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शिखरके स्कंधसे नीचे ध्वजाधार कलाबा तो होना ही चाहिये। यह निःशंकता से मान्य करना ही चाहिये, उसमें वादको स्थान नहीं है। जो वहाँ दुराग्रह किया जाय तो वह अयोग्य है। शास्त्राधारको मानना ही चाहिये । शास्त्राधार हो वहाँ पुराने किसी स्थानके उदाहरण को प्रमाण नहीं माना जा सकता।
१६. नोगरादि शिल्पमें शिखरके स्कंधके छः भाग विस्तारसे सात भागका आमलसारा विस्तार करनेके लिये कहा हैं। जो ध्वजाधार शिखरकी खड़ी मूल रेखाके उदयके 12 भागपर स्कंधके नीचे रखने के लिये कहा है। इस ओलंभेको देखनेसे आमलसारा के वृत्तसे ध्वजादंड बाहर निकल जाय यह स्पष्ट है । इससे ध्वजादंडको स्थिर रखने के तीन स्थानक ध्वजाधार-दूसरा स्कंध (बांधणाके पास) एक लाग-छीद्र पाडकर रखना । तीसरे आमलसारा की बाहर कलावा का घाट करके उसमें छिद्र करके उसमें ध्वजादंड खडा करनेसे कैसे भी झंझावातों में बह स्थिर खड़ा रह सके, यह रीत शास्त्राधार है ।
आमलसारा में छिद्र करके ध्वजादंड खड़ा करने की प्रथा देढसो-दोसौ सालसे है, यह बराबर नहीं है। 'क्षीरार्णव' अ. १३२ के श्लोक ११ से २४ तकमें इस सरवेध अर्थात् मस्तकमें वेध कहकर बहुतसे दोष दुष्ट फलदाता कहे है और स्कंध-बांध के ऊपर ध्वज दंड गाड़ने को भी वैसा ही वेधदोष कहा गया है।
ध्वजादंडकी लंबाईका जो मान कहा है वह धजाधारमें बराबर से गिना जा सकता है, परंतु जो आमलस रा में ध्वजादंड गाढ़ा जाय तो उसे साल रखना पडे और वह शिखरके प्रमाणसे बहुत ऊँचा दंड होवे ! यह झूठा है। शास्त्रोंमें ध्वजादण्ड को साल रखनेके लिये कहा नहीं है। आमलसारा में उसे गाड़ना होता तो सालका निर्देश उसमें होता ।
आमलसारा में ध्वजादण्ड स्थापन करने का दुराग्रह रखने वाले शिल्पियों जो पुराना काम हुआ हो उसका उदाहरण देकर अपने मतका समर्थन करते हैं परंतु यहाँ शास्त्राधारके स्थान प्रणाणसे अन्य मार्ग असत्य है ।
१७. ध्वजादण्डके साथ स्तंभिका खडी करनेके लिये कहते हैं । अपराजित कार और क्षीरार्णवकारने स्तंभिकाको कितनी ऊँची करना ? कैसी करना ? उसके शिरपर क्या करना ? वगैरह विगतसे प्रमाण दिया हुआ है और स्तंभिका को दंडके साथ गज गजपर मजबूत त्रांबेकी पट्टीयां बाँधों, बाँधने के लिये कहा है। आमलसारेमें दंड रखनेके मतावलंबी ओं स्तंभिकाको निरर्थक मानते हैं। दंडको