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अथ मंडपाधिकार ચતુષ્કિકા કરવી. અને તે ચતુર્કિકા = અલિંદ એકેક ભાગ નીકળતી કરવી તે पडला मार स्तमना भ७५ शामती ४२३.. 31-3२.
___ अब मैं मेखादि मंडपके लक्षण कहता हूँ। समचोरस क्षेत्रको आठ भागसे अर्थात् ४४४ भागसे विभाजित करना । (सोलह (१६) पद हुए।) उसमें मध्यके चार विभागका एक पद कर फिरती चारों दिशाओंमें दो दो भागकी चौडी चतुष्किका करना । और वह चतुष्किका = आलिंद एक एक भाग नीकलती करना । उससे पहले बारह स्तंभका मंडप सुशोभित करना । ३१-३२. .
द्वितियो विंशति स्तंभ रष्टाविंशतिः परैः।
भद्रं तु भाग निष्कांश पड़ भागं चैव विस्तरे ॥३३॥ બીજે મંડપ વીશ સ્તભને (એટલે ઉપરના બાર રસ્તંભના સ્વરૂપને ફરતું ભદ્ર ચારે તરફ બબ્બે સ્તંભોનું ચોકીનું કરવું) અને ત્રીજો મંડપ અઠ્ઠાવીશ સ્તોને જાણો. તેમાં એકેક પદ નિકળતું (ત્રણ પદ પહોળું) કરવું–આ મંડપ ७ ७ मा विस्तारमा (पुस छत्री भागम) ४२२१-33.
दूसरा मंडप बीस स्तंभका (अर्थात् उपरके बारह स्तंभके स्वरूपको फिरता भद्र चारों तरफ दो दो स्तंभोंकर चौकीका करना । और तीसरा मंडप अढाईस स्तंभोंका जानना । उसमें एक एक पद निकलता (तीन पद चौडा ) करना । यह मंडप छः छः भाग विस्तारमें (कुल छत्तीस भागमें ) करना । ३३.
प्रतिभद्रं ततो भागे चतुर्भागं विस्तरम् ।
द्विभागायाम विस्तारः प्राग्रिवः स्याच्चतुर्दिशि ॥३४॥ (સેળ પદમાં બાર સ્તવાળા મંડપને ચારે તરફ) ચાર ભાગ વિસ્તારનું ( ५६ नीतु) प्रतिभद्र यारे त२३ ४२७, तनाथी भाग ( मा નીકળતી અને બે ભાગની લાંબી વિસ્તાર ચતુષ્ઠિકા–પ્રાઝિવ અલિંદ ચારે તરફ કરવી. આમ મંડપ (છત્રીશ તંભનો) જાણુ. ૩૪.
(सोलह पदमें बारह स्तंभोंवाले मंडपको चारों ओर ) चार भाग विस्तारका (एक पद नीकलता) प्रतिभद्र चारों ओर करना । उससे आगे (एक भाग) नीकलती और दो भागकी लम्बी विस्तार चतुष्किका-प्राग्रीव अलिंद चारों ओर करना । इस तरह चौथा मंडप (छत्तीस स्तंभोंका ) जानना। ३४.
सूर्योत्तरशतंस्तंभा भूमिका पंचधोच्छिता । मेरुमंडप उक्तश्च द्विभौमोर्ध्व च मांडतः ॥३५॥ दौ द्वौ स्तंभी इस्व योगान्मंडपाः स्युरनुक्रमात् । . . चतुषष्टि स्तंभ कान्त मंडपा: पंचविंशतिः ॥३६॥