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उपरोक्त चौदह जातिमें पाँच-छः जातिका विशेष स्पष्टीकरण नहीं है। इससे उसका परिचय करना मुश्किल है। तो भी उसके अधिक प्रयत्नसे संशोधन प्रादेशिक भ्रमण करके करने की जरूरत है। जावा, सुमात्रा, अनाम (चंपा) कंबोडिया, सियाम आदि बृहद्भारत प्रदेशोंमें भारतीय शैलीके भव्य और विशाल प्रासादोंका निर्माण हुआ है । वे अपनी इन चौदह शैलियोंमें आये हुए होना चाहिये। या-भारतीय शैलीकी कौटुंबिक प्रथा है !
शिल्पस्थापत्य में विवादग्रस्त प्रश्नों शिल्पियों में कई विवादग्रस्त प्रभ हैं। कई बार यजमानको ऐसे प्रश्न उलझनमें डालते हैं। इनमेंसे कई प्रश्नों बुद्धियुक्त हैं और कई निरर्थक दुराग्रही भी हैं। स्थलके पर हुए पुराने कामके उदाहरण देकर वे विवाद उग्र बनाते हैं। कई रूढिग्रस्त प्रणालिका को अग्र करते हैं। इन सबका समाधान शास्त्राधार विशेष सबल गिना जाता है। कईबार शास्त्रके पाठोंका अपनी बुद्धयानुसार अर्थ करके अपने मतका समर्थन करते हैं। निष्पक्ष रीतसे बुद्धि पूर्वक व्यवहार को भी लक्ष्यमें लेकर सोचना चाहिये । जहाँ पाठोंका अभाव हो वहाँ परंपरागत प्रणालिका को भी मान देना पड़ता है। अगर वहाँ पुराने स्थापत्य को उदाहरण रूप स्वीकारने पर बाध्य होना पडता है।
सत्रहवीं सदीसे शिल्पियों कई प्रथाओंको अनुसरे हैं। उसमें कुछ शास्त्र विमुख है। ये प्रथायें शास्त्रविहीन है परन्तु प्रणालिकाएं हैं इस तरह मानकर उसका अनुसरण या ऎसे मतमतांतर के लिये दुराग्रह न करना चाहिये । ऐसे उदाहरण देकर अपने मतका समर्थन न करना चाहिये। प्रतिपक्ष का अपमान अवगणना करनेकी वलण भी अनीच्छनीय है।
१. गणितके विषयमें-इक्कीस अंग मीलानेको कहा है। जिस तरह ज्योतिषी को परे अंगोंको देखकर मुहूर्त नीकालनेमें असमर्थ होता है उस तरह शिल्पमें विशेषकर लगभग चार-अंगोंको मीलानेका प्रयास करते हैं। १ आय, २ नक्षत्र ३ गण, ४ चन्द्र । शास्त्रकारों कहते हैं कि
"द्विभिश्रेष्ठं त्रिभिश्रेष्ठं पंचभिः सर्वमुत्तमम् ।" सामान्यतया लंबाई चौड़ाई के गजके उपरके आँगूलों में विषमअंक होना चाहिये। तो आय श्रेष्ठ आता है। शिल्पशास्त्रमें शिल्पिओं गज' अर्थात-हस्त और उसके ४ आँगुल प्रमाणका मानते हैं, फूटकी प्रथाको नहीं स्वीकारते