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क्षारार्णव अ-११३ क्रमांक अ.-१५ प्रासादके शिखरके पीछले भागमें दाहिने प्रतिरथमें स्तम्भवेध, (ध्वजा दंडको खडा रखनेका लामसा जैसा कलाषा) करना । उसको प्रासादकी दिवारके मोटेपनके छटे भागके बराबर करना। ध्वजादंडके साथ खडी करनेकी स्तंभिका (ध्वजाधारसे श्रामलसाराके शीर्षक तककी ऊँचाईकी) करना । उसको अठांश अथवा गोल (ध्वजादंउसे थोडी पतली) कर उसके उपर कलश करना । ध्वजदंड और स्तम्भिकाको मजबूत (ताँबेके पाटेकी बंध गज गज पर जड़ देना ।.४२-४३ પડે છે. અને તે ઉંચે જણાય છે. પ્રાચીન પ્રથા બાંધણુથી બહાર અને બાંધણથી નીચે ધ્વજાધાર કરીને તે પર દંડ ઊભો કરવાથી તે પ્રમાણસર દંડ ઊંચે દેખાય છે. રાજસ્થાનના સેનપુરા શિલ્પીઓ ઘણુંખરા આ જૂની પ્રથાને અનુસરે છે.
આમલસારામાં ધ્વજાદંડને દાખલ કરવો તે વેધ છે.
ઉપર કહ્યો તે ધ્વજાધારને બદલે ધ્વજ ધારણ કરતો પુરુષ શિખરની પાછળ કરવામાં આવે છે. આ પ્રથા માટે મતભેદ છે. કેટલાક જૂના કામમાં જોવામાં આવે છે. પરંતુ શાસ્ત્ર પાઠ ધ્વજાધાર લામાસાનો અર્થ વધુ બંધ બેસે છે.
વજાદંડ સાથે ઊભી કરવામાં આવતી દંડી માટે વાદવિવાદ છે. શાસ્ત્રાધારને વધુ ભાન આપવું તે યોગ્ય છે.
(१०) ध्वजादंड स्थापनकी प्राचीन प्रथा श्लोक ४१ है ४३ में जो बताया है। उसी अनुसार स्कंधके नीचे ध्वजाधार स्तंभवेध या कलाबा करके वहाँसे ध्वजादण्डको खड़ा किया जाता है, और स्कंधके भागमें भी पाषाणका निकाला रखकर उसमें छिद्र रखके अवजा दंडको पिरोकर स्थिर-मजवूत किया जाता है, वह स्तंभवेध-कलाबेमें अंगुल अर्ध अंगुल जितना नीचे उतारकर दंडको स्थिर करना। और दंडके साथ स्तंभिका जरा पतली आमलसाराके बराबर ऊंची बाँधना ।
करीब दो सौ वर्षोसे गुजरातकी वर्तमान प्रथा आमलसारेमें सालको गाड़कर वहाँसे ध्वमा दंडको खड़ा करनेसे ध्वजा दंडकी लम्बाईके मानसे उस सालके बराबर दंडका भाग ज्यादा रखना पड़ता है। और वह ऊँचा दिखता है। प्राचीन प्रथा स्कंधसे बाहर और स्कंधसे नीचे ध्वजाधार कर उसके उपर खड़ा करनेसे वह प्रमाणसर ऊँचा दिखता है। राजस्थानके सोमपुरा शिल्पीयों बहुत करके पुरानी प्रथाको अनुसरते हैं।
आमलसारेमें ध्वजादंडको दाखिल करना यह वेध है।
उपरोक्त ध्वजाधारके बदले ध्वजाधारी पुरुष शिखरके पीछे किया जाता है। इस प्रथाके लिये मतभेद है। कई पुराने काममें दिखाता है। परंतु शास्त्र पाठ ध्वजाधार लामसाका अर्थ ज्यादा बैठता है।
ध्वजा दंडके साथ खड़ी की आती दंडिकाके लिये वाद विवाद है । शास्त्राधारको ज्यादा मान देना चाहिये।