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२१. अठारहवीं सदीमें मूर्तिभंजक विधर्मियोंका भय दूर होनेसे गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, राजस्थान वगैरहके जैन संघोंने भयसे मंडारी हुई हजारों मूर्तियों को बाहर निकाला इससे अधिक मूर्तिओं को बिठाया जा सके वैसे तीन पदके गर्भगृह करनेकी आवश्यकता समयानुकूल उत्पन्न हुई। प्रत्येक गाँवके जैन संघने वैसे मन्दिरों पर तीन शिखरों धनवाने का आग्रह रखा ! उस कालके शिल्पियों को समयानुकूल वर्तन करने पर बाध्य होना पड़ा। इससे अठारहवीं सदीसे ऐसे तीन पदपर तीन शिखरोंवाले हजारों मन्दिरों हरेक गाँव में हुए । पालीताणा शत्रुजय पर उस कालमें हुई ढुकोंके कई सौ मन्दिरों भी ऐसे ही प्रकारके हुए है। सामुहिक सर्वमान्य रीतसे इस अपवादको स्वीकारना पडा, परन्तु वह झूठा है यह कहते पहले सोचना चाहिये । वर्तमानकालमें ऐसे तीन पदबाले गर्भगृह करनेके हो तब अभी-चाहे एक शिखर करे या पाँच पदपर तीन करे परन्तु डेढेसे-सौ साल पहलेके ऐसे मन्दिरोंको दोषित नहीं कहना चाहिये।
____ कईबार मूलपाठोंका अर्थ करनेमें मतभेद होता है। कईबार मूलपाठ और क्रियाकी भिन्नतासे ऐसा होता है। परन्तु विद्वान पुरुषों अपने मतका दुराग्रह नहीं रखते हैं। किसी भी कालमें क्रियाका भिन्न अर्थ करके कार्य हुआ हो ऐसा हो सकता है। तब वे सब मन्दिर झूठे हैं, यह कहना अतिशयोक्ति है, सोच समजसे निर्णय करना।
क्षीरार्णव . क्षीरार्णब ग्रंथके संशोधन के लिये हमारे हस्तलिखित ग्रंथसंग्रह की करीब छ-सात प्रतियाँ वि. सं. १८१० से १९०३ तकके समयमें लिखाई हुई है और रोयल एशियाटिक सोसायटी की बॉम्बे ब्रांचकी लाईब्रेरीकी पुस्तककी शके १८१८ की प्रत, (३) बरोड़ा प्राच्य विद्यामन्दिर की प्रत परसे लिखी हुई कॉपी और गुजरातके शिल्पी श्री नटवरलाल मो. सोमपुरा की और बि. सं. १७१० के अंदाजकी प्रत-इन सब प्रतोंका मिलान करके हो सके इतना क्रमबद्ध संशोधन करनेका मैंने प्रयत्न किया है । सौराष्ट्रके सोमपुरा शिल्पीयों की कुछ प्रतें मैंने पहले प्राप्त की थीं, वे मेरे ग्रंथसंग्रहसे अधिक नहीं थी, और बहुत कम भिन्न थी और १०१ अध्यायसे १२० वें अध्यायके ९३ वें श्लोक तककी अपूर्ण प्रतें प्राप्त हुई थीं, कुछ तो इससे भी कम अध्यायोंवाली प्रतें भी मिली थी ।
मूल ग्रंथके आगेके ९८ अद्रानवें अध्यायों लुप्त हैं जौर अध्याय १२० के बादका मंथ-विस्तार कितना है यह नहां प्राप्त हुआ । गुजरात सौराष्ट्रकी प्रतों १०१ अध्यायके कूर्म शिला प्रकरण से शुरू होती है परन्तु रोयल एशियाटिक ,