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अथ देवता दृष्टि-पदस्थापनाधिकार
विष्णुरूपाणि सर्वाणि मत्स्यादि नवमेपदे । हरि शंकरे वराह मूर्ति-विष्णुस्थाने प्रदीयते ॥२१॥ अर्धनारीश्वरं देवं रुद्रस्थाने प्रकल्पयेत् ।
सप्तमे ब्रह्मसंस्थाने मिश्रमूर्ति संस्थापयेत् ॥२२॥ વિષ્ણુના ભાગે ઉમાદેવી. બ્રહ્માના ભાગે સરસ્વતી ને સાવિત્રીદેવી. બ્રહ્માના મધ્ય राजसिंह कृत 'वास्तुराज' भी दस भागका अलग रीतसे कहता है । “गर्भगृहके पीछे के अर्ध भागके दस भाग करना । उसमें मध्यमें, गर्भ में शिवलिङ्गकी स्थापना करना । पहेके ब्रह्मा, २ विष्णुजी ३ उमा ४ सूर्य ५ बुध ६ इन्द्र ७ जिन ८ गणेश ९ गंधर्व यक्ष और क्षेत्रपाल और दसवें भागमें दानव राक्षस ग्रह चंडी और पिशाचकी मूर्तियोंकी स्थापना अनुक्रमसे करना ।" ('वास्तुराज')
श्री जिनदत्त सूरिजीके नीतिशास्त्रके ग्रंथ 'विवेकविलास में इस तरह पाँच भाग कहे हैं । “प्रासादके गर्भगृहके अर्ध भागकी दिवारकी तरफ अर्धमें पाँच भागकर पहलेमें यक्ष, दूसरेमें सर्व देव-देवियों, तीसरे में जिन, सूर्य, कार्तिक स्वामी और कृष्ण, चौथेमें ब्रह्मा, और पाँचवें भागमें ब्रह्मा और मध्यगर्भ में शिवलिङ्गकी स्थापना करना।” (विवेक विलास )
इस तरह समराङ्गणके दूसरे मतमें प्रासाद तिलक और विवेकविलासके मतमें आसन अर्थात् पबागण ऐसा अर्थ शिल्पी वर्गमें प्रवर्तता है, परंतु क्षीरार्णव, दीपार्णव और अपराजित
और ज्ञानरत्नकोश जैसे प्राचीन ग्रंथों प्रतिमा स्थापनके विभाग कहते हैं। इस देव प्रतिमाके कानके गर्भ में, बाहुके गर्भ में, या पावके गर्भ में स्थापन करनेके लिये स्पष्ट कहा गया है। ब्रह्मा और विष्णुकी मूर्तियोंकी स्थापना प्राचीन मंदिरोंमें उसी तरह देखते हैं। उसमें मूर्तिके फिरते गर्भ गृहमें भी प्रदक्षिणा करे इतनी जगह पीछे रहती है। परंतु जैन प्रतिमाके पीछे ऐसी जगह अभी देखनेमें नहीं आती है। जिन प्रभुको यह सूत्र लागु हो या न भी हो, लेकिन पंक्ति बद्ध जिनायतनमें या छोटे गर्भगृहमें जो अर्धके पाँच भाषके तीसरे भागमें प्रतिमाजीको बिठाया जाय तो पूजकांको चलने फिरने की जगहकी मुश्किल होती है। इससे शिल्पी वर्ग जैन प्रतिमा स्थापनके लिये मंडन सूत्रधार नीचेका मत ज्यादा स्वीकारता है।
“गर्भगृहके पीछले पाट-भारवटके नीचे यक्ष भूतादि उग्र देवोंको बिठाना । पाटको छोड़ कर आगे दूसरे देवोंको बिठाना । उससे आगे ब्रह्मा और विष्णु और मध्य गर्भ में शिवलिङ्गकी स्थापना करना। (७ प्रासाद मंडन ॥ अ. ६॥)"
पाटको छोड़कर जैन प्रतिमाको बिठानेके सूत्रको शिल्पी वर्ग ज्यादा प्रामाणिक मानता है । अर्धके पाँच भापकर तीसरे भागमें सिंहासन-पबासण करनेका प्रमाण वैसा--शिल्पी वर्ग करता है। यद्यपि महाराज भोजदेव समराङ्गण सूत्रधार में कहते हैं कि “गर्भगृहके छ: भागकर पीछले दिवारकी तरफके छठे भागको छोड़कर पाँचवें भागमें सर्व देवताओंकी स्थापना करनेका स्थूल प्रमाण देते हैं ।" वह कुछ मंडनके मतसे मिलता जुलता है।
_व्यवहारमें प्रासाद मंडनका मत शिल्पी वर्गमें प्रचलित है। पाटके नीचे प्रतिमाजीकी अर्ध चोटी रखकर दूसरे भागका पाटसे बाहर रखनेकी प्रथाको आचार्य देवश्री विजय नेमिसूरीश्वरजी अनुसरनेके लिये कहते थे।