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________________ में हुआ । उसके कार्यारंभमें वैसे शिल्प साहित्यकी बहुत अगत्य मालुम हुई। सद्भाग्यसे हमारे भारद्वाज कुल परंपरामें ऐसे प्रकारके सांधार महाप्रासाद के विषयका ज्ञान-साहित्य श्री विश्वकर्मा की कृपासे रक्षित रहा था। इससे वैसा कठिन शिल्प-साहित्यको समझनेके लिये बहुत सरलता रही। श्रीरार्णव ग्रंथमें निरंधार प्रासादोंके यम-नियमों हैं लेकिन विशेष कर वह सांधार महाप्रासादके विषय अधिक उपयोगी साहित्य है। सामान्य शिल्पीवर्गको उपयोणी अध्यायों में थोड़ी अशुद्धि थी परन्तु जो प्रयोगमें कम है वैसे सांधार महाप्रासादोंके अध्याय बहुत अशुद्धियोंसे भरे हुए थे। इससे ग्रंथशुद्धिका कार्य कठिन बना था। वृक्षार्णव ग्रंथ भी जितना छुटक छटक अध्यायों प्राप्त हुआ हैं उसमें महाप्रासादोंकी रचनाके पाठों, उनके यम नियमों दिये हुए हैं। जैसा कि ऊपर कहा है यह ग्रंथ व्यवहार में वर्तमान काल में न होनेसे उनकी प्रतों बहुत अल्प प्राप्त हुई है। यद्यपि वह ग्रंथ भी संपूर्ण मिलता नहीं है। उसकी स्थिति भी क्षीरार्णव जैसी है। उसका संशोधन मैंने यथामति प्रयत्नसे करीब तीस सालसे अनुवाद के साथ किया था परन्तु दूसरी प्रनोंके अभावमें उसका मिलान न हो सका था। वहाँ तक उसमें क्षतियाँ रहनेका भय बहुत रहता था। सुयोगसे मारवाड़ पालीकी और वि-सं. १७६८ की एक प्रति और पाटणकी छुटीछवाइ पाठोवाकी प्रत उपरांत रोयल एशियाटीक सोसायटीकी प्रतके आधारपर अभी उसका संतोषप्रद संशोधन कर रहा हूँ। यह वृक्षार्णव-ग्रंथके प्रकाशनके लिये सुज्ञ विद्वानों और पुरातत्त्वज्ञों मुझपर स्नेहभावसे दबाब डाल रहे थे तो सद्भाग्यसे गुजरात की एक बड़ी मानवंती मातबर संस्था की तरफसे प्रकाशन के लिये कार्य होनेकी संभावना है। वृक्षार्णव ग्रन्थ अद्भुत है। वृक्षार्णव प्रन्थ के संशोधनमें बहुत मुश्किल है, यह कार्य कठिन है तो मी उसको पूरा करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ, जिसके अंग्रेजी संस्करणमें मेरे स्नेही श्री मधुसुदन अ. ढाकी मुझे सहायक हो रहे हैं। शिल्प स्थापत्यका विषय हमारे कुल परम्परा का है। इससे परिवारिक संस्कार वारसेमें मिले यह स्वाभाविक है। कैलासवासी पूज्य पिताश्री और मेरे दो स्व. वडील बन्धुओं त्र्यंबकलालभाई और श्री भाईशंकरभाईने विद्या के संस्कार सींचे, मार्गदर्शन दिया । उनका ऋण मुझसे अदा नहीं हो सकता है। कनिष्ठ वडीलबंधु श्री रेवाशंकरभाई हमारी समस्त ज्ञाति में ५० साल पहले प्रथम ग्रेज्युएट हुए थे। वे मेरे ग्रन्थ-प्रकाशनमें श्रम और अनुभवका लाभ हमेशां देकर
SR No.008421
Book TitleKshirarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size13 MB
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