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क्षीरार्णव अ. - १११ क्रमांक अ. - १३
अष्टाविंशतिर्भागानि गर्भगृहार्ध भागतः । प्रथमे च शिवस्थाप्यं किंचिद्धिशानमाश्रितम् ॥ ९ ॥ कर्णपिप्पलिकासूत्रं भुजगर्भेतु संस्थितम् । पादगुल्फ गर्भसूत्रे पदगर्भेषु देवता ॥ १० ॥
धार सिवायना अर्ध नूना ग्रंथमां आयभेणे दृष्टि रामवानुं हेता नथी. वृक्षार्णव अ० १४७ માં દૃષ્ટિત્ર એક વાલામ્રપણ ન લેાપવાનું કહે છે તે તે સૂત્ર ચાળવે તે દોષ કહ્યો છે. કાર્યસિદ્ધિ સમયે શિલ્પીઓએ આવા મતમતાન્તરના વિતડાવાદમાં ન ઉતરતાં જૈન વિદ્વાના પેાતાના મતના આગ્રહ સેવે ત્યારે તેમ કરવુ,
१. क्षीरार्णवकी कई प्रतोंमें 'उच्छ्रय त्रिंशत् द्वार' ऐसा तीस भागका पाठ मिलता है । परंतु एक पुरानी आधारभूत प्रतमें शुद्धपाठ और कम दो पदोंकी त्रुटी भी मिली है। उच्छ्रयं द्वात्रिंशत् भाग यह सच्चा पाठ मिला, उसके पहले लोकके पिछले दो पदों अस्तै अष्टभागं च शिवस्थानं च निश्चलं ॥१॥
दीपार्णव ग्रंथके दृष्टिपद विभाग इस ग्रंथके बहुत थोडे तफावत के साथ मिलता है परंतु वह तफावत ज्यादा भागमें अशुद्धिके आभारी है । १८ वे भागमें ब्रह्मा युग्मके कारण १९ वे भागमें बुध, चित्रोपको बीसवें मार्गमें दुर्गाको नारदादि मुनि दीपार्णवमें कहे हैं। जिन तीर्थकर २१ वे भागमें लक्ष्मीके साथ में लिये हुए हैं । इस ग्रंथ में २५ वे भागमें जिनका स्वतंत्र दृष्टि स्थान कहा है । क्षीरार्णवकी कई प्रतोंमें " पंचविंश धनस्थान " का अशुद्ध पाठ मिलता है । परंतु उपरोक्त आधारभूत प्रतमेंसे धनस्थानके बदले 'जिन स्थान का शुद्ध पाठ मिला है । यह पाठ सच्चा है ।
दृष्टि सूत्र विषयमें अपराजित, सूत्र संतान, ठक्कुरफेरू वास्तुसार, आ० वसुनंदी कृत प्रतिष्ठासार, ज्ञानरत्नकोश, देवता मूर्ति प्रकरण में मतमतांतर | अपराजित सूत्र १३७ में द्वारोदयके चौसठ भाग कहे हैं । उसमें लिङ्ग अठारह (१८) भाग तक २७ वें भागमें जलशायिन, ३७ उमारूद्ध, ४९ गणेश सरस्वती और ५५ वें भागमें ब्रह्मा विष्णु, रूद्र और जिनकी दृष्टि रखने के लिये कहा गया है ।
ठक्कुर फेरू वास्तुसारमें द्वारके उदयके दस भाग कर, पहले भाग में शिव लिङ्ग तीसरे में शेष शायी सातवे में शासदेव = ( यक्षयक्षिणी) की रखना। अब वह छः और सातवें भाग के बिच दस भागकर सातवें भाग में जिन तीर्थंकरकी दृष्टि रखनेका कहा है। आठवें भागमें चंडी भैरव और नौवें भाग में छत्र चामरधारी इन्द्रादि देवों दीपाव और क्षीरार्णवके दृष्टि विषयके पाठोंमें नहिवत् तफावत है ।
ठक्कुर फेर वास्तुसारमें दस भागकर जिन दृष्टिको सातवें भागसे भी नीचे रखनेको कहते हैं । उसके विभाग कोष्ठक में दिये हुए हैं। दीगम्बराचार्य वसुनंदी कृतः प्रतिष्ठा सार में कहते हैं ।
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द्वारकी ऊँचाईके नौ भाग कर, नीचेके छः भाग और उपरके दो भाग छोड देना । बाकीका सातवाँ भाग जो रहा, उसके नौ भाग कर उसके प्रतिभा की दृष्टि रखना । इस तरह दोनों जैन मत भी दृष्टि विषयमें एक मतभेद हैं ।
सातवें भाग में सूत्रमें नहीं है,
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