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गई हैं । वे विश और कलाकी सामान्य व्याख्या देते हुए कहते हैं कि 'जो कार्य वाणीसे हो सके वह विद्या है और मूक मनुष्य भी जो कार्य कर सके वह कला है ।' शिल्प, चित्र इत्यादि मूक् भावे हो सके उसको कला कहा है।
भिन्न भिन्न आचार्योंने कलाकी संख्याको कम और अधिक बताया है । शुक्राचार्यने चौसठ कलाएं बतायी हैं । समुद्र पालने जैन सूत्र में ७२ कलाएं, काम सूत्रमें यशोधरने ६४ ( अवान्तरसे ६४ x ८ = ५१२ कलाएं कही गई है।) ललित विस्तरामें ६४, काम सूत्रमें २७, श्रीमद् भागवन्में ६४ कलाएं गिनी
. विविध कलाएं विविध क्रियासे होती हैं। मनुष्य जिस कलाका आश्रय लेता है उस कला परसे उसकी जातिका नाम होता है। इस तरह कलाके वर्गानुसार ज्ञातियोंके समूह भी बनने लगे। चार वर्णाश्रमोंमेंसे भेद पडने लगे। वास्तुशास्त्र स्थापत्य और शिल्पकी व्याख्या
वास्तुविद्या या धास्तुशास्त्र, स्थापत्य और शिल्प शब्दकी व्याख्याके अभावसे उसका मिश्र स्वरूप समझकर भाषाका प्रयोग हो रहा है। परन्तु वास्तुशास्त्र इन सबोंसे व्यापक अर्थमें है । उसका अंतर्गत स्थापत्य और स्थापत्यका अंतर्गत १शेल्प है। १९ १. वास्तुशास्त्र-देशपथ, नगर, दुर्ग, जलाश्रयादि सर्व, उद्यानवाटिका आराम स्थानों, राज प्रासादों, देव प्रासादों, भवनों, सामान्यगृहों, शल्यज्ञान, शिराज्ञान, भूमिपरीक्षा इन सर्व विद्या वास्तुशास्त्र है ।
२. स्थापत्य-दुर्ग, जलाश्रयों, राजप्रासादों, देवप्रासाद, भवनों, सामान्यगृहों वगैरहके बाँधकाम स्थापत्य है । इनके शास्त्रको विशेषकर स्थापत्य शिल्पशास्त्र कहा गया है।
३. शिल्प-दुर्गके द्वार, राजभवन, देवप्रासाद, जलाश्रयों वगैरह स्थापत्योंके सुशोभन, अलंकृति, गवाक्ष, झरोखे, नकशी, मूर्तियाँ प्रतिमाों ये सब शिल्प है। . वास्तुशास्त्रके प्रणेता-मत्स्यपुराणमें शिल्पके अठारह आचार्यों के नाम ऋषिमुनियों आदि के दिये हुए हैं। बृहत् संहितामें दूसरे सात आचार्यों के नाम दिये हुए हैं। अग्निपुराण अ० ३९ में लोकाख्यायिकामें शिल्पशास्त्र के पर पच्चीस ग्रंथोंकी नोंध दी हुई है । उनमें कई तांत्रिक और क्रियाओंके ग्रंय है। परन्तु उनमें शिल्पशास्त्रके बहुत उल्लेख हैं। स्मृतिकार आचार्यों के संहिता ग्रंथों में और नीतिशास्त्रके ग्रंथोंमें और पुराणों में भी शिल्पशास्त्रके बहुत उल्लेख हैं । विश्वकर्म