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________________ ३७ सोसायटी की पुस्तकोंमेंसे मुझे आगेका दो अध्याय, गणित विषयका और जगत लक्षणका प्राप्त हुई। कहते हैं कि मेवाड राजस्थान में कोई सोमपुरा शिल्पी के पास ज्यादा विस्तारवाली प्रत हैं । दुर्भाग्यवशात् उसको प्राप्त नहीं कर सका हूँ । संशोधन करते प्राप्त हुई प्रतोंकी (१) अशुद्धता (२) कुछ अध्यायों में अस्तव्यस्तता (३) एक विषय अपूर्ण छोड़कर दूसरे विषयोंके अशुद्ध पाठों आना ( ४ ) अध्याय ११२ में सिर्फ तीन ही अशुद्ध श्लोक में दिया हुआ है, जिसका कुछ अर्थ प्राप्त नहीं होता है । (५) और स्तंभ, कुंभी, द्वार, शंखोद्वार - गर्भगृह के प्रमाण, स्वरूप, मंडोवर के साथ स्तंभके छोड़का समन्वय इन विषयोंकी प्राप्त हुई प्रतोंके अध्याय १०१, १११, ११७ और ११५ में आगे-पीछे या कम-ज्यादा या बारबार पाठो आता है, पुरानी शुद्ध प्रतोंके अभाव से ऐसी स्थिति में ग्रंथको क्रमबद्ध करने की छुट लेनी ही पड़ती है | इसमें मैं तो क्या निष्णात और बड़े विद्वान भी क्या कर सकें ? वैसे समय सुज्ञ विद्वानोंका कर्तव्य छूट देनेका है । अनिम्छासे ऐसी छूट के लिये शिल्पज्ञाता विद्वानोंकी क्षमा चाहता हूँ । अगर इस ग्रंथको अपूर्ण रखूँ ? क्षीरार्णवकी प्राप्त प्रतों इतनी अशुद्ध कि कितने स्थानपर उनको मूल स्वरूपमें रखनेका कार्य अर्थहीन और मुश्किल था ! तो भी उसको क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है। तो भी मेरे अल्प प्रत्नोंसे मैं शिल्पी समाज या उसके रसज्ञ विद्वान समाजके आगे कुछ इतना तो रखने के लिये सौभाग्यशाली हुआ हूँ । इसकी कद्र होगी तो मुझे आत्म संतोष मिलेगा । निरन्धार प्रासादोंकी शैलीके नियमों शिल्पीवर्ग में कई लोगों से परम्परासे रूढ हो गये हैं । पिता कार्यका अनुकरण उसका परिवार करे, इस तरहसे सैंकडों वर्षो से हुआ है। इससे शिल्पीवर्ग में कुछ निरक्षरता आने लगी । हस्तलिखित ग्रन्थोंकी अगत्यता कम मालूम समजनेसे, और ग्रंथकी प्रतोंमें अशुद्धि बढ़ती जाने से और ग्रंथों - पिटारों के आभूषणरूप मिळकत गिने जाने लगे इससे पद्धतीपूर्वक अभ्यास बहुत अल्प सहस्त्रांश में होता था । विद्याके मर्म विस्मृत होते चले । सभाग्यसे सिर्फ सक्रिय ज्ञान रहा है । इसीलिये भारत का शिल्पीवर्ग अभी कुछ सजीव है ऐसा दिखता है । निरंधार प्रासादों परंपरासे - रूढिसे शिल्पयों बाँधते रहे परन्तु भ्रमवाले सांधार महाप्रासादोंके स्थापत्यका अति दुर्घट ज्ञान और क्रिया छः सौ सात सौ, सालसे विधर्मी राज्यभयसे बँधाये नहीं गये । इससे वैसे प्रकारका ज्ञान विस्मृत होता गया । वर्तमानमें श्री सोमनाथका सभ्रम महाप्रासादका निर्माण मेरे नेतृत्व
SR No.008421
Book TitleKshirarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size13 MB
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