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________________ द्वार-वाढ समसूत्र भी स्तंभ बराबर होता है। परन्तु जंधामें भद्रके गवाक्षों द्वार वाढसे नीचे होते हैं। ऐसे समयमें द्वार और गवाक्ष वाढ समसूत्र में होनेका आग्रह न रखना चाहिये । अठारहवीं सदीमें बहुतमें मन्दिर गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, राजस्थान वगैरह स्थलों पर हुए तीन पदोंका गर्भगृह पर तीन शिखरों और बाह्म मंडोवरके घाटके बदले कडाउ दाबडी की सादी दिवारोंकी प्रथा शूरू हुई है। यहां समाजने यह शैलीका इस काल में स्वीकार किया वह सामुहिक रीतसे दोष मान स्त्रिकार किया और हजारो मन्दिरों. यह शैलीका हुआ तब वहाँ दोष मानना न चाहिये ऐसा मेरा मंतव्य है । १२. देवता-दृष्टिपद-विषयमें भिन्न भिन्न ग्रंथकारों में मतमेद है, परन्तु सर्वसाधारण द्वारोदयके आठ भागके सातवें भागमें फिर उसके आठ भाग कर सातवें भागमें देवदृष्टि त्रिपुरुष और जिनकी-मिलाने के लिये कहा है । अर्थात् द्वारोदयके ६४ भागमें पचपन में भागमें दृष्टि मिलाना । इस प्रथाको शिल्पीवर्ग स्वीकारता है। आये हुए सूत्रमानसे दृष्टि ऊँची या नीची जरा भी न रखने के लिये शिल्पग्रंथों में कहा है। कई जैन विद्वानों “सप्तमा सप्तमे भागे" का अर्थ करते हैं कि सातवें के आठवें, भागकर सातवें भागमें अर्थात् छः और सात के बीच दृष्टि आय मेलमें रखना । परन्तु शिल्पीवर्ग सातवें भागमें ही भागपर और नहि कि नीचे-आय मेल-प्रासाद मंडनकार कहते हैं। परन्तु विश्वकर्मा के कोई भी प्राचीन ग्रंथमें आय मेल पर दृष्टि रखने के लिये नहीं कहा है। वृक्षार्णव और क्षीरार्णव आदि ग्रंथों में गजांश विभागमें ही दृष्टिसूत्र रखना। एक बालके अग्रभाग जितना भी फर्क नहीं रखना। यह मतमतान्तर शिल्पियों और जैन विद्वानों के बीचका सामान्य है । गजांशका अर्थ सातमा हि होता है नहि के गजाय । उपरोक्त मतमतान्तर तो इंचके आठवें भागके बराबर है। परन्तु ठक्कुरफेरुके मतसे (५'-५" द्वारोदयके हिसाबसे) १८ अंगुल नीची, दिगम्बराचार्य वसुनन्दीके मतसे सोलह अंगुल, 'क्षीरार्णव' 'दीपार्णव' के दूसरे मतसे २२ अंगुल दृष्टि उत्तरंगसे नीची रखनेके लिये कहते हैं। ऐसे बड़े अंतर ग्रंथकारों के मतमतान्तरमें कौनसा मत स्वीकारना ? यह प्रश्न होता है, यद्यपि वर्तमान में सर्वमान्य ६४ भागके पचपनमें भाग का मत अधिक व्यवहार में है। पृथक् पृथक देवदेवीकी दृष्टि स्थिर भिन्न भिन्न करके प्रतिष्ठाके समय पर वादविवाद होनेसे पहले उसका निर्णय कुशल शिल्पियोंको ले लेना चाहिये । अब जो कोई पुराने मन्दिरोंमें जो दृष्टि नीची हो तो तब शिल्पियो धीरज रखकर पूर्वाचार्यके कोई प्रथका मत देखकर अपना अभिप्राय देना चाहिये ।।
SR No.008421
Book TitleKshirarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size13 MB
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