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भूमिका डॉ. मोतीचन्द्र, (एम्. ए., पीएच. डी. ( लण्डन )
____ डायरेक्टर, प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम, बम्बई. क्षीरार्णत्रके टीकाकार श्री. प्रभाशंकर ओघडभाई-सोमपुरा भारतीय स्थापत्य शास्त्रके उन इने गिने विद्वानों में है। जिन्होंने अपनी कुलगत परंपरा और संस्कृतमें लिखित वास्तुशास्त्रकी चर्चा और अध्ययनको एक नया रूप दिया है । यह तो प्रायः सभी विद्वान मानते हैं कि स्थापत्य शास्त्रकी पुस्तकों में अनेक असंबद्ध विस्तार होने पर भी उनमें सत्यका अच्छा खासा अंश है। जिसका वास्तविकतासे नजदीकका संबंध है। पर उस वास्तविकता को पकड़में लानेके लिये मध्यकालीन वास्तुशास्त्रकी परिभाषिक शब्दावली तथा उपलब्ध देवमंदिरोंके अवयवोंसे उसकी तुलना केलल श्री सोमपुराजी जैसे विद्वानोंके बसकी ही बात है। सच बात तो यह है, श्री सोमपुराजीने मध्यकालीन वास्तुशास्त्र अध्ययनके लिए हमारे सामने एक दृष्टिबिंदु रखा है जिसे ध्यानमें रखकर चलनेसे यह पता चलता है कि देवालयोंके जो नकशे, अवयव तथा अलंकार हमारे सामने आते हैं उनमें सार्थकता है और उनकी कृति वास्तुशास्त्रके उन सिद्धांतों पर आश्रित है जिनका क्रमिक विकास हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि मध्यकालीन वास्तुशास्त्रके अनेक अभिप्राय समायान्तरमें रुदिगत होकर अपनी नवीनता खो बैठे, पर यह बात केवल वास्तुशास्त्रों तकका सीमित नहीं थी। मध्यकालीन भारतीय संस्कृतिके अनेक उपादानों में भी हमें यही बात दीख पड़ती है।
शास्त्ररूपमें वास्तुविद्याका उदय कब हुआ, यह कहना तो संभव नहीं । है। फिर भी प्राचीन साहित्य में वास्तु संबंधी चाहे वह दैविक हो या नागरिक अनेक उदाहरण मिलते हैं। वैदिक साहित्यसे ऐसे उदाहरणों का संग्रह श्री, सुविमलचन्द्र सरकारने अपनी पुस्तक "सम ऑसपेक्टम् ऑफ दी अलियेस्ट सोशियल हिस्ट्री ओफ इंडिया" में कर दिया है । वैदिक शास्त्रोंमें वास्तुशास्त्र संबंधी शब्द सीधे सादे हैं । पर वास्तुका जीवनसे इतना निकटका संबंध था कि वास्तु संबंधी प्रक्रियायोंके लिए वास्तुयाग और वास्तुनरकी कल्पना की गई । आश्वलायन (४/२/६/१३) गोभिल (४/८) तथा आपस्तंब (६/१६) गृह्यसूत्र तो भूमि शोधन संबंधी नियमोंका विवेचन करते हैं, तथा वास्तुशांतिका उल्लेख करते हैं। ऋग्वेदमें वास्तोत्पति शायद वास्तुके अधि देवता थे, जो गृह्यसूत्रोंमें वास्तुपुरुष हो गये । सूत्रोंके आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक मध्य स्तंभका आधार मानकर ही गृहकी रचना होती थी।