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थीं, जिनमें नागदंतोसे किंकिणी घंटाजाल तथा चित्रविचित्र सूत्रमालाएँ लटकी होती थी। कुछ निशीदिकाओंमें शालभंजिकाएँ बनी होती थीं। द्वार, तोरण, स्तम्भ तथा प्राकारकी बनावटमें जाल कटक, प्रासादावतंसक, शिखर, जालिका, तिलक, अर्धचन्द्र, पद्महस्तक, तुरग, मकर, किंपुरुप, गंधर्व, वृषभ, मिथुन, संघाद, इत्यादिका भी स्थान होता था।
पर गुप्त युगमें वास्तुकलाने एक दूसरा ही रूप ग्रहण किया । उस युगके साहित्यमें वास्तुविद्या संबंधी शब्दोंका खुलकर प्रयोग हुभा जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है, कि गुप्त युगमें वास्तुशास्त्रका प्रणयन हो चुका था । तथा कमसे कम नागरिक वास्तुकला अपनी काफी परिष्कृत रूपमें प्रकट हो चुकी थी। इस युगमें देवमंदिरोंका सीधासाधा आकार हमारे सामने आ चुका था जिसमें स्थापत्य, मूर्ति तथा अभिप्रायका एक अपूर्व संतुलन था । पर जैसे जैसे मंदिरोंकी बनावट पेचीदा होती गई, वैसे ही वैसे स्थपतियों और सूत्रधारोंको स्थापत्यके बहुतसे प्रों पर विचार करना पड़ा, जिसके फलस्वरुप गणित तथा ज्यामितिक आधारों पर भारी भारी प्रस्तर शिलाओंको लगानेके तरकीबों का समाधान हुआ । वास्तुशास्त्रके विकास के साथ ही साथ उसके पारिभाषिक शब्दोंका भी क्रमशः विकास हुआ और मंदिर के अवयवों और अलंकारोंके लिये भी शब्द स्थिर हुए। वराहमिहिरने बृहत्संहिता ५६/१५ में लिखा है।।
__ शेष माङ्गल्यविहगैः श्रीवृक्षैः स्वस्तिकैर्घटैः
मिथुनः पत्रवल्लीभि प्रमथैश्चोपशोभयेत् ॥१५॥ इसके पहले इलोकमें द्वारके दोनों द्वारशाखामें द्वारपालोंका उल्लेख है। मागल्यविहग, श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, कुंभ, मिथुन (स्त्री-पुरुष युग्म), पत्रवल्ली
और प्रमथ तो गुप्त युगके वास्तु-अलंकारकी विशेषता है ही, और इस युगके , मध्यप्रदेशके गुप्त मंदिरोंमें पाए जाते हैं। इन अलंकारोंका प्रयोग कुषाण युगमें भी होने लगा था, पर इनका परिष्कृत प्रयोग गुप्त युगमें ही हुआ। . .अब एक प्रश्न उठता है कि गुप्तकालके मंदिरों पर बनी हुई गंगा यमुनाकी मूर्तियोंका जिसका कालिदासने यथार्ते च गंगे यमुने तदानी स चामरे देवमसेविषाताम् ।' कुमारसंभव, ७-४२ में उल्लेख किया है। बृहत् संहिताने क्यों छोड़ दिया है ? इसका कारण वही हो सकता है कि, तबतक गंगा यमुनाकी मूर्तियोंका तत्कालीन वास्तुमें सम्मत प्रयोग न रहा हो । पर चन्द्रगुप्त द्वितीयके समयमें श्यामिलक हरा विरचित पादताडितकम् (डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल डॉ.मोतीचन्द्र, चतुर्भाणी, पृ. २१२) से तो पता चलता है कि