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क्षीरार्णव अ. १२० क्रमांक अ. २२ बुद्धिमान शिल्पीको चारों भद्रमें द्वार रखना । उस पर चारों और गवाक्ष - गोख, dar और इfear तोरणादिसे शुशोभित भद्र करना। दूसरा थर में अनुग-प्रतिरथ पर रेखाकी तरह तेरह अंडकका नंदन कर्म ( और नौ अंडकका सर्वतोभद्र कर्म ) चढ़ाना | भद्रके पासकी नंदी पर एक तिलक चढ़ाना ( रेखाके पास की नंदी पर ) प्रत्यंग चढ़ाकर सुशोभित करना । रेखा पर तीसरा पाँच अंडकका चढ़ाना | पढरे पर ( बलकूट ) तिलक चढ़ाना । और मूल रेखा पायचेके नीचे कूटयुक्त मंजरी चढ़ाना | और बारह उरुशृङ्ग और आठ प्रत्यंग चढ़ाकर कुल तीनसौ पैंतालीश अंडा प्रासाद जानना । और तिलक ( २८ ) सर्व स्थानों पर चड़ाना । १३१४-१५-१६ - १७.
अर्चा एमि
वीतरागाणां तिलकं त्रिभुवनस्य च । स्वगैर्युकता चंद्रशाल चतुर्मुखे ॥ १८ ॥
इति चंद्रशाल चातुर्मुख प्रासाद भाग-४२, अंडक ३४५ વીતરાગ જિન ભગવાનની મૂર્તિ જે ત્રણ ભુવનમાં તિલક સમાન તેના ચદ્રશાલ નામના ચતુમુ ખ પ્રાસાદ તે જાણવા. ઇતિ ચંદ્રશાલ પ્રાસાદलाग-४२, श्रृङ्ग ३४५ भने तिस + २८.
वीतराग जिन भगवानकी मूर्ति जो तीन भुवनमें तिलक समान है, उसका चंद्रशाल नामका चतुर्मुख प्रासाद जानना । इति चंद्रशाल, प्रासाद भाग - ४२ श्रृंग ३४५. और तिलक २८.
तथा पीठं च विस्तारं चत्वारो मंडपैर्युते । षणमेकं भवेत्कर्ण प्रतिकर्ण स्तथैव च ॥ १९॥ कर्ण च सपाद निष्क्रांत अनुगे भद्रे मंडपाः । भद्रं त्रिणि षणं प्राज्ञ पणमेकं तु निर्गमम् ॥ २०॥ सिंहद्वार विशेषेण अनुगे सह संयुतम् । षणपंचैव विस्तारं यावत् त्रयमंडपाः ॥ २१ ॥ चत्वारि च पुनर्वेदा स्त्रीणि त्रीणि पदा नपि । अष्टाविंशं सिंद्वद्वारे अष्टस्थानं अतः श्रृणु ॥ २२ ॥
પ્રાસાદને ચારે તરફ મડપે પીઠ સહિત વિસ્તારથી કરવા તેને એક ભાગ રેખા પ્રતિરથ એક ભાગ તે રેખાથી સવાય। નીકળતા અનુગ (પઢ) અને ભદ્રને રાખવે, ભદ્ર ત્રણ ભાગનું ચતુર શિલ્પીએ રાખવું. નીકાળે એક ભાગ