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गुप्त युग में गंगा-यमुना संज्ञक मंदिर बनने लगे थे । इलोराके कैलासके एक भाग में ऐसाही मंदिर है । पादताडितक्रम् में (पृ. १७१ - ७२ ) देश के महलोंके वर्णनमें एक परिभाषिक शब्दोंकी लंबी तालिका यह बतलाती है कि, इस युग में भी नागरिक वास्तुशास्त्र की परिभाषा काफी प्रचलित हो चुकी थी- विद कहता है
"मैं वेशमें पहुँच गया । अहा, वेशकी बैसी अपूर्व शोभा है । यहाँ अलग अलग बने हुए वत्र ( मकानकी कुर्सीका ऊँचा चेजा ), नेमि ( दीवारों की नींव ) साल (परकोटा ), हर्म्य ( ऊपरी तलके कमरे ), गोपानसी ( खिड़की की चोटी ), वलभीपुट ( मंडपिका और उसकी उभरी छत ), अट्टालक ( अटारी ), अवलोकन ( गोख ), प्रतोली (पौर ), तथा विटंक ( पक्षियोंके लिए छतरी ) तथा प्रासादों से भरे हुए चौड़े चौक वाले तथा कक्ष्या विभाग में घंटे हुए, सुनिर्मित, जलपूर्ण परिखाओं से युक्त, छिड़काव से सुशोभित, नलकी फूंक से साफ किए हुए ( सुषिर फूत्कृत ), उत्कोटितलिप्त ( टपरियाका पलस्तर किए हुए ), लिखित ( चित्रकारी किए हुए ), स्थूल और सुक्ष्म नकाशियों से सजाए हुए (सूक्ष्म विविक्ता रूपशत निबद्धानि ). बंध - संधि, द्वार, गवाक्ष वितादि ( वेदिकाका चबुतरा ), संजवन ( चतुःशाल घरका बडा चौक ) तथा वीथी और निर्यूहों (निकली हुई वेदिकाओं वाले छज्जो ) से संयुक्त थे...." ।
इस तालिका में शिखर शब्द उल्लेखनीय है । लगता है गुप्त युग में किसी न किसी रूप में शिखर प्रचलित हो चुका था, पर इसका पूर्ण विकास मध्यकाल ही में हुआ । इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि साहित्य में बिखरे हुए वास्तुशास्त्रकी परिभाषाऐं इकट्ठी की जायें क्यों कि साहित्यकारों द्वारा इन शब्दोंकी परिभाषाएं निखरी हुई होती हैं तथा स्वकालीन वास्तुका जीवित चित्र खींच देती हैं । ऐसे जीवित चित्र हमें वास्तुविद्या संबंधी ग्रंथों में भी नहीं मिलते क्योंकि उनमें शास्त्रीय पक्ष पर ज्यादा ध्यान दिया गया है और व्यावहारिक पक्ष पर कम । इस दिशा में डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल का प्रयत्न स्तुत्य था; पर अब वे नहीं रहे । इस लिये यह आवश्यक है किं संस्कृत - प्राकृत- अपभ्रंश और प्रादेशिक भाषाओंके साहित्यकी पूरी तरह से खोज बीन करके वास्तुविद्या संबंधी शब्द इकट्ठे किये जायें । इससे दो लाभ होंगे। पहला तो यह कि वास्तुशास्त्र में वर्णित पारिभाषिक शब्दों की टीकाके रूपमें ये काम देंगे और दुसरी और वे हमें यह भी बतायेंगे कि उन शब्दों के प्रयोग के अर्थ एकसे रहे हैं अथवा बदले भी हैं ।
प्राचीन शिल्पशास्त्रोंका अध्ययन करना उतना आसन नहीं है जितना कि समझ लिया जाता है क्योंकि न केवल शिल्प संबंधी ग्रंथोंकी भाषा ही दुरूह है परंपरा नष्ट हो जानेसे उनका ठीक ठीक अर्थ भी नही लगता । उन पर टीकाएं भी उपलब्ध नहीं हैं, जिससे उनके समझने में कुछ सहारा मिल सके । उदाहरणार्थ डॉ० आचार्य " मानसार " को वास्तुविद्याका आदिम स्त्रोत मानते