्रस्तार भावेन सालंकार संयुता । ... ... ... ... ...नाम मानतुङ्गना ।। ३३॥ ભાવાર્થ–બ્રહ્મા સ્થાન (મધ્ય મુખ!) ના ત્રણે બાજુ નિકાળે વિશેષ કરીને રાખો. ત્રણે તરફના મંડપના મધ્યમાં બબ્બે પદ ભાગનું (અંતર!) રાખવું. નાલિમંડપ ઉપર કહુ છું એક પદ બહાર બાજુમાં અને ચાર પદ આગળ નીકળતા નીચે રાખવા. બાકી અંદર જિનાયતનને ફરતે પ્રસ્તાર ચેકીયાળા કરવાથી તે સર્વ અલંકારયુક્ત એ માનતુળ નામને ચતુર્મુખ પ્રાસાદ myal. 3१-३२-33 ब्रह्मस्थान (मध्य चौमुख) के तीनों बाजु निकाला विशेषकर रखना। तीनों तरफके मंडपके मध्यमें दो दो पद भागका (अंतर) रखना । नालि मंडप पर कहता हूँ। एक पद बाहर बाजुमें और चार पद आगे नीकलतेके नीचे रखना। बाकी अंदर जिनायतनके चारों और प्रस्तार-चौकीयाले करनेसे उसे सर्व अलंकारसे युक्त ऐसा मानतुङ्ग नामका चतुर्मुख प्रासाद जानना । ३१-३२-३३. सौभाग्यानि प्रवक्ष्यामि तथा किरणावली शुभा। प्रासादं ब्रह्मसूत्रेश शरभ्रं नव कोष्टके ॥३६॥ ... Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ क्षीरार्णव अ-१२० क्रमांक अ.-२२ त्रिसंधाट · समाकीणों कवली रथसूत्रके । चतुर्मुखमतां चंद्रो सभ्रमा वर्जितागता ॥३५॥ . गवालुका छादनं रम्यं गर्भमंडपस्यान्तरे । ભાવાર્થ—હવે હું તમને સૌભાગ્યાનિ અને શુભ એવી કિરણાવલી કહું છું. પ્રાસાદના બ્રહ્મસૂત્રના શરંધ્ર નવ કઠા કરવા. રથ (પ્રતિરથ) ના સૂત્ર કેળી......ત્રણ પદ છેડતી કરવી. ચતુર્મુખના ભ્રમવાળા કે ભ્રમ વગરના પ્રાસાદને .........तो गर्म उपने गाना यशथी २भ्य मेवो छार ४२वी. ३४-३५ . अब मैं तुम्हें सौभाग्यानि और शुभ ऐसी किरणावली कहता हूँ। प्रासाद के ब्रह्मसूत्रके शरंध्र नौ कोठे करना । रथ प्रतिरथके सूत्र पर कोली...तीन पद जोडती करना । चतुर्मुखके भ्रमवाले या भ्रम बिनाके प्रासादको......जोडता गर्भ मंडपको गवालुकाके थरोंसे रम्य ऐसा छाजेल करना । ३४-३५. अथ: मंडोवरे प्राज्ञः नागरं द्राविड शृणु ॥ ३६॥ तल छंदानुसारेण कवलीहीनं न कारयेत् । अज्ञाने कुरुते प्राज्ञ प्रासाद पुण्यवर्जितम् ॥३७॥ असि स्तम्भ समाकर्णे नमते च प्रदक्षिणे। चतुर्विंश चैत्यकानां मध्येपंक्तिश्च दापयेत् ॥३८॥ प्रयोदश चतुःकर्णे द्विपंचाशस्य क्षेत्रके । मंडपाश्च द्वयो मध्ये पणमेकां च सिध्यति ॥३९॥ अध: पीठं भवेच्चैत्ये प्रासादे ज्येष्ठ पीठकम् । कर्ण कक्षान्तरे कृत्वा घट: चैत्य प्रदक्षीणे ॥४०॥ ભાવાર્થ-નાગરાદિ અને દ્રવિડાદિ છંદના મડવર ડાહ્યા પુરુષેએ કહ્યા छ, a सली . तणे छहने अनुसरीने........ोजी डीन न ४२९. ने अज्ञानताथी તેમ કરે તે પ્રાસાદ બાંધવાનું પુણ્ય વર્જિત થાય....એંશી સ્તંભે ફરતા પ્રદક્ષિણાએ ભ્રમમાં કરવા. ચોવીશ જિનાલયની મધ્ય પંક્તિમાં તેર તેર ચાર ખૂણે કરી બાવન જનાયતના ક્ષેત્રમાં તેમ કરવું. બે મંડપે જેડાતા હોય તો વચ્ચે એક પદ જેટલું અંતર ચેકીનું રાખવું. ચૈત્યને નીચે પીઠ કરવું. મૂળ પ્રાસાદને જેઠ માનનું પીઠ કરવું. જિનાયતનની ફરતી પંક્તિમાં ખુણે અને વચ્ચે કક્ષમાં छ थैत्य ३२ता ४२वा. (तेने महाय२ ४९ .) नागरादि और द्राविडादि छंदके मंडोवर बुद्धिमानोंने कहे हैं वे सुनो। तलच्छेदको अनुसरके...कोलीहीन न करना । जो अज्ञानतासे ऐसा किया जाय Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय तो प्रासाद बाँधनेका पुण्य वर्जित होता है ।...अस्सी स्तंभोंको फिरते प्रदक्षिणामें भ्रममें करना । चौवीस जिनालयकी मध्य पंक्ति में तेरह तेरह चार कोने में कर बावनके क्षेत्रमें वैसा करना । दो मंडपों मिलते हो तो बिचमें एक पद जितना अंतर चौकीका रखना । चैत्यके नीचे पीठ करना । मूल प्रासादको जेष्ठमानका मशर क ENTERTREETD L . ५१५०५ सनमा चत्वाचन [244 माधर ३५६ स्तंभ संख्या ४८ महाधर ४ १२ मूळ चौमुख २०८ देरी पर ६२४ कुल स्तंभ ५मुख चाब ५२ लाल का - -- +- जमायतन धार माध्र तरागत प्रय भामरकसमें माम-गीरणाचली. । बावन देवकुलिका सहित चतुर्मुख । १ चतुर्मुख | ५२ देवकुलिका नाम "ताराउली" महाधर प्रवेश भद्रे कक्षासन करनेसे "किरणाउली" ४ मेघनाद मंडप ४ मंडप ४ बलाणक ६१ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षोराणघ अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ पाँठ करना । जिनायतन की फिरती पंक्ति में कोने पर और बिच में कक्षमै छः त्यों फिरने करना । ( उसे महाधर कहते हैं । ) भद्रस्य कोष्टकं वक्ष्ये मुखभद्रे त्रीणिभवेत् । तत्स्थाने वेदिका रम्या सुभद्रा सर्वकामदा ॥४१॥ ॥ इति किरणावली ॥ ભદ્રના કઠાનું કહું છું. મુખ ભદ્રને ત્રણે સ્થાને રમ્ય એવી વેદિકા-સુભદ્રા સર્વ કામનાને દેનારી કરવી તે કિરણુવલી જાણવી. ૪૧. इति किरणावली-भद्रके कोठेके बारे में कहता हूँ। मुख भद्रके तीनों स्थान पर रम्य ऐसी वेदिका सुभद्रा सर्व कामनाको देनेवाली करना । उसे किरणावली जानना । ४१. कीरणावली-सौभाग्यानी कीरणाउली मंडप-मुख मंडप वेदिका कक्षासन युक्त और निम्न नाली मंडप करनेसे सौभाग्यानि नाम पंदरा विभागका ९६ स्तम्भका मंडप नाम कीरावली. चंदरा विभागका. मुखमध्यपदिका मान '९६समकामगर वायुस्लोनीन नानि Iो सोमायानी +नाम होताहे. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख मद्दाप्रासाद स्वपाध्याय दिपंचाशज्जिनालये स्तम्भको मंडपद्वयम् । तस्याग्रे वेदिकास्यात् पंक्ति सोपान संचयः ॥ ४२ ॥ द्विसप्तति जिनावासे मंडपे मध्यवेदिका । नाली मंडप समाख्याता वेदिकासनमंडिताः ॥ ४३ ॥ બાવન જિનાલયમાં આગળ ફરતા સ્તંભો અને તેને બે મ`ડપે કરવા. તેનાથી આગળ પગથિયાની પંક્તિ કરવી. હેાંતેર જિનાયતનને મધ્યમાં મંડપ વેદ્રિકાયુક્ત કરવા. નીચે નાલી મંડપના આગળના ભાગ વેદિકા આસન पट्टथी शोलतो वो ४२-४३. बावन जिनालय में आगे फिरते स्तंभों और उसे दो मंडपों करना । उससे आगे के भाग में (स्तंभोंको कक्षासन युक्त) वेदिका और उससे आगे पराभियेकी पंति करना । बहोत्तर जिनायतनके मध्यमें मंडप वेदिका युक्त करना । नीचे नाली मंडपका आगे का भाग वेदिका आसनपट्टसे शोभता करना । ४२-४३. कर्ण भागद्वयं कार्य प्रतिकर्णद्वयं भवेत् । २८९ सप्तभागायत भद्रं मुख भद्रं त्रयं कारयेत् ॥ ४४ ॥ निष्कांशो भाग भागेन वेदिका मुखमंडनी । नाली मंडप सौभाग्यं स्वरूपो लक्षणान्वितं ॥ ४५ ॥ ३७ ॥ इति सौभाग्यानी ॥ મંડપના તળ વિભાગ કહે છે. કર્ણે રેખા બે ભાગ, પ્રતિરથ પણુ એ ભાગના સાત ભાગનું ભદ્ર તેને ત્રણે તરફ મુખ મંડપ કરવા (ભદ્રમાંથી ત્રણુ ભાગનુ સુખભદ્ર) તેમાં નીકાલા અકેક ભાગના રાખવા મુખ મડપને વેદિકા કક્ષાસન કરવુ એવા સ્વરૂપ અને લક્ષણવાળા સૌભાગ્યાની નામને નાલી મોડપ लव ४४-४५ इति सौभाग्यनी. मंडपका विभाग कहते हैं कर्ण-रेखा और प्रतिरथ दो दो भागका सात भागका भद्र रखना उसके तीनों बाजु मुख भद्र करना ( भद्रसे तीन भाग मुख भद्र ? ) उसका निकाला एकेक भागका रखना । मुख भद्रके वेदिका कक्षासन करना ऐसे स्वरूप और लक्षणवाला सौभाग्यनी नामके नालिमंडप जानना । ४४-४५. नववेद षट्कोष्टेन प्रासादा जिनचरिताः । तन्मध्ये मेघनादः स्यात् स्थापने पुण्यसागरः ॥ ४६ ॥ 9 x 9 = આગણુ પચાસ પદ્મમાં છ કાષ્ટકના પન્નુના જિનના પ્રાસાદ થ સાથે વચ્ચે કરી તેમાં મધ્યમાં મેઘનાદ નામના મ`ડપ સ્થાપન કરવાથી सागरोपमा एय प्राप्त थाय. ४६. A અનેક *** Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ उनचास पदमें छः कोष्टकके पदके जिनके प्रासाद रथ के साथ बिचमें कर उनमें मध्यमें मेघनाद नामका मंडप स्थापन करनेसे अनेक सागरोपम गुना पुण्य प्राप्त होता है । ४६. तारका पंच भूत्कार्य जूईईये वृषभंगयणा सई जिणालय होइशो सहीपुणे कजेणा उदकारस्य पंचभूइ जुइ पदउयपगणणे सेइ जिणालयं इसो सो ही पुण्य कालेन ? (?) ४७ .... (४७) मध्य परिध्य वेदी सा वेदी चेइआणादि देय अर्द्ध चतुर्मुखे यनरौर बावन ? ॥४८॥ __.... .... (४८) षषष्ठि शतत्रीणि कोष्ठका याम विम्तरे । आवर्जित प्रयत्नेन चौकाग्रेवा शतत्रय ॥४९॥ सोने साई पहना विस्तारवा अम.........मेसी त्रशु ५६....(४८) तीनसौ साठ पदके विस्तारवाले कोठेमें......एक सौ तीन पद......४९ ब्रह्मस्थाने च संस्थाप्य पंचविंशा चतुर्मुखे । त्रियंचषट् संघाटाः प्रासादा रथ संयुताः ।।५०॥ शतकोष्टस्य तन्मध्ये च मेघनादश्चतुर्दिशि । स्थयुक्ताश्च प्रासादा वेदियुक्ताश्च मंडयाः ॥५१॥ क्षेत्रस्यायाम विस्तीर्ण योगकोष्टाः सप्तदृशः । चतुरस्त्रे षोडश स्तंभा दिशिबाह्यमुत्तरमेव च ॥५२॥ चतुर्मुखे युक्तिकरै......निरन्तरे ... ... ॥५३॥ द्विभूमि रचिता पुंसिं! मेघनाद स्वच्छंद ज्ञाति वर्णाभिरंतरं । चतुर्दिशी स्वमुखे मंडित शुभ सहिश कार्यमुख पक्ति प्रदायनी ॥५४॥ ભાવાર્થ— ક્ષેત્રના બ્રહ્મસ્થાનમાં પચીશ ખંડ પદમાં ચિમુખની રચના કરવી. ત્રણે પાંચ છ એમ જોતા પ્રાસાદો રથ સાથે અંગો જવા. સો પદના કોઠાના મધ્યમાં ચારે દિશાએ મેઘનાદ મંડપની રચના કરવી. પ્રાસાદ જેમ થાદિ અંગ યુક્ત કરવા. તેમ મંડપ વેદિ કક્ષાસન યુક્ત કરવા. (૫૧) ક્ષેત્રની લંબાઈ અને પહેલાના ગે કરીને સત્તર કેડા કરવા. તેમાં ચારસાઈમાં સોળ स्तनो मारनी (उत्तर) हिशामा ४२वा !........युस्तिथी तुमुंभ उभेशा Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय २९१ યેાજવા (૫૩) પેાતાની જાતી અને વધુ છંદના મેઘનાદ મ`ડપ એ ભૂમિના रथवो. ते यारे दिशाओ पोताना मुषथी शोलतो....... (५४). क्षेत्र के ब्रह्मस्थान में पच्चीश खंड-पदमें चोमुखकी रचना करना । तीन पाँच छ इस तरह जोड़ते प्रासादों रथके साथ अंगोंको योजना | सो पदके कोटेके मध्य में चारों दिशामें मेघनाद मंडपकी रचना करना । जिसे तरह प्रासाद को रथादि अंग युक्त करना इस तरह मंडपों वेदि कक्षासन युक्त करना । (५१) क्षेत्रकी लम्बाई और चौडाईके योगसे सत्रह कोठे करना । उसमें चौरसाइमें सोलह स्तंभ बाहरकी ( उत्तर ) दिशा में करना । युक्तिसे चतुर्मुख हमेशा.... योजना ५३ मंडप दो भूमिका रचना | वह ५०-५१-५२-५३-५४. .... अपनी जाती और वर्णाके छंदका मेघनाद चारों दिशामें अपने मुखसे शोभता द्विसप्तति जिनान्यक्षे नालिमंडप जिनविर | रचिताम्यमत्त मेरुकृते नृपला भास्करेक्ति कारका सदा पदतश्चले ॥५५॥ મહાત્તેર જિનાયતનમાં નીચે નાલિ મપ............ઉપર ખાર સ્તંભના भडभांरभ्य सेवा "मे३" नी रचना १२वी.... ૫૫ उपर बारह स्तंभका मंडप ५५ बहोतर जिनायत में नीचे नालि मंडप से रम्य ऐसे "मेरु" की रचना करनी **** .... 4400 .... प्रासाद भवने चैव आयामे विस्तरे शुभम् । भाकं च भवेत्कर्ण पंचाशिति शतद्वयम् ॥ ५६ ॥ मुखमंडितम् ॥ ५७ ॥ युक्ति वाह्यं प्रकर्तव्यं चतुष्कोष्टा मुखाग्रे च । जलांन्तरं गतं द्वारं वेदिका 'चंद्ररेखा च संस्थाने भद्रं च नवभागिकाम् | निष्कांश भागमेकेन चतुर्दिक्षु व्यवस्थितम् ॥ ५८ ॥ त्रीणि त्रीणि भवेत्वेदी स्थापदैन न नाभं च षोडश ! जिनत्राचं वरमुच्यते ! चतुर्भूमियदानि च ॥ ५९ ॥ पदेकं षोडश पदे च मध्यस्तु पद (वेद) मुखै । इलिका तौरणैर्युक्तं रवि रेखा विराजितं ॥ ६० ॥ नार्लिमंडप संयुक्ता द्वित्रिभूमि समाकुलाः । वेदिकासन पट्टेश्व पंक्ति सोपान संचयः ॥ ६१ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. १२० क्रमांक अ. २२ भावार्थ- —પ્રાસાદ ભવનના ક્ષેત્રની લખાઈ પહેાળાઈના ખસા પચાશી વિભાગના કોઠામાં ચાર ખુણે એકેક ભાગના કણ રાખવા, યુક્તિથી અહાર ચાર કોઠા મુખના અગ્રે કરવાં. જલાન્તર !........માં દ્વાર કરી વેશ્વિકાઢિથી મુખ शोलित ४२. यंद्ररेणा ! ( ) ના સ્થાને નવ ભાગનુ ભદ્ર કરવુ. તેના નિકાળે એકેક ભાગના એમ ચારે તરફ કરવું. ત્રણ ત્રણ પદ્મની વેદી.... .. यार लूभि अथा...( प--पढ़) २९६ એકેક યદ એમ સાળ युक्त....रविरेणा ! ( કરવા. તેને રાજસેનક વેકિા पंडित दुखी यह थी ६१. પદ્મના મધ્યે.......કરવું. તેને ઇલિકા તારથી .........तेने नालिमंडप साथै मेत्र भूभिवाजी આસનપટ્ટાદિ કરવા અને આગળ પગથિયાની प्रासाद भवनके क्षेत्रकी लम्बाई चौडाईके दोसौ पंचाशी चार कोने में एक एक भागका कर्ण रखना । युक्तिसे बाहर चार अगले भाग में करना । जलान्तर !.... में द्वार कर वेदिकासे करना। चंद्र रेखा ! ( ) के स्थान पर नौ भागका भद्र निकाला एक एक भागका इस तरह चारों और करना । तीन विभाग - कोठेके कोठे मुखके मुखको शोभित करना । उसका तीन पदकी वेदी . चार भूमि ऊँचे .......एकेक पद इस तरह सोलह पदका मध्य में ....... करना । उसे इलिका तोरणसे युक्त रवि रेखा ! ( )........ उसे नालि पके साथ दो तीन भूभिवाला करना । उसे राजसेनक वेदिका आंसन पट्टादि करना और आगे पराभियेकी पंक्ति करना । ५६ से ६१. मेघनादैश्वसंयुक्ता द्वैश मृदा मेघनाश्रितं । मदलैमंडिता जाती इलिकाकुश नालिकाः ॥ ६२|| पुनः प्रासाद विधिपूर्वा नारदः श्रृणु सांप्रतम् । समय भ्रमं हीन (पूर्वा) द्रव्यहीना धिकं स्तथा ॥ ६३ ॥ गतोऽयं दिव्यलोकेनं पुनः क्षीरार्णवे शृभे । क्षेत्र मंदातिः प्राज्ञः नैव चिचति मानुषैः ॥ ६४ ॥ तथा वैध रहितानि सिंह द्वाराणि सर्वतः । संभ्रमं तत्र कार्ये च सिंह दारे च मंडपे || ६५ || भावार्थ –........ना शाश्रित भेधनाह सहित मंडप महणो-छत्रिश તારાદિથી સુશેોભિત કરવા. હું નારદ, હવે ફ્રી પ્રાસાદની વિધિ સાંભળે મયુક્ત કે ભ્રમ વગરને તે તેા દ્રવ્યની હીન અધિતા પ્રમાણે કરવું. તેથી Page #381 --------------------------------------------------------------------------  Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोढेरा के कलामय सूर्यमंदिर के मंडपद्वार स्तंभ और गजतालयुक्त तोरण मोढेरा के कलामय सूर्य मंदिर के नृत्यमंडप का बाह्य दर्शन-पीठ. कक्षासन स्तंभादि Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय તે પ્રાસાદ કરાવનાર દિવ્યલેકમાં જઈ વિષ્ણુના શુભ એવા ક્ષીરાણુંવમાં જાય. ક્ષેત્રની મંદતા નાના મોટાની ડાહ્યા મનુષ્ય ચિંતા ન કરવી. (સ્થાન પ્રમાણે ભ્રમવાળે કે ભ્રમ વગરને એ પ્રાસાદ કરે.) પરંતુ તે વેધ રહિત કરે. ચારે બાજુ સિંહ દ્વારા (પ્રવેશ) કરવા. તે બ્રમવાળા પ્રાસાદને મંડપ સિંહ द्वार वा ४२वा. १२-१३-१४-१५. ........के आश्रित मेघनादके साथ मंडप-मदलो-इलिका तोरणादिसे सुशोभित करना । हे नारद, अब फिर प्रासादकी विधि सुनो। भ्रमयुक्त या भ्रमके बिनाका वह तो द्रव्यकी हीनाधिकताके अनुसार करना। इससे वैसा प्रासाद करनेवाला दिव्यलोकमें जाकर विष्णुके शुभ ऐसे क्षीरार्णवमें जाता है। क्षेत्रकी मंदता छोटे बडेकी सुज्ञ मनुष्यको चिंता न करनी चाहिये। (स्थानके अनुसार भ्रमवाला या भ्रमके बिनाका प्रासाद करना ।) परंतु उसे वेध रहित करना। चारों तरफ सिंह द्वारों (प्रवेश) करना । उस भ्रमवाले प्रासादको सिंह मंडप द्वारवाले करना । ६२-६३-६४-६५. एकजंघा नवद्युतं प्रासादेस्य चतुर्मुखे । तथा भ्रमश्च निर्वाण द्वयो जंघ नियोजयेत् ॥६६॥ ततः कुर्यात्प्रयत्नेन सिंहद्वारं विशेषत: । पुष्परागश्च सर्वेशं सर्वविस्तर प्रजायते ॥६७।। मिश्र मेघं प्रकर्तव्यं सिंहनादस्तथा भवेत् । सर्व मेध स्ततो वक्ष्ये उक्तं प्रासादमुत्तमम् ॥१८॥ મહાચાતુર્મુખ પ્રાસાદના મંડેવરને એકથી નવ જંઘા ચડાવવી. ફરતે ભ્રમ હોય તો બે જંધા ચડાવવાની યોજના (તે જરૂર). તેને પ્રયત્ન કરીને સિંહ દ્વારા તે વિશેષ કરીને કરવું. પુપરાગ આદિ સર્વ પ્રાસાદે પહોળાઈ વાળા કરવા. તેને મિશ્ર મેઘનાદ કે સિંહનાદ મંડપ કરવા. તેવા ઉત્તમ प्रासाहाने सवेन भेधन भयो ४२वानु पुछे. १६-६७-६८. महा चातुर्मुख प्रासादके मंडोवरको एकसे नौ जंघा चढ़ाना । फिरता हुआ भ्रम हो तो दो जंघा चढ़ानेकी योजना (जरूर) करना । उसे यत्न करके सिंह द्वार तो विशेष कर करना । पुष्पराग आदि सर्व प्रासादों चौडा ईवाले करना । उसे मिश्र मेघनाद या सिंहनाद मंडपों करना । वैसे उत्तम प्रासादोंको मेघनादादि मंडपों बनानेके लिये कहा है। ६६-६७-६८. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ पूर्वे च पश्चिमे चैव उत्तरे दक्षिणे तथा । सर्वत्र मेघनादं च तत्पुण्यं सागरोपमम् ।।६९॥ प्रासादस्य छच्देन मंडपस्य चतुर्दिशि । उत्तमं तद्भवे द्वास्तु इहलोके स्वयंभूवा ॥७॥ प्रासादे ज्येष्ठमानं च मंडपं कन्यसं भवेत् । त्रयोद्वारा भवेत्यत्र सिंह द्वार विवर्जितम् ।।७१।। મહાચાતુર્મુખ પ્રાસાદને પૂર્વ પશ્ચિમ ઉત્તર અને દક્ષિણે એમ આરે દિશામાં મેઘનાદ મંડપની રચના કરવાથી સાગરોપમ પુણ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. પ્રાસાદના પિતાના છંદને મંડપ ચારે દિશાએ કરે. તે ઉત્તમ વાસ્તુથી આ લોકમાંથી સ્વયં સ્વદેહે મિક્ષ જાય છે. આવા જેષ્ઠ માનના પ્રાસાદને કનિષ્ઠ માનને મંડપ કરી શકાય તેને ત્રણ બાજુએ દ્વારા કરવામાં આવે તે मे १२३नु सिंह द्वार न ४२. १६-७०-७१. महा चातुर्मुख प्रासादको पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण इस तरह चारों दिशाओंमें मेघनाद मंडपोंकी रचना करनेसे सागरोपम पुण्यकी प्राप्ति होती है। प्रासादके अपने छंदका मंडप चारों दिशाओंमें करना । वह उत्तम वास्तुसे स्वयं स्वदेहे मोक्षमें जाता है। ऐसे ज्येष्ठमानके प्रासादोंको कनिष्ठमानका मंडप कर सकते हैं। उसे तीनों तरफ द्वार किया जाय तो एक तरफका सिंह द्वार न करना । ६९-७०-७१. अष्टहस्ते भवेत्पादौ यावद् दृशपंचकम् । भ्रमोदयं च कर्तव्यं योजया द्वि भूमिका ॥७२॥ एक भूम्पा द्वयो यत्र भूमि जंघा विधिक्रमाम् । मया प्रोक्त माक्षाता चैकादौ भास्करांत्तकम् ॥७३॥ આઠ હાથના પ્રાસાદથી પંદર હાથના ભ્રમવાળા પ્રાસાદને ભ્રમના ઉદયમાં બે ભૂમિ કરવી એ એક ભૂમિ (ના સાંધાર મહાપ્રાસાદના મેરૂ મંડેવર) ને બે જંઘા કરવી એમ કમે વિધિથી મેં એકથી બાર જઘાની ભૂમિનું મેં छे. ७२-७३. आठ हायके प्रासादसे पंदरा हाथके भ्रमवाले प्रासादको भ्रमके उदयमें दो भूमि करना यह एक भूमि (के सांधार महापासादके मेरू मंडोबर ) को दो जंघा करना। ईस तरह क्रमसे विधिसे मैंने एकसे बारह जंवाकी भूमिका मैंने कहा है। ७२-७३. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % - - - - अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय तथा पीठस्ततोरिधि मानं मंडोवरं श्रृणु । क्षीरसागरमुत्पन्ना प्रासादास्युश्चतुर्मुखाः ॥७॥ षड्भागं च भवेद् मिट्टं पंचभागं द्वितीयकम् ।। भाग भागं च निष्क्रांत त्रिपदं च तृतीयक ॥७५॥ सप्तांश जाड्यकुंभं च त्रयोदश कणालिका । द्वादशयोच्छूिता हस्ति हयास्तु वसुभागिकः ॥७६॥ २(सप्त भागां नरपीठं पीठं सप्त चत्वारिंशतः) । तथा निष्क्रान्तं वक्ष्यामि द्विपदं मिट्टमेव च ॥७७॥ द्वितीयं तत्समं काय पदमेकं तृतीयकम् । वसुभिः जाड्य कुंभं च कणालिका पइमेव च ॥७८॥ गजाश्चत्वारि भागानि अयं सार्द्ध तुरङ्गमाः। द्विपदं नरपीठं च शिरपट्टीनु मेकतः ॥७९॥ (देहया च गजद्वेय उपटीया संपूजितं)। * હે ઋષિરાજ, હવે ક્ષીર સાગરમાં ઉત્પન્ન થયેલ એવા ચતુર્મુખ મહાપ્રાસાદના પીઢ વિભાગ અને મંડેવર માન સાંભળે (૭૩) ત્રણ ભિટ્ટમાં પહેલું છ ભાગનું, બીજું પાંચ ભાગનું અને ત્રીજું ત્રણ ભાગનું (એમ જે માન આવ્યું હોય તેને ચૌદ ભાગ કરીને ત્રણભિટ્ટ કરવાં) અને તેને નિકાળા એક એક ભાગના રાખવા. સાત ભાગને જાદંબે. તેર ભાગની કણી, (છાજલી અને ગ્રાસ પટ્ટી સાથે) કરવી. બાર ભાગનું ગજપીઠ, આઠ ભાગનું અધપીઠ અને સાત ભાગનું નરપીટ કરવું. એ રીતે મહાપીઠના ઉદયના સુડતાળીશ ભાગ गणुका. ७४-७५-७६-७७. હવે નિકાળા કહે છે. પહેલું અને બીજું ભિટ્ટ બબ્બે ભાગ અને ત્રીજું ભિટ્ટ એક ભાગના નિકાળાનું કરવું. જાડંબાનો આઠ ભાગ નિકાળે, કર્ણને છ ભાગને, ગજપીઠને ચાર ભાગને, અધપીઠનો સાડા ત્રણ ભાગને, અને નરપીઠને બે ભાગને નિકાળે રાખ. માથાની પટ્ટીથી નરના રૂપ એક ભાગ (૨) કૌસમાં આપેલ શ્લોક છ૭ ના બે પદો–સાત ભાગનું નરપીઠ અને કુલ ઉદય સુડતાલીશ દરેક પ્રતમાં નથી. પરંતુ તે બે પદ હોય તો જ પીઠ વિભાગ પૂર્ણ થાય. તેથી તેની પૂર્તિ કરવા રજા લઉં છું. (२) कौंसमें दिये हुए श्लोक ७७ के दो पदों सात भागका नरपीठ और कुल उदय सैतालीश दरेक प्रतोंमें लहियेके दोषसे नहीं है। परंतु दो पद होनेसे ही पीठ विभाग पूर्ण होता है। इससे उसकी पूर्ति करनेके लिये क्षमा करना। . Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधी उदय भाग. शीराव अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ નીકળતા. પટ્ટીથી બે ભાગ અધૂપીઠના રૂપ નીકળતા કરવા. ગજપીઠના રૂપ, નીચેની પટ્ટીથી બે ભાગ નીકળતા કરવા. हे ऋषिराज, अब क्षीर सागरमें उत्पन्न हुए ऐसे चतुर्मुख महाप्रासादके और मंडोवरभान सुनो । तीन मिट्टमें पहला छः भागका, दूसरा पाँच भागका और तीसरा तीन भामका (इस तरह जो मान आया हो उसके चौदह भाग का कर तीन मिट्ट करना । और उनके निकाले एक एक भागके रखना । सात भागका जाडंबा तेरह भागकी कणी, (छाजली और ग्रास पट्टीके साथ) करना । बारह भागका गजपीठ, आठ भागका अश्वपीठ और सात भागका नरपीठ करना । इस तरह महापीठके उदयके सुडतालीश भाग जानना । ७४-७५-७६-७७. ___अब निकाले कहते हैं। पहला और दूसरा भिट्ट दो दो भाग और तीसरा भिट्ट एक भागके निकालेका करना । जाडंबाका आठ भाग निकाला, कणीका छः भागको, गजपीठका चार भागका, अश्वपीठका साढ़े तीन भागका, और नरपीठका दो भागका निकाला रखना । सरकी पट्टीसे नरके रूप एक भाग निक . लते-पट्टीसे दो भाग अश्वपीठके रूप निक३ भिट्ट भाग १४ और महापीठ विभाग ४७ लते करना। गजपीठके रूपों-नीचेकी पट्टीसे दो भाग निकलते करना । ७८-७९.. तथा मंडोवरं वक्ष्ये खुरकं द्विपदं भवेत् ॥८॥ कुंभकं पंचसार्द्धच कलशं त्रिपदं श्रुभं । अंतरपत्रं पदमेकेन कपोतालि त्रयपदा ॥८॥ मंचिका त्रयसार्दा चं जंधैकादशपंचके । હવે સહામુખના ડેવરના ભાગ કહું છું. ખરે બે ભાગને, કુંભે સાડા પાંચ ભાગને, કળશે ત્રણ ભાગ, અંતરપત્ર એક ભાગ, કેવાળ ત્રણ ભાગ, IRCente -*-१२-गजेपी-...-१३ सय. कणीकार भीह Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय २९७ માચી સાડા ત્રણ ભાગ અને એક પહેલી જંઘા, પંદર ભાગની ઊંચી કરવી. (હવે તે અંધામાં કરવાના જુદા જુદા દેવ દેવાંગના દિગ્યાલાદિના સ્વરૂપે ४ छे), ८०-८१. अब महाचोमुखके मंडोवरके भाग कहता हूँ। खरा दो भागका, कुंभा साढ़े पाँच भागका, कलश तीन भागका, अंतरपत्र एक भाग, केवाल तीन भाग, माची, साढे तीन भाग और एक पहली जंघा, पंद्रह भागकी ऊँची करना । (अब उस जंघामें करनेके भिन्न भिन्न देव देवाङ्गना दिग्पालोदिके स्वरूपों कहते हैं। ८०-८१. लोकपालाश्च दिग्पाला: अतीवानन्दपूरिताः ॥८२॥ स्थदेवादीनां तत्र नृत्यवादित्र संयुताः । लास्यस्तांडव श्चैव तालानां च विशेषतः ॥८॥ आयुधैर्वाहनयुक्ता नृत्यं कुर्वति देवताः । उत्सवं जिनालये च विशेषेण चतुर्मुखे ॥८४॥ इंद्रनाद्यं प्रकुर्तितं गण सेव्यं पुरावृत्तं । अध: बाण कर तंच नृत्यमानादि हस्तकम् ॥८५।। अधोद्रष्टि विशेषेण वामयान पदस्तलम् । पइभुजा अष्टभुजा वा मूर्ति मानादि सयुतं ॥८६॥ મંડોવરની જંઘામાં કપાલ અને દિપાલનાં સ્વરૂપ અતિ આનંદ ભાવયુક્ત ફરતા કરવા. રથ પ્રતિરથમાં દેવાંગનાનાં સ્વરૂપે વાજીંત્ર સાથે નૃત્ય કરતા જોડલાં રૂપે પણ કરવા લાસ્ય અને તાંડવાદિ તાલથી નૃત્ય કરતા રૂપે વિશેષે કરીને કરવાં. આયુધ અને વાહનવાળા ઇંદ્રાદિ સ્વરૂપે ચતુર્મુખ જીનભવનમાં ઉત્સવ હોય તેમ નૃત્ય કરતા તેમ જ તાલ આપતા ગણ સેવકેના ફરતા સ્વરૂપ કરવાં. દેવાંગનાઓનાં સ્વરૂપમાં કેઈ નીચે બાણ મારતા હાથવાળી-કેઈ નૃત્ય માનાદિ હાથ મુદ્રા યુક્ત કરવી. વિશેષે કરીને દેવાંગનાઓ નીચી દૃષ્ટિવાળી કે સમાન પદ તળવાળી કેઈ ડાબા ઉપડતા પદતાલવાળી એવી દેવાંગનાનાં સ્વરૂપે કરવાં. દેવની મૂર્તિઓ, કેઈ (ચાર) છે કે આઠ હાથવાળી માનસૂત્ર પ્રમાણુ साथे सप्रमाण ४२वी. ८२-८३-८४-८५-८६. मंडोवरकी जंघामें लोकपाल और दिग्पालके स्वरूपों अति आनंद भावयुक्त करना । रथ प्रतिथरमें देवांगनाके स्वरूपों वाजिंत्रके साथ नृत्य करते युगल रूपों भी करना । लास्य और तांडवादि तालसे नृत्य करते रूपों विशेष करके करना। ३८ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव भ. - १२० क्रमांक अ-२१ आयुध और बाहनवाले इंद्रादि स्वरूपों चतुर्मुख जिन भवनमें उत्सबमें हो इस तरह नृत्य करते और ताल देते गण सेवकोंके फिरते स्वरूपों करना | देवाङ्गनाओंके स्वरूप में कोई नीचे बाण मारते हाथवाली - कोई नृत्यमानादि हाथ मामादियुक्त करना । विशेषकर देवाङ्गनाओं नीची दृष्टिवाली कोई समान पद तलवाली कोई बाचे उठाए हुए पदतलबाली ऐसी देवाङ्गनाके स्वरूपों करना । देवोंकी मूर्तियों कोई (चार) छः या आठ हाथवाली मान सूत्र प्रमाणके साथ - सप्रमाण करना । ८२-८३-८४-८५-८६. तालमानाः समाख्याता नृत्यंति षोडशां कलाः । पहस्ताश्च (सहिता) अग्निगणा ते चाप सव्यताघृतम् ॥८७॥ वामहस्तं कर्ण दक्षयान पद तलम् । दक्षपादोत्वलं कृत्वा द्विधा वामांगसंयुतम् ॥ ८८|| अधोकरश्च वामालिन्यो यमो दक्षिणनिरीक्ष्यते । नैरुत्ये क्षेत्रपालच यक्षगण स्ततोपरं ॥८९॥ अधो हेतु तेजां ते (१) उत्तानं नृत्यकारक 1 परावृत्य च वरुणं शिरं दक्षकरो भवेत् ॥ ९०॥ अधो दृष्टि प्रयत्नेन हृदये वामहस्तकम् । સાળે કળાથી ખિલેલા તાલમાનથી નૃત્ય કરતી દેવાંગનાનાં સ્વપ્ન કરવાં. છ ભૂજાવાળા અગ્નિ ગણુ સવ્યાપસવ્ય ગોળ અંગ મરોડવાળાં રૂપે કરવાં. દેવાંગનાઓમાં ડાબે હાથ કણને સ્પર્શી કરત! જમણા હાથ પગ ( પકડતા ) કરવા. કેટલીક દેવાંગનાના જમણા પગ કમળની જેવા બીજી વીધિથી ડાખા અંગ દેખાડતી એવી દેવાંગના કરવી. જેનેા હાથ નીચે ડાબી તરફ ઢળતા નૃત્ય કરતા કરવા. દક્ષિણ દિશામાં યમ=ધરાજ નિરીક્ષણ કરતા કરવા. નૈઋત્ય કોણમાં ક્ષેત્રપાળ (ભૈરવ નીતિ) ના સ્વરૂપે કરવાં. યક્ષ અને ગણુાનાં રૂપો પણ કરવાં .................................श्रेष्ठ (अथी ) सेवी " उत्तान " हेवांगना नृत्य डरती ४२वी. पश्चिम દિશામાં વરૂણ દેવનું સ્વરૂપ કરવું. દેવાંગનાઓના કેટલીકના જમણા હાથ મસ્તકપર કરયે!. નીચે દૃષ્ટિ રાખેલી અને ડાબે હાથ છાતીએ રાખીને નૃત્ય रती ४२वी. ८७-८८-८८-८०. सोलह कलाओंसे विकसे हुए तालमानसे नृत्य करती देवांगनाके स्वरूप करना । छः भूजावाले अमिगण सव्यापसव्य गोल अंग मरोड़दार रूपों करना । ओ बायां हाथ कर्णको स्पर्श करता, दाहिना हाथ (पाँचको पकडता ) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरूपाध्याय करना। की देवांगनाओंका दाहिना पाँव कमल जैसा, दूसरी विधिसे बाँया अंग बताती हुई देवांगना करना । जिसका हाथ नीचे बांओं तरफ ढलता मृत्य करता करना । दक्षिण दिशामें यमः धर्मराजको निरीक्षण करते करना । नैऋत्य कोणमें क्षेत्रपाल (भैख-नीरूति) के स्वरूपों करना । यक्ष और गणोंके रूपों भी करना !........श्रेष्ठ (ऊँची) ऐसी उत्तान देवांगना नृत्य करती करना। पश्चिम दिशामें वरूगदेवका स्वरूप करना। देवांगनाओंमें से कितनीका दाहिना हाथ मस्तक पर करना । नीचे दृष्टि रखी हुई और बाँया हाथ वक्ष पर रखी हुई नृत्य करती करना । ८७-८८-८९-९०. वायव्ये वैतालका वक्ष्ये पुनस्तांडव्य ताङ्गतः ॥११॥ भ्रमरीयं च विशेषेण वस्त्रहस्तं विशेषतः। कुबेरे पद्मिनीलिला गण इंद्रादि कोत्तमा ॥१२॥ ग्रतांश्चान्ये दक्षहस्ते करैकं शिरभूषिता । इशाने इश्वरंश्चैव भुजाष्टक संयुतः ॥९॥ अभय प्रीतमुक्तिर्ग (?) वामहस्ते कारण (!)।' વાયવ્ય કોણમાં (વાયુદેવ કે) વૈતાલનું સ્વરૂપ કરવાનું કહ્યું છે–તે વિષ કરીને ભમરી ફરતા તાંડવ નૃત્ય કરતું હાથમાં વસ્ત્ર ધારણ કરેલ કરવું કરવામાં કુબેરની સાથે પદ્મિની દેવાંગને લીલા કરતી ગણુ ઇંદ્રાદિ એવાં ઉત્તમ સ્વ શેભનાં કરવાં. પદ્મિનીને નૃત્ય ગતિમાં નીચે જમણે પગ એક હાથ શિરપર ભત રાખે. ઈશાન કેણમાં ઈશનું સ્વરૂપ આઠ ભુજાવાળું અજયદિ ગુજાपाणु भने सो डाय......"८१-८२-८3. वायव्य कोणमें (वायुदेव या) वैतालका स्वरूप करनेका कहा है । उसे विशेषकर भमरीके चारों तरफ तांडव नृत्य करता हाथमें वस्त्र धारण किया हुआ करना । उत्तरमें कुबेरकी साथ पद्मिनी लीला करते गण इंद्रादि ऐसे उत्तम स्वरूपों सुंदर शोभता करना । पद्मिनी नृत्य गतिमें नीचे पाउ दाहिना एक हाथ शिर (૩) ગુજરાત સૌરાષ્ટ્રની ઘણી ખરી ક્ષીરાવની પ્રતો અહીં શ્લોક ૯૩ પછી સમાપ્ત થાય છે. આગળ નથી. પરંતુ અમારા સંગ્રહની એક પ્રભાં અને આજ અધ્યાય વૃક્ષાર્ણવમાં સંપૂર્ણ મળતો હોવાથી અપૂર્ણતા દૂર કરી શકાઈ છે. એ સભાગ્ય. (३) गुजरात सौराष्ट्रकी बहुत कुछ क्षीरार्णवकी प्रतें यहाँ श्लोक ९३ के बाद समाप्त होती है। आगे नहीं है। परंतु हमारे संग्रहकी एक प्रतमें और यही अध्याय वृक्षार्णवमें संपूर्ण मिलनेसे-अपूर्ण दूर हो सकी है। यह सद्भाग्य ! Z तिलोसमा (कामरुपा) तिलोचना । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ पर शोभता रखना । इशान कोणमें ईशका स्वरूप आठ भुजावाला अभय आदि मुदावाला और बाँया हाथ ।........९१-९२-९३. करे दक्षे मते रिंद्र वामयान पदस्तले ॥९४।। मेनका दक्षिणांगानि भूतले प्रतिधारिता । रंभा इंद्रस्य संयोगे दक्ष याने पदस्तले ॥१५॥ बाण याम करे रम्या वीणा दक्षकरे पुरे । अग्निदक्षे वंशहस्ते प्रावतस्या च उर्वशी ॥१६॥ तेनवृते पुनर्भावे देवता नृत्यकारिता । यमे त्रिलोचन उक्ता तालमंजीर कंसिका ॥१७॥ नृत्य भावे समाख्याता कामरूपा पदस्तले । नाम डाय................ ........६४ भनी दक्षिणी - માંથી ભૂતલે આવેલ છે. રંભા અને ઈદ્રના સંયેગી આલિંગન આપતું સ્વરૂપ ४२. भो। ५॥........ १३॥ हाथमा....२भ्य... मे मा छे मा डायमा વીણ છે. અગ્નિ કેણુમાં “જમણા હાથમાં વાંસળીવાળી ઉર્વશી એવા ભાવથી - મૂત્ય કરતાં દેવનાં સ્વરૂપ કરવાં. દક્ષિણ દિશામાં યમ સાથે તાલ મંજીરા અને કાસીયા બજાવતી ત્રિલોચના કરવી“નૃત્ય ભાવવાળી કામ રૂપાના પગ"૯૪ ६५-६६-६७. ... दाहिना हाथ......इंद्र......बाँया हाथ......(९४) मेनका दक्षिणांगी स्वर्गमेंसे भूतलपर आयी हुई हैं। रंभा और इंद्रके संयोगी आलिंगन देते हुए स्वरूप करना । दाहिना पाँव....बाँये हायमें रम्य बाण है, दाहिने हाथमें वीणा है। अग्निकोणमें...दाहिने हाथमें बाँसुरीवाली उर्वशी....ऐसे भावसे नृत्य करते देवोंके स्वरूप करना । दक्षिण दिशामें ताल-मंजीरे और कांसिया बजाती हुई त्रिलोचना करना ।....नृत्य भाववाली कामरूपाके पांच............९४-९५-९६-९७. शची नैऋत्य संयोगे क्षेत्रपाल सदक्षिणे ॥९८॥ चंद्राउली दक्षकरं सो! गणातत्क्षेत्रपालका । परम लोको सप्तवामाङ्गे वरुणदेव समास्मृता ॥९९।। मर्दनानि समायुक्त बाणं रंभादिकोद्भव । नृत्यंति वासुदेवं च मंजुघोषा सदक्षिणे ॥१०॥ बमुहस्ते खड्गायति दक्षयाने पदस्तलं । रंभादि देवकन्या च दिग्पाला सहसंयुता ॥१०१॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रसाद स्वरुपाध्याय नृत्यंति इंद्ररंभा च देव * भवने चतुर्मुखे।। मेनकादि ईशान्याथा तदस्थान प्रदक्षिणे ॥१०२।। શચી નીરૂતી સહિત નૈઋત્યે દક્ષિણે ક્ષેત્રપાલ અને ચંદ્રાઉલી હાથ જોડતી क्षेत्रास अने गण............ પશ્ચિમે વરુણ દેવ. કેઈ (શત્રુને) મર્દન કરતી. ધનુષ બાણવાળી. રંભા દેવાંગના કરવી. વાયવ્ય વાયુદેવતા નૃત્ય કરતા કરવા તેની દક્ષિણે મંજુષા हेवांगनानु २१३५ ४२. 26 सायना ......भी............ જંઘામાં રંભાદિ દેવકન્યાઓ અને દિગ્ધાલના સ્વરૂપે સાથે ઇંદ્ર અને રંભા સાથેના સ્વરૂપે દેવ ભવનના ચતુર્મુખમાં નૃત્ય કરતાં કરવાં. એ રીતે મેનકાદિ બત્રીશ દેવાંગનાઓનાં સ્વરૂપે ઈશાન કોણથી ફરતા પ્રદક્ષિણાએ તેના સ્થાને જંઘામાં કરવાં. ૯૮ થી ૧૦૨. शचीनीरूतीके साथ नैऋत्य में दक्षिणे क्षेत्रपाल और चंद्राउली हाथ जोडी क्षेत्रपाल और गणों............पश्चिममें वरुण देव कोई (शत्रुको) मर्दन करती धनुष-बाणवाली रंभा देवांगना करना । वायव्यमें वायुदेवताको नृत्य करते करना । उनकी दक्षिण दिशामें मंजुघोषा देवांगनाका स्वरूप करना । दोनों हाथके खडग धारण करती दाहिना पग खडा रखे........जंघामें रंभादि देवकन्याओं और दिग्पालके स्वरूपोंके साथ इंद्र और रंभाके युग्म स्वरूपों देव भवनके चतुर्मुखमें नृत्य करते करना । इस तरह मेनकादि बत्रीश देवांगनाओंके स्वरूपों ईशान कोणसे फिरते प्रदक्षिणामें उसके स्थान पर जंधामें करना । ९८ से १०२. मेनकादय ईशान्याद्या ततस्थाना चं प्रदक्षिणे ॥१०३॥ लीलावती विधिश्चिता सुंदरी शुभभामिनी । *पाठान्तरे जिनभवने । (૪) ઉપરની બત્રીશ દેવાડનાઓમાં કેટલાક ગ્રંથમાં છે. કેટલાંકમાં એવીણ કહી છે. ઓરીસ્સા-ઉડીયા શિલ્પમાં સોળ કહી છે. વૃક્ષાર્ણવઃ ક્ષીરાણુવ અને અમારા ગ્રંથસંગ્રહના એળીયામાં કેટલાકના નામ ભેદો પૃથફ પૃથક્ કહ્યા છે. કોઈ રૂ૫ લક્ષણમાં ભીન્નતા છે એટલે ૫ સુસ્વભાવિની સુભાંગીની. ૧૦ પાનેત્ર=ગુઢ શબ્દા. ૧૨ ચિત્રરૂપપુત્રવલ્લભા-ચિત્રવલ્લભા. ૧૮ ચંદ્રરેખા=પત્રલેખા ૨૪ ભાવચંદ્રા=ભાવમુદ્રા. ૨૮ મુજા મંજુધપા. ૩૦ મોહિની વિજયા ૩૧ ઉત્તાનાચંદ્રવક. ૩૨ તિલોત્તમા=ત્રિલોચના-કામરૂપા. (४) उपरकी बत्तीस देवाङ्गनाएँ कई ग्रंथों में है। कईमें चोबिस कही है। वृक्षार्णव और क्षीरार्णव ग्रंथमें और हमारे पुराने ग्रंथ संग्रह के ओलियेमें नाम भेद पृथक् पृथक् कहे है। कोई कई रूप लक्षणमें भी भीन्नता है। सुखभाविनी-सुभांगिनी १० पद्मनेत्रा-गुढ शब्दा १२ चित्ररूपा पुत्रवल्लभ-चित्रवल्लभा १८ चन्द्ररेखा-पत्रलेखा २४ भावचन्द्रा-भावभुद्रा २८ भुजघोषा=मंजुघोषा ३० मोहिनी विजया ३१ उताना-चन्द्रवक्ता ३२ तिलोत्तमा त्रिलोचना-कामका। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरार्णव अ. - १२० क्रमांक अ.- २२ तथा कर्पूरमंजरी ॥ १०४ ॥ च चित्रिणी" चित्रवल्लभा २ I १४ देवशाखा " मरीचिका' " ॥ १०५ ॥ १६ हंसावली 'पद्मिनी गूढशब्दा' १० गौरी गांधारकाचैव १३ १७ सर्वकला • 10 २१ चंद्रावली मानवी मानहंसा २२ च स्वभावा २३ मृगाक्षी बिजया "" उर्वशी २६ रंभा " भुजघोषा ३१ . चंद्ररेखा सुगंधा शत्रुमर्दनी । ३२ चंद्रवक्रा च कामरूपा भावमुद्रिका ॥१०६॥ २६ जया तथा । च संस्थिता ॥ १०७ ॥ જથ્થાની ફરતી પ્રદક્ષિણામાં પેાતાના સ્થાને ઈશાન કાણુથી ૧ મેના, ३ सीसावती 3 विधिथिता, ४ सुंदरी, पशुलशाभिनी ( सुलागीनी ) ६ साવલી, ૭ સકળા, ૮ કપૂરમંજરી, હું પદ્મિની ૧૦ ગુઢશબ્દા ( પદ્મનેત્રા ) ૧૧ ચિત્રણી ૧૨ ચિત્ર વલ્લભા ( પુત્રવલ્લભા, ચિત્રરૂપા) ૧૩ ગૌરી ૧૪. ગાંધારી ૧૫ દેવશાખા ૧૬ મરિચિકા ૧૭ ચંદ્રાવલી ૧૮ ચંદ્રરેખા (પત્રલેખા ) ૧૯ સુત્રધા ૨૦ શત્રુમર્દિની ૨૧ માનવી (માનિની) ૨૨ માનહ ંસા ૨૩ સુસ્વભાવા ૨૪ ભાવમુદ્રિકા (ભાવચંદ્રા) ૨૫ મૃગાક્ષી ૨૬ ઉર્વશી ૨૭ ૨ભા ૨૮ મુજઘાષા · (भलुघोषा ) २८ नया उ० विन्या ( भोहीनी) ३१ चंद्रवड़ा ( उत्ताना ) ૩૨ કામરૂપા એ રીતે નૃત્ય કરતી ત્રીશ દેવ કન્યાના નામ જાણવા. વિજયાનુ અહીંની, ચંદ્રવકાનું ઉત્તાના અને કામરૂપાનું તિલેત્તમા એમ ત્રણેના અપરના નામ જાણવા.) ૧૦૩ થી ૧૦૭ जंघाकी फिरती प्रदक्षिणा में अपने स्थानपर ईशान कोणसे १ मेनका, २ लीलावती, ३ विधिंचिता, ४ सुंदरी, ५ शुभगामिनी ( सुभागिनी ), ६ हंसावली, ७ सर्वकला, ८ कर्पूरमंजरी, ९ पद्मिनी, १० गुढशब्दा, (पद्मनेत्रा ) ११ चित्रणी, १२ चित्रवल्लभा, (पुत्रवल्लभा, चित्ररूपा ) १३ गौरी, १४ गांधारी, १५ देवशाखा, १६ मरिचिका, १७ चंद्रावली, १८ चंद्ररेखा, ( पत्रलेखा ) १९ सुगंधा, २० शत्रुमर्दिनी, २१ मानवी, ( मानिनी ) २२ मानहंसा, २३ सुस्वभावा, २४ भावमुद्रिका, ( भावचंद्रा ) २५ मृगाक्षी, २६ उर्वशी, २७ रंभा, ( उत्तान ) २८ भुजघोषा, ( मंजुघोषा ) २९ जया, ३० विजया, ( मोहिनी ) ३१ चंद्रवका, ( उत्ताना ) ३२ कामरूपा, ( तिलोत्तमा ) । इस तरह नृत्य करती बत्तीस देवांगना - देवकन्याका नाम जानना ।४ १०३ से १०७. मंडोवर वितानाद्य त्रिपुरुष रविजिना | मंडपाचैव सोभाढ्या च गीतनृत्य समन्विताः ॥ १०८ ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय चतुर्मुख महामासाद स्वंदपाध्याय माहया स्थान मुस्कीर्णा द्वात्रिंशं च प्रदक्षिणे । स्वयं क्षीरार्णवे प्राज्ञ विशेषेण चतुर्मुखे ॥१०९।। सथाश्च जंधामारुह्य रूपवत्योऽमराङ्गना । प्रय स्थाने भवेद्रंभा चतु:स्थाने च मेनका ॥११०॥ उर्वशी च द्विधास्थाना मरिची पंच भागतः। पविधा मुजघोषा च चत्वारं च तिलोत्तमा ॥१११।। विष्णु दशावतारं च तथा सप्त प्रजापतिः । शिवं च पंचधा प्रोक्त तथा देवाङ्गनादिका ॥११२॥ બ્રહ્મા વિષ્ણુ અને રુદ્ર, સૂર્ય અને જિન એ સર્વના પ્રાસાદ અને મંડપમાં સુશોભનમાં ગીત અને નૃત્ય કરતાં દેવ દેવાંગનાઓ અને ઉત્તમ સ્થાનમાં ફરતી બત્રીશ દેવાંગનાઓ પ્રદક્ષિણા કરવી. સ્વયં શ્રીરાણુંવમાં ઉત્પન્ન થયેલ અને વિશેષ કરીને ચતુર્મુખ પ્રાસાદની જંઘામાં સ્વરૂપવાન એવી દેવાંગનાઓનાં સ્વરૂપ કરવાં. એક જ પ્રાસાદમાં રંભાના સ્વરૂપે ત્રણ સ્થળે કરી શકાય, મેનકા ચારે સ્થાને, ઉર્વશી બે સ્થળે; મરિચીકા પાંચ સ્થાને, મુજષા છ સ્થાને અને તિત્તમા ચાર સ્થાને ફરી ફરીને કરી શકાય, જંઘામાં યથારોગ્ય પ્રાસાદમાં વિષ્ણુપ્રાસાદોમાં વિષ્ણુના દશ અવતારે, બ્રહ્માના પ્રાસાદના સાત પ્રજાપતિ, શિવ પ્રાસાદમાં શિવના પાંચ સ્વરૂપે. (૧ સધોજાત્ત ૨ વામદેવ ૩ અઘોર ૪ તપુરુષ ૫ ઈશાન) કરવા કહ્યાં છે. તે ઉપરાંત દેવાનાઓના સ્વરૂપ પણ ફરતાં કરવાં. ૧૦૮ થી ૧૧૨. ब्रह्मा विष्णु और रूद्र, सूर्य और जिन इन सर्वके प्रासादों और मंडपोंमें सुशोभनमें गीत और नृत्य करते देव-देवांगनाओं और उत्तम स्थानों फिरती बत्तीश देवांगनाओंको प्रदक्षिणामें करना । स्वयं क्षीरार्णवमें उत्पन्न हुई और विशेष करके चतुर्मुख प्रासादकी जंघामें स्वरूपवान ऐसी देवांगनाश्रीले स्वरूपों करना । एक ही प्रासादमें रंभाके स्वरूपों तीन स्थलों पर हो सकते हैं। मेनकाको चारों स्थानमें उर्वशी दो स्थल पर, मरिचीका पाँच स्थानों पर, सुंज घोषा छः स्थानों पर, और तिलोत्तमा चार स्थानों पर फिर फिर करा सकते हैं। जंघामें यथायोग्य प्रासादमें, विष्णु प्रासादोमें विष्णुके दश अवतारों, बाके प्रासादोंके सात प्रजापति, शिव प्रासादमें शिवके पाँच स्वरूपों (१ सद्योजात्तर वामदेव ३ अघोर ४ तत्पुरुष ५ ईशान) करनेके लिये कहा है। इसके अतिरिक देवांगनाओंके स्वरूपों भी फिरते करना । १०८ से ११२, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ मेनका खड्गखेटं च नृत्यति च पदस्तले । आलस्या च लीलावती विधिचिता सदर्पणा ॥१३॥ सुंदरी नृत्य युक्ता च शुभा कंटक (गृक) निर्गता । पाद शृङ्गार की च हंसा कमल लोचना ॥११४॥ गाथा उच्चारणा वाथ सर्वकला अतः शृणु । 'नृत्यंति च सर्वकला वरदादक्षपाणिना ॥११५।। मस्तके वामहस्ते च चिंतनमुद्रा संयुतम् । पक्रम Patel , मेनका २ लीलावती ३ विधिचिता सुन्दरी ( ૧ મેનકાનું સ્વરૂપ હાથમાં ખડગ–હાલ ધારણ કરતી નૃત્ય કરતી (બે પગ ઊંચે); ૨ આળસ મરડતી હોય તેવા સ્વરૂપવાળી લીલાવતી; ૩ દર્પણ ધારણ કરી (મુખ જતી) કે ચાંદલે કરતી વિધિચિતા જાશુવી; ૪ નૃત્ય કરતી એવી સુંદરી જાણવી. પ પગને કાંટે કાઢતી એવી સુસ્વભાવીની (શુભાંગિની) જાણવી; ૬ પગને શણગાર (ઝાંઝર) પહેરતી એવી કમળના લેનવાળી ગાથાને ઉચ્ચાર કરવી હોય તેવી હંસાવલી જાણવી ૭ નૃત્ય કરતી સર્વકક્ષા જેને જમણે હાથ વરદ મુદ્રાવાળો છે. અને ડાબો હાથ નૃત્ય કરતે મસ્તક ઉપર છે. તેવી थितन भुद्र पाणी सर्व वी. ११३-११४-११५. ५. पाठान्तर कर्णजार भूषिता । ६. दूनी प्रताना ते सह भूआणा मध्ये धिषु धिषु धिग् घिग जायति । परंपुर बहि चतुर्मुखे द्विदा सुरनर नृत्यंति भावना सह जाम् । पा. १. पुरानी प्रतमें ते सह............सहजाम् । पाठ है। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अब पल महामासाद स्वरुपाध्याय . १ मेनफाफा स्वरूप हाथमें खड्ग-ढाल धारण किया-नृत्य करना । (दाया पौष ऊँचा ।) २ आलसको व्यक्त करता स्वरूपवाली लीलावती । ३ दर्पण धारण कर (मुखको देखती) या तिलक करती विधिचिता जानना । ४ मृस्य करती ऐसी सुंदरी जानना । ५ पाँवसे काँटा निकालती ऐसी सुखभाविनी (शुभां. गिनी) मानना । ६ पाँवका शंगार (झाँझर) पहनती ऐसी कमल जैसे लोचनबाली माथाका उद्धार करती हो वैसी हंसावली जानना । ७ नृत्य करती सर्वकल्प जिसका दाहिना हाथ वरदमुद्रावाला है, और बाँया हाथ नृत्य करता मस्तक पर है। जैसी चिंतन मुद्रावाली सर्वकला जानना । ११३-११४-११५. ५ शुभगामिनी ६ हंसावली ५ सर्वकला ८ कर्पूरमंजूरी 'नग्न भावे कृतस्नाना नाम्ना कपूरमंजरी ॥११६॥ पद्महस्ते च नृत्याङ्गी पट्टे पद्मं च पचिनी । ८अभयदा शिशुयुक्ता पद्मनेत्रा सा उच्यते ॥११७॥ . कपाले वामहस्ता च नृत्यभावा च चित्रिणी। चित्ररूपा स पुत्राङ्गो गौरि च सिंहमर्दिनी ॥११॥ (૮) નગ્ન (મગ્ન) ભાવથી રનાન કરતી અથવા ભાવમમ નૃત્ય કરતી એવી કપૂરમંજરી જાણવી. (૯) જેના હાથમાં પદ્મ (કમળ) રાખીને નૃત્ય અંગવાળી કમળ-પદ્મના પટવાલી એવી પવિની જાશુરી) (૧૦) અભયમુકાવાળી પડખે શિશુ બાળક છે એવી પદ્યનેત્રા ગુદશબ્દા જાણવી (૧૧) નય ભાવથી જેને ७. पाठान्तर-मग्नभावामलस्नान ८, चत्वारिबंधु युक्ता च ९. वामहस्ते शिरंदद्यात् । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ क्षीरार्णय अ. - १२० क्रमांक अ. -- २२ ડાબે હાથ કપાળ (મસ્તકે) છે તેવી ચિત્રિણી જાણવી. (૧૨) જેણે અંગે પુત્ર ધારણ કરેલ તેડેલ છે એવી ચિત્રરૂપા ( ચિત્રવલ્લભા-પુત્રવલ્લભા) જાણવી. (१३) सिंहनु भर्हन उरनारी मेवी गौरी लागुनी. ११६-११७-११८. ९ पद्मिनी " १० गूढशब्दा पद्मनेत्रा (८) नग्न ( मन ) भावसे स्नान करती अथवा भावमग्न नृत्य करती ऐसी कर्पूरमंजरी जानना । ( ९ ) जिसके हाथमें पद्म (कमल) रखकर नृत्य अंगवाली कमल - पद्मके पटवाली ऐसी पद्मिनी ( गूढशब्दा ) जानना । (१०) अभयमुशवाली पासमें शिशु बालक है वैसी पद्मनेत्रा जानना । ( ११ ) नृत्य भावसे जिसका हाथ भाल (मस्तक) पर है वैसी चित्रिणी जानना । ( १२ ) जिसने अंग पर पुत्र धारण किया है ऐसी चित्ररूपा ( चित्रवल्लभा - पुत्रवल्लभा ) जानना । (१३) सिंहका मर्दन करनेवाली ऐसी गौरि जानना । ११६-११७-११८. १. उत्तमाङ्गे करन्यस्ता गांधारी नामनर्तिका । गोलचकं नृत्यकर्त्री देवशाखा सा चोच्यते ॥ ११९ ॥ धनुर्बाणाभ्यं संघाता वामदृष्टि मरिचिका । ११. 'अजंली बद्धा नर्तकी च चंद्रावली सुलोचना ॥१२०॥ 12 ११ चित्रिणी १२ चित्रवल्लभा = पुत्रवल्लभा चित्ररूपा (૧૪) ઉત્તમ અંગવાળી જમણા હાથ ઊંચા રાખી રમ્ય એવી મૃત્ય કરતી ગાંધારી જાણવી. (૧૫) ગાળચક્ર નૃત્ય કરતા અંગવાળીને દેવશાખા १०. दक्षहस्तं शिर सिरम्या ११. सन्मुखा दृष्टिभावाच । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - अर्थ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय ' (દેવજ્ઞા) કહી છે, (૧૬) ડાબી તરફ દષ્ટિ રાખીને ધનુષ-બાણ તાકતી એવી મરિચિકા જાણવી. (૧૭) સન્મુખ દષ્ટિભાવવાળી અંજલી મુદ્રાવાળી એવી સુંદર सायनयानी नती द्राक्षी पशुवी. ११०-१२० .. . ... COTA । १३ गौरी १४ गांधारी १५ देवशाखा=देवज्ञा १६ मरिचिका : (१४) उत्तम अंगवाली दाहिने हाथको ऊँचा रखकर रम्य ऐसी नृत्य करती गांधारी जानना । (१५) गोलचक्र नृत्य करते अंगवालीको देवशाखा NAMMART 74 १७ चन्द्रावली १८ चन्द्ररेखा पत्रलेखा १९ सुगंधा २० शत्रुमर्दनी Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ.-१२ (देवज्ञा) कही है। (१६) बांई तरफ दृष्टि रखकर धनुष-बाण ताकसी ऐसी मरिचिका जानना । (१७) सन्मुख दृष्टिभाववाली अंजली मुद्रावाली ऐसी सुंदर लौंचनवाली नर्तकी चंद्राउली जानना । ११९-१२०. दक्षिण हस्तकमले ताडपत्रं च धरित्री।३ ललाटे चंद्ररेखा च सनाम विस्तरे सदा ॥१२१।। सुगंधा च चक्रधरा चक्र नृत्यं च कुर्वति३ । १४ असिपुत्र धरा नृत्या शोमते शत्रुमर्दिनी ॥१२२॥ જેના જમણે હાથમાં લેખિની છે. અને તાડપત્ર ધારણ કરી લેખન કરતી એવી, જેના લલાટમાં ચંદ્રની રેખા તેના નામ પ્રમાણે છે. એવી સદા વિસ્તારવાળી ચંદ્રરેખા (પત્ર લેખા) જાણવી. (૧૯) ચક્રને માથે ધારણ કરીને ગાળ નૃત્ય કરતી એવી સુગધા જાણવી. (૨૦) હાથમાં છરી ધારણ કરી નૃત્યથી શોભતી એવી શત્રુમંદિની જાણવી. ૧૨૧-૧૨૨. (१८) जिसके दाहिने हाधमें लेखिनी है, और ताडपत्र धारण कर लेखन करती ऐसी जिसके ललाटमें चंद्रकी रेखा उसके नामके अनुसार है ऐसी सदा विस्तारवाली चंद्ररेखा (पत्रलेखा) जानना । (१९) चंद्रको शिरपर धारण करके गोलाकार नृत्य करती ऐसी सुगंधा जानना । (२८) हाथमें छुरी धारण कर । नृत्यसे शोभती ऐसी शत्रुमर्दिनी जानना । १२१-१२२. एका स्वर्गस्य भवने द्वितिया द्योवने शुभे । तृतीया च वसुधरे चतुर्मुखे क्षीराणवे ॥१२॥ દેવાંગનાનું એક સ્વરૂપ સ્વર્ગ ભવનમાં છે. બીજું ઉઘાત એવા શુભ વનમાં છે. ત્રીજું આ પૃથ્વી પર છે. અને ચોથું ક્ષીરાણુંવના આ ચતુર્મુખ પ્રાસાદને વિશે છે. ૧૨૩ देवांगनाका एक स्वरूप स्वर्ग भवनमें है। दूसरा उद्योत ऐसा शुभ वनमें है। तीसंस इस पृथ्वी पर है, और चौथा क्षीरार्णवके इस चतुर्मुख प्रासादके अंदर है। १२३. हारहस्ता च नृत्याङ्गी मानवी कुल सुंदरी । *पृष्ठ वंशोद्भवा नृत्या मानहंसा च सुंदरी ॥१२४॥ १६ऊर्ध्वपादे चतुर्भुङ्गी स्वभावा करौ मस्तके' । "हस्तपादो योगमुद्रा भावचंद्रा सुनर्तकी ॥१२५।। १२. सुलेखा १३. वकनृत्यं १४. छुरिकारसु नृत्याङ्गी । १५. सपृष्ठा पृष्ठि 'मुखा च उपदा मानहंसानी १६. स्वभावा द्विकरा शिरः । शिरसि करा । १७. १८. दक्षपादो। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अर्गख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय (૨૧) બે હાથમાં હાર ધારણ કરીને નૃત્ય કરતા અંગવાળી એવી जानी जुग सुरी मानवी (माननी) orgी. (२२) पोतानी यू-पांस। દર્શાવી નૃત્ય કરતી એવી જેનું મુખ પાછળ છે એવી સુંદરી માનહંસા જાણવી. (૨૩) જેને જમણે પગ ઊંચે રાખી બે હાથે મસ્તક પર રાખીને ચાર અંગથી મરેડવાળી એવી સ્વભાવ જાણવી. (૨૪) જેના હાથ પગ ગ મુદ્રા યુક્ત રહીને નૃત્ય કરતી એવી નર્તકી ભાવચંદ્ર-ભાવમુદ્રિકા જાણવી. ૧૨૪-૧૨૫ G. ASIR A २१ मानवी (माननी) २२ मानहंसा २३ सुस्वभावा २४ भावमुद्रिका-भावना (२१) दो हाथमें हार धारण करके नृत्य करते अंगवाली ऐसी कलाकी कुल सुंदरी मानवी (माननी) जानना । (२२) अपनी पीठ बताकर नृत्य करती ऐसी सिसका मुख पीछे है ऐसी सुंदरी मानहंसा जामना । (२३) दाहिमा पाँच ऊँचा रखकर दो हार्थी मस्तक पर रखकर चार अंगसे मरोउवाली ऐसी स्वभावा जानना । (२४) जिसके हाथ-पांव योगमुद्रा युक्त हो वैसी नर्तकी नृत्य करती भाषचन्द्रा-भावमुद्रिका जानना । १२४-१२५. मंगाक्षी सकला नृत्या तथोर्वशी अतः शृणुः । २°दशहस्ते दैत्यशिखा दैत्यखङ्गेन हन्ति च ॥१२६॥ (२५) साथी नृत्य ४२ती मेवी भृगाक्षी पी. (२६) 64શીનું સ્વરૂપ સાંભળે. જમણું હાથે દૈત્યની શિખા ખેંચી ખડગથી મારતી એવી કે ઉર્વશી જાણવી. ૧૨૬. (२५) सर्व कलासे नृत्य करती ऐसी मृगाक्षी जानना । अब उर्वशींका स्वरूप सुनो। दाहिने हाथसे दैत्यकी शिखा खिंचकर खडकसे मारती ऐसी२६ उर्वशी जानना । १२६. १९. तथा वाक्यं अतः शृणु २०. उर्वशी कोइल खङ्ग प्रहारे दैत्यकं भवेत् । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ah क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ विश्वकर्मण वदेत्वाक्यं जइको जानंति शिल्पिन। . तेन वास्तु-तिष्ठति अपोदस्ते चतुरङ्गना ॥१२७।। "" "" "" " १२७ २'हस्तद्वयेन छूरिके धृत्वा नृत्यं च कुर्वते । ऊवी कृत दक्षपादं नाम्ना रंम्भा नर्तकी ॥१२८॥ २२हस्तद्वयेन खड्ङ्गे च नृत्यावर्त च कुर्वति । भुजघोपंति नामा सा नृत्यंकरोति सर्वदा ॥१२९।। AX SAVERA --- y ALIA - सगासी २६ उशी २७ उत्ताने. भा. , २५ मृगाक्षी २६ उर्वशी २७ रम्भा २८ मुजघोषा (मंजुघोषा) (૨) બેઉ હાથમાં છુરી ધારણ કરીને જમણે પગ ઉચે રાખીને નૃત્ય કરતી એવી રંભા જાણવી. (૨૮) એ હાથમાં ખડગ ધારણ કરીને હંમેશા ગોળ ભમતી નૃત્ય કરતી એવી મુજઘાષા-મંજુષા જાણવી. ૧૨૮-૧૨૯. (२७) दोनों हाथमें छुरी धारण कर दाहिना पाँच ऊँचा रखकर नृत्य करती ऐसी रंम्भा जानना । (२८) दो हाथोंमें खडग धारण कर हमेशा गोल फिरती नृत्य करती ऐसी भुजघोषा-मंजुघोषा जानना। १२८-१२९ - (२१) बभ्रुहस्ते छुरीका (२१) बाण विणायुक्त रंभा। २२. धृताची कर्षचिता च या नजाने च सपटी । . द्वयो खड्गश्च सांधारैः (रंभा) भ्रमरी आवर्त संयुता ॥१२८॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय २३ * शिरसिकलशं धृत्वा जयानृत्यं च कुर्वति । पुरुषालिङ्गा नयुक्ता मोहिनी नाम्ना नर्तकी ॥ १३० ॥ २" लसत्सुंदराङ्गी नृत्या चोर्ध्व पादा तिलोत्तमा । काश्यमंजिवा पुष्पवाण कामरूपा पर तिलोत्तमा ॥१३१॥ कांस्य मंजि वंशी विणा शंख मृदंग खंजरी । विविधा वादित्र दश्याच क्वचित नृत्य नायक ॥ १३२ ॥ 30 ३११ २९ जया ३० मोहिनी = विजया ३१ चन्द्रवका उत्ताना ૨૪. જૂની પ્રતામાં આ ગ્લાય ૧૨૭ થી જે સ્થિતિમાં છે તેવા જ પાઠ આપેલ છે. તેમાં એ હાથમાં ખડગ ધારણ કરેલી રંભા કે મુ ંદ્યેાષાનું સ્વરૂપ જાણુવુ', વળી મેહિનીના માગળના પાઠમાં ઈંદ્ર અને રભાનુ સ્વરૂપ કર્યું છે. પરંતુ અહી ક્ષેાક ૧૩૦ ના છેલ્લા પદ પ્રમાણે મેહની સ્વરૂપ પુરુષ-નરને આલિ ંગન આપતુ કરવાનુ કહે છે. વળી એક બીજી પ્રતમાં नरयुक्ता समोहिनी” म स्पष्ट छे, लेडी मोहीनीना स्वरुपना पाठ ह છે પરંતુ તે એક જ ભાવ દર્શાવે છે. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ant क्षीराव म.-१२० क्रमांक म.-२२ (૨૯) મસ્તક પર કળશ ધારણ કરીને નૃત્ય કરતી એવી યા જાણવી. (૩૦) પુરુષને આલિંગન કરતી એવી વિજયા=હિની નામની નર્તકી જાણવી. (૩૧) એક પગ ઊંચે રાખીને લગેલા અંગથી નૃત્ય કરતી એવી (ઉત્તાના –ચંદ્રવક્રા જાણવી. (૩૨) કાંસીયા મંજીરા બજાવતી અથવા પુષ્પબાણ ધારણ કરેલી એવી કામરૂપ ( તિત્તમા) शुवी. १३०-१३१. કાંસા-મંછા-બંસરી–વિણ-શંખ કે ઢેલ કે ખંજરી બજાવતી એવા વિવિધ વાત્રવાદી દેવાંગનાએ પણ કંઈક પ્રાચિન શિલ્પમાં દેખાય છે. कांस्य-मंजिरा, बंसरी, वीणा, शंख, ढोलक या खंजरी बजाती ऐसी विविध वाजिंत्र बजाती देवाङ्गनाओं कवचित पुराने शिल्पमें दिखाती है। SERH (२९) मस्तक पर कलश धारण कर नृत्य करती ऐसी ३२ कामरूपा (तिलोत्तमा) जया जानना। (३०) पुरुषको आलिंगन करती ऐसी विजया -मोहिनी नामकी नर्तकी जानना । (३१) लचे हुए अंगसे नृत्य करती और एक पाँव ऊँचा रखकर नृत्य करती ऐसी उत्ताना-चंद्रवका जानना । (३२) कांसीया मंजीरे बजाती अथवा पुष्पबाण धारण करती ऐसी कामरूपा (तिलोत्तमा) जानना । १३०--१३१ BA FN ढोल बजाती बीवन बजाली आंजरी बनाती झांसीया बझती देवनाओं शास्त्रोका पाठसे विशेष प्राचिन मंदिरोंमें देखने में भाती पृथक पृथक स्वरूप, हावभाव, वाजितवाली देवाशनाओं का स्वरूप । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय अधोदृष्टि मताकार्या नृत्य भावेन नर्तकी । ज्ञायते सर्व लोकेऽस्मिन् स्थूलदेहा (च) महीतले ॥१३३॥ एते जंघा वितानादौ दिव्यस्थाने चतुर्मुखे । दिग्पाला यक्ष गंधर्व भास्करादि ग्रहस्तथा ॥१३४॥ मुनि ताफ्सपश्च व्यालादि च जलान्तरे ।। इति देवाङ्गनादि जंघा स्वरूप ।। સર્વ લેકમાં જાણીતી એવી દેવાંગનાઓ આ પૃથ્વી પર સ્થૂળ દેહ નૃત્ય ભાવવાળી નૃત્યાંગનાઓની દષ્ટિ નીચે રાખવી. પ્રાસાદના દિવ્ય સ્થાનમાં ચાતુર્મુખ પ્રાસાદની મંડોવરની જંઘા મંડપ એકી અને ઘૂમટો-વિતાન આદિમાં દિપાલ લોકપાલ, યક્ષ, ગાંધર્વ અને સૂર્યાદિ નવ ગ્રહો ઇત્યાદિ સ્વરૂપે ફરતા કરવા. મુની तापस, व्या माहिना २१३५. पाणीतारमा ४२११, १३३-१३४. ।। इति जंघास्वरुप ।। Vira शंख बजाती बाल गुथती सरीवाली बंसरी और पात्रवाली शास्त्रोंका पाठोंसे विशेष प्राचिन मंदिरों में देखने में आतो पृथक पृथक स्वरूप, हावभाव और वार्जित्रवाली देवाशनाओंका स्वरूप । सर्वलोकमें विख्यात ऐसी देवाङ्गनाओं इस पृथ्वी पर स्थूल देहसे नृत्य भाववाली नृत्यांगनाओंकी दृष्टि नीचे रखना। प्रासादके दिव्य स्थानमें चातुर्मुख प्रासादकी मंडोवरकी जंघा मंडप चौकी और घुमट-वितान आदिमें दिग्पाल-लोकपाल यक्ष, गांधर्व और सूर्यादि नौ ग्रहों इत्यादि स्वरूपों फिरते करना। तापस व्याल आदि सरुप पानी तारमें करना । १३३-१३४ संघा स्वरुप ।। ४० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - - - भीरार्णव अ. १२० क्रमांक अ. २२ उद्गम सार्द्धचत्वारि भरणी त्रिपदं भवेत् । उद्गमः कपि संयुक्तो भरणी पल्लवैर्युता ॥१३५।। शिरावटी चतुर्भागा शिरपट्ट समाकुला । छादनं पद मेकेन कपोताली च पूर्वतः ॥१३६॥ त्रिपदं कपोताली च अंतरपदं मेव च । कूटछाद्यं चतुर्भाग प्रहारं तत्समं भवेत् ।।१३७।। (આગળ જંઘા સુધીના ઉદયના ૩૩ ભાગ કહ્યા. તેમાં પંદર ભાગની જઘા પર) સાડા ચાર ભાગને દેઢિયે–ત્રણ ભાગની ભરણ–દેઢિયામાં ગ્રાસપટ્ટી ઉપર રાખી ખૂણે ખૂણે કપિ–વાંદરાના સ્વરૂપા કરવા અને ભરણીને પણે પાંદડા કરી–(પ્રતિરથમાં નીચે ગેળ-વૃત કર્ણકા કરવી.) ચાર ભાગની શિરાવટી કરવી. તેના ઉપરની પટ્ટીને સમાસ કરે. એક ભાગનું છાદન, ત્રણ ભાગને કેવાળ, ફરી ત્રણ ભાગને બીજો કેવાળ, એક ભાગની અંધારી કરી ચાર ભાગનું છ કરવું. તે પર તેટલે જ એટલે ચાર ભાગના પ્રહારને થર કરે. ૧૩૫ થી ૧૩૭ (आगे जंघा तकके उदयके ३३ भाग कहे । उनमें पन्द्रह भागकी जंघा पर) साढे चार भागका डेढिया-तीन भागकी भरणी-डेटियेमें पासपट्टी उपर रख कर कोने कोनेमें कपि-बंदरका स्वरूप करना । और भरणीको कोनेमें पत्र (प्रतिरथमें नीचे गोल वृत कणिका) करना। चार भागकी शिरावटी करना उसके उपरकी पट्टीका समास करना। एक भागका छादन, तीन भागका केवाल फिर तीन भागका दूसरा केवाल, एक भागकी अंधारी करके चार भागका छज्जा करना । उसके उपर इतने ही अर्थात् चार भागके प्रहारका थर करना । १३५ से १३७ छादने न भवेत्मंची प्रमाणं पूर्वमेव च । दिग् भागायुता जंघा भरणी पूर्ववत् क्रमे ॥१३८॥ कपोताली त्रयो भागा पदमेकं चांन्तरं भवेत् । छाधं क्रियते पूर्व प्रहारानि चतुष्पदम् ॥१३९॥ હવે બે જંઘાને મંડેવર કહે છે. (છાદન સુધીના કયા ભાગ ઉપર) સાડા ત્રણ ભાગની માચી, દશ ભાગની જંધા, ત્રણ ભાગની ભરણી–કેવાળ ત્રણ ભાગને, એક ભાગની અંધારી અને ચાર ભાગનું છજું કરવું. (કુલ ૭૦ ભાગ બે મજલાની બે જંઘાના થયા) છજા પર ચાર ભાગનું પ્રહાર ४२. १३८-136. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ - - = मार ..LLER F -- - - -1 - ---- tein VAH . - ------ पायनि ------- PIERRA ---- छ चार भूमि १५॥ + २९+ २४ + २६ (१२४॥) विभाग उदय-चार जंघा और दो छज्जावाला महामंडोवर अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय अब दो जंघाका मंडोवर कहते हैं। (छादन तकके ४५३ भाग पर) साढे तीन भाग की माची दश भागकी जंघा, तीन भागकी भरणीकेवाल तीन भागका-एक भागकी अंधारी और चार भागका छज्जा करना । (कुल ७० भाग दो मजलेकी दो जंघाके हुए) छज्जे पर चार भागका प्रहार करना । १३८-१३९ द्वादशी जेष्ठा जंघा च भरणीको मंचिका । नवधा पुनजंघा च उद्गमं त्रय सार्द्धतः ॥१४७॥ भरणी शिरावटी स्तत्र छादनं तु विशेषतः। २ कपोताली भवेद्वे च कूटछाधं च मस्तके॥१४९॥ જયેષ્ઠ માનની બાર જંઘા સુધી ચડાવતાં બીજી જંઘાનું કહે છે. (ઉપરના છજા સુખી ૭૦ ભાગમાં છજા પર મચી સાડા ત્રણ ભાગની, નવ ભાગની ત્રીજી જંઘા, સાડા ત્રણ ભાગને દોઢીયે, ભરણી શિરાવટી છાદન બે કેવાળ ४१ +. (કુલ ૩૦ ભાગ, એક ભાગ અંધારી) તે ઉપર છનું ચાર ભાગનું કરવું. (એટલે છજા સુધીના १०५ मा थया.) १४०-१४१. ___ ज्येष्ठमानकी बारह जंघा तक चढ़ाते तीसरी जंघाका कहते हैं। छजातक ७० भागमें छज्जा उपर माची साढे तीन भागकी नौ भागकी तीसरी जंघा-साढे तीन भागका देढिया-भरणी शिरावटी छादन दो केवाल (कुल ३० भाग, एक भाग अंधारी) उसके पर छजा चार भागका करना । (इससे छजा तकके १०५ भाग हुए।) १४०-१४१ । (૨૬) કેવાળ ઉપર અને ફૂટછાઘ નીચે અંતરાલી આવવો જ જોઈએ. પરંતુ અહીં લહીયાના દોષે છે પદ અપૂર્ણ જણાય છે. (२७) केवाल उपर और कूटछाद्य नीचे अंतराल आना ही चाहिये, यहाँ लहियाकी गलतीसे दो पद . अपूर्ण हैं। भूस्योदयसाग १२ मडार ५४५07- 2gHin-unii - य श मट १५ प्रथम भूम auf 3reka - - Towarsmol - - - N Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ३१६ क्षीरार्णव अ-१२० क्रमांक अ-२२ छादने मंचिका तत्र पुनजंघाष्ट भागका । भरणी कपोताली च छाद्यं च प्रहारकः ॥१४२।। ચેથી જંઘા ચડાવવાનું કહે છે. (ઉપરના ૯૪ ભાગ છાદન સુધીના) છાદન ઉપર માચી ત્રણ ભાગની જંઘા આઠ ભાગની, ત્રણ ભાગની ભરણું, કેવાળ ત્રણ ભાગને (અને એક ભાગનું અંતરાળ) પર છજુ ચાર ભાગનું કરી તે પર પ્રહારને થર કરે. (એ રીતે ચાર જંઘાનો મહામડેવર—એ છજા ને ચાર જઘાને ૧૧૬ ભાગને જાણ ) ૧૪૧-૧૪૨. चौथी जंघाको चढ़ानेके लिये कहते हैं। ( उपरके ८४ भाग छादन तक) छादनके उपर माची तीन भागकी जंघा आठ भागकी, तीन भागकी भरणी, केवाल तीन भागका ( और एक भागके अंतराल ) पर छज्जा चार भागका कर उसके पर प्रहारके थर करना । १४१. इस तरह चार जंघाका और २ छज्जाका महामंडोवर १२४|| भागका कहा ) १४२ अथ कवलीमान-तथा च गर्भमध्ये च विस्तारं कवलिकोत्तमम् । दीर्घमान स्ततो रिषि श्रृणुत्वेकाग्रतो मुनि ॥१४२॥ ....................चित्रो' विचित्रा चैव । .... तृतीया अभया' चित्र रूपचित्र' चतुर्दलम् ॥१४४॥ - . षणमेकं प्रासादं कवली चाऽभयाभयो । कर्णोते पण त्रिकवली पण मेव च ॥१४५।। पंच विस्तार प्रासाद कवली विचित्रांतके । २८( पणमेकं च प्रासादं कवली त्रिषणान्तक)। ना लंघयस्तत्रमानं च पण सप्तनतोत्पर ॥१४६।। प्रासाद कर्ण सूत्रेण स्तूपस्तर्ण विशेषतः । . सिंहशाखा खल्पशाखा स्तेन स्तत्रे उदंबरः ॥१४७।। હવે કવલીનું માન કહે છે. ગર્ભગૃહના જેટલા વિસ્તારની કેળી ઉત્તમ માનની જાણવી. તેની લંબાઈ એટલે નીકળતી કળીનું માન હે ઋષિરાજ, હવે એકાગ્રતાથી સાંભળો. કેળીના ચાર માનનાં નામ. ૧. ચિત્રા ૨. વિચિત્રા ૩. અભયચિત્રા ૪. રૂપચિત્રા. એ ચાર નામે જાણવા. (૧) પ્રાસાદના જેટલી એક ખંડ જેટલી કેળી અભય નામે જાણવી. (૨) પ્રાસાદ રેખાયે હોય તેના (२८) औसभा आपेक्षा में पह। पक्षी प्रतामा नथी. कोसमें दीये दो पद कीतनी प्रतोंमें नहीं है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थंभ के ठेकेमें परिकर वाले ईद्रस्वरुप-(कल्याण) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATELLIM P लक्ष्मी नारायण युग्मरुप फंडर्य महादेव मंदिर खजुराहो कंडर्य महादेव मंदिर में जंधामें शिवपार्वती और देयाङ्गना के स्वरुप Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय ત્રીજા ભાગની ચિત્રા નામે જાણવી. (૩) પ્રાસાદના પાંચ ભાગમાંના એક ભાગ જેટલી કેળી કરવી તે વિચિત્રા નામે જાણવી. (૪) પ્રાસાદના પાંચ ભાગ ત્રણ ભાગ જેટલી કેળી રાખવીને રૂપચિત્રા નામે જાણવી. પ્રાસાદ રેખાયે હોય તેના સાતમા ભાગથી ઓછું માન-ઉલ્લંઘન કરી કેળી ન કરવી. સાંધાર પ્રાસાદના રેખા સૂત્રના પ્રમાણુથી મધ્યને સ્તુપ અરધાથી કંઈક વિશેષ રાખ. પ્રાસાદના રેખા સૂત્ર બરાબર સિંહ શાખા અને પત્રશાખા અને ઉંબરે રાખવા. ૧૪૩ થી ૧૪૭. अब कवलीका मान कहते हैं। गर्भगृह के विस्तारके बराबर कोली उत्तम मानकी जानना । उसकी लम्बाई अर्थात् निकलती कोलीका मान हे ऋषिराज ! अब एकाग्रतासे सुनो। कोलीके चार मानके नामों १ चित्रा २ विचित्रा ३ अभयचित्रा ४ रूपचित्रा। इन चार मानोंको जानना । १ प्रासादके बराबर एक खंडके बराबर कोली अभय । नामसे जानना । २. रेखा पर हो उसके तीसरे भागकी चित्रा नामसे जानना। ३ प्रासादके पाँच भागमेंसे एक भागके बराबर कोली करना । उसे विचित्रा नामसे जाननां । प्रासादके पांच भाग करके तीसरा भागकी कोली रूपचित्रा जानना । प्रासाद रेखाके पर हो उसके सातवे भागसे कम मान-उल्लंघन कर कोली न करना । सांधार प्रासादके रेखा सूत्र के प्रमाणसे मध्यका स्तूप आधेसे कुछ ज्यादा रखना । प्रासादके रेखासूत्रके बराबर सिंह शाखा और पत्रशाखा और उबरा रखना । १४३ से १४७ ।। अथ भिष्ठिमान-दशहस्तोत्परे यत्र चतुर्दश यथा भवेत् । मध्यस्तूप न दातव्या वेदिका सर्वकामदां ॥१४८॥ दशमांशे यदा भित्ति द्वादशांशेन मध्यतः । त्रिविघं भित्तिमानं च ज्येष्ठमध्यकन्यसं ॥१४९॥ मध्य स्तूप प्रदातव्यं भित्तिस्यात्षोडशांशके । पंचमांशे निरंधारे भित्ति प्रासाद शैलजे ॥१५०॥ દશ હાથથી ચૌદ હાથના સાંધાર પ્રાસાદના મધ્ય સૂપ (મધ્ય લિંગ મૂળ ગર્ભગૃહ અને ભીંતે સાથે ભાગના નહિ પરંતુ બહાર રેખાયે હોય તે)ના દશમા–અગ્યારમા કે બારમા ભાગે એમ ત્રિવિધ માન જયેષ્ઠ મધ્યમ અને કનિષ્ઠ અનુક્રમે એસારનું જાણવું. મધ્ય સ્તૂપની ભિત્તિ સેળમા ભાગે રાખવી. નિરધારપ્રાસાદનું પાષાણનું ભિત્તિમાન પ્રાસાદના પાંચમા ભાગે રાખવું. ૧૪૮થી ૧૫૦ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફટ क्षीरार्णव अ - १२० क्रमांक अ.-२२ दश हाथ से चौदह हाथ के सांधार प्रासाद के मध्य स्तूप ( मध्य लिंगT-मूल गर्भगृह और दिवारोंके साथ के भाग ) के नहीं लेकिन बारह रेखा पर हो उनके दसवें ग्यारहवें या बारहवें भाग में इस तरह त्रिविधमान ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ अनुक्रमसे औसारका जानना । मध्य स्तूपकी भित्ति सोलहवें भाग में रखना । पाषाणके निरंधार प्रासादका भित्तिमान प्रासाद के पाँचवें भाग में रखना । १४८ - १४९-१५० उपर्युपरिभूमीनां शंखावत (सव्यावर्त) प्रदक्षिणे । नापसव्येन कुर्वीत द्वारमारोहणीनि च ।। १५१॥ गर्भमध्ये कृतं द्वारं पुनर्विव च स्थाप्यते । नंदवेद्याकृत्ये मध्ये शिखरं सर्वकामदम् ॥ १५२॥ આ મા ચામુખની ઉપરની ભૂમિએ શંખાવત (સભ્યાવત) ફરતે પ્રદક્ષિણાએ કરવાઃ તેના દ્વારના કમાડ અપસવ્ય ન ४२वा. ઉપર ગર્ભ ગૃહ કરીને તેમાં વચ્ચે દ્વાર મૂકી ફરી ખીમ-મૂર્તિની સ્થાપના ઉપરના માળે કરવી. તે સર્વ કામનાને દેનારું એવું શિખર ૪૯ પદના મધ્યમાં કરવુ. ૧૫૧-૧પર इस महा चोमुखकी उपरकी मूमि पर शंखावर्त (सव्यावर्त) फिरते प्रदक्षि पायें करना । उनके द्वारके किवाड़ अपसव्य न करना । उपर गर्भगृह कर उसमें बिमें द्वार रखकर फिर बींब- मूर्तिकी स्थापना उपरके मजले पर करना । इससे सर्व कामनाको देनेवाला ऐसा शिखर ४९ पदके मध्यमें करना । १५१-१५२ शुकनासं चतुपक्षे सर्वालंकार माश्रिते । द्विभूमि संयुता स्तत्रा त्रयो भूमिकृते बुधे ॥ १५३ ॥ एक भूमि द्वयो भूमि यावद् द्वादशभूमिका | जंधा वृद्धि क्रम योगेन चैकाद्य भास्करांतिके ॥ १५४ ॥ આવા મહા ચામુખ પ્રાસાદને શુકનાશ ચારે તરફ સુશાભિત અલંકૃત કરવા. તે છે ભૂમિવાળે કે ત્રણ ભૂમિવાળા બુદ્ધિમાન શિલ્પીએ કરવા. મહા ચાતુર્મુખ પ્રાસાદ એક-બે મજલા એમ ખાર માળ સુધી કરી શકાય. તે માવરની જ ંઘા તે ક્રમના ચેગે કરીને એકથી ખાર જંઘા સુધી કરવી. ૧૫૩–૧ ऐसे महा चोमुख प्रासादको शुकनाश चारों ओर सुशोभित अलंकृत करना । नह से या तीन भूमिबाला बुद्धिमान शिल्पीको करना चाहिये । महा चातुर्मुख प्रसाद एक दो मजले इस तरह बारह मजले तक कर सकते हैं । उसकी istent जंघा उस क्रमके योगसे एकसे बारह जंधा तककी करना । १५३ - १५४ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय तथा युक्तिश्च विक्षाता रिषिराज शृणोत्तमाः।। गद्धि षडांशोन पणश्रेष्ठं च तं भवेत् ॥१५५।। तत्षण दिक्धा प्रोक्तं कन्यसं सप्तभागतः । पणमाने यदाशक्ति किंचिदधिके सविस्तरम् ॥१५६॥ त द्विषण भवेज्जेष्ठं कन्यसंतु द्विषोडश । बिस्तारं युक्तिभित्याहुः भद्रेरष्टादशैस्तथा ॥१५७॥ ભાવાર્થ –હે ત્રાષિરાજ, સર્વોત્તમ એવી ( )ની યુતિ હવે સાંભળે. સાંધાર-પ્રાસાદના ગર્ભગૃહના અર્ધ ભાગના છઠ્ઠા ભાગની? ( ) શ્રેષ્ઠ જાણવી. તેના દશમા ભાગે કનિષ્ઠમાન અને સાતમા ભાગે મધ્યમાન–તેનાથી કંઈક અધિક રાખવું. તેના બે ભાગ ઠમાન તેને બત્રીશમે કનિષ્ઠમાન ( ) विस्तार नी युति लातरी ....लद्र अढा२ मा. १५५-१५६-१५७. हे ऋपिराज, सर्वोत्तम ऐसी ? ( ) की युक्ति अब सुनो। सांधार प्रासादके गर्भगृह के आधे भागके छटे भागकी ? ( ) श्रेष्ठ जानना । उसके दसवें भागमें कनिष्ठमान और सातवें भागमें मध्यमान; उससे कुछ अधिक रखना । उसके दो भाग ज्येष्ठमान-उसका बत्रीसवाँ ! ( ) कनिष्ठमान ( ) विस्तारकी युकि दिवारके बराबर....भद्र अठारह भाग । १५५-१५६-१५७ प्रासाद त्रिषणं वृक्ष्ये षणेकं भद्र मेव च । मंडपं च भवेत्रिणि क्वचिदायत निर्गमे ॥१५८॥ पणमेकं दंतरंतत्र! येष्टं वा विचक्षणम् ? । द्विभूमि वेदिका कार्या त्रयोदश विवस्थिता ॥१५९॥ रङ्गश्च तस्याग्रेन सार्द्ध भूमी विशेषत् । पणपंच प्रकर्तव्या मग्रे चलाणक मंडपः ॥१६॥ तस्याग्रे द्वयोभूमि वेदीकुर्या द्विचक्षण । चत्वारो नवमि प्राज्ञ कृत्वा नालीश्च मग्रत ॥१६॥ ભાવાર્થ-મહા પ્રસાદના રેખાયે હોય તેના ત્રણ ભાગ કહું છું. તેના કિ ભાગના બે ભ્રમે કરવા. અને તેની ત્રણ બાજુ મંડપ કરવા. તે કંઈક Anal मा. ४ मा २५१२.......वियक्ष शिपाये ४२९. मे भूमि વેદિકાવાળા મંડપ ત્રણ દિશાએ કરવા. આગળ રંગ મંડપની દોઢ મજલા જેટલી વિશેષ ભૂમિ ઊભી રાખવી. પાંચ પદ વિભાગને આગળને બલાણુક भ७५ मे सूभियुत अने वियक्ष शिपाये ४२वा. यार......... આગળ નાલી મંડપ ડાહ્યા શિલ્પીએ કરવા. ૧૫૮ થી ૧૬૧. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० - क्षीरार्णव भ, १२० क्रमांक अ. २२ __महा प्रासादके रेखापर हो उसके तीन भाग कहता हूँ। उसके एक भागके (दो) भ्रमों करना । और उसकी तीन बाजु पर मंडपों करना । उन्हें कुछ निकलते करना । एक भाग अंदर...विचक्षण शिल्पीको करना । दो-भूमि वेदिकावाले मंडपों तीन दिशाओंमें करना । आगे रंगमंडपकी डेढ़ मजलेके बराबर विशेष भूमि-उभणी रखना । पाँच पद विभागका आगेका बलाणक मंडप दो भूमियुक्त और वेदिकावाला विचक्षण शिल्पीको करना चाहिये । चार....नव....आगे नाली मंडप बुद्धिमान शिल्पीको करना चाहिये । १५८ से १६१ विस्तार युक्तिमाख्यातं निर्गमं श्रृणुतो मुनिः । ब्रह्म मूलमार्गानि नालिद्वारं च षोडश: ॥१६२॥ त्रयोदक्षे त्रयोपक्षे भद्रांते विचक्षण । निर्गम भागमेकेन विस्तारं च त्रयोदश ॥१६३।। मुखभद्र मूलसंस्थाने निर्गमे भाग भागांतरे । फालयेत्प्राज्ञ......चतुर्दिक्ष विधियता ॥१६३॥ ભાવાર્થ-વિસ્તારના વિભાગ કહ્યા. હવે નીકળતા કેટલા રાખવા તે હે भुनि, समो . असा गम ग्रह भूद भान नासिवान। सो ?....४२पा. ત્રણે દિશાએ ત્રણે બાજુ ભદ્રને અંતે વિચક્ષણ શિલ્પીએ કરવું. તેનો નીકાળો એકેક ભાગ અને વિસ્તારમાં તેર ભાગ–પદ–ષણ જાણવા. મૂખભદ્ર મૂળ સંસ્થાન એકેક ભાગના આંતરે તેની ફાલનાઓ ચતુર શિલ્પીએ રાખવી. તે રીતે ચાર हिशमान विधि ngi. १९२-११३-१६४. विस्तारके विभाग कहे । अब निकलते कितने रखना यह हे मुनि, सुनो। खड़े गर्भ ब्रह्म मूलमार्गके नालिद्वारके सोलह !....करना । तीनों दिशाओंमें तीनों बाजु भद्रके अंतमें विचक्षण शिल्पीको करना चाहिये । उसका निकाला एक एक भाग और विस्तारमें तेरह भाग-पद भी जानना । मुख भद्र मूल संस्थानके एक एक भागके अंतरसे उसकी फाकनाओं चतुर शिल्पी रखें। इस तरह चार दिशाओंका विधि जानना । १६२-१६३-१६४ पुनः चैइद्र समारभ्यं षड् नंदे प्रदक्षणे । चत्वारौ मूलयुक्ता च अष्टौते च महाधरा ॥१६५।। एवंदा समायुक्ता संख्या मष्टोत्तरंशतम् । तस्योर्द्ध पुनः द्यष्ट प्रमाणं च अतः शृणु ॥१६६॥ त्यक्ता नालि पुनः युक्ति श्रृणुत्वेकाग्रतो मुनि । मेघनाद स चाग्रे...मंडपे च क्षणंतरे ॥१६७॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्मुख महाप्रासाद स्वरुपाध्याय षणान्तरे पुनदद्यात् सभ्रमा मंडपोत्तमा । समवसरण कृते मध्ये अर्चामूलस्य न्यूनतः ॥१६८॥ ફરી ઈદ્ર (દેવકુલીકાઓ)ના આરંભથી છનુ-૯૬ પ્રદક્ષિણાએ અને ચાર મૂળ ખૂણાના અને આઠ મહાધર (ચાલુ પંક્તિમાં મોટા મંદિરો આવે તે મહાધર) એમ મળીને કુલ ૧૦૮ એકસો આઠની સંખ્યા જાણવી. તેની ઉપર ફરી આઠનું પ્રમાણ હવે સાંભળે. પ્રવેશની નાલી છોડીને મંડપની ફરી યુક્તિ હે મુનિ, એકાગ્રતાથી સાંભળો. પ્રમુખ મુખના આગળ મંડપનું એક પદનું અંતર છેડીને મેઘનાદ મંડપ આગળ કરવા. વળી એક પદનું અંતર રાખીને ફરી ભ્રમના પદ સાથેને એ ઉત્તમ મંડપ કર. તે મંડપની મધ્યમાં સમવસરણની રચના કરવી. અને તેની પ્રતિમા મૂળ નાયકથી નાની ५५रावी. १९५-१९६-१९७-१९८.. फिर चैइद (देवकुलिकाओं) के आरंभसे छियानवे (९६) प्रदक्षिणामें और चार मूल कोनेके और आठ महाधर (चालु पंक्तिमें बढ़े मंदिरों आवें वह महाथर) इस तरह मिलकर कुल १०८ एकसौ आठकी संख्या जानना | उसके पर फिर आठका प्रमाण अब सुनो। प्रवेशकी नालीको छोडकर मंडपोंकी युक्ति हे मुनि, एकाग्रतासे सुनो । प्रमुख चोमुखके आगे मंडपके एक पदका अंतर छोडकर मेघनाद मंडपको आगे करना। और एक पदका अंतर रखकर फिर भ्रमके पदके साथका ऐसा उत्तम मंडप करना । उस मंडपके बिच ने समवसरणकी रचना करना । और उसकी प्रतिमा मूलनायकसे छोटी पधर.नी चाहिये । १६५-१६६-१६७-१६८ मंडप स्यांतरे यावत् मंडपाः सभूमिकाः । समवसरणं च दातव्यं सन्मुखे च महाधरः ॥१६९॥ एवमा चतुरोदक्ष कारयस्याद्विचक्षण । मंडपा चतुरोदक्ष यावत्मष्टोत्तरं शतम् ॥१७०॥ द्वितीया महाधरा मध्ये समवसरण च यावत् । द्वयोर्मध्ये च कर्तव्यं समवसर्ण महामुनि ॥१७॥ तेन माने भवे युक्ति मुनि विद्याधरैर्युता । न तेषां दोषदा स्तत्र युक्ति येष्टेन संशय ॥१७२।। महाधरा द्वितीया पंक्ति प्रदक्षणे त्पृष्टि दीयते । भ्रमं तं च जिनालयं शत् मष्टोत्तर (भवे)त्संख्या ।।१७३}} બે મંડપના અંતર ભાગ સુધી (મધ્ય) મંડપ ભૂમિ મજલાવાળે ઊંચે કરે. મહાધરની સન્મુખ સમવસરણ કરવું. એવી રીતે ચારે દિશામાં ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ क्षीरार्णव अ.-१२० क्रमांक अ.-२२ ચતુર શિલ્પીએ કરવું. ચારે તરફ મંડપ યુક્ત એક આડ જિનાયતન સુધીની દેવકુલીકાઓની રચના કરવી. બીજ મહાધરની વચ્ચે સમવસરણની રચના કરવી. તેમ જ બે મહાધરની વચ્ચે પણ હે મુનિરાજ, સમવસરણદિની રચના કરવી. તે સર્વ માન પ્રમાણુ યુક્તિથી કરવાં. તેમાં મુનીંકો, વિદ્યાધર, ગંધર્વાદિના રૂપે સહિત કરવાં. તેમાં વેધ દોષને સંશય ન રહે તેમ કરવું. મહાધરની બીજી પંક્તિમાં તેની પાછળ પ્રદક્ષિણા કરવી. એ રીતે બ્રમયુક્ત જિનાયતન એકસે આઠની સંખ્યામાં રાખવી. ૧૬૯ થી ૧૭૩. दो मंडपके अंतरभाग तक (मध्यका) मंडप भूमि मजलेवाला ऊँचा करना। महाधरकी सन्मुख समवसरण करना । इस तरह चारों दिशाओंमें चतुर शिल्पीको करना । चारों तरफ मंडपोंसे युक्त एकसौ आठ जिनायतन तककी देवकुलिकाओंकी रचना करना । दूसरे महाधरोंमें समवसरणकी रचना करना । और दो महाधरोंके बिच भी हे मुनिराज, समवसरणादिकी रचना करना । उसमें सब मान प्रमाण युक्तिसे करना। उसमें मुनींद्रों, विद्याधरों, गंधर्वादिके रूपोंके सहित करना । उसमें वेध दोषोंका संशय न रहे इस तरह करना । महाधरकी दूसरी पंक्तिमें उसके पीछे प्रदक्षिणा करना । इस तरह भ्रमयुक्त जिनायतन एकसौ आठकी संख्यामें रखना । १६९ से १७३ इति श्री विश्वकर्मा कृतायां क्षीरार्णवे नारद पृच्छायां क्षीरार्णव महा चातुर्मुखादि लक्षण नाम शताविंशतितमोऽध्याय ॥ १२०॥ ઈતિ શ્રી વિશ્વકમાં વિરચિત ક્ષીરાણુવ શ્રી નારદજીએ પૂછેલ મહાચતુર્મુખ લક્ષણ શિલ્પ વિશારદ સ્થપતિ શ્રી પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ એ રચેલી ગુર્જર ભાષામાં સુપ્રભા નામની मापा जाने से पीसमे। अध्याय ।। १२० ।। (म| 240 २२) इति श्री विश्वकर्मा विरचित क्षीरार्णवमें श्री नारदजीके पूछे हुए महाचतुर्मुख लक्षण शिल्प विशारद स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघडभाईकी रचि हुई गुर्जर भाषामें सुप्रभा नामकी भाषाटीका का एकसौ बीसवाँ अध्याय ।। १२० ।। (क्रमांक अ. २२) .XXXXxxxxx. * इति श्री xxxxxxxxx Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा शिल्प विशारद का संशोधित प्राचिन शिल्प स्थापत्य कलाका अलभ्य साहित्य ग्रंथों का प्रकाशन १. दीपार्णव श्री विश्वकर्मा प्रणिन शिल्पका प्राचिन महान ग्रंथ ७६+४८८ = ५५४ पृष्ठों बड़ी रोयल साइज ३५० लाईन ब्लोक रेखाचित्र, १०५ हाफटोन फोटो ब्लोक सहित-भूल संस्कृत श्लोक और उनके गुजराती अनुवाद-मर्म और टीप्पणके साथ भरपुर संपूर्ण विवरणके साथ दलदार ग्रंथ, अध्याय २७-जीनमें प्रासादका संपूर्ण प्रमाणो अनेक देव-देवीयोंकी शिल्पाकृतीयां :अनेक प्लानों इलिवेशन साथ दीये गये हैं। स्थपति श्री प्रभाशंकरजीका दीर्घ-सक्रीय अनुभवकी प्रसंशा विद्वानोंने की है। ५० पृष्ठकी विद्वद्पूर्ण प्रस्तावना पढ़नेसे संपादक की कुशलता और विद्वताका परिचय होता है। यह ग्रंथ संपादन में ६० प्राचिन ग्रंथोंका प्रमाण दीया गया है। मूल्य रु. २५ पच्चीस डाक खर्च पृथक् । २-३. प्रासाद मञ्जरी-हिन्दी और गुजराती अनुवादित मूल संस्कृत साहित्य, हिन्दी-गुजराती अनुवाद पृथकू पृथक् ८० रेखाचित्र हाफटोन ब्लोक २० है । यह ग्रंथ पंदरमी शताब्दीमें मेवाड़में कुंभाराणाके समयमें मंडन सूत्रधारका लघुबंधु नाथजीने ग्रंथ रचना की है। संपादकका शील्पका विस्तृत शान और विद्वत्ताका परिचय होता है। अनुवादके साथ मर्म-टीप्पणसे भरपुर है। अनेक शिल्पग्रंथोंका प्रमाण दीया गया है। प्रत्येकका मूल रु. ७ सात । डाक खर्च पृथक । 4. PRASADA MANJARI मूल सहित अंग्रेजी अनुवाद-उपरोक्त दीये हुए विवरणकी अंग्रेजी आवृत्ति जीनका अंग्रेजी अनुवाद और अन्य विभाग स्थपति प्रभाशंकरजीकी प्रस्तावनाका अंग्रेजी अनुवाद, प्रासादकी १४ जातियाँ वर्तमान प्राप्त शिल्पग्रंथोंका विवरण आदि पुरातत्वज्ञ श्री मधुसुदनभाई अ० ढाकीने अच्छी तरहसे लीखा है। भारतके प्रत्येक प्रांतकी शिल्प स्थापत्य कलाका सुंदर परिचय दीया है। श्री मधुसुदनजी अब अमेरिकन एकेडेमीमें वास्तुशास्त्रके शब्दकोश तैयार कर रहे हैं। यह ग्रंथ प्रेसमें है। मूल्य रु. १५ बारा डाक खर्च पृथक । ५. जिनदर्शन शिल्प-- यह ग्रंथ दीपावके उत्तरार्ध रुप है-इनमें जैन प्रासाद शिखर जिन प्रतिमा लक्षण, परिकर लक्षण, २४ यक्ष, २४ यक्षीणी, दश दीग्पाल नौग्रहो षोडश विद्यादेवी-आदि । जीनमें १७५ देव-देवीयोंका रेखाचित्र स्वरुप फोटा आदि दीया गया है। मूल्य रु. १० दश, डाक खर्च पृथक । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - -- - - 324 क्षीरार्णध अ.-१५८ कमांक भ. 22 6. वेधवास्तु प्रभाकर मूल हिन्दी-गुजराती अनुवाद सहित है। इस ग्रंथमें प्रासादगृह प्रतिमा आदिके वेध दोष आदि अनेक प्रकारके दीये हुए है। विविध प्राचिन ग्रंथों के प्रमाणोंके सार अच्छी तरह दीये हैं / दीपार्णव ग्रंथकी पूर्ति रुप है। थर स्थापन शल्यविज्ञान-द्वार स्तंभ पाट घंटा आदिके मुहूर्तचक्र-वास्तु-वज्रलेप, संक्षिप्त पूजाविधि मंत्र-पूजाद्रव्यादी सूत्रधार पूजनविधि गणित कोष्टक अनेक विषयोंसे भरपुर अलभ्य सुंदर ग्रंथमें रेखाचित्रों, फोटा आलेखनों आदि दीया हुआ है / मूल्य रु. 10 दश, डाक खर्च पृथक / 7. बेडाया प्रासाद तिलक.. मूल हिन्दी गुजराती अनुवाद सहीत है। पंदरमी शताब्दीका सूत्रधार वीरपालकी सुन्दर ग्रंथ रचना अन्य शिल्पग्रंथोंसे पृथक है, यह ग्रंथ सुंदर छद् रचनासे लीखा है। प्रासाद शिल्पविषयका अपूर्ण ग्रंयका संशोधन कार्य पुरा हुआ है। थोड़े रोजमें प्रेसमें जायगा / मूल्य रु. 10 दश, डाक खर्च पृथक / 8. क्षीरार्णव ग्रंथ / 9. वृक्षार्णव ग्रंथ--- विश्वकर्मा प्रणित है, नारद और विश्वकर्माका संवाद रुप अद्भुत अद्वितिय महाग्रंथ है। सांधार प्रासादोंचातुर्मुख महाप्रासादोंके विषय सविस्तर दीया हुआ है। तीन साडेतीन भूमिका मेघनादादि मंडप-रचना-द्वादश जंधा युक्त 12 भूमिका मंदिरकी रचना अनेक मंडपो पृथक पृथक प्रकारके कहा है जीनमें अनेक विषयोंकी चर्चा की है। यह दोनु ग्रंथ दुष्प्राप्य अवर्णनिय है। क्षीरार्णव ग्रंथका 22 अध्याय 800 श्लोक पुरे है। क्षीरार्णव ग्रंथमें मूल संस्कृत, हिन्दी और गुजराती अनुवाद टीप्पण मर्म प्रत्येक अङ्गका आलेखन अनेक देव-देवीयोंका सुन्दर आले.खन अनेक नकसे-फोटो, ब्लोक बत्तीस देवाङ्गनाका मूल संस्कृत पाठ सहित उनका अालेखन दोया हुआ है। शिल्प स्थापत्यके अब तक जो ग्रंयका प्रकाशन हुआ है। उनमें क्षीरार्णका प्रकाशन अद्भुत है। भूमिका पुरातत्वश विद्वान डॉ. मोतीचंद्रजीने लीखी है। वृक्षार्णव ग्रंथका संशोधनकार्य पूर्ण हुआ है। आशा है के यह ग्रंथ गुजरातकी बड़ी विद्वद संस्थाकी तरफसे प्रकाशन होनेका संभव है। क्षीरार्णव ग्रंथका मूल्य रु. 27 सत्ताईश, डाक खर्च पृथक / शिल्प स्थापत्य साहित्य-संपादक स्थति प्रभाशंकर ओ० सोमपुरा, शिल्प विशारद शिल्प स्थापत्यकला साहित्य प्रकाशन , गोराव ड़ी पालीताणा (सौराष्ट्र) ३.पथिक सोसायटी, सरदार पटेल कोलोनी : प्रकाशक : Publisher अहमदाबाद-१३ बलवंतराय प्र, सोमपुरा, ___B. P. Sompura & Bros आदि भ्रातृओ। 3. Pahtik Society, Ahmedabad-13 8