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________________ १३. देवता पद स्थापन के संबंधमें भिन्न भिन्न ग्रंथकारोने पृथक् पृथक विभाग प्रतिमा स्थापनके कहते हैं। यद्यपि उसमें कमज्यादा तफावत है। प्रासाद तिलक, और विवेकविलास, गर्भगृहाध के पीछलेमें पाँचवे के तीसरे भागमें कृष्ण, जिन और सूर्यकी मूर्ति स्थापन करनेके लिये कहा है। अलबत्त, शास्त्राधार सच्चा है, परन्तु जिन तीर्थकर के बारेमें वह अपबादरूप हो वैसा पुराने उदाहरणोंसे लगता है। अन्य देवोंको तो पधराई हुई मूर्तिके पीछे प्रदक्षिणा करने की प्रथा है। वह जो कहे हुए विभागमें पधराई हुई हो तो प्रदक्षिणा होस के तो जैनोंमें चातुर्मुख के सिवा कहीं भी अिनप्रमु के गर्भगृह के अंदर प्रदक्षिणा होती हो वैसा देखने में नहीं आता है। इससे जिन प्रमुकी पिछली दिवार से परिकर जितनी जगह रखकर पधराई हुई देखनेमें आती है। जो कि पद विभाग के अनुसार प्रतिमा बिठानेका आग्रह रखनेवाले शिल्पीका मंतव्य झूर है ऐसा नहीं कहा जा सकता । परन्तु वह व्यवहार में नहीं है। गर्भगृह के अर्ध में भागमें सिंहासनपीठ रखे जाते हैं। 'प्रासाद मण्डन' के एक दूसरे प्रमाणमें - 'पटाऽधो यक्ष भूताधा-पटाये सर्वदेवता' इस सूत्रको जिन प्रभुके बारेमें शिल्पियोंने स्वीकारा हो ऐसा लगता है। १४. शिस्त्रर का विषय-गहन है। उसे अधिक अंडकों या कर्म उरूशृङ्ग प्रत्यागादि वगैरह चढ़ानेके होते हैं। अनुभवके रहित सूत्रोंसे पकड़कर रखनेवाले और दुसरोंकी क्षति निकालते है यह अयोग्य हैं। 'समदल' उपांगवाले प्रासाद के शिखरमें शिल्पिओंको कम तकलीफ पड़ती है। परन्तु 'हस्तांगुल' उपांगवाले प्रासादके शिखरमें तो शिल्पीकी सचमुच कसौटी होती है। उसकी कदर करने के बदले अल्पज्ञों क्षति निकालते हैं, यह दुःसह लगता है। अठारहवीं सदीमें हुए तीन पदपर तीन शिखरोंके पायचे-मूलकण गर्भगृहके पाटके समसूत्र में मिलाने की शिल्पियों की प्रथा उन समयमें थी। हस्तांगुल शिखरमें शृङ्गोंके निर्गम अरू शृङ्गों पर शृङ्ग मिलानेमें शिल्पिओंको मुश्केली आती है। यह सब कठिनाईयां बुद्धिमान शिल्पि मिलाके सुन्दर शिखर बनाते हैं। १५. शिखरके ध्वजादंड को धारण करता हुआ ध्वजाधारध्वजाधारकलाबा शिखर की खड़ी मूल रेखाके उदयके छहवें भागमें उसके हीन करके उस स्थानमें करने के लिये कहते हैं। ध्वजाधार का अर्थ ध्वजादंडको धारण करता आधाररूप कलाबा होता है, यह मेरा मंतव्य है। ऐसा बहुतसे पुराने शिखरोंमें पीछे होता है। किसी स्थानपर वजापुरुष की आकृति भी देखने में आती है। इससे ये दोनों मतका परस्पर खंडन करनेवालों का वाद अयोग्य है। परंतु
SR No.008421
Book TitleKshirarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size13 MB
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