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नपुंसका - फासनाकार कहा है । कितनोंके कोने पर कर्णफासना - फासनाकार फूट चढाते हैं । फासनाकार प्रासादोंका तलदर्शन हस्तांगुल उपांगोवाला सिर्फ कर्ण - रेखा और भद्र विशेषकर होता है । उदकान्तर वर्जित -- पानीतारके उपांग होते हैं । फँस किया - फांसना शैली गर्भगृह परसे मंडप फासना करनेकी पद्धति बाद में प्रविष्ट हुई है ।
फासनाकार मंदिरों, खजुराहो, गुजरात, चेदी प्रदेश, अमरकंटक, आबू, देलवाडा, राजस्थान, कलिंग - ओरिस्सा-भुवनेश्वर में हैं । फासनाकारके पाठों जयपृच्छा-प्रमाणमंजरी-वृक्षार्णव- अपराजित पृच्छा और लक्षणसमुच्चय में उल्लेख है । फासनाको गुजरात - सौराष्ट्र के शिल्पीओंने 'तरसटियु' कहा है । वह ' त्रिषट् ' का अपभ्रंश है। अर्थात् तीनों तरफके दर्शनवाला - परंतु त्रिषटा शब्द शिल्पग्रंथों में नहीं मिलता है | बहुत सादगीसे फासना मंदिर होता है जिससे भारत के हरेक प्रदेशों में सादे स्वरूपमें फासनाकार मंदिर देखने में आते हैं ।
कलिंग - उडिया प्रदेशोंमें भुवनेश्वर पुरी और कोनार्क के मंदिरोंके मंडपों पर कासना चढ़ाई हुई दिखती है । छाजलीके पाँच, सात या नौ थरोंके बिच एक सादा थर जंघा के जैसा चढ़ाया जाता है उसे "कांति" कहा जाता है । उसके पर फिर पाँचेक थर वाजली के चढ़ाकर घंटा और कलश चढाते हैं ! कलिंग शिल्प ग्रंथों में छाजलीको 'पीडा' कहा गया है। वैसे सात - नव थरोंके उदयको 'पोटल' कहते हैं और उसपर बीचके एक सादे थरको कांन्ति कहते हैं । उपरके दूसरे पाँच-सात थरोंके उदयको भी 'पोटल कहते हैं । उसके पर घंटाके नीचे ग्रीवाको "बेकी" कहते हैं। उसके पर मंडपकी फासता के सर्व थरोंके उदयको "गंडी" कहते हैं । यद्यपि, शिखर के उदय भागको भी "गंडी" कहते हैं । इस तरह शिल्पीओंको प्रांतीय भाषा के शब्दोंसे थका परिचय दिया गया है। अपराजितकारने फासनाकारको नपुंसक छंदका प्रासाद कहा है ।
१३. सिंहालोकन - छाद्य-छाद्योंसे उत्पन्न हुआ, जिसके उपर कोनेको सिंहसे शोभायमान करना। उसके पर घंटा घंटा आकृति की करना । उसे 'सिंहालोकन' छंदका प्रासाद कहते हैं ।
१४. स्थारुह— नागर छंदसे उद्भूत - शकट- गाडेके उपर नागरछंदका, जिसको तीन चक्र हो वैसे आकारका कामनाको देनेवाला ऐसा रथारूह छंदका प्रासाद जानना | अपराजितकारने दारू कर्म (काष्टकार्य) से उद्भूत सिंहावलोनन दारूके जैसे छंदका रथारूह जानने के लिये कहा है ।
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