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है और उनका विश्वास है कि जो कुछ भी सामग्री उसमें सुरक्षित है, वह प्राचीन और विश्वसनीय है । पर दूसरा मत है कि मानसारकी सामग्रीका संग्रह बहुत बाद में दक्षिण भारत में हुआ और इसमें भी अधिक सामग्री केवल शास्त्रीय है जिसका वास्तविकता से संबंध नहीं है । वास्तव में वास्तुविद्याकी खोज परख से यह पता चल जाता है, कि उत्तर और दक्षिण भारत में वास्तुकी परिवृद्धि अपने ढंगसे हुई क्यों कि इनके विकास में बहुत कुछ समानताएं भी हैं। अब समय आ गया है कि उत्तरी और दक्षिणी शैलियोंका संश्लेषणात्मक विवेचन करते हुए यह दिखलानेका प्रयत्न किया जाय कि किन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा भौगोलिक परिस्थितियों के कारण उत्तर
और दक्षिण भारत के वास्तु में अंतर आया तथा भाषाओंकी भिन्नता होते हुए दोनो की परिभाषाओं में कितनी समानता है।
पर जिस तरह के अध्ययनकी ओर मैंने इशारा किया है वह तक संभव नहीं जब तक श्री सोमपुराजी ऐसे विद्वान जिनका परंपरासे सीधा संबंध रहा है इस कामको अपने हाथ में न लें क्योंकि विश्वविद्यालयों से निकले विद्यार्थी जिन्होंने प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र लिया है न तो वे संस्कृत जानते हैं न उन्हें परंपरागत वास्तुकलाका ही ज्ञान होता है। श्री० सोमपुराजी द्वारा "क्षीरार्णव" के अध्ययनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है । इस ग्रंथकी भी भाषा समझकर उसका ठीक ठीक अर्थ करना तथा तत्कालीन मंदिरोंके अवयवोंसे उस परिभाषाकी तुलना करना उन्हींका काम है । ग्रंयके संपादनमें पग पग पर उनकी अध्ययनशीलताका पता लगता है । अनेक स्थलों पर रेखा चित्र तथा नकशोंने तो सोने में सुहागेका काम किया हैं । ऐसे अपरिचित कामको हाथमें लेने में विद्वान लेखकको किन किन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा होगा वे ही जानते हैं। पर वे इस कहावतके कायल है । प्रारभ्य चोत्तमजनाः न परित्यजन्ति । अंतमें श्री० सोमपुराजी का ध्यान एक बातकी ओर दिलाना चाहता हूँ । ग्रंथों में अनेक परिभाषाएँ आई है । उनका बहुधा आपस में सामंजस्य नहीं मिलता । प्राचीन मंदिरोंके अवयवोंके निश्चित परिभाषाओं के लिये यह आवश्यक है कि शब्दों में एकरूपता लाई जाय । मेरा यह भी सुझाव है कि भारतीय वास्तुकोशका संकलनका भी आरंभ कर दिया जाय । ऐसे. कोशके लिए वास्तुशास्त्रके ज्ञाताओं, पुरातत्वज्ञविदों तथा धर्म और समाज शास्त्रोंका सहयोग आवश्यक है । सुना है कि बनारसकी अमेरिकन एकेडेमी इस ओर प्रयत्नशील है। विद्वानों को चाहिए कि इस कार्यमें एकेडेमी का हाथ बटावें । लिम्स ऑफ वेल्स म्यूजियम, । बंबई-१ ता. ३-४-६७
मोतीचंद्र