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स्थिर करने में वह वह बल नहीं दे सकता है । ऐसी दलीलें करके स्तंभिका की अगत्यको नहीं स्वीकारते हैं । उपरोक शास्त्रीय पाठोंके मतका समर्थन करनेवालों के बुजर्गाने डेढसौ साल पहले जो किया हो उसके प्रमाणरूप देते हैं । परंतु सज्जनोंके लक्ष्य में सत्य हकीकत समजमें आये तब वे आगेकी क्षतियों को सुधारे और सत्य मार्गका अवलंबन करें ।
१८. प्रासाद पुरुष की सुवर्णमूर्ति आमलसारामें स्थापन करनेके लिये कहा है । उसके बायें हाथमें तीन शिखाओंवाली ध्वजापताका धारण करने के लिये कहा है। उसे कई शिल्पीओं त्रिपताकका अर्थ पताका-ध्वजाके बदले मुद्रा मानते हैं । परंतु सामान्यतया शिल्पीओं पताकाका अर्थ ध्वजा करके वैसी आकृति की सुवर्णमूर्ति जो प्रासाद के प्राणरूप हैं उसे स्थापन करते हैं ।
१९. पताका - ध्वजा कैसी करना ? उस विषय में शिल्पग्रंथों में बहुत स्पष्टता से कहा है कि पताका-ध्वजादंड के बराबर लम्बी और उसके है भागकी चौडी चोरस करना । लटकते सिरे को तीन या पाँच शिखाम करना ! कई ब्राह्मण विद्वानों पताका त्रिकोण होती है और पताका दंड के उदयमें रखना वैसी मान्यता रखते हैं । परंतु उपरोक रीतसे शिल्पशास्त्रों के आधारको मान्य रखा जाय तो त्रिकोण पताका का स्थान नहीं रहता है । वे अन्य अशास्त्रीत्र रीतसे किये हुए परंपरागत पताकाओं के उदाहरण देते हैं, परंतु वह सत्य नहीं है । विद्वान भूदेवों को उनके मतानुसारका शास्त्रीय पाठ प्रासादकी पताकाका दिखाने का आग्रह करनेसे उन्होंने यज्ञयागादि क्रियाके या उसके मंडप परकी ध्वजाओं का पाठ बताया। अमुक दिशामें अमुक वर्णकी त्रिकोण ध्वजा का प्रमाण है, परन्तु प्रासाद के शिखरको वह सूत्र लागु नहीं होता है, तो भी किसी विद्वान आचार्य इस विषय में प्रकाश देंगे वैसी आशा हम रखते हैं ।
२०. राजस्थानमें शिखर पर पाषाणके कलशके स्थानपर तांबेके या सुवर्ण के परेका कलश पोला बनाकर उसमें घी भरते हैं, परन्तु सिर्फ पतरेका कलश कर चढानेकी रीत झूठी है। राजस्थानमें बहुत करके इस प्रथाको मानने वाले विशेष हैं । पतरेके कलशका बिधान झूठा है । पाषाणका ही कलश करके उसका विधिसर अभिषेक पूजन करके रखना चाहिये | बादमें उसके पर सुवर्णके पतरेका कलश चढाने में हरकत नहीं है । ध्वजादंड काष्टका ही होना चाहिये - मगर अब पाईप दण्ड बनाते हैं, ये ठीक हे लेकिन पाईपके अंदर सांग एक काष्टका तो दण्ड रखना ही चाहिये - अन्यथा गलत है !